सत्येन्द्र प्रताप सिंह
बात 1989 की है। उन दिनों मैं गोरखपुर के बशारतपुर मुहल्ले में रहता था। नौकरी के लिए परीक्षाएं देने अक्सर लखनऊ जाना पड़ता था। उसके लिए सुबह 5 बजे चलने वाली इंटरसिटी सबसे मुफीद थी। उन दिनों सुबह सबेरे रिक् शा या कोई अन्य सुविधा न मिलने की वजह से करीब साढ़े तीन बजे सुबह ही घर से पैदल निकल जाना पड़ता था। हमारे मुहल्ले में एक कुत्ता था। जिस दिन वह सुबह सबेरे जग जाता था तो मेरे पीछे-पीछे चल पड़ता था। अगले मुहल्ले के कुत्ते तक पहुंचाता था और 5 किलोमीटर की उस दूरी में यह सिलसिला लगातार चलता था। ऐसी स्थिति में उस 5 किलोमीटर की दूरी में कोई भी कुत्ता मुझे नहीं भौंकता था।
लेकिन सर्दियों में या किसी अन्य दिनों में भी अगर हमारे मुहल्ले वाला कुत्ता पास नहीं देता, दूसरे मुहल्ले में पहुंचते ही सारे कुत्ते भौंकने लगते और यात्रा बहुत कष्टप्रद हो जाती थी।
2002 में मैं लखनऊ आ गया। वहां इंदिरा नगर मोहल्ले में रहता था। एक दिन सुबह 11 बजे देखा कि 10-15 कुत्ते किसी जानवर को नाली में गिराकर मार रहे हैं। मुझे लगा कि कोई बकरी वगैरह का बच्चा है। मुहल्लेवाले लाठी-डंडा लेकर टूट पड़े। आखिर में कुत्ते पीछे हट गए। नाली में से एक कुत्ता निकला, जो जर्मन शेफर्ड था। उसके बाद सारे देशी कुत्ते आपस में लड़ पड़े और 15 मिनट तक उनका आपसी संघर्ष चला।
मेरे मित्र अखिलेश ने इस संघर्ष को मुझे समझाने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि दरअसल जर्मन शेफर्ड पूंजीवादी कुत्ता है, जो मैडम की गोद में, कार में बैठने का आदी है। ये गली के कुत्ते सोचते हैं कि यह कुत्ता जाति और कुत्तत्व को कलंकित कर रहा है, जबकि हमारा असल काम जनसेवा है। लोगों की रखवाली करना है। यह पूंजीवादी कुत्ता सिर्फ उसी की रखवाली कर रहा है, जो इसे रोटी देता है। इसकी खुद की जमीर नहीं है। जैसे ही पूंजीवादी कुत्ता सड़क पर निकला, मौका देखकर सभी कुत्ते उस पर टूट पड़े। लेकिन देसी कुत्तों को मुहल्ले वालों की लाठियां खानी पड़ीं और अंत में उन्हें पूंजीवादी कुत्ते का खात्मा करने में सफलता नहीं मिली और वे उसे छोड़कर चले गए।
मैने अखिलेश जी से पूछा कि आखिर बाद में ये आपस में क्यों लड़ पड़े भाई? उन्होंने फिर समझाने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि दरअसल कुत्तों की इस भीड़ में कुछ सीपीआई व सीपीएम वाले हैं और कुछ माओवादी कुत्ते हैं। अब माओवादी कुत्ते , सीपीआई सीपीएम वालों को मार रहे हैं कि भले ही हमारे 2-4 साथियों की लाश गिर जाती, लेकिन आज इस पूंजीवादी कुत्ते को निपटा ही दिया जाना चाहिए था।
2011 आते आते स्थिति कितनी बदल गई है, उसका नया उदाहण मिला। मेरे एक मित्र के यहां दो पालतू कुत्ते थे। एक जर्मन शेफर्ड और एक डेसमंड। उन्होंने बताया कि डेसमंड बहुत खतरनाक था। कोई भी बाहरी जानवर या व्यक्ति उसकी मौजूदगी में घर के भीतर नहीं घुसने पाता था। 15 दिन पहले की बात है। रात के करीब 2 बजे उनकी बाउंड्री को पीछे से फांदकर करीब 1 दर्जन कुत्ते घुस आए। उन्होंने उनके डेसमंड कुत्ते को इतना बुरी तरह से काट डाला कि मौके पर ही उसकी मौत हो गई। उसके गले से मांस का लोथड़ा निकाल लिया। उधर जर्मन शेफर्ड भौंकता ही रह गया। जब शोर सुनकर मेरे मित्र और उनके परिवार वाले बाहर आए तो गली के कुत्ते अपना काम कर चुके थे और भाग निकले।
मैने अपने मित्र से कहा कि भाई ये 20 साल पुराना संघर्ष है और आज साम्यवादी कुत्तों को विजय मिली है। बचाकर रखिएगा, नहीं तो आपका जर्मन शेफर्ड गया ही समझिए।
अब मेरे मित्र अपनी बाउंड्री ऊंची कराने को सोच रहे हैं!
1 comment:
अभाव या दुर्भाव, प्रश्न सदा ही रहेगा।
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