Wednesday, September 23, 2009

समाजवाद से आएगी समानता

सत्येन्द्र प्रताप सिंह

यह किताब उस दौर के विभिन्न पहलुओं की मार्क्सवादी सोच को दिखाती है, जब भारतीय जनता पार्टी का शासन था।
गुजरात से लाल कृष्ण आडवाणी की शुरू हुई रथयात्रा और उसके बाद हुए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बाद भाजपा के उभार और केंद्रीय सत्ता में पहुंच जाने के बाद संसद से लेकर सड़क तक जो बदलाव हुए, उसका क्रमवार विवरण और जनमानस द्वारा भाजपा को नकारे जाने तक के मार्क्सवादी नजरिए को पुस्तक में पेश किया गया है।
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी पोलित ब्यूरो के सदस्य सीताराम येचुरी ने इस दौरान विभिन्न लेखों से अपनी पार्टी की विचारधारा और पूंजीवादी मुहिम के खिलाफ विभिन्न लेखों में अपने विचार लिखे, उन्हीं लेखों को 22 अध्याय में प्रकाशित कर पुस्तक का रूप दिया गया है।
पुस्तक की शुरुआत भारतीय गणतंत्र : चुनौतियां और समाधान नामक अध्याय से शुरू होता है, जो इस पुस्तक का नाम भी है। लेखक के विचार से भारतीय गणतंत्र की 53वीं सालगिरह के अवसर पर राष्ट्रपति के अभिभाषण में शहरी सुविधाओं को ग्रामीण भारत तक पहुंचाने के विजन 2020 को पेश करना एक ऊंचे मंसूबे की घोषणा मात्र है।
तीव्र विकास के हसीन सपने दिखाए जा रहे हैं और जनता की शिक्षा स्वास्थ्य और खाद्य सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में अपनी जिम्मेदारियों से शासन हाथ खींच रहा है। लेखक ने जनता से इन नीतियों के खिलाफ एकजुट होने का आह्वान किया है।
इसके बाद के 13 अध्यायों में केंद्र में उस दौरान सत्तासीन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के चाल-चरित्र के बारे में चर्चा की गई है कि किस तरह से सरकार ने गुजरात में हुए दंगों के बाद नरेंद्र मोदी सरकार का साथ दिया और देश को दो धार्मिक ध्रुवों में बांट देने की कोशिश की।
गोलवरकर की पुस्तक 'मिलिटेंट हिंदुइज्म इन इंडिया- ए स्टडी आफ द आरएसएस' का जिक्र करते हुए लेखक ने यह समझाने की कोशिश की है कि किस तरह से केंद्र की राजग सरकार फासीवादी तरीके से सरकार चलाने और जनता के बुनियादी अधिकारों को छीनने की कोशिश कर रही थी।
पुस्तक में विनिवेश के माध्यम से सरकारी उपक्रमों का निजीकरण किए जाने का पुरजोर विरोध किया गया है। तत्कालीन रक्षामंत्री और राजग संयोजक जॉर्ज फर्नांडिस तथा आरएसएस और स्वदेशी जागरण मंच के विनिवेश के विरोध को लेखक ने नौटंकी करार देते हुए कहा है कि सत्ता में बैठे लोग फासीवादी तरकश का ही तीर छोड़ रहे हैं, जिससे विनिवेश से उपजे जनता के विरोध को कम किया जा सके।
पुस्तक के कुछ अध्यायों में स्पष्ट रूप से मार्क्सवादी विचारधारा को सरल शब्दों में समझाने की भी कोशिश की गई है कि किस तरह से पूंजीवादी व्यवस्था शोषण में जुटी है और उसका एक मात्र समाधान मजदूरों की एकता और पूंजीवाद का विरोध है। पुस्तक के आखिरी 6 अध्यायों में कम्युनिज्म के वैश्विक विरोध और पूंजीवाद को स्थापित करने की चर्चा की गई है।
साथ ही भारत में विभिन्न अखबारों द्वारा पूंजीवाद के समर्थन में लिखे गए लेखों की चर्चा है। अपनी पार्टी की विचारधारा के अनुरूप लेखक ने अमेरिकी प्रभुत्ववादी साजिशों का जिक्र किया है, जिसमें आतंकवाद के नाम पर सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका द्वारा विभिन्न देशों में आंतरिक हस्तक्षेप किया गया।
साथ ही पूंजीवाद के बेहतर होने और कम्युनिज्म के खत्म होने के प्रचार को झूठा साबित करने की कोशिशों के विरुध्द दलील दी गई है। 'क्रांतिकारी संभावना को उन्मुक्त करो' शीर्षक से प्रकाशित अध्याय में लेखक ने एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए लिखा है, 'पूंजीवादी वैश्वीकरण के दौर में असमानता और बढ़ गई है।
अमेरिकी प्रभुत्ववादी साजिशों की काट के बारे में लिखते हुए येचुरी ने यह बताने की कोशिश की है कि आतंकवाद पूरी तरह से पूंजीवाद से जुड़ा हुआ मामला है। उनका कहना है कि समाजवादी आंदोलन के खिलाफ अमेरिका ने तमाम देशों में गुट खड़े किए जो सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका के लिए ही सिरदर्द बने।
'द्विध्रुवीय शीतयुध्द के बाद अंतरराष्ट्रीय स्थिति के विकास में स्वाभाविक प्रक्रिया यह होती कि यह स्थिति बहुधु्रवीयता की ओर बढ़ती। अमेरिका ने इस स्वाभाविक प्रक्रिया को पलट दिया ताकि अपने प्रभुत्व के तहत एकध्रुवीय व्यवस्था कायम की जा सके।'
लेखक का मानना है कि ऐसी स्थिति में अमेरिका सिर्फ विश्व दारोगा की ही तरह काम नहीं करना चाहता है, बल्कि साथ साथ वह न्यायाधीश की भी भूमिका निभाना चाहता है। इसका एकमात्र समाधान समाजवाद बताया गया है, जिससे समाज में गरीबी और असमानता दूर होगी और कोई भी हथियार उठाने को विवश नहीं होगा।
विकासशील देशों में गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या बढ़कर 1.1 अरब हो गई है.... दुनिया के 50 बड़े अरबपतियों की दौलत मिलकर सहारा और अफ्रीकी देशों के सकल घरेलू उत्पाद के बराबर हो गई है, जहां 68 करोड़ 80 लाख जनता जिंदा रहने के लिए संघर्ष कर रही है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक हर साल भूख से 3 करोड़ 60 लाख से ज्यादा लोग मर जाते हैं।'
पुस्तक में ऐतिहासिक तथ्यों का भी जिक्र किया गया है कि द्वितीय विश्वयुध्द के दौरान किस तरह से फासीवाद के खिलाफ एकजुट होने में पूंजीवादी देशों ने हीला-हवाली की। मानव अधिकारों को बचाने के लिए सोवियत संघ ने कुर्बानियां दी।
बहरहाल, इस पुस्तक में पूंजीवादी व्यवस्था में बेरोजगारों की बढ़ती फौज, अस्थायी नौकरियां, आउटसोर्सिंग के माध्यम से पूंजीवाद को बढ़ावा देने का जिक्र तो है, लेकिन इसका स्पष्ट जवाब नहीं मिलता कि समाधान क्या है। 'भारतीय गणतंत्र : चुनौतियां और समाधान' पुस्तक का शीर्षक तो है, लेकिन इसमें चुनौतियों पर ही ज्यादा बल है, समाधान की राहें स्पष्ट नहीं हैं- खासकर भारत के परिप्रेक्ष्य में।

पुस्तक समीक्षा
भारतीय गणतंत्र चुनौतियां और समाधान
लेखन: सीताराम येचुरी
प्रकाशक: सामयिक प्रकाशन
कीमत: 200 रुपये
पृष्ठ: 159

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