Sunday, March 27, 2011

"शुद्धिकरण"

सत्येन्द्र प्रताप सिंह


बात 1989 की है। उन दिनों मैं गोरखपुर के बशारतपुर मुहल्ले में रहता था। नौकरी के लिए परीक्षाएं देने अक्सर लखनऊ जाना पड़ता था। उसके लिए सुबह 5 बजे चलने वाली इंटरसिटी सबसे मुफीद थी। उन दिनों सुबह सबेरे रिक् शा या कोई अन्य सुविधा न मिलने की वजह से करीब साढ़े तीन बजे सुबह ही घर से पैदल निकल जाना पड़ता था। हमारे मुहल्ले में एक कुत्ता था। जिस दिन वह सुबह सबेरे जग जाता था तो मेरे पीछे-पीछे चल पड़ता था। अगले मुहल्ले के कुत्ते तक पहुंचाता था और 5 किलोमीटर की उस दूरी में यह सिलसिला लगातार चलता था। ऐसी स्थिति में उस 5 किलोमीटर की दूरी में कोई भी कुत्ता मुझे नहीं भौंकता था।

लेकिन सर्दियों में या किसी अन्य दिनों में भी अगर हमारे मुहल्ले वाला कुत्ता पास नहीं देता, दूसरे मुहल्ले में पहुंचते ही सारे कुत्ते भौंकने लगते और यात्रा बहुत कष्टप्रद हो जाती थी।


2002 में मैं लखनऊ आ गया। वहां इंदिरा नगर मोहल्ले में रहता था। एक दिन सुबह 11 बजे देखा कि 10-15 कुत्ते किसी जानवर को नाली में गिराकर मार रहे हैं। मुझे लगा कि कोई बकरी वगैरह का बच्चा है। मुहल्लेवाले लाठी-डंडा लेकर टूट पड़े। आखिर में कुत्ते पीछे हट गए। नाली में से एक कुत्ता निकला, जो जर्मन शेफर्ड था। उसके बाद सारे देशी कुत्ते आपस में लड़ पड़े और 15 मिनट तक उनका आपसी संघर्ष चला।

मेरे मित्र अखिलेश ने इस संघर्ष को मुझे समझाने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि दरअसल जर्मन शेफर्ड पूंजीवादी कुत्ता है, जो मैडम की गोद में, कार में बैठने का आदी है। ये गली के कुत्ते सोचते हैं कि यह कुत्ता जाति और कुत्तत्व को कलंकित कर रहा है, जबकि हमारा असल काम जनसेवा है। लोगों की रखवाली करना है। यह पूंजीवादी कुत्ता सिर्फ उसी की रखवाली कर रहा है, जो इसे रोटी देता है। इसकी खुद की जमीर नहीं है। जैसे ही पूंजीवादी कुत्ता सड़क पर निकला, मौका देखकर सभी कुत्ते उस पर टूट पड़े। लेकिन देसी कुत्तों को मुहल्ले वालों की लाठियां खानी पड़ीं और अंत में उन्हें पूंजीवादी कुत्ते का खात्मा करने में सफलता नहीं मिली और वे उसे छोड़कर चले गए।

मैने अखिलेश जी से पूछा कि आखिर बाद में ये आपस में क्यों लड़ पड़े भाई? उन्होंने फिर समझाने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि दरअसल कुत्तों की इस भीड़ में कुछ सीपीआई व सीपीएम वाले हैं और कुछ माओवादी कुत्ते हैं। अब माओवादी कुत्ते , सीपीआई सीपीएम वालों को मार रहे हैं कि भले ही हमारे 2-4 साथियों की लाश गिर जाती, लेकिन आज इस पूंजीवादी कुत्ते को निपटा ही दिया जाना चाहिए था।


2011 आते आते स्थिति कितनी बदल गई है, उसका नया उदाहण मिला। मेरे एक मित्र के यहां दो पालतू कुत्ते थे। एक जर्मन शेफर्ड और एक डेसमंड। उन्होंने बताया कि डेसमंड बहुत खतरनाक था। कोई भी बाहरी जानवर या व्यक्ति उसकी मौजूदगी में घर के भीतर नहीं घुसने पाता था। 15 दिन पहले की बात है। रात के करीब 2 बजे उनकी बाउंड्री को पीछे से फांदकर करीब 1 दर्जन कुत्ते घुस आए। उन्होंने उनके डेसमंड कुत्ते को इतना बुरी तरह से काट डाला कि मौके पर ही उसकी मौत हो गई। उसके गले से मांस का लोथड़ा निकाल लिया। उधर जर्मन शेफर्ड भौंकता ही रह गया। जब शोर सुनकर मेरे मित्र और उनके परिवार वाले बाहर आए तो गली के कुत्ते अपना काम कर चुके थे और भाग निकले।

मैने अपने मित्र से कहा कि भाई ये 20 साल पुराना संघर्ष है और आज साम्यवादी कुत्तों को विजय मिली है। बचाकर रखिएगा, नहीं तो आपका जर्मन शेफर्ड गया ही समझिए।


अब मेरे मित्र अपनी बाउंड्री ऊंची कराने को सोच रहे हैं!

Friday, March 25, 2011

बूझो न बूझो अबूझमाड़

दंतेवाड़ा एक बार फिर सुर्खियों में है। पहले ७६ जवानों की हत्या के मामले में था। अब सुरक्षाकर्मियों द्वारा आदिवासियों के ३०० घर जलाए जाने और महिलाओं के साथ हुए बलात्कार को लेकर। ऐसे में अबूझमाड़ इलाके को बूझने के लिए विस्फोट डॉट कॉम का एक लेख प्रासंगिक लग रहा है। इसे मैं सार्वजनिक हित में बगैर अनुमति के विस्फोट डॉट कॉम से चुरा रहा हूं। वहां के लोगों को हमारी सरकारें लंबे समय से मनुष्य मानने से इनकार करती रही है...
राजेश अग्रवाल 12 June, 2009

नक्सलियों से सीधी लड़ाई के लिए सरकार ने तीन दशक से बंद अबूझमाड़ का मोर्चा खोल दिया है. वस्त्रविहीन व कंदमूल खाकर जीने वाले आदिम गोंड़ जाति के बीच अब आम लोगों का सीधा सम्पर्क हो सकेगा. इससे उनकी जीवन शैली और संस्कृति पर ख़तरे तो दिखाई दे रहे हैं, लेकिन सरकार को अपने इस फैसले के पीछे नक्सली हिंसा की आग से झुलस रहे बस्तर में शांति की नई बयार बहने की उम्मीद भी दिखाई दे रही है. वैसे तो लोग देश में कहीं भी आने-जाने के लिए आज़ाद हैं लेकिन बस्तर का अबूझमाड़ दुर्गम पहाड़ियों और घने जंगलों से घिरा एक ऐसा गलियारा है जहां पिछले 3 दशकों से आम लोगों को जाने की मनाही थी.

अबूझमाड़ में आम लोगों के प्रवेश पर तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार ने रोक तब लगाई गई थी, जब 80 के दशक में बीबीसी के कुछ पत्रकारों ने यहां पहुंचकर गोंड़ महिलाओं की अर्धनग्न तस्वीरें खींचीं और उनके विदेशी अख़बारों में छप जाने से हंगामा मचा. बस्तर संभाग के तीन जिलों दंतेवाड़ा, नारायणपुर व बीजापुर के 4,000 वर्गकिलोमीटर के दायरे में फैले 237 गांवों के 26 हज़ार आदिवासी अपनी ही विशिष्ट आदिम संस्कृति में जीते हैं. वे जानवरों का शिकार करते हैं, कंदमूल खाते हैं और पेड़ों की छाल पहनते हैं. हालांकि बीते दो दशकों से वे हाट-बाज़ारों में जाकर बिना सिले हुए कपड़े भी पहनने लग गए हैं. जिलाधीश से अनुमति लेकर नारायणपुर स्थित रामकृष्ण मिशन ने यहां शिक्षा व स्वास्थ्य की दिशा में भी कुछ काम किया है.
लेकिन अबूझमाड़ का ज्यादातर हिस्सा बीते 3 दशकों से अबूझ पहेली है. यहां के आदिवासी जंगल, नदी, पहाड़ के बीच ही जीवन बिताते हैं. ज्यादातर हिस्सों में सरकार की कोई योजना नहीं पहुंच पाई है. न इन्हें सरकारी राशन मिलता है न पेंशन. न इन गांवों में सड़कें है और न ही बिजली. अबूझमाड़ के सघन वनों के शुरूआती कुछ गांवों में तो समय-समय पर सरकार के नुमाइंदो व सुरक्षा बलों ने प्रवेश किया है पर अधिकतर हिस्से अभी भी रहस्यमयी बने हुए हैं. सन् 2001 में छत्तीसगढ़ राज्य का गठन होने के बाद अबूझमाड़ के सर्वेक्षण के लिए कई प्रयास हुए हैं. गांवों की संख्या तो सेटेलाइट के चित्रों से निर्धारित की गई है पर इन गांवों तक सरकार भी नहीं पहुंच पाई है. सन् 2005 में प्रदेश की भाजपा सरकार ने एक निजी संस्था को इस क्षेत्र के सर्वेक्षण की जिम्मेदारी दी थी लेकिन नक्सलियों ने उन्हें घुसने नहीं दिया. बस्तर के सांसद बलिराम कश्यप की अध्यक्षता में भी एक बार समिति बनाई गई लेकिन यह समिति भी अबूझमाड़ को बूझने में सफल नहीं हो पाई. परिणामस्वरूप यह अबूझ इलाका हिंसक नक्सलियों के लिए स्वर्ग बना हुआ है.
पीडब्ल्यूजी की रीजनल इकाई ने तो 1980 में बकायदा इसे अपना मुख्यालय घोषित कर दिया था. नक्सली इन इलाकों में छिपकर अपनी योजनाएं तैयार करते हैं और यहां से निकलकर पूरे बस्तर में तांडव मचाते हैं. बीते कुछ सालों में नक्सलियों ने सुरक्षा बलों व नेताओं पर हमले तेज किए हैं. नक्सलियों की बढ़ती ताक़त को वैसे तो सरकार उनकी हताशा का नाम देती है, लेकिन सच्चाई यही है कि उनसे मुकाबला करने में सरकार के पसीने छूट रहे हैं. नक्सलियों के विरोध के लिए आदिवासियों के बीच चलाया जा रहा सलवा जुड़ूम आंदोलन भी कारगर साबित नहीं हो रहा है. भारी संख्या में सुरक्षा बलों की तैनाती भी उनको रोक पाने में कारगर नहीं है. हाल के दिनों में नक्सलियों ने धमतरी और राजनांदगांव जिले के नये इलाकों में सुरक्षा बल के जवानों व मतदान कर्मियों की सामूहिक हत्याएं की है. कई सलवा जुड़ूमियों व कांग्रेस-भाजपा नेताओं को उन्होंने मार डाला है. इन घटनाओं से सरकार की जबरदस्त किरकिरी हो रही है. छत्तीसगढ़ के गृह मंत्री ननकीराम कंवर को तो कहना पड़ा है कि यदि दो साल के भीतर नक्सली समस्या का अंत नहीं हुआ तो वे अपने पद से इस्तीफा दे देंगे. विरोधी दल कांग्रेस ने इस बयान पर कहा है कि यह बात मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह को कहनी चाहिए, क्योंकि प्रदेश के मुखिया होने के नाते पहली जवाबदारी उनकी ही बनती है.
राजनैतिक दलों के अतिरिक्त सरकार पर औद्योगिक घरानों की ओर से भी दबाव है. टाटा और एस्सार जैसी बड़ी कम्पनियों को बस्तर के बहुमूल्य खनिजों के उत्खनन और इस्पात संयंत्र लगाने के लिए हजारों एकड़ जमीन दी गई है, लेकिन नक्सलियों के हमले उन्हें काम नहीं करने दे रहे हैं. मुख्यमंत्री कहते हैं कि पूरी दुनिया जब 21वीं सदी में पहुंच गई है तो नक्सली बस्तर के आदिवासियों को उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित कर उन्हें 19वीं सदी में रखना चाहते हैं. नक्सली कहते हैं कि जंगल, पानी, जमीन सब उन आदिवासियों का है जो यहां रहते हैं. चंद पूंजीपतियों के फायदे के लिए आदिवासियों को उजाड़ने की साजिश वे नहीं चलने देंगे. नक्सलियों ने बस्तर में हस्तक्षेप के ख़िलाफ मुख्यमंत्री सहित बस्तर के कई जन-प्रतिनिधियों के नाम मौत का फरमान जारी कर रखा है. बस्तर विकास प्राधिकरण की इसी हफ़्ते मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह की अध्यक्षता में हुई बैठक में अबूझमाड़ को आम लोगों के लिए खोलने का निर्णय लिया गया. सरकार अब नक्सलियों को उनके सुरक्षित ठिकाने पर घुसकर घेरना चाहती है. अभी तक सरकार के नहीं पहुंचने के चलते शायद अबूझमाड़ के आदिवासी नक्सलियों को ही सरकार मानते रहे हों लेकिन अब उन्हें एक दूसरी सरकार का भी सामना करना पड़ेगा.
अबूझमाड़ के दरवाजे खोल दिए जाने के बाद भी सरकारी अमले व सुरक्षा बलों को दुरूह भौगोलिक संरचना के चलते इसे भेद पाना आसान नहीं है. वैसे भी उनके लिए कभी इस इलाके में जाने के लिए मनाही तो रही नहीं है. कुछ सालों के बाद मालूम हो सकेगा कि अबूझमाड़िया जन-जीवन में बाकी दुनिया की दख़ल का क्या असर पड़ेगा, फिलहाल, सरकार ने नक्सलियों से निपटने के लिए एक और दांव खेल दिया है.

Thursday, March 17, 2011

अगर खेती को कारोबार बनाया जाये...

सत्येन्द्र प्रताप सिंह

बलिया के नवीन कुमार किसान हैं. उन्होंने इंजीनियरिंग की पढाई की. उसके बाद गांव लौटे तो सोचा कि खेती करें. उन्होंने कुछ दिन तक खेती करने के बाद ही जान लिया कि ये घाटे का सौदा है. हालत यह हुई कि वे फिर इंजीनियरिंग की दुनिया में लौटने को मजबूर हो गए.

इस समय यह निकल कर सामने आ रहा है कि खेती को अगर कारोबार के रूप में किया जाये तो किसानों का मुनाफा बढ़ेगा. कुछ इस तरह की अवधारणा बन गई है कि कारोबार मतलब ज्यादा मुनाफा. कारोबार में मुनाफा होता है, और खूब होता है. खेती में नहीं, जबकि दोनों निवेश करते हैं, उत्पाद तैयार करते हैं और उसे बाजार में बेचते है.

आइये खेती को कारपोरेट फार्मिंग या कारोबार में बदल कर देखें. मेरे पास २० एकड़ जमीन है. उस पर मैं गेहूं बोता हूँ. गेहूं का उत्पादन होने के बाद मेरा लक्ष्य है कि उसकी उत्पादन लगत १५ रूपये किलो पड़ी है तो उसे बाजार में मुझे ३०० प्रतिशत मुनाफे पर बेचना होगा. यानि ४५-६० रुपये प्रति किलो. मैंने अपने मीडिया सेल से कहा कि एक प्रेस कांफ्रेंस आयोजित करो. पत्रकारों का सारा प्रबंध करने के बाद मैंने लक्ष्य रखा कि उस गेहूं को मैंने बेच दिया है, और शुद्ध मुनाफा ३० प्रतिशत और सकल मुनाफा ६० प्रतिशत रहेगी. बहरहाल.. व्यवस्था ऐसी कि खबर छाप दी गई.

उधर शेयर बाजार में २० एकड़ खेत की लिस्टिंग भी है. शेयर बाजार में शेयर की कीमतों में १० प्रतिशत की बढोतरी हो गई. कीमतें प्रति शेयर १०० रुपये से बढ़कर ११० रुपये प्रति शेयर हो गईं. लेकिन १० प्रतिशत बढ़ोतरी से कुछ फायदा नहीं. कम से कम शेयरों की कीमतों में ३०-४० प्रतिशत की बढ़ोतरी होनी चाहिए थी. मज़ा नहीं आया. फिर मीडिया सेल को बुलाया. पत्रकार जुटे. पत्रकार मित्रों... बाजार में बेहतर प्रतिक्रिया आ रही है. कारोबार का लक्ष्य पूरा हो रहा है. अगले साल के लिए हमारी कंपनी ने लक्ष्य रखा है २० एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया जाये और उसमे चने की खेती की जाए.

बाजार फिर खुश हुआ. शेयर की कीमतों में १० प्रतिशत की बढोतरी हुई. फिर भी मज़ा नहीं आया. शायद कुछ लोगों को संदेह है कि कंपनी सिर्फ हवाबाजी कर रही है, इसलिए निवेश करने से हिचक रहे है. शेयर की कीमतें अगर ३ महीने के भीतर १८० रुपये प्रति शेयर नहीं गईं तो मुनाफा संतोषजनक नहीं है. कंपनी के अधिकारीयों की एक आपातकालीन बैठक में मैंने तय किया है कि इनसाइडर ट्रेडिंग की जाये. अचानक कंपनी के शेयर १२२ रूपये से बढ़कर १४० रुपये पहुच गए. जो लोग संदेह करते थे, उनका कंपनी से संदेह दूर हो गया. अब शेयर फिर बिकने लगे. ये क्या? कंपनी के शेयर तो १९० रुपये पर पहुच गए. अब वक्त है. कंपनी से पैसा खीच लिया जाये. इनसाइडर ट्रेडिंग का पैसा निकलते ही शेयर की कीमतें १२० रूपये प्रति शेयर पर आ गईं. फिर एक प्रेस कांफ्रेंस. मीडिया के मित्रों, कंपनी की स्थिति बहुत मज़बूत है, बाज़ार में अफरातफरी, अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव और करेक्शन के चलते शेयर गिरे हैं. इसमें चिंता की कोई बात नहीं है. हाँ, मैंने आपको अपनी नई योजना की जानकारी देने के लिए बुलाया है. हमारी सरकार से बात चल रही है. कर्णाटक में कंपनी ने ५० एकड़ जमीन का अधिग्रहण करने की योजना बनाई है. हमारी योजना है कि कर्णाटक में कपास का उत्पादन किया जाये.

.... जारी..शेष फिर कभी.

Chattisgarh's heart of darkness

C P Bhambhri

Binayak Sen is a non-conformist, who consciously decided to dedicate his life-work in the service of the deprived and exploited people in the tribal belt of Bastar, Raipur and around the Bhilai steel plant. He decided that his medical training from the Christian Medical College at Vellore would be devoted to providing rural health services for poorest of the poor in India. It is not as though Sen sees himself as a martyr to the cause, however. As Minnie Vaid points out, Sen believed that every individual should have the right to make his own choices and his was to bring medical facilities to people who had been denied this basic right by the democratic state of India.
Nobody who works in rural or tribal communities in India can be immune to the multi-faceted societal problems there। So, it is not surprising that Sen’s narrow commitment eventually widened to social activism that brought up squarely against the power of the state. His initial work in providing rural health services ended up highlighting the issues of tribal displacement that became endemic once this natural resource-rich area started attracting industrial projects. This book, the product of seven months of intensive field work, traces Sen’s evolution from grassroots worker to community activist and organiser of the civil liberties movement in ten clearly-focused chapters. Given the outrageous manner of his arrest and incarceration, the book may not present anything strikingly new, but it works as a grim reminder of the lengths of delinquency even in democratic states.

Sen’s work was not just courageous, it was inspirational too। His Shahid Hospital acted as a model for others and Sen set up the Jan Swasthya Sahyog in 1989 as a “people-centric community-based model of heathcare” in rural Bailaspur as “the voluntary, non-profit” registered society of health professionals running a low-cost health programme for the tribal and rural poor through a community health programme and a hospital. Given the absence of state-sponsored social infrastructure in the area, it was no surprise that Sen came to be considered a messiah for the the marginalised.

This in itself was sufficient cause for friction with local politicians as almost any community worker will attest. But it was the Salwa Judum, the Chhattisgarh government-sponsored 2005 anti-Naxal vigilante force (or state-promoted private militias, depending on how you looked at it) of 4,000 that proved the turning point. It was the tribals who were caught in the brutal violence between the Naxals and the state’s militia. As a result of this orgy of violence, 300,000 to 400,000 tribals were compelled to seek refuge in “camps” and become displaced people.
It was their plight that Sen highlighted. “In Bastar, when Salwa Judum started, Binayak went after it and brought it into the limelight and termed the Salwa Judum a major threat to peace, source of oppression…”. More to the point, his reports starkly highlighted the lack of governance in the predominantly tribal belt of Dantewada, which had 37 police stations but just 26 primary health centres and 26 higher secondary schools.
Naturally, the exposure of this dark side of Indian democracy is unlikely to have pleased the state government, not least when the criticism was focused on its own pet project. There is no less pique now that his arrest and punishment on charge of “sedition” against the state have attracted worldwide attention and sympathy. His predicament suggests a brutish lack of understanding on the part of state authorities of Sen’s message. He was, for instance, among the few who spoke up against the Dantewada massacre of state security personnel by gun-wielding Naxalites, his argument being that violence cannot be justified, either in the name of Mao’s revolution or the state.
Vaid’s book also raises the issue of the inherent limitations of individual voluntarism in improving the lives of people. Sen worked like a missionary, overcoming the tribal superstitions against modern medical techniques such as injections and so on. His work benefited many, no doubt, and brought him satisfaction. But the impact of interventions such as his is co-terminus with the area he covers. Only the institutions of state have the critical mass to deliver health and education on a larger scale that can make a difference to the lives of a significant number of people. Sen’s work was reminder that the state had basically abdicated its responsibility here.
Vaid’s contribution is in the direction of narrating a story of the human tragedy of an individual who decided to be “different” from the mainstream professional classes of India. Her story also exposes the myth perpetuated by the managers of the Indian state that gun-wielding terrorists can be silenced by the power of the gun of the state. The Indian state has failed to provide primary and basic services to the poor. The state has established police stations and failed to see the struggles of tribals who have to walk a whole day to access even rudimentary first-aid. Sen is the central character of Vaid’s book but an equally important revelation is the brute reality of neglect by the state of its own citizens simply because they are helpless and have no option except to turn to Sen.

A DOCTOR TO DEFEND: THE BINAYAK SEN story
Minnie vaid
Rajpal and Sons
242 pages;
Rs 250

http://www.business-standard.com/india/news/chattisgarh/s-heartdarkness/427053/

Tuesday, March 15, 2011

लोकतंत्र के साथ खुला बलात्कार!!

सत्येन्द्र प्रताप सिंह
कारोबारी किस तरह से लोकतंत्र के साथ बलात्कार कर रहे हैं, इसका दो उदाहरण एक साथ पढ़ने को मिला. विकिलीक्स ने कहा कि अमेरिका के दबाव में मणिशंकर की जगह मुरली देवड़ा को मंत्री बनाया गया और कांग्रेस सदस्य विक्रमभाई अर्जनभाई मादम ने कहा कि केयर्न इंडिया उन्हें अंजाम भुगतने की धमकी दे रही है.

विकीलीक्स खुलासा के अनुसार अमेरिका के करीबी एक भारतीय मंत्री जनवरी 2006 में कैबिनेट में हुए फेरबदल के दो दिन बाद अमेरिकी राजदूत डेविड मलफोर्ड वॉशिंगटन से बातचीत में इस फैरबदल को अमेरिका के लिए अच्छी खबर बताते हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक, 'मलफोर्ड कहते हैं अय्यर का पेट्रोलियम मंत्रालय से हटना काफी अहम है। कैबिनेट में शामिल मंत्री अमेरिका के भरोसे के लोग हैं। मलफोर्ड की नज़र में अमेरिका के लिए बढ़िया मंत्री हैं- कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा, अश्विनी कुमार और सैफुद्दीन सोज़ और मुरली देवड़ा। ईरान गैस पाइप लाइन को काम को रोकने के लिए मणि शंकर अय्यर को हटाकर बनाए गए मंत्री मुरली देवड़ा से तो अमेरिका ज्यादा ही खुश है।

अब भारत में सांसद का हाल देखिये. लोकसभा में कांग्रेस के एक सदस्य ने आरोप लगाया कि एक प्रमुख निजी तेल कंपनी के अधिकारियों ने गुजरात में उस कंपनी की एक परियोजना के खिलाफ किसानों के विरोध का नेतृत्व करने के लिए उन्हें घूस देने का प्रयास किया और उसके बाद उन्हें नतीजे भुगतने की धमकी दी। गुजरात के जामनगर से कांग्रेस सदस्य विक्रमभाई अर्जनभाई मादम ने शून्यकाल के दौरान यह मामला उठाते हुए कहा कि कारपोरेट माफिया सांसद के घर पहुंच जाते हैं और घमकी भी देते हैं।

उन्होंने केयर्न इंडिया लिमिटेड का नाम लेते हुए दावा किया कि इस कंपनी के अधिकारियों ने उन्हें दो करोड़ रूपए घूस देने की पेशकश की और कई मौकों पर धमकाया। पुलिस कहती है कि कोई मामला नहीं है और मुझे कोई संरक्षण नहीं है। उन्होंने मांग की कि उन्हें धमकी देने के मामले से जुड़े अधिकारियों को बर्खास्त किया जाए और आंदोलनरत किसानों को भूमि अधिग्रहण का पूरा भुगतान दिए जाने के बाद ही उनकी जमीन पर कंपनी के अधिकारी पैर रखें। कांग्रेस राजद और सपा के अनेक सदस्यों ने उनका समर्थन किया और उन्हें संरक्षण दिए जाने की मांग की। लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने कहा कि मादम ने एक पत्र उन्हें भी दिया है और यह मामला उनके विचाराधीन है। असुरक्षा को लेकर सांसद ने जो आशंका जताई है उस पर पूरा ध्यान दिया जाएगा।

ये कारोबारी कितनी ईमानदारी से काम करते है, रातों रात कैसे खरबपति बन जाते है, एकाध किताबे इन पर आ ही जाती हैं। इस लिंक से कुछ अनुमान लग सकता है। http://www.indianexpress.com/news/yarn-dyed-again/687551/

उद्योगी-पूंजीपति आज इतने प्रभावी हो गए हैं कि वो सांसदों तक को धमकी दे रहे है कि तुम जनता की आवाज उठाओगे तो मारे जाओगे. कारोबारी लोबी अपनी सुविधा के मुताबिक मंत्री बनवा देते है. राजा का मामला पहले ही सामने आ चुका है. ऐसे में भी वर्तमान लोकतंत्र में आस्था!! क्या ये लोकतंत्र जनता के लिए काम कर रहा है? बेचारे विक्रमभाई को पता ही नहीं होगा कि अगर वो सरकार से अपनी जान का गुहार करेंगे तो उनका मंत्री ही कह सकता कि इस मामले से हट जाओ, उसी कंपनी के मालिक ने मुझे मंत्री बनवाया है!!

Monday, March 7, 2011

अरब जागृति का सऊदी अरब में क्या स्वरुप होगा?

शमशाद इलाही अंसारी
इस पृथ्वी पर सबसे पुरानी प्रतिक्रियावादी राजनैतिक व्यवस्था का प्रतीक सऊदी अरब की राजशाही और उसके राजा अब्दुल्लाह के विरुद्ध इन दिनों देश के पूर्वी हिस्सों से आवाज़े उठनी शुरु हो गयी है..पिछले 11 दिनों में छोटे छोटे कई प्रदर्शन कई शहरों के म्यूनिसिपल आफ़िस, श्रम मंत्रालय के दफ़्तरों के समक्ष मुज़ायहरे हुये हैं, कई गिरफ़्तारियां भी हुई, जिसे देखते हुए राजा ने प्रदर्शनों पर न केवल प्रतिबंध लगाया है वरन उन्हे इस्लाम विरोधी की संज्ञा दे डाली है. कुल मिला कर पूरे देश से असंतोष की आवाज़े सुनी जा सकती हैं जिसका मुखर नेतृत्व शियाओं के हाथ में है खासकर पूर्वी प्रदेशों में.. अन्य हिस्सों मे लिबरल मुसलमानों ने देश में राजनैतिक सुधारों और मानवाधिकारों की मांग उठायी है.
राजा ने इस असंतोष को देखते हुये ३७ बिलियन डालर की भीख जनता को दी है, इसी दान दक्षिणा के चलते राजा अब तक शासन चलाने में सक्षम था, लेकिन ट्यूनिशिया, मिश्र में अरब जागरुकता और लीबिया में गद्दाफ़ी विरोधियों का सशस्त्र विद्रोह देख रही जनता, राजा की भीख स्वीकार करेगी? कितने समय तक करेगी..यह देखना अभी शेष है.
सऊदी समाज का १५-२९ प्रतिशत हिस्सा बेरोज़गार है. देश की कुल आबादी कोई २.५ करोड है जिसमें कोई ९० लाख लोग प्रवासी कामगार हैं, शिया मुसलमानों की संख्या कोई १० प्रतिशत के करीब है, सऊदी शियाओं के साथ आमतौर पर सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर बहुत इम्तयाज़ बरता जाता है, यह एक कटु सत्य है. राजा सुन्नी है और इरान से उसकी खुन्नस, शिया अकीदे और इलाकाई नेतागिरी के मसले पर सर्वविदित है.
जनतांत्रिक ताकतें सऊदी में बेहद कमजोर हैं, इस्लाम के ही किसी दूसरे नमूने का आकार लेकर वहां राजा का विरोध स्वर और स्वरुप लेगा. अभी तक कोई ३८० फ़िरके इस्लाम में हैं और सभी एक को दूसरे से बेहतर साबित करने की फ़िराक में हत्या से लेकर युद्ध तक कर सकते हैं, जो सबसे लीड लेने वाला फ़िरका है और जिसकी ताकत इस जागरुक आंदोलन में, इस क्षेत्र में ज्यादा है, वह शिया संप्रदाय है, यमन अगर टूट गया तो उसके एक हिस्से पर उसका शासन हो सकता है, बहरीन का राजा अगर भगा दिया गया तो शिया मुसलमान वहां सरकार बना सकते हैं, कुवैत और सऊदी में यह समुदाय व्यापक मानवाधिकारों और राजनैतिक सुधारों की मांग कर रहा है, इन सफ़लताओं का फ़ायदा इसे लेबनान में अगले चुनावों में जीत के बतौर मिल सकता है. अभी यह वक्त है कि इस अगुवा ताकत से पूछा जाये कि आप अगर सत्ता में आये, तब आपका कौन सा निज़ाम होगा? आर्थिक नीतियां कौन सी होगी, बैंकों पर कौन राज करेगा? पड़ोसियों से क्या सलूक होगा? बहुपार्टी जनतंत्र होगा या इरान के नक्शे कदम पर सरकार बनेगी जिसमें विरोधियों को हर हाल में कुचला जायेगा? शिक्षा नीति क्या होगी? धर्म का कौन सा रुप होगा..किसकी फ़िकह लागू होगी? अल्पसंख्यकों का क्या हश्र होगा?
बहरहाल, आने वाले कल में क्या होगा, इसका बस खाका ही खींचा जा सकता है..कुछ कयासे, कुछ ख्यालसाज़ी कुछ इमकानात ही सजाये जा सकते हैं. यह भी हो सकता है कि राजा अब्दुल्लाह इसे आवामी जन विद्रोह को शिया विद्रोह- इरानी षडयन्त्र के नाम पर क्रूरतापूर्वक दमन कर दे. सभी जानते हैं कि सऊदी हवाई सेना के जहाजों ने दक्षिणी यमन में शिया विद्रोहियों पर राष्ट्रपति सालह की मदद करने के लिये हवाई हमले किये थे. कुल मिला कर हालत राजाओं के लिये साजगार नहीं हैं, मैं यह भी सोचता हूँ कि अगर इन्हें सऊदी जनता ने देश छोडने के लिये मजबूर कर दिया, तो ये कहां पनाह लेंगे? पाकिस्तान या बांग्लादेश..देखना बाकी है. सत्ता के सबसे प्राचीन, दमनकारी व्यस्था को अब तक के सबसे विकट संकट का सामना है..राजा भी हर तरह से तैय्यार है, जनता इस बदलाव की लडाई को किस स्तर तक ले जाती है और कौन सा निज़ाम लाती है, यह देखना बाकी है.