दंतेवाड़ा एक बार फिर सुर्खियों में है। पहले ७६ जवानों की हत्या के मामले में था। अब सुरक्षाकर्मियों द्वारा आदिवासियों के ३०० घर जलाए जाने और महिलाओं के साथ हुए बलात्कार को लेकर। ऐसे में अबूझमाड़ इलाके को बूझने के लिए विस्फोट डॉट कॉम का एक लेख प्रासंगिक लग रहा है। इसे मैं सार्वजनिक हित में बगैर अनुमति के विस्फोट डॉट कॉम से चुरा रहा हूं। वहां के लोगों को हमारी सरकारें लंबे समय से मनुष्य मानने से इनकार करती रही है...
राजेश अग्रवाल 12 June, 2009
नक्सलियों से सीधी लड़ाई के लिए सरकार ने तीन दशक से बंद अबूझमाड़ का मोर्चा खोल दिया है. वस्त्रविहीन व कंदमूल खाकर जीने वाले आदिम गोंड़ जाति के बीच अब आम लोगों का सीधा सम्पर्क हो सकेगा. इससे उनकी जीवन शैली और संस्कृति पर ख़तरे तो दिखाई दे रहे हैं, लेकिन सरकार को अपने इस फैसले के पीछे नक्सली हिंसा की आग से झुलस रहे बस्तर में शांति की नई बयार बहने की उम्मीद भी दिखाई दे रही है. वैसे तो लोग देश में कहीं भी आने-जाने के लिए आज़ाद हैं लेकिन बस्तर का अबूझमाड़ दुर्गम पहाड़ियों और घने जंगलों से घिरा एक ऐसा गलियारा है जहां पिछले 3 दशकों से आम लोगों को जाने की मनाही थी.
अबूझमाड़ में आम लोगों के प्रवेश पर तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार ने रोक तब लगाई गई थी, जब 80 के दशक में बीबीसी के कुछ पत्रकारों ने यहां पहुंचकर गोंड़ महिलाओं की अर्धनग्न तस्वीरें खींचीं और उनके विदेशी अख़बारों में छप जाने से हंगामा मचा. बस्तर संभाग के तीन जिलों दंतेवाड़ा, नारायणपुर व बीजापुर के 4,000 वर्गकिलोमीटर के दायरे में फैले 237 गांवों के 26 हज़ार आदिवासी अपनी ही विशिष्ट आदिम संस्कृति में जीते हैं. वे जानवरों का शिकार करते हैं, कंदमूल खाते हैं और पेड़ों की छाल पहनते हैं. हालांकि बीते दो दशकों से वे हाट-बाज़ारों में जाकर बिना सिले हुए कपड़े भी पहनने लग गए हैं. जिलाधीश से अनुमति लेकर नारायणपुर स्थित रामकृष्ण मिशन ने यहां शिक्षा व स्वास्थ्य की दिशा में भी कुछ काम किया है.
लेकिन अबूझमाड़ का ज्यादातर हिस्सा बीते 3 दशकों से अबूझ पहेली है. यहां के आदिवासी जंगल, नदी, पहाड़ के बीच ही जीवन बिताते हैं. ज्यादातर हिस्सों में सरकार की कोई योजना नहीं पहुंच पाई है. न इन्हें सरकारी राशन मिलता है न पेंशन. न इन गांवों में सड़कें है और न ही बिजली. अबूझमाड़ के सघन वनों के शुरूआती कुछ गांवों में तो समय-समय पर सरकार के नुमाइंदो व सुरक्षा बलों ने प्रवेश किया है पर अधिकतर हिस्से अभी भी रहस्यमयी बने हुए हैं. सन् 2001 में छत्तीसगढ़ राज्य का गठन होने के बाद अबूझमाड़ के सर्वेक्षण के लिए कई प्रयास हुए हैं. गांवों की संख्या तो सेटेलाइट के चित्रों से निर्धारित की गई है पर इन गांवों तक सरकार भी नहीं पहुंच पाई है. सन् 2005 में प्रदेश की भाजपा सरकार ने एक निजी संस्था को इस क्षेत्र के सर्वेक्षण की जिम्मेदारी दी थी लेकिन नक्सलियों ने उन्हें घुसने नहीं दिया. बस्तर के सांसद बलिराम कश्यप की अध्यक्षता में भी एक बार समिति बनाई गई लेकिन यह समिति भी अबूझमाड़ को बूझने में सफल नहीं हो पाई. परिणामस्वरूप यह अबूझ इलाका हिंसक नक्सलियों के लिए स्वर्ग बना हुआ है.
पीडब्ल्यूजी की रीजनल इकाई ने तो 1980 में बकायदा इसे अपना मुख्यालय घोषित कर दिया था. नक्सली इन इलाकों में छिपकर अपनी योजनाएं तैयार करते हैं और यहां से निकलकर पूरे बस्तर में तांडव मचाते हैं. बीते कुछ सालों में नक्सलियों ने सुरक्षा बलों व नेताओं पर हमले तेज किए हैं. नक्सलियों की बढ़ती ताक़त को वैसे तो सरकार उनकी हताशा का नाम देती है, लेकिन सच्चाई यही है कि उनसे मुकाबला करने में सरकार के पसीने छूट रहे हैं. नक्सलियों के विरोध के लिए आदिवासियों के बीच चलाया जा रहा सलवा जुड़ूम आंदोलन भी कारगर साबित नहीं हो रहा है. भारी संख्या में सुरक्षा बलों की तैनाती भी उनको रोक पाने में कारगर नहीं है. हाल के दिनों में नक्सलियों ने धमतरी और राजनांदगांव जिले के नये इलाकों में सुरक्षा बल के जवानों व मतदान कर्मियों की सामूहिक हत्याएं की है. कई सलवा जुड़ूमियों व कांग्रेस-भाजपा नेताओं को उन्होंने मार डाला है. इन घटनाओं से सरकार की जबरदस्त किरकिरी हो रही है. छत्तीसगढ़ के गृह मंत्री ननकीराम कंवर को तो कहना पड़ा है कि यदि दो साल के भीतर नक्सली समस्या का अंत नहीं हुआ तो वे अपने पद से इस्तीफा दे देंगे. विरोधी दल कांग्रेस ने इस बयान पर कहा है कि यह बात मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह को कहनी चाहिए, क्योंकि प्रदेश के मुखिया होने के नाते पहली जवाबदारी उनकी ही बनती है.
राजनैतिक दलों के अतिरिक्त सरकार पर औद्योगिक घरानों की ओर से भी दबाव है. टाटा और एस्सार जैसी बड़ी कम्पनियों को बस्तर के बहुमूल्य खनिजों के उत्खनन और इस्पात संयंत्र लगाने के लिए हजारों एकड़ जमीन दी गई है, लेकिन नक्सलियों के हमले उन्हें काम नहीं करने दे रहे हैं. मुख्यमंत्री कहते हैं कि पूरी दुनिया जब 21वीं सदी में पहुंच गई है तो नक्सली बस्तर के आदिवासियों को उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित कर उन्हें 19वीं सदी में रखना चाहते हैं. नक्सली कहते हैं कि जंगल, पानी, जमीन सब उन आदिवासियों का है जो यहां रहते हैं. चंद पूंजीपतियों के फायदे के लिए आदिवासियों को उजाड़ने की साजिश वे नहीं चलने देंगे. नक्सलियों ने बस्तर में हस्तक्षेप के ख़िलाफ मुख्यमंत्री सहित बस्तर के कई जन-प्रतिनिधियों के नाम मौत का फरमान जारी कर रखा है. बस्तर विकास प्राधिकरण की इसी हफ़्ते मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह की अध्यक्षता में हुई बैठक में अबूझमाड़ को आम लोगों के लिए खोलने का निर्णय लिया गया. सरकार अब नक्सलियों को उनके सुरक्षित ठिकाने पर घुसकर घेरना चाहती है. अभी तक सरकार के नहीं पहुंचने के चलते शायद अबूझमाड़ के आदिवासी नक्सलियों को ही सरकार मानते रहे हों लेकिन अब उन्हें एक दूसरी सरकार का भी सामना करना पड़ेगा.
अबूझमाड़ के दरवाजे खोल दिए जाने के बाद भी सरकारी अमले व सुरक्षा बलों को दुरूह भौगोलिक संरचना के चलते इसे भेद पाना आसान नहीं है. वैसे भी उनके लिए कभी इस इलाके में जाने के लिए मनाही तो रही नहीं है. कुछ सालों के बाद मालूम हो सकेगा कि अबूझमाड़िया जन-जीवन में बाकी दुनिया की दख़ल का क्या असर पड़ेगा, फिलहाल, सरकार ने नक्सलियों से निपटने के लिए एक और दांव खेल दिया है.
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