सबकी अपनी अपनी सोच है, विचारों के इन्हीं प्रवाह में जीवन चलता रहता है ... अविरल धारा की तरह...
Thursday, August 29, 2013
गरीब लोग हैं भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए संकट!
सत्येन्द्र प्रताप सिंह
भारत की अर्थव्यवस्था संकट में है। शेयर बाजार लहूलुहान है। रुपया गिरकर न्यूनतम स्तर पर है। कहा जा रहा है कि सरकार की सभी कोशिशें नाकाफी साबित हो रही हैं। अब यहां तक कयास लगने लगे हैं कि क्या केंद्र सरकार आर्थिक आपातकाल घोषित करेगी!
भारत की अर्थव्यवस्था की मौजूदा दुर्दशा की नींव 1998 के संकट के दौरान ही पड़ गई थी, जब केंद्र सरकार ने अमेरिकी मंदी के दौरान आए संकट से निपटने के लिए धन प्रवाह बढ़ाया। इसके असर से चालू खाता घाटा और राजकोषीय घाटा बढ़ गया। कर्जमाफी सहित तमाम उपायों से लोगों के पास पैसे आए और बाजार चल पड़ा। उस समय सरकार ने स्थिति संभाल ली।
धन के प्रवाह और लोगों की क्रय शक्ति बढऩे से जब महंगाई दर बेकाबू होने लगी तो सरकार ने लगातार नीतिगत दरों में बढ़ोतरी कर धन का प्रवाह रोकने की कोशिश की। परिणामस्वरूप कर्ज महंगा हुआ। इसका असर सीधे सीधे कारोबार पर पड़ा और उद्योग की रफ्तार मंद पड़ गई।
वित्त मंत्री पी चिदंबरम के संसद में दिए गए बयान से लगता है कि वह इस बात से खासे दुखी हैं कि 2009 से 2011 के बीच में सरकार ने इस संकट को रोकने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए। उस समय मौजूदा राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी वित्त मंत्री थे। मौजूदा अर्थव्यवस्था कहती थी कि उन्हें सार्वजनिक उपक्रमों को बेचकर धन जुटाना चाहिए था, जिसे चालू खाता घाटा कम होता, लेकिन मुखर्जी के कार्यकाल में ऐसा नहीं हुआ। शायद यही बात मौजूदा वित्त मंत्री को कचोट रही है।
वहीं प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के पास भी कोई अलग आर्थिक नीति नहीं है। उसका कहना है कि सरकार में साहस नहीं है। शायद उन अर्थों में कि उसे साहस दिखाकर अलग विनिवेश मंत्रालय बनाकर सार्वजनिक संपत्तियां ज्यादा से ज्यादा निजी हाथ सौंपनी चाहिए, जिससे ज्यादा से ज्यादा धन आए। बाजार में विश्वास बहाल हो। विदेशी संस्थागत निवेशक आएं और भारत में निवेश कर कमाई करें।
आइए सरकार की प्रमुख समस्याओं पर बात करते हैं। वित्त मंत्री कहते हैं कि 10 सूत्री कार्यक्रम लागू करने पर अर्थव्यवस्था गति पकड़ लेगी...
1- विनिर्माण क्षेत्र को दुरुस्त किया जाए
2-निर्यात को प्रोत्साहन
3-निवेश को बढ़ावा
4-राजकोषीय और चालू खाता घाटे को दुरुस्त करना
5-पीएसयू का पूंजीगत व्यय बढ़ाना
6-सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का पुनर्पूंजीकरण (उन्हें धन देना)
7-कोयले की आपूर्ति के मसले को हल करना
8-लौह अयस्क आयात प्रतिबंध से निपटना
9-पर्यावरण मंजूरी संबंधी समस्या
10-भूमि अधिग्रहण की दिक्कतें दूर की जाएं
इसमें ऊपर के चार सुझाव तो सैद्धांतिक हैं। पीएसयू का पूंजीगत व्यय बढ़ाने से ज्यादा सरकार का जोर उनके विनिवेश पर है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को और अधिक धन देने के उपाय करने से सीधा आशय नीतिगत दर दुरुस्त करना है, जिससे बैंकों के पास ज्यादा धन आए।
हाल के दिनों में खनन को लेकर न्यायालय ने अति सक्रियता दिखाई है। इसका परिणाम हुआ है कि कोयले और लौह अयस्क का खनन रुक सा गया है। लौह अयस्क राजस्व का बड़ा साधन होने के साथ साथ कमाई का जरिया भी है। साथ ही कोयले की आपूर्ति में ठहराव के चलते बिजली परियोजनाएं रुकी पड़ी हैं। अब सरकार के पास धन जुटाने का सिर्फ और सिर्फ एक तरीका है... अधिक से अधिक बिक्री। चाहे वह प्राकृतिक संसाधनों की बिक्री हो, या सार्वजनिक उपक्रमों की।
भूमि अधिग्रहण संबंधी दिक्कतों ने भी सरकार को काफी परेशान किया है। एक तरफ तो भूमि अधिग्रहण विधेयक लाकर किसानों को बेहतर संरक्षण देने की बात हो रही है, वहीं उद्योग जगत को सस्ती जमीन देने का भी दबाव है, जिससे विदेशी निवेशक आकर्षित हो सकें। उड़ीसा में पोस्को के मामले को ही लें। जमीन अधिग्रहण में आ रहे संकट की वजह से परियोजना में देरी हो रही है। इसमें न्यायालय ने खासा अड़ंगा डाल रखा है। न्यायालय के आदेश के बाद स्थानीय लोगों की बैठक कर जमीन अधिग्रहण पर चर्चा हुई तो लोगों ने भूमि अधिग्रहण को सिरे से खारिज कर दिया। यहां तक कि हर पंचायत की बैठक में इसे खारिज किया गया। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि सरकार सार्वजनिक संपत्तियों को अधिकाधिक निजी हाथों में सौंपकर धन कैसे जुटाए?
लहूलुहान बाजार और अर्थव्यवस्था के संकट के बीच प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी को एक ही उपाय दिखता है कि मौजूदा सरकार हट जाए। इसके अलावा उसके पास कोई सुझाव नहीं है कि जनपक्षधरता और कारोबार के बीच संतुलन कैसे स्थापित किया जाए। कांग्रेस की मौजूदा सरकार इसी उहापोह में फंसी है। एक तरफ मौजूदा वित्त मंत्री 60 प्रतिशत आबादी को भुलाकर कारोबार मजबूत करने के पक्ष में हैं, वहीं कांग्रेस में एक बड़ा तबका खाद्य सुरक्षा विधेयक जैसी घाटेदार योजना के जरिये आम लोगों तक भी कुछ पहुंचाने की कवायद में है।
भारतीय जनता पार्टी के सामने आम जनता तक कुछ पहुंचाने का संकट नहीं है।
पिछले 3 महीने के दौरान रुपये और शेयरबाजार के लहूलुहान होने के पीछे विदेशी संस्थागत निवेशकों की भूमिका प्रमुख मानी जा रही है। 2008 के बाद पहली बार 3 महीने लगातार एफआईआई ने बिकवाली की है। पिछले 3 महीने में निफ्टी 12 फीसदी गिरा है। क्यूई3 वापस होने का डर, कमजोर रुपया और चालू खाता घाटे का डर बाजार पर हावी है। एफआईआई भारतीय बाजार से दूर हो रहे हैं इसके पीछे कई कारण हैं। अमेरिकी बॉन्ड में बेहतर रिटर्न, अमेरिका, यूरोप, जापान की अर्थव्यवस्था सुधरने और कमजोर रुपये ने एफआईआई का भरोसा तोड़ा है। ऊंचे चालू खाता घाटे से रेटिंग घटने का डर छा गया है और खाद्य सुरक्षा विधेयक से वित्तीय घाटे की चिंता बढ़ गई है। एफआईआई ने जून में 9319 करोड़ रुपये, जुलाई में 7120 करोड़ रुपये और अगस्त में अब तक 3,749 करोड़ रुपये की बिकवाली कर ली है।
लेकिन क्या 20,000 करोड़ रुपये की बिकवाली ही इस गिरावट की एकमात्र वजह है? शायद रुपये की इतनी अधिक बदहाली इसलिए भी हो रही है कि पैसे वाले लोग अपने धन को विदेशी मुद्रा खासकर डॉलर में सुरक्षित कर रहे हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था की घरेलू मांग नहीं बढ़ रही है। इसके चलते उनका विश्वास डिगा है। सरकार अमीर लोगोंं के प्रोत्साहन में ही अर्थव्यवस्था की भलाई देखती है, यह भी एक वजह है, जिससे आर्थिक दुर्दशा हो रही है। माना जा रहा है कि कर रियायतों के रूप में सरकार उन्हें हर साल 5 लाख करोड़ रुपये से अधिक के प्रोत्साहन दे रही है। बाजार से भरोसा उठने के बाद अब धनवान अपने धन को स्वर्ण, विदेशी मुद्रा और अचल संपत्तियों में सुरक्षित कर रहे हैं।
मौजूदा खुली अर्थव्यवस्था कहती है कि 10 प्रतिशत लोगों को अमीर बनाया जाए और उन्हें ही सारी सुविधाएं दी जाएं। बाकी लोगों को इन अमीरों के पैसे में से छनकर कुछ मिल जाएगा। निश्चित रूप से मौजूदा कांग्रेस सरकार इसमें विफल रही है और वह जनपक्षधरता और पूंजी पक्षधरता के बीच फंसी हुई है। इन दोनों के बीच संतुलन बिठाने की नाकामी अब संकट के रूप में नजर आ रही है।
Thursday, June 20, 2013
इतना आसान नहीं विकास बनाम विनाश का मुद्दा
Friday, April 5, 2013
आप कब शादी करेंगे...
सत्येन्द्र प्रताप सिंह
आप कब शादी करेंगे... इस सवाल पर साक्षात्कार की किसी किताब में हॉलीवुड के किसी फिल्मी सितारे के साक्षात्कार का एक अंश याद आया। एक बड़े अखबार (वाशिंगटन पोस्ट या न्यूयार्क टाइम्स) एक बड़े पत्रकार ने ६ महीने के अथक प्रयास के बाद फिल्मी सितारे के साथ साक्षात्कार के लिए अवसर पाया। वह भी ४५ मिनट की कार यात्रा के दौरान। पत्रकार महोदय ने किसी महिला का नाम लिया और कहा कि उसके साथ आपके अफेयर के बारे में चर्चा सुन रहा हूं।
फिल्मी सितारे ने करीब शहर से २५ किलोमीटर दूर उस पत्रकार को गाड़ी से उतार दिया। उसके पहले उसने भला बुरा भी कहा कि पूरी दुनिया मुझे फिल्म जगत की समझ के बारे में जानती है और तुम अफेयर के बारे में जानकारी चाह रहे हो?
बहरहाल... भारत में यह आम है। अमिताभ से लेकर ऐश्वर्य राय और राहुल गांधी तक इस तरह के सवाल झेलते हैं।
देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखे जा रहे राहुल गांधी से यह सवाल पूछा जाना तो निहायत गैर जरूरी लगता है कि वे किससे शादी करेंगे। किस महिला के साथ राहुल यौन संबंध बनाएंगे, अगर शादी हुई तो कितना समय बीवी के साथ बिताएंगे, पेट में दर्द होने पर वे कौन सी गोली खाते हैं। दिन में कितनी बार पाखाना जाते हैं। सुबह के नाश्ते में क्या खाते हैं, इस तरह के सवाल राजनेता से पूछने का कोई खास मतलब समझ में नहीं आता।
फिक्की के कार्यक्रम में राहुल ने एक बार फिर ऐसे सवालों पर गुस्सा जताया कि आप शादी कब करेंगे, आप प्रधानमंत्री कब बनेंगे। शायद उन्हें भी लगता होगा कि किस तरह की मानसिकता भारत में विकसित हुई है। लोग ऐसे मसलों पर ज्यादा चिंतित रहते हैं, जिसका उनकी जिंदगी से कोई लेना देना नहीं है।
राहुल गांधी लंबे समय से राजनीति में हैं। देश के विभिन्न इलाकों का दौरा कर रहे हैं। सिर्फ किताबी और लोगों की सुनी सुनाई ही नहीं, बल्कि वे हकीकत के भारत को समझने की कोशिश में लगे हैं। ऐसे में उनसे वैश्विक पटल में भारत की परिकल्पना, देश के विकास का खाका, आगामी २० साल में भारत का विजन, युवकों की स्थिति, बढ़ती जनसंख्या आदि मसले हैं। इसके अलावा देश के विभिन्न इलाकों के लंबे दौरे, कार्यकर्ताओं से मुलाकातों, आम लोगों की प्रतिक्रिया का राहुल पर क्या असर पड़ा है, पहले उनकी क्या सोच थी, अब उनके अंदर क्या क्या बदलाव आए हैं आदि आदि... ऐसे हजार सवालों की सूची बन सकती है, जो राहुल गांधी के लिए नहीं बल्कि भारत के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। ये सवाल पूछे ही जाने चाहिए और बहुत बेरहमी से पूछे जाने चाहिए।
हें हें हें हें पत्रकारिता में इस तरह के सवाल पूछने कठिन तो हैं, लेकिन शायद राहुल गांधी भी निश्चित रूप से अनुभव करते होंगे कि ये सवाल जरूरी हैं, जो उनसे पूछे जाने चाहिए।
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