सबकी अपनी अपनी सोच है, विचारों के इन्हीं प्रवाह में जीवन चलता रहता है ... अविरल धारा की तरह...
Tuesday, July 21, 2009
एक गायिका को करीब से जानने की कोशिश
"वह याद करती हैं, 'मैं कड़ी मेहनत किया करती थी। दिन-रात गानों की रिकॉर्डिंग। एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियों में भागना।' इसका नतीजा यह था, 'मैं दिनभर भूखी रह जाती, क्योंकि तब मैं यह नहीं जानती थी कि रिकॉर्डिंग स्टूडियो में कैंटीन भी होती है और वहां से मैं खरीद कर कुछ खा सकती हूं या चाय ले सकती हूं। अक्सर मैं पूरे दिन बिना खाए और पानी पिए रह जाती। "
अगर आपको मौका दिया जाए तो आप लता मंगेशकर को गाते हुए सुनना पसंद करेंगे या उनकी बातचीत?
बेशक इस पर बहुत अधिक वाद-विवाद की गुंजाइश नहीं है, खासतौर पर तब जब आप सचिन तेंडुलकर की ही तरह मंगेशकर की आवाज के बारे में कह रहे हों।
लंदन की डॉक्यूमेंटरी फिल्म निर्माता नसरीन मुन्नी कबीर ने चैनल 4 के लिए 6 कड़ियों वाली एक डॉक्यूमेंटरी लता मंगेशकर पर बनाई थी और अब कई साल बाद उनके कुछ और साक्षात्कारों के साथ उन्होंने इसे किताब में तब्दील कर दिया, जिसमें पाठकों को गायिका के बारे में काफी कुछ जानकारी मिलेगी।
इसमें लता मंगेशकर ने अपने जीवन और उनकी खुद की आवाज में गाए गए गानों के बारे में बातचीत की है। यह मंगेशकर की आत्मकथा के काफी नजदीक है, जिसमें उनके निजी जीवन से जुड़े विवादों (राज सिंह डूंगरपुर के साथ उनके संबंध)की तस्वीर नहीं है, लेकिन कामकाज की दुनिया से जुड़े कई ऐसे विवादों का जिक्र है।
इन विवादों को उन्होंने बेहद ही शांत और साधारण तरीके से खत्म भी कर दिया। ये विवाद भारत की स्वर कोकिला बनने के 6 दशकों के साथ-साथ ही उनके सामने आते रहे। सांगली के बड़े घर में जहां लता मंगेशकर के पिता थिएटर कंपनी चलाया करते थे, वहीं वह पैदा हुईं और उन्होंने संगीत सीखने की शुरुआत की।
संगीत सीखने के लिए उनके पिता ने अनमने मन से अपनी स्वीकृति दी थी और बचपन में उन्होंने अपने पिता के साथ ही संगीत की शुरुआत भी की। मंगेशकर मानती हैं कि अपनी रोजमर्रा की दीक्षा से बचने के लिए वह 'बहाने बनाती थीं।' वह कहती हैं, 'मैं बहुत छोटी थी और खेलना मुझे बेहद पसंद था', 'मैं ऐसा जताती थी जैसे मेरे सिर या पेट में दर्द हो रहा हो।'
उनके पिता ने उन्हें समझाया, 'हमेशा याद रखो- चाहे गुरु या तुम्हारे पिता तुम्हें सिखा रहे हों- जब भी तुम गाओ तुम सिर्फ अपने बारे में सोचो कि तुम्हें उनसे बेहतर गाना है। यह कभी मत सोचो कि उनकी मौजूदगी में मैं कैसे गा सकूंगी? इसे याद रखना। तुम्हें अपने गुरु से आगे बढ़ना है।' यह ऐसा सबक था जो जीवनभर तक उनके साथ बना रहेगा।
कबीर को उन्होंने बताया, 'बाबा के इन शब्दों को मैं कभी नहीं भूलूंगी।' 'लता मंगेशकर ... इन हर ओन वॉयस' काफी दिलचस्प है, क्योंकि इस किताब के ज्यादातर हिस्से को साक्षात्कार के रूप में लिखा गया है। इन साक्षात्कारों को दिनों या सप्ताहों में नहीं, बल्कि वर्षों में लिखा गया।
मंगेशकर याद कर कहती हैं, 'फिल्मी संगीत को घर पर कभी बहुत नहीं सराहा गया' 'और मेरे पिता एक रूढ़िवादी व्यक्ति थे। हम कैसे तैयार होते हैं, इसे लेकर उनका रवैया काफी कठोर था। हमने कभी पाउडर या मेक-अप नहीं लगाया। हम खुलेआम बाहर जा नहीं सकते थे। नाटक देखने के लिए देर रात हम बाहर जाएं, बाबा को यह पसंद नहीं था, यहां तक कि उनके खुद के।'
कुछ समय बाद ही परिवार के भाग्य ने करवट ली, सांगली मैंशन नीलाम हो गया और उनके पिता का निधन हो गया। वह घर में सबसे बड़ी थीं, तो उन्हें लगा कि आर्थिक जिम्मेदारी को वह बतौर अभिनेत्री पूरा कर सकती हैं। उन्होंने पहले मराठी और बाद में हिंदी सिनेमा में कोशिश की। उन्हें बताया, 'मेरे पास कोई और विकल्प नहीं था', 'लेकिन मुझे मेक-अप, लाइटें, लोगों का आपको आदेश देना, अपने संवाद पढ़ना कभी पसंद नहीं आया। मैं काफी असहज महसूस कर रही थी।'
यह सौभाग्य ही था कि शास्त्रीय संगीत में उनकी शिक्षा और आवाज पर उनका नियंत्रण इतना अच्छा था कि उन्हें कुछ प्लेबैक का काम मिलना शुरू हुआ। कुछ साल बाद फिल्म 'महल' के गाने 'आएगा आनेवाला' से लता को स्थापित होने में मदद मिली। लता अपने काम के लिए जीती हैं।
वह याद करती हैं, 'मैं कड़ी मेहनत किया करती थी। दिन-रात गानों की रिकॉर्डिंग। एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियों में भागना।' इसका नतीजा यह था, 'मैं दिनभर भूखी रह जाती, क्योंकि तब मैं यह नहीं जानती थी कि रिकॉर्डिंग स्टूडियो में कैंटीन भी होती है और वहां से मैं खरीद कर कुछ खा सकती हूं या चाय ले सकती हूं। अक्सर मैं पूरे दिन बिना खाए और पानी पिए रह जाती।'
पांच दशकों बाद भी 'मैं यह नहीं कह सकती की मेरी आर्थिक स्थिति अच्छी है, लेकिन यह बुरी भी नहीं है, क्योंकि मैंने बहुत काम किया है।' रिहर्सल का क्या और स्टूडियो का मिल जाना जब दिन की शूटिंग समाप्त हो जाए, 'हम स्टूडियो की छत पर जाते थे और रातभर रिकॉर्डिंग किया करते थे। वह जगह धूल से भरी हुई थी, लाइटें उस वक्त भी काफी गर्मी पैदा करती थी। हम आवाज के चलते पंखों का इस्तेमाल भी नहीं कर सकते थे।'
लता के व्यक्तित्व का पता इस बात से ही चल जाता है कि उर्दू बोलने पर जब दिलीप कुमार ने उनकी आलोचना की तो उन्होंने उर्दू सीखी। वे यह भी कहती है, 'नैट किंग कोल, बीटल्स, बारबरा स्ट्रीसैंड और हैरी बेलाफोंट उनके पसंदीदा गायक हैं।' मोहम्मद रफी से 'रॉयल्टी पर' उनका झगड़ा हुआ और राज कपूर ने जब 'सत्यम शिवम सुंदरम' के लिए कंपोजर को बदला तो इस पर शम्मी कपूर से उनकी तू-तू, मैं-मैं हुई।
लोगों की हूबहू नकल करना उन्हें बेहद पसंद है, उनकी कारें सबसे पहले सलेटी हिलमैन बाद में शेव्रले, क्राइसलर और पुरानी मर्सीडिज के बाद यश चोपड़ा की ओर से 'वीर जारा' के लिए उन्हें तोहफे के रूप में मिली मर्सीडिज उनकी पसंदीदा चीजों की फेहरिस्त में शामिल है। लता को सिगरेट का धुआं पसंद नहीं, लेकिन हीरे और एमेराल्ड बेहद पसंद हैं।
क्रिकेट और मर्लिन डिट्रिच को स्टेज पर देखने के लिए उनकी विदेश यात्राएं उनका जोश बढ़ा देती हैं। इस किताब में शामिल उनके खुद पर आलोचनात्मक दृष्टिकोण ने इस किताब को और भी यादगार बना दिया है। लता का कहना है, 'मैं हमेशा खुद पर निर्भर करती हूं।' 'इस मामले में, मैंने खुद अपने मुकाम हासिल किए हैं। मैंने लड़ना सीखा। मैं कभी किसी से नहीं डरी। मैं निडर हूं।'
पुस्तक समीक्षा
लता मंगेशकर ... इन हर ओन वॉयस
नसरीन मुन्नी कबीर के साथ बातचीत
प्रकाशक : नियोगी बुक्स
कीमत : 1,500 रुपये
पृष्ठ : 268
http://hindi.business-standard.com/hin/storypage.php?autono=18949
पुतिन की सोच, सभी की समझ से परे
"अगर दुनिया चीन का उत्थान देख रही है और डर से भी वाकिफ है तो वह यह भी जानती है कि चीन डर और शंका के साथ रूस की सोवियत काल के बाद की राजनीति का ही अनुसरण कर रहा है। इस रूसी पहेली के केंद्र में हैं व्लादीमिर पुतिन। पुतिन एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें रूसी जनता का जबरदस्त समर्थन हासिल है।"
गोल्डमैन सैक्स के लोकप्रिय संक्षिप्त नाम ब्रिक में वर्ष 2050 तक ब्राजील, भारत और चीन के साथ रूस को देश की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक के रूप में नामित किया गया है।
इन चारों में से रूस हालांकि अपनी भौगोलिक स्थिति के लिहाज से अलग है, क्योंकि यह यूरोप और एशिया दोनों महाद्वीपों में फैला हुआ है। इसके अलावा एक वक्त था जब रूस दुनिया की महाशक्ति के रूप में जाना जाता था।
अगर दुनिया चीन का उत्थान देख रही है और डर से भी वाकिफ है तो वह यह भी जानती है कि चीन डर और शंका के साथ रूस की सोवियत काल के बाद की राजनीति का ही अनुसरण कर रहा है। इस रूसी पहेली के केंद्र में हैं व्लादीमिर पुतिन। पुतिन एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें रूसी जनता का जबरदस्त समर्थन हासिल है।
वजह भी वाजिब है। पुतिन ही वह व्यक्ति हैं, जिन्होंने येल्तसिन के बाद के वर्षों में रूसी अर्थव्यवस्था में मचे कोहराम को शांत किया। पुतिन के सत्ता में आने के बाद के वर्षों में रूसी अर्थव्यवस्था में जबरदस्त सुधार देखा गया, जिसमें अहम योगदान तेल और गैस की बढ़ती कीमतों का रहा।
पिछले साल के अंत में केजीबी के इस पूर्व अधिकारी ने राजनीतिक विश्लेषकों को हक्का-बक्का कर दिया। अपनी जगह पुतिन ने अपने विश्वासपात्र दमित्री मेदवेदेव को राष्ट्रपति पद के लिए अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और खुद प्रधानमंत्री बन बैठे।
2008 में राष्ट्रपति पद छोड़ते वक्त उन्होंने पत्रकारों से कहा था, 'मैं क्रैमलिन छोड़ रहा हूं, रूस नहीं।' और उन्होंने अपना वादा निभाया, भले ही उनके प्रधानमंत्री बनने की उम्मीद किसी ने न की हो। इसलिए क्षेत्रफल के आधार पर सबसे बड़े देश कीअर्थव्यवस्था और भविष्य की विश्व राजनीति का सूत्रधार कौन है?
क्या वह आधुनिक युग का राजनेता है, जिसमें 17वीं शताब्दी के जार की सोच समाई हुई है? क्या वह पूंजीवादी के भेष में स्टालिनवादी है? डाई वेल्ट के प्रमुख संवाददाता माइकल स्टूअर्मर ने अपनी पुस्तक की भूमिका में लिखा है, 'दो शताब्दियों में ऐसा पहली बार नहीं है कि रूस अपनी अर्थव्यवस्था को लेकर दुनिया को हैरत में डाल चुका है।'
दुर्भाग्यवश, 228 पेज की उनकी किताब और अधिक जानकारी मुहैया नहीं करा पाई। अपनी लगन में पक्के स्टूअर्मर के हाथ भी पत्रकारों पर लगी सोवियंत संघ की पाबंदियों से बंधे हैं, हालांकि देश अपने चेहरे से मार्क्सवादी मुखौटे को उतार कर फेंक चुका है और देश की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में तब्दील हो चुका है।
नतीजतन, रूस पर नजर बनाए हुए किसी भी दूसरे व्यक्ति की ही तरह स्टूअर्मर के स्रोत भी पुतिन की सार्वजनिक सभाओं और प्रेस सम्मेलनों तक ही सीमित रहे। इसमें उनके साक्षात्कार की भी झलक देखने को नहीं मिली। स्टूअर्मर ने अपनी पुस्तक की शुरुआत वर्ष 2007 में पुतिन के सुरक्षा सम्मेलन पर एक भाषण से की है।
म्युनिख में अपने इस भाषण के दौरान पहली बार पुतिन ने दुनिया के सामने अपना दृष्टिकोण रखा था। यह भाषण बुनियादी सच्चाई से जुड़ा हुआ था, क्योंकि इसमें सोवियत के बाद पश्चिमी देशों के शोषण और घेराव के डर को लेकर रूस की चिंता साफ दिखाई देती थी। साथ ही इसमें पहली बार दुनिया में रूस की स्थिति को लेकर उनका दृष्टिकोण देखने को मिला था, जिसमें वैश्विक मामलों में रूस भी एक बराबर का भागीदार था।
स्टूअर्मर ने लिखा है, 'भविष्य में इतिहासकार म्युनिख में पुतिन के इस भाषण को असहजता से उपजी हुई एक नपी-तुली चुनौती के रूप में देखेंगे।' 'म्युनिख में पश्चिमी देशों ने ऐसी चीजों का जिक्र किया, जो पुतिन नहीं चाहते थे। लेकिन क्या पुतिन जानते थे कि वह खुद क्या चाहते हैं।'
जिन पाठकों को किताब में इस सवाल के जवाब की उम्मीद होगी, उन्हें निराशा ही हाथ लगेगी। शुरुआती अध्यायों में रूस के सोवियत के बाद के इतिहास पर से धूल हटाई गई है और उन्होंने इसमें एक कहानी बुनी है, जिसमें उन्होंने तेजी से आगे बढ़ रहे पुतिन को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में दिखाया है जो अब किसी खास जगह से जुड़ा हुआ नहीं है।
इस पुस्तक में जो सबसे दिलचस्प अध्याय लगा वह है, 'पुतिन्स पीपल'। इसमें स्टूअर्मर ने क्रैमलिन के एक वरिष्ठ अधिकारी ओलेग श्वार्त्समैन के रूस के एक व्यावसायिक समाचार पत्र में छपे साक्षात्कार से कुछ बातें डाली हैं। स्टूअर्मर का कहना है कि इस साक्षात्कार से 'आज के रूस में सत्ता की ताकत की कार्यप्रणाली की आंतरिक तस्वीर देखने को मिली है।'
असल में उन्होंने जो बताया, वह 'वैक्यूम क्लीनर प्रणाली' के रूप में जाना गया। उन्होंने अपने साक्षात्कार में कहा, 'यह वैक्यूम क्लीनर की तरह काम करता है, जो कंपनियों की परिसंपत्तियों को सोख कर ऐसे ढांचे में डाल देती हैं, जो जल्द ही सरकारी निगमों में तब्दील हो जाते हैं। इसके बाद इन परिसंपत्ति को पेशेवर अगुआओं के हाथों सौंप दिया जाता है। ये उपाय स्वेच्छा और अनिवार्यता दोनों तरीकों से लागू होते हैं... ये सरकार के हाथों में परिसंपत्ति के समेकन के लिए आज के दिशा-निर्देश हैं।'
बाकी किताब के लिए स्टूअर्मर ने गैजप्रॉम की ताकत और विकास के लिए रूस की तेल और गैस की कीमतों पर अनिश्चित निर्भरता पर रोशनी डाली है। उन्होंने देश के जनसांख्यिकीय संकटों, जिनमें आदमी ज्यादातर शराब पीने की वजह से मर रहे थे और जनसंख्या धीमी रफ्तार से बढ़ रही है, का भी जिक्र किया।
हैरत की बात है कि इसमें इस बात की भी चर्चा की गई है कि रूसी जनसंख्या कम हो रही है, जबकि मुस्लिमों की संख्या में इजाफा हो रहा है। गौरतलब है कि इस्लाम धर्म को लेकर वहां भेदभाव होता है। ऐसा ही भेदभाव हिटलर ने यहूदियों के खिलाफ किया था।
पुस्तक इस मायने में उपयोगी है कि इससे आपको रूस की समस्याओं के बारे में तत्काल जानकारी मिल जाती है। यदि पुतिन के रूस में वाकई आंतरिक जानकारी हासिल करनी हो तो पत्रकार ऐना पोलित्कोव्स्काया (जिनकी हत्या की गई) की पुस्तक हमेशा आदर्श रूप में देखी जाती है।
पुस्तक समीक्षा
पुतिन ऐंड दी राइज ऑफ रशिया
लेखक : माइकल स्टूअर्मर
प्रकाशक : हैशे इंडिया
कीमत : 650 रुपये
पृष्ठ : 253http://hindi.business-standard.com/hin/storypage.php?autono=19238
Thursday, July 16, 2009
नाबालिगों की रक्षा के लिए भी होता था धारा 377 का इस्तेमाल
श्रीलता मेनन"क्या यह मामला समलैंगिक संबंध रखने वालों की नैतिक विजय है, ऐसा मुश्किल से कहा जा सकता है। ऐसा एक भी मामला नहीं है जहां इस धारा का इस्तेमाल समलैंगिकों या सहमति से समलैंगिक संबंध बनाने वालों के खिलाफ किया गया हो।"
समलैंगिक संबंधों पर पाबंदी लगाने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल में असंवैधानिक घोषित किया है।
यह फैसला ऐसे लोगों को जीत का झूठा अहसास दिला रहा है जिन्हें लगता है कि यह मामला समलैंगिक अधिकारों की रक्षा करने वाले लोगों और इसका विरोध करने वालों के बीच संघर्ष का था।
लेकिन यह मामला समलैंगिकों के अधिकारों से कतई संबंधित नहीं है। हकीकत तो यह है कि इस धारा का इस्तेमाल नाबालिगों की यौन उत्पीड़न से रक्षा करने में भी किया जाता रहा है।
अवकाश प्राप्त न्यायाधीश जे. एन. सल्डान्हा ने भी एक बार इस धारा का इस्तेमाल यौन उत्पीड़न के शिकार हुए 10 साल के बच्चे को इंसाफ देने में किया था और इस मामले में दोषी पाए गए एक तांत्रिक को 10 साल की कैद व 25 लाख रुपये के जुर्माने की सजा मिली थी।
न्यायमूर्ति सल्डान्हा का कहना है कि किशोर न्याय अधिनियम और बाल अधिनियम बच्चों की रक्षा के लिए मौजूद हैं, लेकिन इन अधिनियमों में यौन उत्पीड़न से बच्चों की रक्षा के लिए कठोर प्रावधान नहीं हैं। उन्होंने कहा - हालांकि यह मामला दिल्ली उच्च न्यायालय तक ही सीमित है, लेकिन अब बेहतर यही होगा कि इस धारा के बारे में बातचीत भूतकाल में ही की जानी चाहिए।
स्वतंत्रता एवं समानता के मौलिक अधिकार के आलोक में इस धारा को उच्च न्यायालय ने असंवैधानिक घोषित किया है। न्यायाधीश ने कहा कि ऐसे में कानूनी रूप से यह सभी अदालतों और भविष्य के मामलों को संदेह के घेरे में लाता है। अब नाबालिगों केलिए क्या बचा है?
क्या यह मामला समलैंगिक संबंध रखने वालों की नैतिक विजय मानी जाएगी, ऐसा मुश्किल से कहा जा सकता है। ऐसा एक भी मामला नहीं है जहां इस धारा का इस्तेमाल समलैंगिकों या सहमति से समलैंगिक संबंध बनाने वालों के खिलाफ किया गया हो।
लेकिन याचिका दाखिल करने वाले संगठन नाज फाउंडेशन का दावा है कि इस कानून की वजह से भारत में समलैंगिक संबंध रखने वाली महिलाओं और पुरुषों, उभयलिंगी और ट्रांसजेंडर लोगों को ब्लैकमेलिंग, उत्पीड़न और मौत का शिकार होना पड़ा है।
http://hindi.business-standard.com/hin/storypage.php?autono=21031
हां... ओबामा कर सकते हैं!
उन्हें यायावर कहा जा रहा था, जो किसी सर्द और अंधेरे कोने से भटकते हुए अमेरिकी राजनीति के मंच पर आ पहुंचे थे।
दो लगातार लड़ाइयों और आतंकी हमलों से टूट चुके, बेजार अमेरिका को उनकी शख्सियत तिलिस्मी लगी, एक पहेली, जिसे बूझने की कुव्वत उसके पास नहीं थी। इससे पहले डेमोक्रेटिक पार्टी मान चुकी थी कि राष्ट्रपति की कुर्सी अब हिलेरी क्लिंटन के लिए है।
हिलेरी ने तो बहुत पहले ही व्हाइट हाउस पर निगाह जमा भी ली थी। लेकिन अचानक हिफाजत और सेहत की बात फिजां में तैरने लगी और अमेरिका के डरे, सहमे वाशिंदों को लगा कि इन्हें हासिल करने के लिए अब बदलाव जरूरी है। बदलाव.. यानी बराक ओबामा।
रिचर्ड वोल्फ न्यूजवीक के वरिष्ठ संवाददाता हैं और एक वक्त फाइनैंशियल टाइम्स के साथ भी काम कर चुके हैं। उन्हें लगता है कि बराक ओबामा पर किताब लिखना इसलिए भी वाजिब है क्योंकि उनकी कहानी से अब तक लोग रूबरू नहीं हुए हैं। वोल्फ ने यह काम राष्ट्रपति पद की होड़ में शामिल होने के ओबामा के ऐलान के साथ ही शुरू कर दिया।
दिलचस्प है कि जिस तरह राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारी संभालने से पहले सोनिया गांधी की मुखालफत का सामना करना पड़ा था, वैसा ही ओबामा के साथ भी हुआ। वोल्फ लिखते हैं, 'संसद तक पहुंचने की ओबामा की कोशिश 2000 में नाकाम हो चुकी थी, जिससे मिशेल को बेहद नफरत थी और उनकी छोटी बेटी के जन्म के समय उनकी शादी पर भी खतरा मंडरा रहा था।
उनके बीच बातचीत न के बराबर थी और रोमांस तो गायब ही हो गया था। मिशेल को ओबामा की खुदगर्जी और करियर के पीछे दौड़ने की फितरत से नफरत थी, जबकि ओबामा मानते थे कि उनकी पत्नी बेहद सर्द स्वभाव की और नाशुक्र किस्म की थीं।'
मिशेल की चिंता थी कि ओबामा का रोजमर्रा का कार्यक्रम कैसा होगा। वह घर पर कितना रुकेंगे? बेटियों और पत्नी के लिए उनके पास कितना वक्त होगा? क्या हफ्ते के आखिर में वह घर पर रुक पाएंगे? और उन्हें जवाब मिला - नहीं! इधर ओबामा ने तय कर लिया कि उन्हें चुनाव लड़ना है और उन्होंने वोल्फ को प्रचार अभियान पर लिखने की सलाह दी। वोल्फ की किताब 'द मेकिंग ऑफ बराक ओबामा' में 21 महीने का ब्योरा है, जिसमें वह 'उम्मीदवार ओबामा' के साथ चले और 'राष्ट्रपति ओबामा' के साथ व्हाइट हाउस पहुंचे। हरेक रणनीति में शामिल रहे, ओबामा के भाषणों, उनकी गलतियों, उनकी कमजोरियों, उनकी ताकत और अमेरिका को बदलने के उनके भरोसे को बेहद करीब से वोल्फ ने महसूस किया।
एकबारगी ओबामा ने वोल्फ से कहा, 'तुम्हें पता है, मेरे लिए भरोसे का क्या मतलब है? मैं केवल बदलाव के नाम पर बदलाव नहीं चाहता। मैं चाहता हूं कि बेघर बच्चों को अच्छे स्कूल मिलें। मैं सबके लिए सेहत चाहता हूं।'
जब ओबामा ने इओवा गुट का समर्थन हासिल किया, तो उनकी टीम में शामिल डेविड प्लॉफ ने कहा, 'यह राजनीति का होली ग्रेल है। (ईसाई धर्म में होली ग्रेल वह प्याला है, जिसका इस्तेमाल ईसा मसीह ने सूली पर चढ़ाए जाने से पहले अपने आखिरी भोजन में किया था।
इसे करिश्माई ताकत वाला माना जाता है और इसे पाने के लिए सदियों से कोशिशें चल रही हैं।)' लेकिन इस जबरदस्त जीत का खुमार एक ही झटके में उतर गया, जब न्यू हैंपशायर में ओबामा को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। लेकिन यहीं से ओबामा ने नारा दिया, 'हां, हम यह कर सकते हैं।'
21 महीने में अमेरिका की किस्मत बदल गई, 21 महीने में बराक ओबामा की भी किस्मत बदल गई। इस दरम्यान वोल्फ ओबामा की परछाईं बने रहे। उन्हें ओबामा को अमेरिका में सड़कों पर राजनीति की बिसात बिछाने वाले आयोजकों के सामने मुस्कराते देखा, मतदाताओं से हाथ मिलाते देखा, भाषण का अभ्यास करते देखा, अपने परिवार का इतिहास उसमें मिलाते देखा और अमेरिका के सामने पड़ी संभावनाओं की झांकी सबके सामने रखते हुए भी देखा।
ओबामा को थकान महसूस नहीं होती, वह बहुत बड़ा सोचते हैं, हार और जीत में भी सबक सीखते हैं, अपने परिवार को मीडिया की पैनी निगाहों से बचाना जाते हैं, शायद इसी वजह से अमेरिका ही नहीं दुनिया में बदलाव की बयार की ठंडक इस किताब में मौजूद है।
पुस्तक समीक्षा
द मेकिंग ऑफ बराक ओबामा
संपादन : रिचर्ड वोल्फ
प्रकाशक : वर्जिन बुक्स
कीमत : 13.99 पाउंड
पृष्ठ : 365
http://hindi.business-standard.com/hin/storypage.php?autono=21367
Wednesday, July 15, 2009
बाबू मोशाय, बिहार से बजट में ऐसा भेदभाव!
लोकसभा चुनाव के पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को अपने पाले में शामिल करने की कोशिश करने वाली कांग्रेस ने सरकार बनने के बाद बिहार को निराश कर दिया है।
दरअसल चुनाव परिणाम आने के पहले कांग्रेस को खुद के गठजोड़ के दम पर सरकार बनने की उम्मीद नहीं थी और उस समय प्रधानमंत्री ने भी बिहार को सैध्दांतिक रूप से विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने को समर्थन दिया। लेकिन प्रणब मुखर्जी ने अपने बजट से बिहारी बाबू के खासा नाराज कर दिया।
नीतीश कुमार ने कहा कि हमें उम्मीद थी कि राज्य के पिछड़ेपन और स्थानीय लोगों के पलायन को ध्यान में रखते हुए सरकार निश्चित रूप से बजट में अलग से सहायता का प्रावधान करेगी, लेकिन बजट में तो मनमोहन सरकार खुद के वादों से भी मुकर गई। कुमार ने कहा कि सरकार ने बिहार के विकास की जरूरतों को नहीं समझा।
अगर बजट में राज्यों को विशेष सहायता दिए जाने की सूची को देखें तो तमिलनाडु को श्रीलंका से आए विस्थापितों को बसाने के लिए 500 करोड़ रुपये, पश्चिम बंगाल में आइला तूफान से हुए नुकसान की भरपाई के लिए 1000 करोड़ रुपये, दिल्ली में कामनवेल्थ खेलों के लिए 16,300 करोड़ रुपये दिए गए, वहीं बिहार में कोसी नदी से आई बाढ़ को पिछली संप्रग सरकार के कार्यकाल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने खुद राष्ट्रीय आपदा घोषित किया था और उस समय सहायता दिए जाने की बात कही गई।
उस सरकार में प्रमुख भागीदार रहे लालू प्रसाद केंद्र पर दबाव बनाने में सफल रहे थे, लेकिन वर्तमान संप्रग सरकार में बिहार की हिस्सेदारी खत्म हो गई और सरकार ने कोसी की बाढ़ से पीड़ित बिहार के लोगों के लिए कोई आर्थिक सहायता देने की जरूरत नहीं समझी।
राज्य सरकार ने बिहार की गरीबी और स्थानीय लोगों के दूसरे राज्यों में बढ़ते विस्थापन के आंकड़े देते हुए केंद्र सरकार से विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग की थी। राज्य की उम्मीदें तब और प्रबल हो गई, जब राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद ज्ञापन करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राज्य के पिछड़ेपन को स्वीकारा, लेकिन बजट में विशेष श्रेणी या विशेष पैकेज जैसी कोई बात सामने नहीं आई।
यहां तक कि पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु के लिए हैंडलूम क्लस्टर की घोषणा की गई, लेकिन भागलपुर के हैंडलूम क्षेत्र की पूरी तरह से उपेक्षा कर दी गई। राज्य के वित्तमंत्री सुशील कुमार मोदी ने कहा कि राजस्व के मसले में भी केंद्र सरकार ने निराश किया है।
उन्होंने कहा कि अंतरिम बजट में बिहार के हिस्से 18,154 करोड़ रुपये आया था, लेकिन प्रणब मुखर्जी के 2009-10 के अंतिम बजट में इसे कम कर 18,909 करोड़ रुपये कर दिया गया। पिछले साल की तुलना में राज्य को दिए जाने वाले राजस्व में केवल 2.6 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।
मोदी ने कहा कि इसके लिए मंदी का हवाला दिया जा रहा है, लेकिन इन्हीं परिस्थितियों में राज्य सरकार ने आंतरिक कर राजस्व में 20 प्रतिशत की बढ़ोतरी की है। उम्मीद थी कि राज्य को केंद्र की मदद मिल जाएगी, लेकिन बजट ने भी राज्य को निराश कर दिया।
ख्वाहिशें... जो नहीं हुई पूरी
विशेष राज्य का दर्जा
पिछड़ेपन और पलायन को देखते हुए विशेष पैकेज
कोसी नदी में आई बाढ़ के बाद पीड़ितों की मदद के लिए रकम
विशेष सड़क योजना के लिए सहायता
केंद्र सरकार के राजस्व में हिस्सेदारी बढ़ाना
भागलपुर को हैंडलूम क्लस्टर के रूप में आर्थिक मदद
किशनगंज में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय कैंपस खोलने के लिए मदद
http://hindi.business-standard.com/hin/storypage.php?autono=21235