सबकी अपनी अपनी सोच है, विचारों के इन्हीं प्रवाह में जीवन चलता रहता है ... अविरल धारा की तरह...
Friday, December 31, 2010
Tuesday, December 28, 2010
क्या प्रजातंत्र में प्रजा फैसले कर रही है?
बिनायक सेन जेल में और शिबू सोरेन, सुरेश कलमाडी और ए. राजा सत्ता में! क्या ऐसा नहीं लगता कि प्रजातंत्र में कुछ सीरियस गड़बड़ी है? ये शिबू, ये राजा, ये कलमाडी या कोड़ा सालों देश की छाती पर मंूग दलते हुए राज करते रहे। मुलायम, लालू, नीरा यादव या हजारों खद्दरी लिबास वालों को इनकी जान की हिफाजत के लिए राज्य से सुरक्षा प्रदान की जाती है, जबकि शंकर गुहा नियोगी को, जो कि मजदूरों के वेतन के लिए आवाज उठाता था, मालिकों ने गोली मरवा दी। सुरक्षा के नाम पर उन्हें एक चिडिय़ा भी नहीं दी गई।
गौर करिए! नियोगी या बिनायक सेन (गोल्ड मेडलिस्ट पोस्ट ग्रेजुएट डॉक्टर जो आदिवासियों का इलाज करते थे) ने जिंदगी में एक मच्छर भी नहीं मारा होगा। परंतु मिली एक को गोली, दूसरे को आजीवन कारावास। अब दूसरा पहलू लीजिए। खूंखार उल्फा आतंकवादियों के नेता को अदालत जमानत दे देता है और असम की सरकार इस फैसले के खिलाफ अपील भी नहीं करती। लालू के खिलाफ भ्रष्टाचार के मुकदमे में भी केंद्र सरकार अपील नहीं करती।
एक और पहलू देखें। महज कुछ सालों पहले विदेश से भारत पहुंची नीरा राडिया के पास एक भी फैक्टरी नहीं है, पर चंद सालों में ही वह ३०० करोड़ रुपए की मालकिन बन जाती है। यानी करोड़ों रुपए कमाती है, करोड़ों कमवाती है और अरबों का चूना देश को लगा देती है। पूरे सिस्टम की ऐसी-तैसी करती हुई! भ्रष्टाचार निरोधक कानून की धारा (आठ) के तहत इसकी सजा छह माह से पांच साल तक है। बिनायक सेन सलवा जुडूम के खिलाफ आवाज उठा रहे थे। वह कह रहे थे कि माओवादियों के खिलाफ सरकार द्वारा चलाया जा रहा कार्यक्रम वहां के आदिवासियों के लिए एक नए आतंकवाद की तरह है। उनकी सजा? आजीवन कारावास!
कौन हैं ये लोग जो सिस्टम पर कब्जा कर रहे हैं? कैसा है यह प्रजातंत्र जिसमें हमें जिंदा मक्खी निगलने को मजबूर किया जा रहा है? कोई सिख दंगों का दोषी फिर खद्दर पहन कर सिस्टम पर कब्जा जमाने आ जाता है। करोड़ों सिख हाथ मलते रह जाते हैं। सत्ता पर बैठे लोग कह देते हैं- देखो, दूध और पानी अलग कर दिया गया ना! और हम, सब सच जानते हुए भी हामी भर देते हैं।
याद आता है सिविल डिसओबीडिएंस (सविनय अवज्ञा आंदोलन गांधीजी ने इसी से लिया था) के जनक हेनरी डेविड थोरो का एक किस्सा। अमेरिकी सरकार ने एक टैक्स लगाया। थोरो के अनुसार वह टैक्स अनुचित था। थोरो ने विरोध किया तो उन्हें जेल भेज दिया गया। एक दिन उनका पड़ोसी किसी और को देखने जेल में पहुंचा तो देखा कि एक एनक्लोजर में थोरो बंद हैं। उसने चौंक कर पूछा- ‘थोरो, आप यहां कैसे?’ थोरो का संयत जवाब था- ‘यह प्रश्न इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह कि आप बाहर कैसे।
आज जरूरत यह पूछने की है कि ये कौन लोग हैं जो परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से सत्ता को कठपुतली की तरह नचा रहे हैं।’कभी साउथ एवेन्यू या नॉर्थ एवेन्यू के सांसदों के बंगलों के आसपास खड़े होकर देखें। अलस्सुबह बुर्राक सफेद कड़क कुर्ता-पाजामा पहने हुए कुछ नेतानुमा लोग अपने पीछे दस-बीस आदमियों का झुंड लिए सांसदों के घर जाते या निकलते दिखाई दे जाएंगे। ये इस झुंड का ‘काम’ करवाने आए हैं। उन्हीं के खर्च पर ‘काम हो जाने पर आगे की बात होगी’ का भाव लिए हुए। प्रजातंत्र की मंडी से लगते हैं ये ‘पॉश’ मोहल्ले। बड़ा नेता देर से बाहर निकलता है। अपनी गणित के हिसाब से आश्वासन देता है या फोन करता है, या फिर साथ चल देता है। क्यों? क्या प्रजातंत्र में अपने आप से काम नहीं होगा? क्या इन खद्दरधारीनुमा बिचौलियों के बिना काम नहीं होता?
थोड़ी देर यह नजारा देखें। सड़ांध आने लगती है। एक नेता अगर पांच साल बाद जाता है तो दूसरा आ जाता है। फिर वही सिलसिला। नेता बदलने से सड़ांध कम नहीं होती। संसद में पिछली बार ९९ लोग करोड़पति थे। इस बार ३०६ हैं। करोड़पतियों का जमघट है।प्रसिद्ध राजनीतिशास्त्री टाकविल ने अमेरिका के प्रजातंत्र की धूम सुनी तो पेरिस से अमेरिका पहुंचे वहां के प्रजातंत्र की खूबियां जानने। लौटकर उन्होंने एक लेख लिखा- अमेरिकी प्रजातंत्र का सबसे बड़ा खतरा है बहुसंख्यक का आतंक। भारत में यह खतरा तो नहीं है, पर वोट का बहुमत जिस तरह हासिल हो रहा है, जिस तरह जनता को गुमराह कर शोषण को संस्थागत किया जा रहा है, वह सबसे बड़ा खतरा है।ऐसा नहीं है कि अच्छे लोग नहीं हैं। यह भी नहीं है कि ईमानदार तन कर खड़ा होने को तैयार नहीं है। समस्या यह है कि उसके तन कर खड़े होने से भी कुछ नहीं हो पा रहा है। मीडिया कॉरपोरेट घरानों की चेरी है तो न्याय-प्रक्रिया दोषपूर्ण।
लेकिन, एक ही आशा की किरण है और वह है जनमत (पब्लिक ओपिनियन)। जब सर्वोच्च न्यायालय और मुख्य न्यायाधीश कपाडिया सीवीसी की गलत नियुक्ति पर सख्त रुख अपनाते हैं, जब यही सर्वोच्च न्यायालय अपने ही अधीनस्थ इलाहाबाद हाईकोर्ट की सही तस्वीर जनता को दिखाता है, तो जनमत उसका खैरमकदम करता है। मनमोहन सिंह को कोई भ्रष्ट कहने की हिम्मत नहीं जुटाता, लेकिन उनकी निष्क्रिय ईमानदारी जनता में चर्चा का विषय जरूर बनती है।
साभार- http://epaper.bhaskar.com/cph/epapermain.aspx?edcode=194&eddate=12/28/2010&querypage=7
Monday, December 27, 2010
गांधी जितने ही खतरनाक बिनायक सेन!
बिनायक सेन का पूरा जीवन त्याग और समर्पण का रहा है। उनके जीवन परिचय से तो यही सामने आता है। बिनायक सेन ने वैल्लोर विश्वविद्यालय के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज से स्वर्ण पदक प्राप्त किया था। 80 के दशक के प्रारंभ में वे छत्तीसगढ़ चले आए थे। वे तभी से छत्तीसगढ़ में हैं और उन्होंने हर पृष्ठभूमि के मरीजों की देखभाल की है। सेन ने अपने आदर्श शंकर गुहा नियोगी की ही तरह अन्य क्षेत्रों में भी काम किया (नियोगी की १९९१ में हत्या कर दी गई थी)। वे आदिवासियों के सामाजिक अधिकारों के प्रति सचेत हुए, जो बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहे थे और जिनके बच्चे प्राथमिक शिक्षा तक से महरूम थे। उसके बाद उन्होंने उन इलाकों को अपना कार्यक्षेत्र बनाया, जहां स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं थीं। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के वे आदिवासी इलाके, जहां स्वास्थ्य की बुनियादी सुविधाएं भी नहीं थीं (आज भी नहीं हैं)।
सवाल यह है कि क्या भारत में वंचितों की आवाज उठाने की यही सजा मिलेगी? आज देश का कोई भी चैनल या अखबार उन इलाकों से खबरें लाने की भी स्थिति में नहीं है, जहां बिनायक सेन काम करते थे। क्या उन इलाकों की हकीकत से आम लोग रूबरू हो पाएंगे कि सेन ग्रामीणों को कौन सी शिक्षा दे रहे थे?
आइये देखते हैं कि किन आरोपों में विनायक सेन को सजा सुनाई गई है और उसमें क्या दम है..
1- डॉ. सेन ने 17 महीनों के दौरान सान्याल से 33 मुलाकातें कीं। इसके लिए जेल प्रशासन ने उन्हें बाकायदा अनुमति दी थी। आवेदन करते समय डॉ. सेन ने पीयूसीएल (सर्वोदय नेता जयप्रकाश नारायण द्वारा गठित संस्था पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज) से जुड़ाव को भी नहीं छुपाया था।
2-डॉ. सेन ने पीयूसीएल के लैटरहेड पर ही जेल प्रशासन को अपना आवेदन दिया था। जिस पर उन्हें सान्याल और दूसरे कैदियों से मिलने की इजाजत दी गई।
3- रायपुर के अतिरिक्त जिला एवं सत्र जज बीपी वर्मा ने सान्याल की रिश्तेदार बुला सान्याल और डॉ. सेन के बीच फोन पर हुई बातचीत के टैप को सान्याल के साथ डॉ. सेन के साजिशपूर्ण रिश्तों का सबूत माना था।
4- 24 दिसंबर को दिए गए फैसले में कई जगह जेल में दर्ज रिकॉर्ड का हवाला दिया गया, जिसमें डॉ. सेन को सान्याल का रिश्तेदार बताया गया है।
5- डॉ. सेन की सान्याल से मुलाकातों का जेल प्रशासन के पास पूरा ब्योरा रहता था।
और ये हैं सबूत, जो पेश किए गए....
१-रायपुर सेंट्रल जेल में बंद नारायण सान्याल ने ३ जून २००६ को बिनायक सेन को एक पोस्ट काडॆ लिखा, जिसमें उन्होंने अपने स्वास्थ्य चिंताओं और चल रही कानूनी कार्यवाही के बारे में जानकारी दी थी। इस पर जेल अधिकारियों के हस्ताक्षर थे।
२-एक पीले रंग की बुकलेट जिसमें सीपीआई (पीपुल्स वार) और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर के बीच एकता की बात कही गई है।
३-मदनलाल बनर्जी (सीपीआई-माओवादी के सदस्य) द्वारा जेल से लिखा गया पत्र, जिसमें उन्होंने प्रिय कामरेड बिनायक सेन... लिखकर सेन को संबोधित किया गया है।
४- अंग्रेजी में लिखे एक लेख की छाया प्रति, जिसे ... नक्सल मूवमेंट, ट्राइबल एंड वुमेन्स मूवमेंट... शीर्षक के तहत लिखा गया।
५-एक ४ पृष्ठ का हस्तलिखित नोट, जिसका शीर्षक है॥ हाऊ टु बिल्ड एंटी यूएस इंपीरियलिस्ट फ्रंट।
६- आठ पृष्ठों का लेख, जिसका शीर्षक है क्रांतिकारी जनवादी मोर्चा (आईटीएफ), वैश्वीकरण एवं भारतीय सेवा केंद्र।
इसके पहले भी मैने ब्लॉग में लिखा था कि रायपुर से खबर आई थी कि माओवादियों का संबंध आईएसआई से है। उस आईएसआई का जुड़ाव भी विनायक सेन से लगाया गया था, जिसके बारे में न्यायालय में पूछे जाने पर पता चला कि दिल्ली स्थित इंडियन सोशन इंस्टीट्यूट के संस्थापक से विनायक सेन की पत्नी से रायपुर के आदिवासियों से बातचीत होती थी, जिसे पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई से भारतीय जांच एजेंसियों ने रिश्ते निकाल लिए।
क्या न्यायालय में पेश किए गए दस्तावेज विनायक सेन को राजद्रोही घोषित करने के लिए पर्याप्त हैं? मुझे तो यही लगता है कि कांग्रेस व भाजपा जैसी पूंजीवाद समर्थक पार्टियों के लिए सेन उतने ही खतरनाक होते जा रहे थे, जितने खतरनाक अंग्रेजों के लिए गांधी थे। उसी की सजा सेन को न्यायालय ने भी दे दी और सरकार को खुश कर दिया।
Sunday, December 26, 2010
नजर रखिए, कहीं लुट न जाए झारखंड
झारखंड सरकार 2001 की औद्योगिक नीति में बदलाव करने जा रही है। इसके पहले भी अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री रहे हैं, लेकिन तब उन्हें नहीं लगा कि 2001 की औद्योगिक नीति उद्योग जगत के प्रति मित्रवत नहीं है। लेकिन अब उन्हें ऐसा लगने लगा है।
राजनीतिक अस्थिरता के दौर में बड़ी मेहनत से अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री बने हैं। कहा गया कि असल मेहनत भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी और कुछ प्रमुख उद्योगपतियों ने की, जिनकी नजर राज्य के प्राकृतिक संसाधनों पर है। अब यही देखने की बात होगी कि मुंडा सरकार जब अपना दिल खोलती है तो किसको कितने हजार करोड़ का फायदा कराती है।
झारखंड सरकार ने राज्य की औद्योगिक नीति 2001 में संशोधन करने का फैसला किया है। इसमें कारोबारियों को और प्रोत्साहन देने के लिए बदलाव किया जाएगा। 10 साल पहले बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी सरकार ने औद्योगिक नीति तैयार की थी। पुनरीक्षित औद्योगिक नीति मेंं जमीन, पानी, लौह अयस्क, कोल लिंकेज आदि जैसी बुनियादी ढांचा सुविधाओं को ध्यान में रखा जाएगा, जिससे इन क्षेत्रों में निवेश आकर्षित किया जा सके। पुनरीक्षित औद्योगिक नीति में परंपरागत और गैर परंपरागत ऊर्जा, कृषि और खनन क्षेत्र को कुछ प्रोत्साहन दिए जाने की योजना है।
Wednesday, December 22, 2010
कांग्रेस की हड्डी और विपक्ष की पीड़ा
बहुत बेहतरीन परिकल्पना है। सही है कि मुख्य विपक्ष भारतीय जनता पार्टी में कोई नेता नहीं है। जिस उत्तर प्रदेश ने भाजपा को केंद्र की गद्दी पर पहुंचाया, उस प्रदेश में ही नेतृत्व का संकट। मध्य प्रदेश से नेता का आयात किया जा रहा है उत्तर प्रदेश को चलाने के लिए। उस पर भी उत्तर प्रदेश के धुरंधर भाजपाई डरे हैं कि कहीं वह महिला आकर यूपी में भी न जगह बना ले। राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र, लालजी टंडन, मुरली मनोहर जोशी- संघ के सनातन धर्मी हिंदू ढांचे में यही नेता नजर आते हैं। अगर इनसे एक रैली करने को कह दिया जाए तो शायद ही इनमें से कोई दो हजार की भीड़ जुटा पाए। संसद में राज्यसभा औऱ लोक सभा में विपक्ष के नेता हवा-हवाई लोग हैं। ये जनाधार वाले नेताओं का नाश तो कर सकते हैं, खुद दिल्ली की किसी लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। शायद डर जाते हैं कि बड़े नेता हैं, जमानत जब्त हो गई तो मुंह कैसे दिखाएंगे।
हां, चुनावी मसलों की हड्डी के बजाय अगर कांग्रेस इन नेताओं के सामने मंत्री पद की हड्डी फैला देती तो शायद एक-एक हड्डी के लिए भाजपा से ४-४ नेता निकल आते और अपनी पार्टी को तत्काल नमस्ते कर लेते।
Tuesday, December 21, 2010
देश को प्याज के आंसू रुलाती कांग्रेस की प्याज राजनीति
आखिर रातों रात कौन सा ऐसा तूफान आया कि प्याज के दाम दोगुना से ज्यादा हो गए? यह तो अब कांग्रेस सरकार ही समझा सकती है। आखिर क्या है इस सरकार की गणित।
प्याज के इतिहास में जाएं तो सबसे पहले इंदिरा गांधी ने १९८० में प्याज की बढ़ी कीमतों के नाम पर जनता पार्टी को चुनावी मैदान में धूल चटा दिया। उसके बाद दिल्ली में सुषमा स्वराज के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार १९९८ का चुनाव प्याज की बढ़ी कीमतों के चलते हार गई। उसके बाद आज तक भाजपा दिल्ली प्रदेश में सत्ता के लिए तरस रही है। राजस्थान में भैरों सिंह शेखावत ने १० साल तक शासन किया, लेकिन १९९८ के चुनाव में वे भी प्याज के आंसू रोए।
आश्चर्य है। प्याज का राजनीतिक इस्तेमाल करना कोई कांग्रेस से सीखे। लेकिन इस बार तो कांग्रेस सरकार में है। पूरा देश प्याज के आंसू रो रहा है। वह भी रातो-रात प्याज का संकट हो गया। कहा जा रहा है कि असमय बारिश से फसल खराब हो गई। इसके पहले कांग्रेस ने कालाबाजारी करने वालों और चीनी मिलों को खूब कमाई कराई थी, कहा गया कि देश में चीनी कम है। हालांकि कोई ऐसी दूकान नहीं थी, जहां चीनी न हो। लेकिन सरकार कहती रही कि चीनी कम है। हालत यह हुआ कि आयात किया गया। लेकिन बाजार में आयातित चीनी नहीं पहुंची, नए सत्र की चीनी भी बाजार में नहीं पहुंची, लेकिन कारोबारियों ने कहना शुरू किया कि देश में चीनी बहुत ज्यादा है।
आखिर इसके पीछे क्या राजनीति है? आखिर किस तरह से कांग्रेस प्याज का राजनीतिक इस्तेमाल कर रही है? लगता है कि स्पेक्ट्रम घोटाले और हर कांग्रेसी राज के भ्रष्टाचार के खुलासे सामने आने लगे हैं और इससे सरकार डर गई है। पहले दिग्विजय उवाच। फिर चिदंबरम की आग। जब कोई दवा काम न आई तो जनता से सीधे निपटने का तरीका। अब एक तीर से दो शिकार हो रहा है। पहला- प्याज की कीमतों के पीछे जनता भ्रष्टाचार भूल जाए, दूसरा- कालाबाजारी करने वालों को बेहतर कमाई हो जाए। साथ ही कालाबाजारी करने वालों का तालमेल इस सरकार से इतना अच्छा है कि शायद चुनाव ४ महीने पहले फिर कांग्रेस सरकार प्याज को १५ रुपये प्रति किलो के नीचे ले ही आएगी।
Tuesday, December 14, 2010
दिग्विजय-चिदंबरम की कुड़ुमई की वजह
दिल्ली में सामूहिक बलात्कार, रोड रेज, चोरी, छिनैती आदि करने वाले प्रवासी (यानी दूसरे राज्यों से आए लोग) हैं। मुंबई में हेमंत करकरे ने अपनी हत्या के पहले कहा था कि उन्हें हिंदूवादियों से खतरा था।
कांग्रेस के दो बड़े नेताओं ने ताबड़तोड़ यह बयान दिया। क्या ये दोनो पागल हो गए हैं? ऐसा नहीं है। ये दोनों बहुत सयाने और दस जनपथ के चहेते हैं। दरअसल एक लाख पचहत्तर हजार करोड़ रुपये का घोटाला हुआ है और वह सत्ता पक्ष व विपक्ष के न चाहते हुए भी एक देशव्यापी मुद्दा बन गया है। इसके जवाब में कुछ तो चाहिए। हेमंत करकरे के बारे में दिए गए बयान की हवा शहीद की पत्नी ने ही निकाल दी और वह मसला नहीं बन पाया। ऐसे में चिदंबरम का बयान आना स्वाभाविक था। कांग्रेस तो मान ही चुकी है कि उसे उत्तर प्रदेश और बिहार में हाल फिलहाल में कुछ नहीं मिलना है। यह मसला उठाने पर महज यूपी बिहार में ही असर पड़ना है। ऐसे में कांग्रेस के रणनीतिकारों को यह बयान दिए जाने में कोई जोखिम नहीं महसूस हुआ, वर्ना यह बयान आने के बाद चिदंबरम को देश का गृहमंत्री बने रहने का हक नहीं होता।
मेरे कुछ मित्रों ने इसके पहले की पोस्ट में संसद के साथ बलात्कार शब्द पर आपत्ति उठाई थी और उन्होंने पोस्ट पर प्रतिक्रिया नहीं दी थी। इसलिए इसके लिए मैने थोड़ा सॉफ्ट बनारसी शब्द कुड़ुमई शब्द इस्तेमाल किया।
प्रवासी मजदूरों का मसला ऐसा है, जिस पर कांग्रेस व भाजपा दोनों की एक ही राय है। जो बात शीला दीक्षित, तेजिंदर खन्ना और अब चिदंबरम कह रहे हैं या कहते रहे हैं, कुछ वैसा ही भाजपा के विजय मलहोत्रा, विजय गोयल भी गाहे-बगाहे कहते रहते हैं। अभी कल ही विजय मलहोत्रा ने चिदंबरम का विरोध करते हुए कह ही दिया कि एनसीआर के लोग दिल्ली आते हैं और अपराध करके चले जाते हैं। ऐसे में दोनों पार्टियों की राय एक ही है।
मजदूरों के वास्तविक संकट और झुग्गी बस्तियों को खत्म करना एक ऐसा मसला है, जिसे पूंजीवादी व्यवस्था में कोई हल नहीं करना चाहता। अगर झुग्गी नहीं बसानी होती तो औद्योगिक क्षेत्रों में जब जमीन दी जाती है, उसी समय उस इकाई में काम करने वाले औद्योगिक मजदूरों के लिए भी रहने के लिए जमीन देकर भवन बनवा दिए जाते। अगर यह अनिवार्य हो जाए तो किसी भी जगह से आने वाला मजदूर झुग्गी बस्तियों में रहने को मजबूर नहीं होगा। लेकिन इसमें समस्या यह है कि तब मुफ्त के और सस्ते मजदूर नहीं मिलेंगे, क्योंकि उस इकाई विशेष में काम करने वालों की सही गणना हो जाएगी और उन्हें फैक्टरियों को उचित मजदूरी देनी पड़ेगी।
समस्या यही है कि कांग्रेस चोर इसलिए है, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी डकैत है। ये दोनों जानते भी हैं कि अभी देश में इनका कोई विकल्प नहीं है, जैसा कि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों ने ढूंढ लिया है। कांग्रेस जनता की समझ को जानती है कि वह चोरों के बजाय डकैत को चुनना नहीं चाहेगी, इसलिए उसकी सत्ता को फिलहाल कोई खतरा नहीं है। लेकिन कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका और उद्योग जगत ने जिस तरह से उत्पात मचा रखा है, उससे एक संभावना हमेशा जिंदा रहती है कि जनता इनके खिलाफ एकजुट हो जाए और कुछ कर बैठे।
Sunday, December 12, 2010
राडिया के नाम पर
टू-जी घोटाले को 2 साल से ज्यादा हो गए। उसके पहले इसके आवंटन को लेकर चर्चा चली। किसी की नहीं सुनी गई और औने पौने भाव स्पेक्ट्रम दे दिया गया। जब पिछली सरकार में आवंटन नीति को लेकर चर्चा हुई तब इसका नामलेवा कोई नहीं था। राजा पर सीबीआई के छापे पड़े। कब? सीबीआई जांच शुरू होने के एक साल बाद। आखिर कोई भी बुद्धिमान आदमी, जो पौने दो लाख करोड़ रुपये का घोटाला करेगा, वह अपने घर में उसके सबूत क्यों रखेगा? तो आखिर क्या तलाश रही है सीबीआई? अब टू-जी का पूरा मामला नीरा राडिया तक समेटा जा रहा है। राडिया, जो जन संपर्क एजेंसी की मालकिन है। अगर उसने नीतियों पर प्रभाव डालने के लिए लॉबीईंग की तो उसके ऊपर क्या कोई मामला बनेगा? कोई भी समझदार आदमी कह सकता है कि नीरा राडिया ने वही किया जो एक पीआर एजेंसी के लोग करते हैं।
अब नया शिगूफा- नीरा राडिया देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त थी। सवाल किया जा रहा है कि उसकी पीआर कंपनी 9 साल में 300 करोड़ रुपये कैसे कमा सकी?
क्या जनता को यह समझ में नहीं आता कि जिन कंपनियों को सरकार ने मुफ्त में पौने दो लाख करोड़ रुपये दे दिए, उनका जनसंपर्क देखने वाली कंपनी एक साल में 300 करोड़ रुपये कमा सकती है? क्या जनता को यह समझ में नहीं आता है कि निहायत अनुत्पादक काम करने वाले महेंद्र सिंह धोनी को अगर ये कंपनियां अपने ब्रांड के प्रचार के लिए 400 करोड़ रुपये सालाना दे सकती हैं तो क्या उन्होंने 300 करोड़ रुपये जैसी छोटी राशि का मुनाफा पिछले 9 साल में उस वैष्णवी कम्युनीकेशंस को नहीं कराया होगा, जिसका जन संपर्क वह कंपनी देखती है? ध्यान रहे कि टाटा. मुकेश अंबानी, यूनीटेक जैसी देश की करीब हर बड़ी कंपनी का जनसंपर्क वैष्णवी कम्युनीकेशंस देखती है।
सरकारी जांच एजेंसियों की स्थिति देखें तो वे कानून के साथ किस तरह बलात्कार कर रही हैं, इसी से पता चलता है, जिसमें विनायक सेन की बीवी एलीना को आईएसआई का एजेंट और फर्नांडिस को अमेरिकी आतंकवादी बताया गया। 3 साल का मानसिक उत्पीडऩ झेलते रहे विनायक। अभी कल ही पता चला कि आईएसआई का मतलब दिल्ली स्थित इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट और फर्नांडिस का मतलब इस संस्थान के संस्थापक निदेशक वाल्टर फर्नांडिस हैं।