प्रतिस्पर्धा से न केवल कारोबारियों, बल्कि ग्राहकों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। जरूरत से ज्यादा प्रतिस्पर्धा से किसी का भला नहीं होता है। लेकिन इस वक्त इसका कोई विकल्प भी नहीं है। बिजनेस स्टैंडर्ड में प्रकाशित यह लेख इसके विभिन्न पहलुओं को उजागर कर रहा है.... पेश है लेख
अजित रानाडे
एडम स्मिथ के वक्त से ही अर्थशास्त्री इस बात पर आंख मूंद कर भरोसा करते हैं कि खुले बाजार और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के नतीजे बेहतरीन होते हैं। इससे उपभोक्ताओं का भला होता है क्योंकि उन्हें कम से कम कीमत चुकानी पड़ती है।
साथ ही, इससे उत्पादकों को भी कार्यकुशल होने में मदद मिलती है। सामाजिक तौर पर इससे सीमित संपदा के बेहतरीन इस्तेमाल में मदद मिलती है। प्रतिस्पर्धा की वजह से सभी को अपने-अपने लक्ष्यों के पीछे भागने की इजाजत तो होती है, लेकिन आश्चर्यजनक तरीके से इससे सामाजिक तौर पर सभी का भला होता है।
स्मिथ के ऐतिहासिक शब्दों में कहें तो लोगों को किसी कसाई या खानसामे की दरियादिली की वजह से नहीं, बल्कि इसीलिए खाना मिलता है क्योंकि वे दूसरे कसाइयों या खानसामों के मुकाबले कम दरों पर खाना बेचकर कमाई करते हैं।
बीते 200 सालों में मुक्त प्रतिस्पर्धा को लेकर मौजूद इस अंधविश्वास पर कई तरह के सवाल भी उठे हैं। हालांकि, ये सवाल सिर्फ 'मुक्त और स्वस्थ' प्रतिस्पर्धा तक ही सीमित रहे हैं। किसी ने प्रतिस्पर्धा के फायदों पर सवाल नहीं उठाए हैं। प्रतिस्पर्धा का यह सिध्दांत सिर्फ वैश्विक या घरेलू कारोबार तक ही सीमित नहीं रहा है। यह आपके और हमारे निजी जीवन में भी उतर आया है।
चाहे मामला स्कूलों में प्रवेश का हो या परीक्षाओं का, खेल का हो या स्वास्थ्य का या फिर राजनीति ही क्यों न हो, आप हर जगह इस सिध्दांत को देख सकते हैं। आधुनिक विश्व की ज्यादातर आर्थिक योजनाएं खुले बाजार और स्वस्थ प्रतिस्पध्र्दा को बढ़ावा देने के लिए बनाई जाती है। बाकी सारी बातें बाजार के लिए छोड़ दी जाती हैं।
इस बारे में आसानी से यह दावा किया जा सकता है कि लाइसेंस राज को खत्म करना इस ओर आधुनिक भारत के लिए एक बड़ा कदम था। इससे मुल्क में प्रतिस्पध्र्दा में तेजी आई और उपभोक्ताओं के साथ-साथ उत्पादकों का भी भला हुआ। इसी तरह कर की दरों में कमी और रुकावटों को खत्म करने से विदेशी कंपनियां अपने देश की तरफ आईं, जो फिर से भारत के लिए एक सही कदम साबित हुआ।
अगर इन विदेशी कंपनियों के खिलाफ अपने देश के कारोबारियों के दिल में कोई टीस है तो बस यही कि आज भी देसी बाजार में सबको एक समान नहीं माना जाता। प्रतिस्पर्धा से आज कोई नहीं डरता है। हाल ही प्रतिस्पर्धा आयोग का गठन भी इसीलिए हुआ है क्योकि देश में प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिल सके। हालांकि, आज ही एक सवाल नहीं पूछा गया है।
सवाल यह है कि जरूरत से प्रतिस्पर्धा जैसी भी कोई चीज होती है क्या? और कब प्रतिस्पर्धा से उपभोक्ताओं और समाज को नुकसान होने लगता है? वित्त जगत के लिए ऐसे सवाल कोई नई बात नहीं हैं। असल में लीमन संकट ने इस बात को साबित किया है कि बेरोक-टोक वाली प्रतिस्पर्धा (साथ में ढीले नियमन और जरूरत से ज्यादा खुली मौद्रिक नीति) की वजह से मुसीबत का दौर आया।
आज पश्चिमी मुल्कों के नेता प्रतिस्पर्धा के स्तर पर लगाम कसना चाहते है। यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) भी विकासशील मुल्कों की तरफ या वहां से आने वाली रकम पर नियंत्रण की हिमायत कर रहा है। उसके मुताबिक मुनाफे के लिए ऐसी प्रतिस्पध्र्दा इन बाजारों के लिए अच्छी नहीं होगी क्योंकि इन बाजारों में ज्यादा गहराई नहीं है।
हालांकि, अत्यधिक प्रतिस्पर्धा को लेकर हमारी चिंता का स्वरूप ज्यादा स्थानीय और स्पष्ट है। साथ ही, यह वित्तीय बाजारों को लेकर भी नहीं है। मिसाल के तौर पर देसी टेलीकॉम कंपनियों को ही ले लीजिए। जबरदस्त प्रतिस्पर्धा की वजह से इन कंपनियों ने कई क्रांतिकारी विचारों को अपनाया। इससे न सिर्फ उनके मुनाफे में इजाफा हुआ, बल्कि इससे भारत में टेलीकॉम सुविधाएं भी दुनिया के सबसे कम दरों पर मिलने लगीं।
इन क्रांतिकारी विचारों में एक था, सभी तकनीकी संबंधित कामों की आउटसोर्सिंग और सिर्फ अपने उपभोक्ताओं और ब्रांड पर ध्यान देना। दूसरा अनूठा विचार था, चिर प्रतिद्वंद्वी कंपनियों के बीच टावर की साझेदारी करने का। लेकिन लगातार बढ़ती प्रतिस्पर्धा की वजह से भला होने के बजाए सबका बुरा ही हुआ। आज इस सेक्टर में नेटवर्क के अक्सर जाम रहने से उपभोक्ताओं की संतुष्टि का स्तर लगातार नीचे जा रहा है।
कीमतों को लेकर छिड़ी जंग की वजह से सभी के मुनाफे पर असर पड़ा है। यहां तक कि लोगों के बीच चर्चा का विषय बने 3जी स्पेक्ट्रम की नीलामी में ऊंची कीमत की वजह से इस सेक्टर पर काफी बुरा असर पड़ने की उम्मीद जताई जा रही है। कई रेटिंग एजेंसियों ने इस सेक्टर के लिए अपनी रेटिंग को कम कर दिया है। स्पेक्ट्रम की नीलामी की प्रक्रिया को पाक साफ रही, लेकिन यह इसके विजेताओं के लिए किसी श्राप से कम नहीं है।
इस नीलामी से पहले ही मुल्क के ज्यादातर सर्किलों में ऑपरेटरों की तादाद दुनिया में ज्यादा है। तो क्या ज्यादा प्रतिस्पर्धा के दुष्प्रभाव का मामला है? या फिर मुल्क की सस्ती एयरलाइनों की कहानी को ही ले लीजिए? यहां भी कंपनियों ने क्रांतिकारी विचारों को अपनाया. जिससे इस सेक्टर का तेजी से विकास हुआ। साथ ही, उपभोक्ताओं को कई सुविधाएं भी मिलीं।
जब दुनिया की बाकी एयरलाइन कंपनियां दिवालिया हो रही थीं, तब भी ये सेक्टर तेजी से बढ़ रहा था। लेकिन यहां भी उपभोक्ता संतुष्ट नहीं हैं। आप चाहें तो माइक्रोफाइनैंस सेक्टर की तरफ भी देख सकते हैं। इस सेक्टर के विकास ने मुल्क में वित्तीय समावेशन को बढ़ावा दिया। इसमें कई नई सोच वाली और प्रतिस्पर्धात्मक कंपनियां कूद पड़ीं, जिससे ग्रामीण महिलाओं का काफी भला हुआ।
इन्होंने भी अपने काम काज के मामले में कई नई बातों को अपनाया और स्वयं सहायता समूहों को बढ़ावा दिया। हालांकि बीते दिनों में कुछ शिकायतें यहां से भी सुनने को मिल रही हैं। कई माइक्रोफाइनैंस संस्थाएं एक ही कर्ज लेने वाले समूह के पीछे भाग रही हैं, ताकि वे उनका लोन ले सकें। यहां कर्ज इसलिए दिया जाता है, ताकि ये महिलाएं अपने छोटे से कारोबार को बढ़ावा दे सकें।
हालांकि, एक वक्त के बाद जरूरत से ज्यादा कर्ज के बोझ के तले इंसान दब जाता है। तो क्या यहां भी एक सबप्राइम संकट पक रहा है? क्या यह भी जरूरत से ज्यादा प्रतिस्पध्र्दा का मामला नहीं है? आपको इस तरह के कई उदाहरण मिल जाएंगे। इंजीनियरिंग कॉलेजों की देश में जैसे बाढ़ ही आ गई है। भले ही उसमें न तो अध्यापक हैं और न ही छात्र।
टेलीविजन चैनलों को देख कर भी जरूरत से ज्यादा प्रतिस्पर्धा का खतरा ही नजर आता है। एक बड़ी मिसाल चुनाव आयोग भी है। आयोग में हर दिन कई राजनीतिक दलों का पंजीकरण होता है। अब तक यह तादाद करीब 1,000 के आंकड़े को पार कर गई है। ऊपर से आयोग के पास इन्हें अपंजीकृत करने का अधिकार भी नहीं है।
अब अर्थ जगत की ओर वापस आते हैं। अगर एक पल के लिए अति प्रतिस्पर्धा को मान लें, तो बड़ा सवाल यह है कि इस स्थिति के बारे में फैसला कौन करेगा? अगर इस बार को मानें तो बदकिस्मती से इसे रोकने के लिए हमें फिर से 1991 से पहले के दौर में लौटना पड़ेगा, जब लाइसेंस राज का बोलबाला था।
स्मिथ की सोच को मजूबत देने का श्रेय जोसेफ शूएंप्टेर को जाता है। उन्होंने कहा था कि प्रतिस्पर्धा असल में तात्कालिक एकाधिकार की एक शृंखला होती है, जहां प्रतिद्वंद्वियों से सबसे अच्छी सोच वाले का बोलबाला होता है। इससे कंपनियों का रचनात्मक विनाश होता है, जहां नई कंपनियां पुरानी की जगह लेती हैं। इसीलिए भले ही इस वक्त स्पेक्ट्रम और आकाश में भीड़ है, लेकिन ज्यादा प्रतिस्पध्र्दा जैसी कोई चीज नहीं होती। मिट्टी डालिए ऐसे विधर्मी विचार पर। (लेखक आदित्य बिड़ला समूह में मुख्य अर्थशास्त्री हैं। ये उनके निजी विचार है।)
http://hindi.business-standard.com/storypage.php?autono=35292
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