Thursday, June 20, 2013

इतना आसान नहीं विकास बनाम विनाश का मुद्दा


सत्येन्द्र प्रताप सिंह
पहाड़ पर बढती आबादी। सुविधाएं बढाने का दबाव। हर आपदा के बाद मसला उठता है प्रकृति के साथ खिलवाड़ का!
तो क्या लोगों को केले के पत्ते लपेटकर जंगल में घूमने के लिए छोड़ दिया जाए! अभी उत्तराखंड में पनबिजली परियोजनाओं पर रोक का विरोध हो रहा था, सरकार ने कहा कि ढील दी जाएगी। आफत आई तो फिर मसला उठा कि अनियंत्रित विकास हो गया!
कोसी में बाढ़ आई थी तब भी यह मसला उठा था कि तटबंध बनाकर नदी को रोकना गलत है। लोगों को नदी की चाल के साथ जीने दिया जाए। कोसी में बारिश के दिनों 30 % सिल्ट आती है और नई नदी होने के कारण उसकी चाल इतनी खराब है कि तटबंध न होता तो हर साल एकाध किलोमीटर खिसक जाती! तो क्या वहां सडक, अस्पताल, स्कूल न बनाए जाएँ और लोगों को हर साल बाढ़ में डूबने उतराने दिया जाए! उत्तराखंड हिमाचल में भूस्खलन, बाढ़, और बिहार की बाढ़ की मुख्य वजह हिमालय पहाड़ का नया होना भी माना जाता है, जिसके चलते नदियों में सिल्ट आता है और ज़रा सी तेज बारिश पर पत्थर सरकने लगते है।
इस बीच हम पूर्वोत्तर राज्यों में ब्रह्मपुत्र नदी से हर साल होने वाली तबाही, भूस्खलन से होने वाली मौतों पर कान देना भी पसंद नहीं करते। शायद इसकी वजह ये है कि उधर के लोगों की चाइनिज की तरह शक्ल ओ सूरत है। हम उन्हें भारतीयके रूप में स्वीकार नहीं करते।दिल्ली में उन्हें चिंकी-चिंका कहते हैं। सेक्स सिम्बल के रूप में वहा की लडकियों को भूखी नजर से देखते हैं!
विकास बनाम विनाश का मुद्दा इतना आसान नहीं है, जितना इसका सरलीकरण किया जाता है।

2 comments:

अनूप शुक्ल said...

जायज बात!

प्रवीण पाण्डेय said...

सोच समझ कर ही कार्य हो, विनाश को विकास बताकर नहीं और विकास को विनाश बताकर भी नहीं।