एक बहस चल रही है इन दिनों। पहले भी चलती थी, लेकिन डीएनए के संपादकीय पेज बंद होने से यह चर्चा बढ़ी। आज का युवा वर्ग गंभीर बातें पढ़ना ही नहीं चाहता।
हालांकि मैं मानता हूं कि मैं बुढ़ापे की ओर बढ़ रहा हूं। लेकिन ईमानदारी से बताऊं तो हमेशा यह स्वीकार करता हूं कि हमारी युवा पीढ़ी ज्यादा समझदार है। ज्यादा प़ढ़ने-लिखने वाली है। चीजों को अच्छी तरह से समझ रही है। हां, हो सकता है थोड़ा भटकाव जरूर हो।
आइए, पहले अखबारों की ही बात कर लेते हैं। अखबारों में लेख कौन लिखता है? इधर-उधर से पढ़कर और थोड़ा अपना तर्क लगाकर, कुछ दूसरों के लिखे से टीपकर लेख लिखने वालों की संख्या बहुत ज्यादा है। किसी भी विषय पर उस विषय का जानकार व्यक्ति तो नहीं ही लिखता है। जिसने कभी राजनीति नहीं की, वह राजनीति पर लिखता है। और खूब लिखते हैं लोग। मजबूरी में लिखते हैं। किसी तरह से जुगाड़ तिगाड़ लगाकर अखबार में बड़े पद पर पहुंच गए औऱ शुरू कर दी बौद्धिक उल्टी।
आज के युवा पर तरह-तरह के माध्यम से सूचनाओं की बमबारी हो रही है। आखिर में ऐसे में वह क्यों चाटे दूसरे की बौद्धिक उलटी। मुझे याद है कि जब मैं आठवीं कक्षा में था तो सिर्फ दूरदर्शन पर कार्यक्रम आते थे, सबेरे और शाम को। दोपहर को जब कार्यक्रम शुरू हुआ तो मैं शायद ग्रेजुएशन में पहुंच चुका था। अब तो गिनने में भी नहीं आता कि कितने चैनल हैं, कितने अखबार हैं।
शायद अब युवा गांधी, नेहरू, विवेकानंद, मार्क्स जैसे लोगों को ढूंढ रहा है, जो उसकी दिशाहीनता को एक दिशा दे। न कि पुराने लोगों को पढ़कर बौद्धिक उलटियां करने वाले लोगों को। हाल ही में उमराव जाटव ने एक कविता लिखी है, जिससे मैं खासा प्रभावित हुआ। रमाशंकर यादव विद्रोही भी बहुत प्रभावित करते हैं मुझे। शायद ये लोग जो लिखते हैं उसे जी कर लिखते हैं। सिर्फ लिखने के लिए नहीं लिखते कि उनकी नौकरी बची रहे, लिखना जरूरी है या अपने कब्जियत को दूसरे के ऊपर उलट देना है इसलिए लिखें।
युवाओं पर यह भी आरोप लगता है कि वे नाच गाने औऱ शीला की जवानी में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं। आखिर क्यों न लें? शीला की जवानी को आदर्श बनाएंगे, उसका अनुशरण करेंगे, तो अगर सफल होते हैं तो नाच-गाकर रोजी रोटी तो चला लेंगे। इन बौद्धिकों का अनुसरण करने से युवकों को क्या मिलने जा रहा है, खासकर पत्रकारिता से जुड़े लेखकों का। जिन्होंने न तो अपने रोजगार और अपने पेट को छोड़कर काम किया है और न कोई स्पष्ट दिशा रही है। जो नौकरी दिया और जैसा लिखवाया उसे लिखते चले गए। उस कूड़े को पढ़ने की जहमत क्यों उठाने लगा आज का युवा?
रही बात उन बौद्धिकों की, जो मार्क्सवाद, कांग्रेसवाद, जनसंघवाद औऱ हिंदूवाद करते हैं। सबको तो आजमा लिया है इस युवा पीढ़ी ने। इनकी भी बातें क्या सुननी। बातें तो आदर्शों की करते हैं और दलाली में लिप्त हैं। बातें तो हिंदू की करते हैं औऱ जातिवाद में लिप्त। बातें तो मार्क्स की करते हैं, लेकिन अगर चमरउटी में जाकर पानी पी लें तो उल्टी हो जाए।
अगर युवाओं को प्रभावित करना है तो आइये मैदान में। जैसे गांधी आए थे। जैसे विवेकानंद आए थे। जैसे मार्क्स आए थे। जिस भी रूप में आइए, लेकिन लोगों को लगे कि आप उन्हें लूटने नहीं आ रहे हैं। उन्हें अपनी बात पढ़वाकर या उन्हें उत्तेजित कर अपना धंधा नहीं चमका रहे हैं। उन्हें लगे कि यह आपने भी किया है और अगर वे आपका कहा करते हैं तो उनका भला होने जा रहा है। लोकतंत्र को गालियां देते समय व्यवस्था दीजिए। सत्ता को गालियां देते हैं तो उसका विकल्प दीजिए। लेकिन वह विकल्प तार्किक हो औऱ पूरे समूह को समझ में आए। वर्ना युवा ही नहीं, जिसेभी ये बौद्धिक जुगालीबाज जाहिल नासमझ और जाने क्या क्या समझते हैं, वो भी इन्हें उतनी ही अच्छी तरह से समझते हैं।
मार्क्स ने अपना सब कुछ गंवाया था, गांधी ने अपना सबकुछ गंवाया था। लोगों के बीच गए थे, तब गरीबों को विश्वास हुआ कि वे उनके लिए कुछ सोच रहे हैं। पत्रकारिता में भी, आज भी उन लोगों के लेखों को जनता पढ़ने को तैयार बैठी रहती है, कम से कम (खुद अहसास करके न सही) जिन्होंने चीजों को खुद समझा है, मौके पर देखा है, लोगों की सुनी है और फिर लिखा है।
2 comments:
सच्ची बात सदा ही अच्छी लगेगी, युवा को।
आज का युवा बहुत समझदार वर्ग है । अपने मकसद की चीज़ भीड़ में से छांट लेता है।
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