Sunday, September 27, 2009

सुखी दांपत्य जीवन की बचत योजना

विवाह के बाद जिम्मेदारियां तो बढ़ती ही हैं, साथ ही भविष्य को बेहतर बनाने के बारे में भी सोचना होता है


मनीष कुमार मिश्र




प्रत्येक व्यक्ति इस बात से सहमत होगा कि विवाह के बाद चाहे स्त्री हो या पुरुष दोनों के जीवन में महत्वपूर्ण परिवर्तन आते हैं। यह परिवर्तन आर्थिक, सामाजिक और भावनात्मक होते हैं।
विवाह के बाद स्त्री-पुरुष परस्पर एक दूसरे के सुखों और खुशियों की जिमेदारी उठाते हैं और उनकी पूरी कोशिश होती है कि इसमें कोई कमी न रह जाए। हम केवल इसके आर्थिक पक्ष की बात करेंगे। सफल विवाह का एक महत्वपूर्ण तत्व, मिल-जुलकर धन का प्रबंधन करना है।
यह मायने नहीं रखता कि आप उम्र के किस पड़ाव में हैं। कोई भी महत्वपूर्ण वित्तीय निर्णय अगर आपस में बातचीत करने के बाद लें तो जीवन सुखमय रहेगा और एक दूसरे के प्रति प्यार और आदर का भाव भी जीवंत बना रहेगा।


विवाह से पहले यदि आप अपने माता-पिता के साथ रहते थे तो आपको केवल फोन के बिल और अपने खर्चों की व्यवस्था करनी पड़ती रही होगी। अब आपके ऊपर ही परिवार की पूरी जिम्मेदारी है।

छुट्टियां मनाने जाना चाहते हैं? उससे पहले आपको यह सुनिश्चित करना होगा कि क्या आपके बैंक के जमा खाते में इसके लिए पर्याप्त पैसे हैं। विवाह के बाद वित्तीय जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं और ऐसी परिस्थिति में पैसे बचाना उतना आसान नहीं होता है। न ही यह स्वयमेव शुरु होने वाली चीज है। इसके लिए आपको दृढ़ निश्चय करने की जरूरत है। अगर आप शुरु से ही बचत-प्रेमी हैं तो शादी के बाद भी नियमित बचत के अनुशासन को मत छोड़ें। इसकी एक युक्ति है। आप खुद को थोड़ा अधिक व्यवस्थित करते हुए वास्तविक वित्तीय योजना बनाने की शुरूआत करें।


जहां पहले आपकी बचत का लक्ष्य केवल बचत और निवेश करना था, वहीं अब परिवार के भविष्य को देखते हुए वित्तीय योजना बनाने का समय है। इसलिए पति-पत्नी दोनों को मिलकर निवेश की योजना बनानी चाहिए। योजना ऐसी हो जिससे दोनों को ही फायदा भी हो और राहत भी मिले।


कैसी हो वित्तीय योजना
सर्वप्रथम आपको यह देखने की जरूरत है कि आपका पर्याप्त बीमा है या नहीं, खासतौर पर तब जब आपकी पत्नी (या पति) आप पर आर्थिक रूप से निर्भर है। पति या पत्नी के नौकरीपेशा होने के बावजूद यह न भूलें की आपकी कमाई का एक महत्वपूर्ण हिस्सा घरेलू खर्चों और ऋण की अदाएगी के लिए है।
आपको यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि आपने पर्याप्त बीमा लिया हुआ है, ताकि आपके साथ किसी प्रकार का हादसा (मृत्यु) हो जाने की दशा में आपके पति या पत्नी को आर्थिक कष्ट न झेलना पड़े और घर के मासिक खर्च के अलावा अन्य आर्थिक जिम्मेदारियों का निर्वाह करने में भी उसे कोई बाधा न आए। इसके लिए आप समय-समय पर अपने बीमा की जरूरतों का पुनर्आंकलन भी करते रहें।
उदाहरण के लिए मान लेते हैं कि आपका जीवन बीमा 10 लाख रुपये का है और आपकी पत्नी भी नौकरी करती हैं। जब आप पिता बनते हैं तो कुछ वर्षों के लिए उन्हें ऑफिस से छुट्टी लेनी पड़ेगी। अब घर के कमाऊ सदस्य केवल आप हैं।


मां और बच्चा दोनों की जिम्मेदारी आपके ऊपर है। ऐसे में आपको अपनी बीमा जरूरतों का फिर से आकलन करने की जरूरत है। अपने बचत करने के लक्ष्यों की एक सूची बनाएं और प्रत्येक लक्ष्य के लिए एक समय-सीमा का निर्धारण करें। इससे आपको अपने निवेश को सार्थक तरीके से आवंटित करने में मदद मिलेगी। यह मत भूलिए कि इन सबमें आपके परिवार की भलाई छिपी है।


लक्ष्य का निर्धारण जरूरी
मान लीजिए कि खास समय सीमा में आपने अपने लिए तीन लक्ष्य निर्धारित किए हैं-
आप कुछ महीनों के अंदर अपना घर खरीदना चाहते हैं जिसके लिए डाउन पेमेंट की व्यवस्था करनी है। यह आपकी तात्कालिक जरूरत है जिसकी पूर्ति आप अपने बचत खाते में जमा की गई राशि से या नकदी-कोष से कर सकते हैं।


आपकी इच्छा है कि आप जीवन-साथी के संग छुट्टियां मनाने जाएं - इसके लिए की जाने वाली बचत को अल्पावधि के ऋण फंड में डाल देना चाहिए। अगर आप दो-तीन वर्षों में छुट्टियां मनाने जाना चाहते हैं तो बैंक की सावधि जमा या इनकम फंड में पैसे डाल सकते हैं।


रिटायरमेंट फंड - रिटायरमेंट के लिए धन-कोष इकट्ठा करने के लिए सबसे बढ़िया विकल्प है इक्विटी में निवेश, अगर आप 20 या 30 के दशक में हैं।
आपके पोर्टफोलियो में ऋण और इक्विटी संतुलित रूप में होने चाहिए। अगर आपका लक्ष्य 7 वर्ष या उससे अधिक समय सीमा का है तो इक्विटी में निवेश करना ज्यादा तर्कसंगत है। लेकिन पोर्टफोलियो को संतुलित रखने के लिए ऋण का एक छोटा हिस्सा भी होना आवश्यक है।


अगर आप विशुद्ध ऋण फंड में निवेश नहीं करना चाहते हैं तो 10-15 प्रतिशत निवेश की जाने वाली राशि का आवंटन बैलेंस्ड फंड में कर सकते है। आपको ऋण इक्विटी संतुलन पर तब ज्यादा गौर फरमाने की जरूरत है जब आपने पब्लिक प्रोविडेंट फंड, कर्मचारी भविष्य निधि, राष्ट्रीय बचत प्रमाण-पत्र या किसान विकास पत्र में निवेश पहले से किया हुआ है।
विवाह के बाद जिम्मेदारियां तो बढ़ती ही हैं साथ ही भविष्य के बारे में भी सोचना होता है। बचत अचानक नहीं शुरू हो सकती, इसके लिए दृढ़प्रतिज्ञ होना जरूरी है।

Wednesday, September 23, 2009

समाजवाद से आएगी समानता

सत्येन्द्र प्रताप सिंह

यह किताब उस दौर के विभिन्न पहलुओं की मार्क्सवादी सोच को दिखाती है, जब भारतीय जनता पार्टी का शासन था।
गुजरात से लाल कृष्ण आडवाणी की शुरू हुई रथयात्रा और उसके बाद हुए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बाद भाजपा के उभार और केंद्रीय सत्ता में पहुंच जाने के बाद संसद से लेकर सड़क तक जो बदलाव हुए, उसका क्रमवार विवरण और जनमानस द्वारा भाजपा को नकारे जाने तक के मार्क्सवादी नजरिए को पुस्तक में पेश किया गया है।
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी पोलित ब्यूरो के सदस्य सीताराम येचुरी ने इस दौरान विभिन्न लेखों से अपनी पार्टी की विचारधारा और पूंजीवादी मुहिम के खिलाफ विभिन्न लेखों में अपने विचार लिखे, उन्हीं लेखों को 22 अध्याय में प्रकाशित कर पुस्तक का रूप दिया गया है।
पुस्तक की शुरुआत भारतीय गणतंत्र : चुनौतियां और समाधान नामक अध्याय से शुरू होता है, जो इस पुस्तक का नाम भी है। लेखक के विचार से भारतीय गणतंत्र की 53वीं सालगिरह के अवसर पर राष्ट्रपति के अभिभाषण में शहरी सुविधाओं को ग्रामीण भारत तक पहुंचाने के विजन 2020 को पेश करना एक ऊंचे मंसूबे की घोषणा मात्र है।
तीव्र विकास के हसीन सपने दिखाए जा रहे हैं और जनता की शिक्षा स्वास्थ्य और खाद्य सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में अपनी जिम्मेदारियों से शासन हाथ खींच रहा है। लेखक ने जनता से इन नीतियों के खिलाफ एकजुट होने का आह्वान किया है।
इसके बाद के 13 अध्यायों में केंद्र में उस दौरान सत्तासीन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के चाल-चरित्र के बारे में चर्चा की गई है कि किस तरह से सरकार ने गुजरात में हुए दंगों के बाद नरेंद्र मोदी सरकार का साथ दिया और देश को दो धार्मिक ध्रुवों में बांट देने की कोशिश की।
गोलवरकर की पुस्तक 'मिलिटेंट हिंदुइज्म इन इंडिया- ए स्टडी आफ द आरएसएस' का जिक्र करते हुए लेखक ने यह समझाने की कोशिश की है कि किस तरह से केंद्र की राजग सरकार फासीवादी तरीके से सरकार चलाने और जनता के बुनियादी अधिकारों को छीनने की कोशिश कर रही थी।
पुस्तक में विनिवेश के माध्यम से सरकारी उपक्रमों का निजीकरण किए जाने का पुरजोर विरोध किया गया है। तत्कालीन रक्षामंत्री और राजग संयोजक जॉर्ज फर्नांडिस तथा आरएसएस और स्वदेशी जागरण मंच के विनिवेश के विरोध को लेखक ने नौटंकी करार देते हुए कहा है कि सत्ता में बैठे लोग फासीवादी तरकश का ही तीर छोड़ रहे हैं, जिससे विनिवेश से उपजे जनता के विरोध को कम किया जा सके।
पुस्तक के कुछ अध्यायों में स्पष्ट रूप से मार्क्सवादी विचारधारा को सरल शब्दों में समझाने की भी कोशिश की गई है कि किस तरह से पूंजीवादी व्यवस्था शोषण में जुटी है और उसका एक मात्र समाधान मजदूरों की एकता और पूंजीवाद का विरोध है। पुस्तक के आखिरी 6 अध्यायों में कम्युनिज्म के वैश्विक विरोध और पूंजीवाद को स्थापित करने की चर्चा की गई है।
साथ ही भारत में विभिन्न अखबारों द्वारा पूंजीवाद के समर्थन में लिखे गए लेखों की चर्चा है। अपनी पार्टी की विचारधारा के अनुरूप लेखक ने अमेरिकी प्रभुत्ववादी साजिशों का जिक्र किया है, जिसमें आतंकवाद के नाम पर सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका द्वारा विभिन्न देशों में आंतरिक हस्तक्षेप किया गया।
साथ ही पूंजीवाद के बेहतर होने और कम्युनिज्म के खत्म होने के प्रचार को झूठा साबित करने की कोशिशों के विरुध्द दलील दी गई है। 'क्रांतिकारी संभावना को उन्मुक्त करो' शीर्षक से प्रकाशित अध्याय में लेखक ने एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए लिखा है, 'पूंजीवादी वैश्वीकरण के दौर में असमानता और बढ़ गई है।
अमेरिकी प्रभुत्ववादी साजिशों की काट के बारे में लिखते हुए येचुरी ने यह बताने की कोशिश की है कि आतंकवाद पूरी तरह से पूंजीवाद से जुड़ा हुआ मामला है। उनका कहना है कि समाजवादी आंदोलन के खिलाफ अमेरिका ने तमाम देशों में गुट खड़े किए जो सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका के लिए ही सिरदर्द बने।
'द्विध्रुवीय शीतयुध्द के बाद अंतरराष्ट्रीय स्थिति के विकास में स्वाभाविक प्रक्रिया यह होती कि यह स्थिति बहुधु्रवीयता की ओर बढ़ती। अमेरिका ने इस स्वाभाविक प्रक्रिया को पलट दिया ताकि अपने प्रभुत्व के तहत एकध्रुवीय व्यवस्था कायम की जा सके।'
लेखक का मानना है कि ऐसी स्थिति में अमेरिका सिर्फ विश्व दारोगा की ही तरह काम नहीं करना चाहता है, बल्कि साथ साथ वह न्यायाधीश की भी भूमिका निभाना चाहता है। इसका एकमात्र समाधान समाजवाद बताया गया है, जिससे समाज में गरीबी और असमानता दूर होगी और कोई भी हथियार उठाने को विवश नहीं होगा।
विकासशील देशों में गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या बढ़कर 1.1 अरब हो गई है.... दुनिया के 50 बड़े अरबपतियों की दौलत मिलकर सहारा और अफ्रीकी देशों के सकल घरेलू उत्पाद के बराबर हो गई है, जहां 68 करोड़ 80 लाख जनता जिंदा रहने के लिए संघर्ष कर रही है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक हर साल भूख से 3 करोड़ 60 लाख से ज्यादा लोग मर जाते हैं।'
पुस्तक में ऐतिहासिक तथ्यों का भी जिक्र किया गया है कि द्वितीय विश्वयुध्द के दौरान किस तरह से फासीवाद के खिलाफ एकजुट होने में पूंजीवादी देशों ने हीला-हवाली की। मानव अधिकारों को बचाने के लिए सोवियत संघ ने कुर्बानियां दी।
बहरहाल, इस पुस्तक में पूंजीवादी व्यवस्था में बेरोजगारों की बढ़ती फौज, अस्थायी नौकरियां, आउटसोर्सिंग के माध्यम से पूंजीवाद को बढ़ावा देने का जिक्र तो है, लेकिन इसका स्पष्ट जवाब नहीं मिलता कि समाधान क्या है। 'भारतीय गणतंत्र : चुनौतियां और समाधान' पुस्तक का शीर्षक तो है, लेकिन इसमें चुनौतियों पर ही ज्यादा बल है, समाधान की राहें स्पष्ट नहीं हैं- खासकर भारत के परिप्रेक्ष्य में।

पुस्तक समीक्षा
भारतीय गणतंत्र चुनौतियां और समाधान
लेखन: सीताराम येचुरी
प्रकाशक: सामयिक प्रकाशन
कीमत: 200 रुपये
पृष्ठ: 159

Monday, September 14, 2009

ब्लॉग वार्ता : कोसी खा गई मुरलीगंज


रवीश कुमार

200 साल पुराना है मधेपुरा का मुरलीगंज बाजार। बाढ़ के कारण बड़ी संख्या में व्यापारी इलाके को छोड़ कर चले गए हैं। मुरलीगंज के काशीपुर रोड से करोड़ों रुपये का माल कोलकाता जाता था। कोसी की तबाही की कहानी फिर से इस ब्लॉग पर पसर रही है। क्लिक कीजिए http:// satyendrapratap. blogspot. com
सत्येंद्र प्रताप लिखते हैं कि ट्रक, ट्रैक्टर और बैलगाड़ियों से जाम रहने वाला काशीपुर रोड बाढ़ के एक साल बाद भी अपनी रौनक नहीं पा सकी है। वार्ड नंबर सात के किराना व्यापारी शिव कुमार भगत अपनी बर्बादी की कहानी कहना चाहते हैं।
लेकिन अब कौन सुनता है। कोसी से विस्थापित लाखों लोगों की कहानियां उनके निजी क्षणों में दफन कर दी गई हैं। सरकार के कुछेक प्रयासों की कामयाबी के बाद भी ऐसी कहानियों के लिए जगह नहीं बन पाई। नीतीश कुमार ने अपने राहत के प्रयासों से लोगों का विश्वास भले ही जीत लिया हो, लेकिन एक साल बाद भी लोगों के जहन में कोसी का पानी हिलोर मारता होगा। शायद त्रासदी की उन्हीं लहरों को पकड़ कर कथाओं में बदलने की कोशिश कर रहे हैं सत्येंद्र प्रताप।
ब्लॉग बेहतर जगह है ऐसी कहानियों को दर्ज करने के लिए। मधेपुरा से बीरपुर पहुंचते हैं तो पता चलता है कि जिन किसानों ने बैंक से कैश क्रेडिट अकाउंट लोन लिया था, उनका इस आधार पर बीमा ही नहीं हुआ। बीरपुर बाजार के 100 व्यापारी इस संकट से परेशान हैं। नियम है कि जब बैंक से लोन लेंगे तो बदले में बीमा मिलेगा। जब जयसवाल इंटरप्राइजेज के संतोष जायसवाल ने पिछले चार साल से बैंक उनकी दुकान का बीमा करा रहा था लेकिन जिस साल बाढ़ आई बीमा नहीं कराया। उस साल का नुकसान हो गया। गनीमत है कि बैंक ने इस साल का बीमा करा दिया है।
जाहिर है राज्य सरकार को अपनी नीतिगत कामयाबी के बाद व्यक्तिगत समस्याओं की तरफ भी ध्यान देना चाहिए। मुझे भी बीरपुर से फोन आते हैं कि डाक बाबू अकाउंट खोलने के पैसे मांगता है। एक डाकबाबू की इतनी हिम्मत और लोग कैसे सह लेते हैं, समझ में नहीं आता। सरकारी कर्मचारियों के साथ अपने दैनिक झंझटों को भी हर दिन मुद्दा बनाना चाहिए। ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों की कीमत मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति ही चुकाता है। लिहाजा उसे ऐसे अधिकारियों को तुरंत चलता कर देने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए।
बिहार की जनता ने यह तो बताया ही है कि भ्रष्ट रहते हुए लंबे राजनीतिक भविष्य की कामना न करें। पहली बार हो रहा है कि बिहार की नीतियों की नकल केंद्र सरकार कर रही है। अब इन नीतियों को लागू करने में भी लोगों और अफसरों को पहल करनी चाहिए। सत्येंद्र प्रताप के अलावा भी कई ब्लॉगर कोसी की कहानी लिख रहे हैं। बता रहे हैं कि राहत कार्य लूट-पाट से मुक्त नहीं है। अगर ऐसा होता तो फिर इन इलाकों में सत्तारूढ़ दल को बढ़त कैसे मिलती। जाहिर है कुछ अफसर और कर्मचारी इस तरह की हरकत कर रहे हैं।
कोसी से उजड़ें लोगों का वृतांत आगे बढ़ रहा है। बीरपुर बाजार के वीरेंद्र कुमार मिश्रा की कहानी। घड़ी की पूरी दुकान नष्ट हो गई है। टाइटन कंपनी से तीन लाख का लोन लेकर काम चला रहे हैं। अभी तक उनकी दो कारें मिट्टी में धंसी हैं। दुकान का बीमा नहीं हो सका तो पैसा मिला ही नहीं। पढ़ कर बीमा के मामले में घपला लगता है।
उनकी भी कहानी है जिन्हें सरकारी राहत से फायदा हुआ है। बलुआ बाजार के दिल्ली चौक से 15 किमी दूर एक गांव में पवन पासवान को चार हजार नगद और एक क्िवंटल अनाज मिला है। गांव में कई लोगों को मिला है। जोगी पासवान कहते हैं कि सब कुछ उजड़ जाने के बाद भी लोग गांव छोड़ कर नहीं गए। कहते हैं कि इससे पहले सरकारी मदद नहीं मिलती थी इसलिए लोग बाढ़ के बाद दूसरे शहरों में चले जाते थे। जोगी पासवान को शिकायत है तो स्थानीय जनप्रतिनिधि से। जिसने जोगी पासवान को पशु मुआवजा नहीं मिलने दिया।
सहरसा के शिवशंकर झा की कहानी डराती है। कहते हैं कि पिछली पंद्रह साल से बाढ़ की आशंका से रात की नींद टूट जाती है। इस डर के कारण शिवशंकर झा रोज तटबंध की तरफ घूमने निकलते हैं। वो खुद चेक करना चाहते हैं कि आज कोई दरार तो नहीं आई। शिवशंकर झा का डर बताता है कि सरकारों को और जागना होगा। बाढ़ का कोई हल निकालना होगा। सबकुछ केंद्र पर मढ़े जाने वाले आरोपों के सहारे नहीं छोड़ा जा सकता। बांध समाधान नहीं है। कोसी ने साबित किया है। इलाके को फिर से बसाना होगा।



साभार- http://www.livehindustan.com/news/editorial/guestcolumn/57-62-70205.html

Tuesday, September 1, 2009

जिन्ना और बंटवारे के गुनहगार

टीसीए रंगचारी
यह किताब लेखक के उस सफर का नतीजा है, जो उन्होंने भारत के बंटवारे को समझने के लिए अतीत के गलियारों में की थी। उन्होंने देखा कि जिन्ना किस तरह 'हिंदू-मुस्लिम एकता के हरकारे से 'पाकिस्तान के कायदे-आजम बन गए। लेखक को लगा कि महज सपाटबयानी के साथ तथ्यों को कागज पर उतारना ठीक नहीं, इसलिए उनके जज्बात से लबरेज है यह किताब।
जिन्ना को इतिहास की कसौटी पर कसने के बाद लेखक को लगा कि 'दो राष्टïरों का सिद्घांत देकर जिन्ना ने बुनियादी भूल कर दी और उस पर अडिय़ल रुख अपनाते हुए मुसलमानों के लिए आजाद भारत में ज्यादा से ज्यादा हिस्सा मांगकर अपनी तस्वीर पर खुद ही कालिख पोत ली।
लेखक का खयाल है कि जिन्ना ने जीतकर पाकिस्तान नहीं बनाया, बल्कि नेहरू और पटेल ने अंग्रेज बिचौलियों के झांसे में आकर पाकिस्तान का तोहफा जिन्ना के हाथों में थमा दिया। क्या वाकई जिन्ना की तस्वीर के अनछुए पहलू छूने की कोशिश है यह? क्या इससे जिन्ना की वह शैतानी तस्वीर मिट जाएगी, जिसे देखने की हसरत में ही पाठकों ने यह किताब खरीदी क्योंकि सार्वजनिक भाषणों में जिन्ना को इसी तरह से पेश किया जाता है? इसी तरह सरदार पटेल के बारे में भी इस किताब में कुछ ऐसा है, जो पहले कभी नहीं कहा और सुना गया। फिर भी तीखी प्रतिक्रियाओं की बौछार जारी है और राजनीतिक उठापटक भी।भारत और पाकिस्तान ने अपनी आजादी के 62 साल इसी महीने पूरे किए। हमारे वर्तमान की इमारत अतीत की बुनियाद पर खड़ी होती है। अतीत को समझकर हम यह तय कर पाते हैं कि वर्तमान में उसकी कितनी अहमियत है। लेकिन इससे वर्तमान की हमारी समस्याएं सुलझाने में मदद मिलती है या यह उनमें रुकावट बन जाता है?
राष्टï्रीय आंदोलन में बंटवारे के बीज बोने का काम उस विचार ने किया, जो बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों के बीच समानता की बात करता था। इस विचार ने लोकतंत्र के एक बुनियादी सिद्घांत को नजरअंदाज कर दिया। इस विचार के हिमायती तबके ने नागरिक को धर्म का चोंगा पहना दिया। 19वीं सदी के अंत में भारत के लिए फैसलों में भारतीयों की अधिक हिस्सेदारी की बात जोर पकड़ रही थी और उसी वक्त मुसलमान नेताओं के बीच यह डर सिर उठाने लगा कि हिंदुओं की आबादी ज्यादा होने से मुसलमानों के हित खतरे में पड़ जाएंगे। इसी डर ने मुस्लिम लीग के बीज बो दिए और 1906 में बनी इस पार्टी ने आखिरकार पाकिस्तान की मांग कर डाली।लेखक बताते हैं कि जिन्ना ने पहले-पहल कहा कि आजादी के आंदोलन में दो पक्ष नहीं हैं, तीन पक्ष हैं - अंग्रेज, कांग्रेस और मुस्लिम लीग। अंग्रेजों को कोई रोक नहीं सकता था, इसलिए उन्होंने मुस्मि लीग को कांग्रेस के समांतर राजनीतिक संगठन बनाने में पुरजोर मदद की। इसकी वजह भारत पर हमेशा राज करते रहने की उनकी इच्छा ही थी, जिसके लिए उन्हें हिंदुओं और मुसलमानों के बीच खाई को बढ़ाना था।एक संवैधानिक राष्टï्र के लिए जरूरी है कि कानून की सत्ता की गारंटी भी मिले और विभिन्न नागरिक तथा राजनीतिक अधिकार और आजादी भी दी जाए। इतना ही नहीं इसकी अनिवार्य शर्त यह भी है जनता का बड़ा तबका नियमित अंतराल पर विभिन्न पार्टियों के बीच से पसंदीदा प्रतिनिधि चुने। अगर आजाद होने के बाद भारत में यही होना था तो देश में अपने व्यापक आधार और राष्टï्रीय सूरत के साथ सभी को प्रिय होने की वजह से क्या बंटवारे की मांग से लडऩा कांग्रेस का काम नहीं था? मुस्लिम लीग का आधार बहुत छोटा था और ऐसी सूरत में तो कांग्रेस को ऐसा करना ही चाहिए था। तो क्या सिद्घांतों के साथ समझौते की राह पकड़कर कांग्रेस ने ही ऐसी मांगों को बुलंद होने दिया?भविष्य के पाकिस्तान में हिंदुओं और मुसलमानों की हालत के बारे में जिन्ना क्या सोचते थे, इसका ब्योरा इस किताब में किया गया है। नई दिल्ली में 14 नवंबर 1946 को एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था, 'अल्पसंख्यक हमेशा अल्पसंख्यक के तौर पर ही रह सकते हैं, असरदार नहीं बन सकते।Ó पाकिस्तान बन जाने के बाद जिन्ना ने अल्पसंख्यकों की हिफाजत के सवाल पर काफी सोचा। धर्मनिरपेक्ष राष्टï्र में जिन्ना के विश्वास के पक्ष और विपक्ष में तमाम प्रमाण हैं। पाकिस्तान की संविधान सभा में 11 अगस्त 1947 को अपने भाषण में वह एक राह पकड़ते हैं और कराची में 25 जनवरी 1948 को दूसरी राह पकड़कर साफ ऐलान कर देते हैं कि संविधान शरिया कानून के मुताबिक गढ़ा जाएगा, ताकि पाकिस्तान इस्लामिक मुल्क बन सके। उनके मुताबिक मजहब अल्ला के साथ रिश्ते पर रोशनी ही नहीं डालेगा बल्कि रोजमर्रा की ङ्क्षजदगी के तमाम पहलू भी उससे अनछुए नहीं रह पाएंगे।फरजाना शेख ने भी हाल ही में अपनी किताब 'मेकिंग सेंस ऑफ पाकिस्तानÓ में कहा है कि इस्लाम और राष्टï्रप्रेम के बीच रिश्ते की वजह से पाकिस्तान आज वैचारिक अनिश्चितता का शिकार हो गया है। उन्हें भी लगता है कि धार्मिक सम्मति ही इस समस्या का हल है। 1947 में अगर भारत का बंटवारा नहीं होता, तो इस हल की पूरी गुंजाइश थी और शायद आगे भी ऐसा हो सके।

समीक्षाकार भारतीय विदेश सेवा के पूर्व सदस्य हैं और फिलहाल नई दिल्ली के जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय के एकेडमी ऑफ थर्ड वल्र्ड स्टडीज में अतिथि प्रोफेसर हैं।)

पुस्तक : जिन्ना इंडिया-पार्टिशन-इंडिपेंडेंस
लेखक : जसवंत सिंह
प्रकाशक : रूपा ऐंड कंपनी
पृष्ठï : 669
मूल्य : 695 रुपये