देश की आर्थिक रणनीति तैयार करने में लंबे समय से जुड़े मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने कहा कि समझ में नहीं आता कि खाद्यान्न के दाम बढ़ने पर इतना हो हल्ला क्यों है, इसका फायदा तो किसानों को ही मिलेगा। मोंटेक सिंह जी, कहीं यह झूठ राजनेताओं ने मतदान के पहले जनता के सामने बोला होता, तो शायद कांग्रेस धूल चाटती नजर आती।
बिचौलिए मुनाफा खा रहे हैं, हो सकता है कि प्रसंस्करण इकाइयों को फायदा हो, साथ ही बड़े आयातकों को भी आयात कराकर मुनाफा कराया जा रहा हो, लेकिन किसानों को तो कहीं से फायदा नहीं हो रहा है। उन्हें तो फायदा तब होता, जब अनाज खेतों से उपजने के बाद भी रेट महंगे रहते, न्यूनतम समर्थन मूल्य मूल्य उनके उत्पादन लागत से ५० प्रतिशत ज्यादा होता और सारा खाद्यान्न सरकार खरीद लेती और उसके बाद उसे बाजार में उतारती।
आइए देखते हैं कि क्या है आंटे दाल का भाव। चावल और गेहूं के अलावा कमोबेश सभी कृषि जिंसों के भाव पिछले महीने भर में 20 फीसदी से ज्यादा उछल गए हैं। देश में होने वाले कुल कृषि उत्पादन में 20 फीसदी हिस्सेदारी खरीफ के अनाज, दालों और तिलहनों की होती है। रबी की फसलें भी इसमें 20 फीसदी योगदान करती हैं। बाकी 60 फीसदी बागवानी, मांस और मछली उद्योग से मिलता है।
हालांकि योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने इस साल के आखिर तक सरकारी कवायद की वजह से खाने पीने की वस्तुओं के दाम कम हो जाने की उम्मीद जताई है, लेकिन यह बहुत दूर की कौड़ी लग रही है।
17 अक्टूबर को थोक मूल्य सूचकांक पिछले साल 17 अकटूबर के मुकाबले 1.51 फीसदी बढ़ा, लेकिन खाद्य मूल्य सूचकांक में 12.85 फीसदी की उछाल देखी गई। कृषि उत्पादों के वायदा कारोबार की देश की सबसे बड़ी संस्था नैशनल कमोडिटी ऐंड डेरिवेटिव्स एक्सचेंज (एनसीडीईएक्स) मुख्य अर्थशास्त्री और ज्ञान प्रबंधन प्रमुख मदन सबनवीस अहलूवालिया की बात से सहमत नहीं हैं।
उन्होंने कहा, 'देश के हरेक क्षेत्र में अलग-अलग वस्तुओं की खपत कम-ज्यादा रहती है और इस मामले में उपभोक्ताओं का जायका बदल नहीं सकता। चने की दाल सस्ती और आसानी से उपलब्ध है, केवल यही सोचकर अरहर की जगह कोई चने की दाल खाना शुरू नहीं करेगा। इसी तरह कुछ खास राज्यों में चावल कभी गेहूं की जगह नहीं ले सकता। इसलिए सरकार लाख चाहे, कीमतों में तेजी रुक नहीं सकती।'
इस साल मॉनसून की लुकाछिपी की वजह से खरीफ की फसल में 18 फीसदी कमी का अंदेशा जताया जा रहा है। इसी तरह रबी की फसल में गेहूं भी पिछले साल से कम होने की बात कही जा रही है। पिछले कुछ वर्षों में कुल खाद्यान्न उत्पादन में रबी का योगदान बढ़ा है और पिछले वित्त वर्ष में यह हिस्सेदारी 50 फीसदी रही थी।
हालांकि प्रमुख अनाज गेहूं और चावल के दाम कम बढ़े हैं क्योंकि कारोबारियों को डर है कि सरकार दाम काबू करने के लिए पिछले रबी और इस बार के खरीफ सत्र में बनाए गए बफर स्टॉक का इस्तेमाल कर लेगी। लेकिन दालों, चीनी और मसालों के ऐसे भंडार मौजूद नहीं हैं और फसल भी कमजोर हुई है, जिसकी वजह से इनके दाम बेलगाम हो रहे हैं।
सबनवीस कहते हैं कि घरेलू उत्पादन पर बहुत कुछ निर्भर करता है। चीनी को ही लीजिए। विदेशों में भी कीमत ज्यादा है, इसलिए सरकार कच्ची चीनी का आयात नहीं कर सकती। हल्दी का न तो बफर स्टॉक है और न ही उसके आयात की कोई गुंजाइश है, इसलिए घरेलू उपज पर ही ये निर्भर हैं।
आखिर कैसे भरें पेट
उत्पाद 4 अक्टूबर 4 नवंबर
चावल 33 34
गेहूं 18 20
आटा 20 24
सूजी 20 24
मैदा 20 26
चीनी 32 38
तुअर 90 110
हल्दी 120 160
अंडे* 30 38
सभी भाव रुपये प्रति किलोग्राम
* अंडे के भाव रुपये प्रति दर्ज़न
2 comments:
भावों में कमी बढ़त का नफा उसको मिलता है जो बाजार समझता है। जरूरत किसान को बाजार की समझ सिखाने की है।
और यह सिखाने में किसी का स्वार्थ नहीं है। लिहाजा किसान को अर्थ ज्ञान सिखाने की बजाय राजनीति का मोहरा ही बनाया जाता है।
montek ko kya matlab mere-apke menu se...
kalam ko badhaee
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