पिछले तीन दिन से समाचार पत्र पढ़ते, टीवी चैनल देखते और नेताओं अधिकारियों के बयान सुनते मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि मजदूर मरने के लिए बने हैं। उदारीकरण, औद्योगीकरण के शाइनिंग इंडिया में ही इसकी नींव रख दी गई और इसका कोई विकल्प अब नहीं है। कौन है जो शाइनिंग इंडिया के खिलाफ जा सकता है या जाने की हिम्मत रखता है। न तो कोई अधिकारी-नेता समस्या के समाधान का इच्छुक है, न ही वह इस मसले पर बात कर रहा है। समस्या के समाधान की योजना बनाना तो दूर की बात है।
आखिर लोग अन्य राज्यों से मजदूरी करने दिल्ली आते ही क्यों हैं? यही तो शाइनिंग इंडिया है। पूंजीपतियों को सुविधा देने के लिए देश भर में कुछ केंद्र बना दिए गए। वहां पर फैक्टरी या संयंत्र लगाने के लिए उद्योगपतियों को फ्री जमीन, मामूली ब्याज दर (कभी कभी तो शून्य दर पर) कर्ज मुहैया कराया जाता है। साथ ही यह सुविधा दी जाती है कि उस इलाके में अगर कारोबारी मजदूर का खून भी निचोड़ रहा है तो स्थानीय प्रशासन की कोई भूमिका नहीं होगी, न ही स्थानीय लोगों का कोई हस्तक्षेप होगा। बाहर से मजदूरी करने लोग आएंगे और वे दो जून की रोटी कमाने के लिए जितना भी खटाया जाए, खटेंगे।
इससे हुआ यही कि अन्य रोजगार केंद्रों से रोजगार छिन गए। उत्तर प्रदेश, बिहार और अन्य कुछ पिछड़े राज्यों में कुछ बचा ही नहीं। किसानों को बिचौलियों के हाथ बर्बाद करवा दिया गया, उत्पादन लागत से ज्यादा पर वह अपना उत्पाद बेच ही नहीं पाता। वह ८ रुपये किलो गेहूं बेचता है तो गरीब खरीदारों तक पहुंचते पहुंचते वह १६ रुपये किलो हो जाता है। विनिर्माण क्षेत्र पूरी तरह से कुछ शहरों तक केंद्रित कर दिए गए।
अगर शाइनिंग इंडिया में मजदूरों और कर्मचारियों की कोई जगह होती तो निश्चित रूप से रोजगार के तमाम केंद्र बनते, जिससे मजदूरों का विस्थापन नहीं होता। अगर मजदूरों का विस्थापन कराना और छोटे-छोटे रोजगार केंद्रों को बर्बाद करना ही था तो उस शाइनिंग इंडिया में सेज में कंपनियों को १० एकड़ जमीन देते वक्त सरकार २ एकड़ जमीन की व्यवस्था उसके कर्मचारियों के लिए भी कर देती, लेकिन ऐसा नहीं किया गया।
दिल्ली के लक्ष्मीनगर इलाके में बिल्डिंग ढहने की घटना इसकी बानगी है। दिल्ली में केंद्र सरकार और राज्य सरकार ने मिलकर १६०० से ज्यादा स्लम और अवैध कालोनियां विकसित करवाई हैं, जिससे वहां देश भर के मजदूर आकर बस सकें। इन कालोनियों में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति है। दो कमरे का किराया सात से दस हजार रुपये महीने तक चल रहा है। स्लम एरिया में पहले बस चुके लोग अपने मकान में कहीं न कहीं से कमरे बढ़ाने की गुंजाइश में लगे हैं कि किसी तरह से १ कमरा बढ़ जाए तो उसका तीन हजार रुपये महीने किराया आने लगे।
इन १६०० अवैध और स्लम कालोनियों में वे लोग रहते हैं जिनकी मासिक कमाई तीस हजार रुपये तक है। उससे ऊपर जाने पर वे वैध कालोनियों में घुसने की कोशिश करते हैं, जहां दो कमरे का किराया बारह हजार रुपये महीने के ऊपर चला गया है। वैसे तो दिल्ली में पाकिस्तानी और बांग्लादेशियों के अलावा हर राज्य से आए लोग अवैध रूप से रहते हैं, क्योंकि सरकारों ने तो सिर्फ पाकिस्तानियों और बांग्लादेशियों को ही वैध रूप से बसाया है, बाकी वैध रूप से रहने वाले लोगों की संख्या कम ही है।
अवैध कालोनियों में रह रहे लोगों के पास विकल्प क्या है? क्या वे अपने नियोक्ता पर हमला करें, जो उन्हे इतना वेतन नहीं देता कि वे वैध इलाकों में रह सकें, या वे उस मकान मालिक पर हमला कर दें तो उन्हें अपने घर में रखता है, या वे खुद कहीं रेल के नीचे कट मरें।
बाहर से आने वाले मजदूरों के बिना भी दिल्ली में काम नहीं चलने वाला है। आखिर वे जो काम कर रहे हैं, उसे कौन करेगा? लेकिन उनके जीने का कोई इंतजाम नहीं है। अपने राज्य में रहें तो भूख से मरें और दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु जैसे रोजगार केंद्रों पर नौकरी करने जाएं तो अपने आशियाने के कब्रिस्तान में दफन हो जाएं। इस तरह से मरना ही उनकी नियति है और यही शाइनिंग इंडिया की चमकदार तस्वीर है।
3 comments:
एक प्रदेश में व्याप्त भ्रष्टाचार उस प्रदेश से कितनी प्रतिभायें पलायित कर जाती हैं, इसका आकलन नहीं रहता है पंचवर्षीय अभिनेताओं को। एक स्वस्थ प्रशासन भाग्योदय लेकर आता है।
aankh kholtee Baaten....
प्रवीण जी, मामला राज्य और उसके भ्रष्टाचार का नहीं है। यह नीतिगत मामला है, जिसमें कुछ शहरों को चमकाने, रोजगार के केंद्रीकरण और मजदूरों के पलायन के लिए ही नीतियां बनाई गई हैं।
Post a Comment