एन के सिंह
बिनायक सेन जेल में और शिबू सोरेन, सुरेश कलमाडी और ए. राजा सत्ता में! क्या ऐसा नहीं लगता कि प्रजातंत्र में कुछ सीरियस गड़बड़ी है? ये शिबू, ये राजा, ये कलमाडी या कोड़ा सालों देश की छाती पर मंूग दलते हुए राज करते रहे। मुलायम, लालू, नीरा यादव या हजारों खद्दरी लिबास वालों को इनकी जान की हिफाजत के लिए राज्य से सुरक्षा प्रदान की जाती है, जबकि शंकर गुहा नियोगी को, जो कि मजदूरों के वेतन के लिए आवाज उठाता था, मालिकों ने गोली मरवा दी। सुरक्षा के नाम पर उन्हें एक चिडिय़ा भी नहीं दी गई।
गौर करिए! नियोगी या बिनायक सेन (गोल्ड मेडलिस्ट पोस्ट ग्रेजुएट डॉक्टर जो आदिवासियों का इलाज करते थे) ने जिंदगी में एक मच्छर भी नहीं मारा होगा। परंतु मिली एक को गोली, दूसरे को आजीवन कारावास। अब दूसरा पहलू लीजिए। खूंखार उल्फा आतंकवादियों के नेता को अदालत जमानत दे देता है और असम की सरकार इस फैसले के खिलाफ अपील भी नहीं करती। लालू के खिलाफ भ्रष्टाचार के मुकदमे में भी केंद्र सरकार अपील नहीं करती।
एक और पहलू देखें। महज कुछ सालों पहले विदेश से भारत पहुंची नीरा राडिया के पास एक भी फैक्टरी नहीं है, पर चंद सालों में ही वह ३०० करोड़ रुपए की मालकिन बन जाती है। यानी करोड़ों रुपए कमाती है, करोड़ों कमवाती है और अरबों का चूना देश को लगा देती है। पूरे सिस्टम की ऐसी-तैसी करती हुई! भ्रष्टाचार निरोधक कानून की धारा (आठ) के तहत इसकी सजा छह माह से पांच साल तक है। बिनायक सेन सलवा जुडूम के खिलाफ आवाज उठा रहे थे। वह कह रहे थे कि माओवादियों के खिलाफ सरकार द्वारा चलाया जा रहा कार्यक्रम वहां के आदिवासियों के लिए एक नए आतंकवाद की तरह है। उनकी सजा? आजीवन कारावास!
कौन हैं ये लोग जो सिस्टम पर कब्जा कर रहे हैं? कैसा है यह प्रजातंत्र जिसमें हमें जिंदा मक्खी निगलने को मजबूर किया जा रहा है? कोई सिख दंगों का दोषी फिर खद्दर पहन कर सिस्टम पर कब्जा जमाने आ जाता है। करोड़ों सिख हाथ मलते रह जाते हैं। सत्ता पर बैठे लोग कह देते हैं- देखो, दूध और पानी अलग कर दिया गया ना! और हम, सब सच जानते हुए भी हामी भर देते हैं।
याद आता है सिविल डिसओबीडिएंस (सविनय अवज्ञा आंदोलन गांधीजी ने इसी से लिया था) के जनक हेनरी डेविड थोरो का एक किस्सा। अमेरिकी सरकार ने एक टैक्स लगाया। थोरो के अनुसार वह टैक्स अनुचित था। थोरो ने विरोध किया तो उन्हें जेल भेज दिया गया। एक दिन उनका पड़ोसी किसी और को देखने जेल में पहुंचा तो देखा कि एक एनक्लोजर में थोरो बंद हैं। उसने चौंक कर पूछा- ‘थोरो, आप यहां कैसे?’ थोरो का संयत जवाब था- ‘यह प्रश्न इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह कि आप बाहर कैसे।
आज जरूरत यह पूछने की है कि ये कौन लोग हैं जो परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से सत्ता को कठपुतली की तरह नचा रहे हैं।’कभी साउथ एवेन्यू या नॉर्थ एवेन्यू के सांसदों के बंगलों के आसपास खड़े होकर देखें। अलस्सुबह बुर्राक सफेद कड़क कुर्ता-पाजामा पहने हुए कुछ नेतानुमा लोग अपने पीछे दस-बीस आदमियों का झुंड लिए सांसदों के घर जाते या निकलते दिखाई दे जाएंगे। ये इस झुंड का ‘काम’ करवाने आए हैं। उन्हीं के खर्च पर ‘काम हो जाने पर आगे की बात होगी’ का भाव लिए हुए। प्रजातंत्र की मंडी से लगते हैं ये ‘पॉश’ मोहल्ले। बड़ा नेता देर से बाहर निकलता है। अपनी गणित के हिसाब से आश्वासन देता है या फोन करता है, या फिर साथ चल देता है। क्यों? क्या प्रजातंत्र में अपने आप से काम नहीं होगा? क्या इन खद्दरधारीनुमा बिचौलियों के बिना काम नहीं होता?
थोड़ी देर यह नजारा देखें। सड़ांध आने लगती है। एक नेता अगर पांच साल बाद जाता है तो दूसरा आ जाता है। फिर वही सिलसिला। नेता बदलने से सड़ांध कम नहीं होती। संसद में पिछली बार ९९ लोग करोड़पति थे। इस बार ३०६ हैं। करोड़पतियों का जमघट है।प्रसिद्ध राजनीतिशास्त्री टाकविल ने अमेरिका के प्रजातंत्र की धूम सुनी तो पेरिस से अमेरिका पहुंचे वहां के प्रजातंत्र की खूबियां जानने। लौटकर उन्होंने एक लेख लिखा- अमेरिकी प्रजातंत्र का सबसे बड़ा खतरा है बहुसंख्यक का आतंक। भारत में यह खतरा तो नहीं है, पर वोट का बहुमत जिस तरह हासिल हो रहा है, जिस तरह जनता को गुमराह कर शोषण को संस्थागत किया जा रहा है, वह सबसे बड़ा खतरा है।ऐसा नहीं है कि अच्छे लोग नहीं हैं। यह भी नहीं है कि ईमानदार तन कर खड़ा होने को तैयार नहीं है। समस्या यह है कि उसके तन कर खड़े होने से भी कुछ नहीं हो पा रहा है। मीडिया कॉरपोरेट घरानों की चेरी है तो न्याय-प्रक्रिया दोषपूर्ण।
लेकिन, एक ही आशा की किरण है और वह है जनमत (पब्लिक ओपिनियन)। जब सर्वोच्च न्यायालय और मुख्य न्यायाधीश कपाडिया सीवीसी की गलत नियुक्ति पर सख्त रुख अपनाते हैं, जब यही सर्वोच्च न्यायालय अपने ही अधीनस्थ इलाहाबाद हाईकोर्ट की सही तस्वीर जनता को दिखाता है, तो जनमत उसका खैरमकदम करता है। मनमोहन सिंह को कोई भ्रष्ट कहने की हिम्मत नहीं जुटाता, लेकिन उनकी निष्क्रिय ईमानदारी जनता में चर्चा का विषय जरूर बनती है।
साभार- http://epaper.bhaskar.com/cph/epapermain.aspx?edcode=194&eddate=12/28/2010&querypage=7
1 comment:
सुन्दर आलेख है।
जनमत ही एक मात्र आशा की किरण है। यह जनमत जब संगठित होगा और एक सही प्रतिनिधि राज्य की स्थापना के लिए आगे बढ़ेगा तभी वास्तविक जनतंत्र कायम हो सकेगा।
आप को भी नववर्ष की शुभकामनाएँ।
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