Wednesday, November 24, 2010

क्या भारत का कारोबारी जगत अपनाएगा बिहार मॉडल

२४ नवंबर २०१० को मेरी शादी के ५ साल पूरे हो गए। मन में पहले से था कि इस दिन कार्यालय के काम से छुट्टी लेकर जीवन का आनंद लिया जाए। बाधा यह पड़ गई कि सुबह से ही मैं टेलीविजन पर भिड़ गया बिहार का चुनाव देखने। पत्नी ने उसमें कोई खास सहयोग नहीं दिया, लेकिन परिणाम देखने में बहुत अच्छा लग रहा था, इसलिए रात तक टीवी पर यही खबर देखता रहा।

बिहार में हालत यह हो गई है कि विपक्ष ही नहीं रहा। सारी सीटें नीतीश-मोदी ने हथिया ली। लालू प्रसाद जैसे करिश्माई नेता को यह उम्मीद तो कतई नहीं थी, या कहें कि किसी को यह उम्मीद नहीं थी।
नीतीश कुमार ने जनता से सिर्फ एक बात कही थी कि ५ साल से जो सेवा की है, उसकी मजदूरी दे दो। बिहार में ज्यादातर मजदूर ही हैं... खासकर वे लोग, जो वोट देते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि उन्होंने नीतीश को उनकी मजदूरी देकर खुश कर दिया। कारोबारी जगत भी खुश है। बिहार के चुनाव को एक मॉडल के रूप में देखा जा रहा है। जिस बिहार को कहा जाता था कि यह नहीं सुधर सकता, जाति-पाति से ऊपर नहीं उठ सकता, उसने कम से कम मजदूरी देने में तो पूरी दरियादिली दिखाई और सही कहें तो बिहार में नीतीश सरकार ने जितना काम किया था, उससे कहीं ज्यादा उन्हें मजदूरी मिली।

देश में अभी तक जाति की ही राजनीति चली है। कांग्रेस सरकार शुरू से कथित ऊंची जाति, दलित और मुसलमान के जातीय समीकरण से सत्ता में बनी रही। उसके बाद लालू प्रसाद के समय में वह वर्ग उभरकर सामने आया, जो कांग्रेस सरकार में सत्ता सुख से वंचित था और ऐसा हर राज्य में कमोबेश हुआ। कांग्रेस-भाजपा अभी भी उस वर्ग को अछूत मानती है, जिसका वोट लेकर मुलायम-लालू जैसे नेता सरकार में आए।

अभी भी उदाहरण सामने है। महाराष्ट्र में चव्हाण के बदले चव्हाण खोजा गया। कर्नाटक में भाजपा लिंगायत के बदले लिंगायत खोज रही थी, लेकिन येदियुरप्पा ने इस्तीफा ही नहीं दिया। आंध्र प्रदेश में कांग्रेस ने रेड्डी के बदले रेड्डी खोज निकाला। ऐसे माहौल में अगर नीतीश कुमार २४३ में से २०६ सीटें जीतकर सत्ता में आते हैं तो निश्चित रूप से बिहार ने देश को एक नई दिशा दी है। यह प्रचंड बहुमत किसी जाति समूह के मत से नहीं मिल सकता, सबका मत नीतीश सरकार को मिला। वह भी मजदूरी के बदले।

मजदूरों से भरे बिहार ने नीतीश का दर्द समझा है कि अगर कोई मेहनत से काम करता है तो उसे मजदूरी दिल खोल कर दी जानी चाहिए। ऐसे में कारोबारियों को भी एक सीख मिली है कि अगर कोई मेहनत से काम करता है तो उसका हक जरूर मिलना चाहिए। देश के हर औद्योगिक क्षेत्र में मजदूरों में असंतोष है। नोएडा और गाजियाबाद में प्रबंधन से जुड़े लोगों की हत्या इसका उदाहरण है। तो ऐसी स्थिति में बिहार का मतदाता क्या संकेत दे रहा है.... क्या हर तिकड़म लगाकर, टैक्स की चोरी कर, सरकार में अपने प्यादे रखवाकर, बैलेंस सीट में गड़बड़ियां कर, सरकार से मिली भगत कर देश की संपत्ति को निजी संपत्ति बनाने में जुटे कारोबारी- एक तिमाही में तीन हजार करोड़ रुपये मुनाफा कमाने वाले कारोबारी जनता के इस संदेश को समझ पाएंगे? क्या वे बिहार के मजदूरी मॉडल को स्वीकार कर पाएंगे?

बहरहाल... बहुत दिन बाद राजनीति पर लिखने को मन में आया है। उम्मीद है कि अभी और कुछ भी जारी रहेगा...

2 comments:

रंजना said...

सत्य कहा आपने...

हमारा भी कल यही हाल रहा और हम भी यही सोच रहे हैं....

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

मजदूरों से भरे बिहार ने नीतीश का दर्द समझा है कि अगर कोई मेहनत से काम करता है तो उसे मजदूरी दिल खोल कर दी जानी चाहिए। ऐसे में कारोबारियों को भी एक सीख मिली है कि अगर कोई मेहनत से काम करता है तो उसका हक जरूर मिलना चाहिए। देश के हर औद्योगिक क्षेत्र में मजदूरों में असंतोष है। नोएडा और गाजियाबाद में प्रबंधन से जुड़े लोगों की हत्या इसका उदाहरण है। तो ऐसी स्थिति में बिहार का मतदाता क्या संकेत दे रहा है....
क्या संप्रभु वर्ग यह बात समझेगा?