Tuesday, May 15, 2012

मायावती और शाहखर्ची


मायावती की शाहखर्ची को लेकर समय-समय पर लोगों को मिर्गी के दौरे पड़ते रहते हैं। खर्च और लोग भी करते हं, लेकिन मामला दलित का हो तो उसे पचा पाना मुश्किल होता है। कॉरपोरेट जगत की एक भव्य पार्टी पर जितना खर्च किया जाता है वह रकम मायावती के घर की साज-सज्जा से संबंधित पूरे बजट के लिए पर्याप्त होगी। कारोबारी जगत को निकट से समझने वाले सोमशेखर सुंदरेशन ने बहुत बेहतरीन ढंग से इस मामले की पड़ताल की है- सत्येन्द्र)
सोमशेखर सुंदरेशन
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहते हुए मायावती के घर पर हुए खर्च की खबरें पिछले सप्ताह सभी राष्टï्रीय अखबारों के पहले पृष्ठï पर थीं। अचानक देश के मध्य वर्ग की अंतरात्मा जाग उठी और सभी लोग व्याकुल हो उठे, खास तौर पर कॉरपोरेट क्षेत्र के कर्मचारी। वे यह बात नहीं पचा पा रहे थे कि किसी दलित की विलासितापूर्ण जीवनशैली पर सार्वजनिक धन की इस तरह बरबादी की गई।
मायावती की खर्च करने की प्रवृत्ति ने पिछले साल भी जबरदस्त सुर्खियां बटोरी थीं। विकीलिक्स ने एक देशी राजनयिक से बातचीत पर आधारित यह रोचक खबर वेबसाइट पर डाली कि किस तरह केवल मायावती के बेशकीमती जूते लाने के लिए लखनऊ से एक खाली विमान मुंबई के लिए रवाना हुआ था। पूर्व मुख्यमंत्री ने इस रिपोर्ट का खंडन किया था। फिर भी, यदि निरपेक्ष नजरिया रखें और सुनी-सुनाई बातों पर गौर न करें तो मायावती एक विशिष्टï श्रेणी की हस्तियों में शुमार होंगी, न केवल राजनीतिक दुनिया में, बल्कि कॉरपोरेट जगत में भी। जिन लोगों को राज्य का शासन चलाने के लिए चुना जाता है, उन पर ऐसे लोगों की तुलना में ज्यादा ध्यान दिया जाता है जो सूचीबद्घ कंपनियों का प्रशासन संभालने के लिए चयनित होते हैं।
केवल लोक प्रशासन राज्य का मामला नहीं होता, बल्कि शेयर बाजारों में सूचीबद्घ कंपनियों का प्रशासन भी ऐसा ही मसला होता है, जिसमें सार्वजनिक धन लगा होता है। इस तरह कॉरपोरेट प्रशासन भी समान रूप से लोक शासन का हिस्सा हुआ। यदि करदाताओं के खर्चों पर विलासितापूर्ण जीवनशैली उचित नहीं है तो सार्वजनिक शेयरधारकों और जमाकर्ताओं के खर्च पर भी ऐसी जीवनशैली को सही नहीं ठहराया जा सकता। यहां मुद्दा केवल जीवनशैली का नहीं है। बल्कि यह उन लोगों से संबंधित मसला भी है जो शानदार जीवनशैली बनाए रखने के लिए बिलों की रकम बढ़ाते जाते हैं।
इस तरह के विषय पर चर्चा आगे बढ़ाएं तो कॉरपोरेट जगत में भी मायावती जैसे उदाहरण भरे पड़े हैं। कुछ उदाहरण तो ऐसे भी मिल जाएंगे, जिनके मुकाबले मायावती बेहतर नजर आएंगी। आपने सुना होगा कि एक सूचीबद्घ कंपनी के अध्यक्ष ऐसे हैं, जिनके लिए कारखाने के नजदीक उगने वाले एक विशेष फल लाने के वास्ते कॉरपोरेट हवाई जहाज उड़ान भरता है। ऐसी कई कहानियां प्रचलित हैं जो उन कॉरपोरेट जेट विमानों से संबंधित हैं जो स्थानीय बाजारों में उपलब्ध विशेष सूखे फलों के वास्ते दूसरे देशों के लिए उड़ान भरते हैं क्योंकि प्रवर्तक की पत्नी को वह बहुत पसंद है।
आपने ऐसी सूचीबद्घ कंपनियों के बारे में भी सुना होगा, जो दर्जी से समय पर सूट मंगवाने के लिए आईआईएम में शिक्षा प्राप्त महंगे रंगरूट रखते हैं। ऐसे मामलों की भी कमी नहीं हैं, जहां अध्यक्ष के लिए वीजा और पासपोर्ट का इंतजाम करने के लिए ट्रैवल एजेंटों, दूतावासों के कर्मचारियों और पासपोर्ट अधिकारियों पर समय और धन की बेशुमार बरबादी की जाती है। यह लागत भी अंतत: सार्वजनिक शेयरधारकों को ही उठानी पड़ता है। लेकिन, वरिष्ठï कॉरपोरेट नौकरशाहों (आईएएस अधिकारियों के समकक्ष) का कहना है कि केवल वही नहीं, बल्कि दूसरे लोग भी धन की बरबादी करते हैं क्योंकि खामियां तो पूरी व्यवस्था में हैं। यह कहना आसान है और संभवत: सुविधाजनक भी, लेकिन दोनों मामलों में बारीक अंतर है। कई लोग इस राय से सहमत होंगे कि निजी क्षेत्र के होने के नाते सूचीबद्घ कंपनियां वैध तरीके से अधिकारियों पर ज्यादा खर्च कर सकती हैं। फिर भी, सार्वजनिक धन का इस्तेमाल करने का मसला हमेशा प्रशासन से जुड़ा हुआ रहेगा, चाहे बात कॉरपोरेट प्रशासन की हो या फिर राज्य शासन की।
यह कहना समान रूप से उचित है कि उच्च और निम्न वर्गों के बीच संघर्ष चलता रहता है। लेकिन, इसके साथ-साथ यह भी उतना ही सही है कि भारत निश्चित रूप से इस मामले में काफी पिछड़ा हुआ है। अधिकारों को लागू करने के मामले में 183 देशों की फेहरिस्त में हम 182वें पायदान पर हैं। यह सूची विश्व बैंक और अंतरराष्टï्रीय वित्त निगम ने संयुक्त रूप से प्रकाशित की है। यदि क्षतिपूर्ति से संबंधि किसी मुकदमे की पहली सुनवाई में 20 वर्षों का लंबा समय लग जाता है तो ऐसे में हैरानी नहीं होनी चाहिए कि किसी सूचीबद्घ कंपनी द्वारा फिल्मी सितारों और राजनीतिक हस्तियों के निजी दौरों के लिए कॉरपोरेट जेट का इंतजाम करने में होने वाले खर्च पर सवाल उठाने में कोई सक्षम नहीं होगा।
बहरहाल मूल मसले पर आते हैं। दिलचस्प है कि कॉरपोरेट जगत की एक भव्य पार्टी पर जितना खर्च किया जाता है वह रकम मायावती के घर की साज-सज्जा से संबंधित पूरे बजट के लिए पर्याप्त होगी। वरिष्ठï कॉरपोरेट हस्तियों का जन्मदिन मनाने के लिए ऐसी ही भव्य दावतें दी जाती हैं। वरिष्ठï मीडिया पेशेवर इस तरह की दावतों को बड़ी बेपरवाही से कवर करते हैं, जबकि मायावती की ओर से दी जाने वाली पार्टियों की रिपोर्टिंग बारीकी से की जाती है। इसी तरह मीडिया में कंपनियों के मुख्य कार्याधिकारियों के वेतन-भत्तों और विनम्रता का बखान करते समय एक तरह का संतुलन रखा जाता है, लेकिन मायावती जैसी हस्तियों के मामले में इसकी कमी देखी जाती है।
यह मायावती की अनुचित शैली का बचाव करने की कोशिश नहीं है, बल्कि केवल यह याद दिलाने के लिए है कि पत्थर वही फेंक सकता है जिसने पाप न किए हों।
लेखक जेएसए, एडवोकेट्स ऐंड सॉलिसिटर्स के पार्टनर हैं और यह उनकी निजी राय है

Monday, May 14, 2012

कंपनियां यूं कराती हैं खबरों का प्रबंधन!

अभी तक सुनते थे कि आदिवासी ही बहुराष्ट्रीय कंपनियोंं की साजिश का शिकार हो रहे हैं, लेकिन किसान भी इनकी जद में हैं। जिस समय बीटी काटन पर बहस चल रही थी, देश के एक अग्रणी अंग्रेजी अखबार ने 2008 में किसानों के बीटी काटन से मालामाल होने की खबर छापी। पूरे पेज की उस खबर को 2011 में उस समय विज्ञापन के रूप में दिया गया, जब बीज विधेयक संसद में पेश नहीं हो सका। जाने माने पत्रकार पी साईनाथ ने इस खबर और विज्ञापन की खबर ली। झूठे आंकड़ों की कहानी लेकर आए और साजिशों का पर्दाफाश किया। पेश है खबर...
पी साईनाथ
करीब साढ़े तीन साल पहले जीन संवर्धित (जेनेटिकली मोडीफॉयड) बीजों के इस्तेमाल पर तगड़ी बहस छिड़ी हुई थी। यह मसला भारत के कोने-कोने में चर्चा में था। ठीक उसी समय एक समाचार ने इस तकनीक की सफलता के चमकदार असर पर खबर पेश की। टाइम्स ऑफ इंडिया ने 31 अक्टूबर 2008 के अंक में लिखा... "यहां पर आत्महत्या की कोई घटना नहीं हुई है। खेती बाड़ी से लोग अमीर हो रहे हैं। कपास के परंपरागत बीजों को छोड़कर बोलगार्ड या बीटी कॉटन अपनाने से पिछले 3-4 साल के दौरान यहां के गांवों (भांबराजा और अंटारागांव) में सामाजिक और आर्थिक क्रांति आई है।"
इसमें एक दिलचस्प पहलू और है। यही किस्सा इसी अखबार में अभी 9 महीने पहले शब्दशः एक बार फिर छपा। (28 अगस्त, 2011)। यह भी नहीं ध्यान रखा गया कि हो सकता है कि अब किसान कुछ अलग कहानी बयान कर रहे हों।
इस साल मार्च महीने में कृषि पर बनी संसद की स्थायी समिति ने इलाके का दौरा किया। भांबराजा गांव के गुस्साए किसानों की भीड़ में से आई आवाज ने समिति के सदस्यों को चौंका दिया। “हमारे गांव में आत्महत्या की 14 घटनाएं हुई हैं।” “इसमें ज्यादातर आत्महत्याएं बीटी के आने के बाद हुईं।” द हिंदू ने 2003 से 2009 के बीच आत्महत्या की 9 घटनाओं की पुष्टि की। यहां के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने 5 औऱ घटनाएं गिनाईं। यह सभी घटनाएं 2002 के बाद की हैं, जब लोगों ने बीटी कॉटन को अपनाया था. उसके बाद टाइम्स आफ इंडिया ने किसानों के संपन्नता की कहानी लिखी थी। गांव वालों ने हतप्रभ सांसदों से कहा, “महोदय, ढेर सारी जमीनें खाली पड़ी हैं। तमाम लोगों का किसानी से भरोसा उठ गया है।” कुछ लोगों ने तो सोयाबीन की खेती अपना ली है, “कम से कम उसमें नुकसान की संभावना इतनी ज्यादा नहीं रहती”।
म्हाइको-मॉनसेंटो बायोटेक के बीटी कॉटन की खेती के “आदर्श गांव” से सैकड़ों किसान विस्थापित हो चुके हैं, जिसमें ज्यादा जमीन वाले किसान भी शामिल हैं। पिछले साल सितंबर महीने में हमारी पहली यात्रा के दौरान भांबराजा गांव के रामदास भोंड्रे ने भविष्यवाणी की थी, “अभी और ज्यादा लोग गांव छोड़ेंगे, क्योंकि किसानी मर रही है।”
मोनसेंटो के बीटी कॉटन का स्तुतिगान 2008 में उस समय पूरे पृष्ठ पर आया था. सरकार अगस्त 2011 में बॉयोटेक रेगुलेटरी अथॉरिटी आफ इंडिया (बीआऱएआई) विधेयक संसद में पेश करने में सफल नहीं हुई थी। विधेयक पेश न किए जा सकने की घटना महत्त्वपूर्ण थी, क्योंकि इससे कृषि बायोटेक उद्योग को भविष्य में मिलने वाला मुनाफा प्रभावित हुआ था। उसके बाद ही इसके लिए गोलबंदी शुरू हो गई। 28 अगस्त 2011 को पूरे पेज की कहानी “ Reaping Gold through Bt Cotton” टाइम्स आफ इंडिया में आई। उसके बाद कंपनी की ओर से अखबारों में विज्ञापन आने लगे। ऐसा ही लगातार 29, 30, 31 अगस्त और 1 व 3 सितंबर को हुआ। बहरहाल यह विधेयक संसद में पेश नहीं हो सका। न तो मॉनसून सत्र में न ही शीतकालीन सत्र में, जबकि दोनों सत्रों में इसे सूची में रखा गया था। अन्य मसलों पर संसद में हंगामा होता रहा। कुछ लोगों ने इसके बदले मुनाफा कमाया, बीटी कॉटन के माध्यम से नहीं तो अखबारी कागज के माध्यम से।
कृषि पर बनी संसद की स्थायी समिति पर इन विज्ञापनों का कोई असर नहीं हुआ। समिति ने पहले भी जीन संवर्धित फसलों को अनुमति दिए जाने के मसले को देखा था। किसानों की आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं की खबरों और विदर्भ के तनाव से परेशान समिति के सदस्यों ने इस इलाके का दौरा करने का मन बनाया। समिति में विभिन्न दलों के सदस्य शामिल थे।
भांबराजा गांव ने निश्चित रूप से इस समिति के अध्यक्ष और दिग्गज सांसद बासुदेव आचार्य का ध्यान खींचा था। आखिर ध्यान आकर्षित भी क्यों न करता, यह गांव तो म्हाइको मॉनसेंटो के करिश्मे से मालामाल हुआ गांव था! अन्य गांव मारेगांव-सोनेबर्डी था। लेकिन सांसदों को तब झटका लगा, जब इसमें से किसी गांव के लोग मालामाल नहीं नजर आए। करिश्मे का आभामंडल टूट चुका था। यहां के लोगों में फैली निराशा और तनाव सरकार की असफलता की कहानी बयां कर रहे थे।
यह मसला (और जैसा कि टाइम्स आफ इंडिया अपनी खबरों में दावा भी करता है) एक बार फिर जिंदा हुआ है, क्योंकि 2012 में बीटी कॉटन को 10 साल होने जा रहे हैं। पिछले साल 28 अगस्त को “Reaping Gold through Bt Cotton” नाम से आई कहानी को “ए कंज्यूमर कनेक्ट इनीशिएटिव” के रूप में पेश किया गया। अगर दूसरे शब्दों में कहें तो यह विज्ञापन था। पूरे पेज की इस खबर में पेशेवर पत्रकारों के नाम से खबरें और टाइम्स आफ इंडिया के फोटो थे। सबसे विरोधाभासी यह है कि जो खबर विज्ञापन में बदल चुकी थी, वह शब्दश टाइम्स आफ इंडिया के नागपुर संस्करण में 31 अक्टूबर 2008 को छप चुकी थी। आलोचकों ने इस दोहराव को हास्यास्पद बताया था। 28 अगस्त 2011 को छपी खबर इसी खबर के फिर से छप जाने के दोहराव जैसा लगा। लेकिन इसमें खास अंतर था। 2008 में छपी खबर को विज्ञापन के रूप में नहीं दिखाया गया था। दोनों संस्करणों में छपी खबर में एक समानता भी ध्यान देने योग्य है। उनमें लिखा गया था, “यवतमाल दौरे की व्यवस्था म्हाइको मोनसेंटो बायोटेक ने की थी।”
कंपनी ने 2008 में छपे फीचर को पूरे पेज के न्यूज रिपोर्ट के रूप में पेश किया, जिसे टाइम्स आफ इंडिया ने किया था. पिछले सप्ताह म्हाइको मोनसेंटो बायोटेक इंडिया के प्रवक्ता ने द हिंदू से बातचीत में कहा, “2008 का कवरेज मीडिया के दौरे का परिणाम था, जिसे संपादकीय विवेक के साथ लिखा गया था। हमने सिर्फ आने जाने की व्यवस्था की थी।” “2011 में जो रिपोर्ट छपी, वह 2008 की रिपोर्ट ही थी, जिसमें कोई संपादन नहीं किया गया और इसे मार्केटिंग फीचर के रूप में छापा गया।” 2008 में “पूरे पेज की न्यूज रिपोर्ट” नागपुर संस्करण में आई थी। 2011 का “मार्केटिंग फीचर”, िजसे आप स्पेशल रिपोर्ट के हिस्से में क्लिक करके देख सकते हैं, कई संस्कऱणों में दिखा। लेकिन यह नागपुर में नहीं छपा, जिसके चलते निश्चित रूप से विस्मय पैदा होता है।
इस तरह से एक पूरा पेज तीन साल के भीतर दो बार दिखा। पहली बार खबर के रूप में और दूसरी बार विज्ञापन के रूप में। पहली बार इसे समाचार पत्र के स्टाफ रिपोर्टर और फोटोग्राफर के माध्यम से पेश किया गया। दूसरी बार विज्ञापन विभाग ने इसे पेश किया। पहली बार इस खबर के लिए यात्रा की व्यवस्था म्हाइको मोनसेंटो ने की। दूसरी बार म्हाइको मोनसेंटो ने इसके लिए विज्ञापन की व्यवस्था की। पहली बार यह हादसे के रूप में सामने आया और दूसरी बार एक तमाशे के रूप में।
कंपनी के प्रवक्ता इस मामले में उच्च स्तर के पारदर्शिता का दावा करते हैं। हमने कहा कि यह प्रकाशन 31 अक्टूबर 2008 में छपी खबर का रीप्रिंट है है। लेकिन प्रवक्ता ने ई मेल से भेजे गए अपने जवाब में इस विज्ञापन के समय के बारे में द हिंदू के सवालों पर चुप्पी साध ली। कंपनी ने कहा, “2011 हमने बीटी बीज को लेकर जन जागरूकता अभियान चलाया था, जो सीमित अवधि के लिए था। इसका उद्देश्य था कि लोगों को कृषि के क्षेत्र में बायोटेक्नोलाजी के महत्त्व की जानकारी मिल सके।” द हिंदू ने यह सवाल पूछा था कि जब संसद में बीआरएआई विधेयक पेश होना था, उसी समय यह अभियान क्यों चलाया गया, लेकिन इसका कोई जवाब नहीं मिला।
लेकिन मामला इससे भी आगे का है। गांव के लोगों का कहना है कि बीटी के जादू पर लिखी गई टाइम्स आफ इंडिया की खबर में भांबराजा या अंतरगांव की जो फोटो लगी थी, वह उस गांव की थी ही नहीं। गांव के किसान बबनराव गवांडे कहते हैं, “ इस फोटो में लोगों को देखकर यह लगता है कि फोटो भांबराजा की नहीं है। ”
काल्पनिक करिश्मा
टाइम्स आफ इंडिया की खबर में एक चैंपियन शिक्षित किसान नंदू राउत को पात्र बनाया गया है, जो एलआईसी एजेंट भी है। इसकी कमाई बीटी के करिश्मे की वजह से बढ़ी बताई गई है। पिछले साल सितंबर महीने में नंदू राउत ने मुझसे कहा था, “मैंने इसके पहले साल करीब 2 लाख रुपये कमाए थे।” उसने कहा, “इसमें से करीब 1.6 लाख रुपये पॉलिसी की बिक्री से आए थे।” संक्षेप में कहें तो उसने एलआईसी पॉलिसी के माध्यम से खेती से हुई कमाई की तुलना में करीब 4 गुना ज्यादा कमाया। नंदू के पास साढ़े सात एकड़ जमीन है और उसके परिवार में 4 सदस्य हैं।
लेकिन टाइम्स आफ इंडिया की खबर में कहा गया है कीटनाशकों के खर्च बच जाने की वजह से उसे प्रति एकड़ 20,000 रुपये अतिरिक्त कमाई हुई। वह 4 एकड़ में खेती करता है, इस तरह से उसे 80,000 रुपये का अतिरिक्त मुनाफा हुआ।
इससे अलग भांबराजा गांव के किसान गुस्से से कहते हैं, “हमें एक किसान दिखा दो, जिसका प्रति एकड़ कुल मुनाफा भी 20,000 रुपये हो।” पूरे गांव में किए गए सर्वे, जिस पर राउत ने भी हस्ताक्षर किए हैं, उनकी कमाई की अलग कहानी कहता है। सर्वे की यह प्रति द हिंदू के पास भी है।
भांबराजा और मारेगांव के किसानों को बीटी के करिश्मे से हुए फायदे की कहानी को केंद्रीय कृषि मंत्रालय के आंकड़े भी झुठलाते हैं। 19 दिसंबर 2011 को शरद पवार ने संसद में कहा, “विदर्भ में करीब 1.2 क्विंटल प्रति हेक्टेयर काटन लिंट का उत्पादन होता है।” इतने कम उत्पादन का आंकड़ा चौंकाने वाला है। इस आंकड़े का दोगुना भी कम होगा। किसान अपनी फसल को कच्चे कपास के रूप में बेचते हैं। 100 किलो कच्ची कपास में 35 किलो लिंट निकलती है और 65 किलो कपास बीज होता है। पवार के दिए गए आंकड़े कहते हैं कि 3.5 क्विंटल कच्चे कपास का उत्पादन प्रति हेक्टेयर होता है। पवार का कहना है कि किसानों को अधिकतम 4,200 रुपये प्रति क्विंटल मिल रहे हैं। इस तरह से वह मानते हैं कि किसानों को करीब उतना ही मिल रहा है, जितना कि उनका उत्पादन लागत होता है, जिसकी वजह से ऐसी गंभीर समस्या पैदा हुई है। अगर पवार के आंक़डे सही हैं तो नंदू रावत की कमाई 5,900 रुपये प्रति एकड़ से ज्यादा नहीं हो सकती। अगर इसमें से 1.5 पैकेट बीज के करीब 1,400 रुपये व अन्य उत्पादन लागत निकाल दें तो उसके पास करीब कुछ भी नहीं बचता। जबकि टाइम्स आफ इंडिया के मुताबिक इसकी कमाई 20,000 रुपये प्रति एकड़ से ज्यादा है।
कमाई के इस असाधारण दावे के बारे में पूछे जाने पर म्हाइको मोनसेंटो के प्रवक्ता ने कहा, “हम एमएमबी इंडिया के सहकर्मियों के बयानों के साथ हैं, जैसा कि खबर में प्रकाशित किया गया है।”
दिलचस्प है कि पूरे पेज की इस खबर में एक पैराग्राफ का एक बयान है, जिसमें 20,000 रुपये प्रति एकड़ से ज्यादा कमाई या किसी अन्य आंकड़े का कोई जिक्र नहीं है। इसमें महज इतना कहा गया है कि बीटी की वजह से कपास की खेती करने वाले उत्पादकों की आमदनी बढ़ी है और बीटी का रकबा भी बढ़ा है। इसमें प्रति एकड़ पैदावार के बारे में नहीं बताया गया है। इसमें दो गांवों में किसी के भी आत्महत्या न करने के बारे में भी कुछ नहीं कहा गया है। इस तरह से कंपनी बड़ी सावधानी से टाइम्स आफ इंडिया के दावों से खुद को अलग करती है, लेकिन इसका इस्तेमाल बड़ी चालाकी से मार्केटिंग फीचर के रूप में करती है।
इन दावों के बारे में एमएमबी के प्रवक्ता का कहना है, “यह जानकारी पत्रकारों ने किसानों से सीधे बातचीत और किसानों के व्यक्तिगत अनुभवों से जुटाई है। पत्रकार गांव में गए थे, उन्होंने किसानों से बातचीत करके रिपोर्ट तैयार की औऱ उसमें किसानों के बयान भी दिए।”
खबर के बाद विज्ञापन बन चुके एक पेज के दावों के मुताबिक नंदू रावत की बोलगार्ड-2 की प्रति एक़ड़ उत्पादकता 20 क्विंटल होनी चाहिए, जो कृषि मंत्री शरद पवार के बताए 1.4 क्विंटल औसत की तुलना में 14 गुना ज्यादा है.
पवार का मानना है कि विदर्भ इलाके में बारिश के पानी पर निर्भरता की वजह से पैदावार कम होती है, क्योंकि कपास की दो से तीन बार सिंचाई की जरूरत होती है। हालांकि वह इस सवाल पर खामोश हो जाते हैं कि महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी व कांग्रेस की सरकार है, ऐसे में एक सूखे इलाके में बीटी काटन को क्यों बढ़ावा दिया जा रहा है। अगर हम टाइम्स आफ इंडिया की मानें तो नंदू नकदी की ढेर पर बैठा है, लेकिन कृषि मंत्री की बात पर यकीन करें तो वह मुश्किल से अपनी जान बचा रहा है।
म्हाइको मोनसेंटो बायोटेक के 2011 के ठीक इसी सप्ताह में दिल्ली के एक अखबार में छपे विज्ञापन पर विवाद हुआ था। एक विज्ञापन पर एडवर्टाइजिंग स्टैंडर्ड काउंसिल आफ इंडिया (एएससीआई) के पास शिकायत पहुंची, जिसमें भारतीय किसानों को भारी मुनाफे का दावा किया गया था। एएससीआई ने पाया कि विज्ञापन में किए गए दावे पुष्ट नहीं हैं। एमएमबी के प्रवक्ता ने कहा कि कंपनी ने एएससीआई की ओर से उठाए गए मसलों को संज्ञान में लिया और उसके मुताबिक विज्ञापन में बदलाव किया गया।
हम स्थायी समिति के सांसदों के साथ जब मार्च में गांव के दौरे से लौट रहे थे तो एक बार फिर नंदू से मिले। उसने कहा, “आज की तारीख में फिलहाल मैं यही सलाह दूंगा कि यहां बीटी काटन का इस्तेमाल न करें, क्योंकि यह असिंचित इलाका है। अब हालात बहुत खराब हो गए हैं।” उसने सांसदों के साथ बैठक में एक भी सवाल नहीं उठाए और हा कि वह इतनी देर से आए हैं कि कुछ कर नहीं सकते।
टाइम्स आफ इंडिया की एक खबर में एक किसान मंगू चव्हाण अपने बयान में कहता है, “हम अब महाजनों के चंगुल से दूर हैं। अब किसी को उनकी जरूरत नहीं होती।” यह अंतरगांव के किसान का बयान है, जहां बीटी काटन के चलते लोगों की अमीरी दिखाई गई है। लेकिन भांबराजा के 365 किसान परिवारों और अंतरगांव के 150 परिवारों पर किए गए अध्ययन के आंकड़े कुछ और ही बयां करते हैं। यह अध्ययन विदर्भ जन आंदोलन समिति ने किए हैं। समिति के प्रमुख किशोर तिवारी कहते हैं, “बैंक खाते रखने वाले ज्यादातर किसान डिफाल्टर हो चुके हैं औऱ 60 प्रतिशत किसान साहूकारों के कर्ज तले दबे हैं।”
महाराष्ट्र सरकार ने पूरी कोशिश की कि सांसदों को “आदर्श गांव” भांबराजा और मारेगांव न जाने दिया जाए। बहरहाल, समिति के अध्यक्ष बासुदेव आचार्य और उनके सहयोगी वहां जाने को तत्पर थे। सांसदों के दौरे से प्रोत्साहित गांव वाले खुलकर बोले। महाराष्ट्र में 1995 से 2010 के बीच 50,000 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक यह सबसे खराब स्थिति है। विदर्भ में लंबे समय से इस तरह की मौतें हो रही हैं। अब किसान भी नीतिगत मसलों पर आवाज उठाने लगे हैं, जिसकी वजह से गांवों में तनाव बढ़ा है।
किसी भी किसान ने यह नहीं कहा कि आत्महत्या की घटनाओं या संकट की वजह केवल बीटी काटन है। लेकिन गांववाले इसके करिश्मे के तमाम दावों की हवा निकालते हैं। उनकी कुछ प्रतिक्रियाएं तो सांसदों के लिए खबर की तरह आईं, न कि भुगतान की गई खबर या मार्केटिंग फीचर के रूप में।

Saturday, May 12, 2012

सिर जो झुका रहा है, वह भी है घोंघा बसन्त

(फेसबुक फ्रेंडों के पहले मेरे ब्लॉग फ्रेंड हुआ करते थे, अब भी हैं, लेकिन उधर सक्रियता कम होने की वजह से मामला सुस्त है। अंबेडकर के कार्टून को मुझे बहुत स्पष्ट समझाने में मेरी मदद की मेरे पुराने ब्लॉग फ्रेंड दिनेश राय द्विवेदी ने। अगर आपको भी समझने में कोई दिक्कत हो तो इस लेख से मदद जरूर लें। ऐसा लगता है कि शंकर असल में यही दिखाना चाह रहे थे, कार्टून की बाकी व्याख्याएं अतार्किक और बवाली हैं- जिसमें मेरे भी तमाम तर्क हैं)
दिनेशराय द्विवेदी
घोंघा एक विशेष प्रकार का जंतु है जो अपने जीवन का अधिकांश एक कड़े खोल में बिता देता है। इस के शरीर का अधिकांश हिस्सा सदैव ही खोल में बंद रहता है। जब इसे आहार आदि कार्यों के लिए विचरण करना होता है तो यह शरीर का निचला हिस्सा ही बाहर निकालता है जिस में इस के पाद (पैर) होते हैं और जिन की सहायता से यह चलता है। जैसे ही किसी आसन्न खतरे का आभास होता है यह अपने शरीर को पूरी तरह से खोल में छिपा लेता है। खतरे के पल्ले केवल कड़ा खोल पड़ता है। खतरे की संभावना मात्र से खोल में छिपने की इस की प्रवृत्ति पर अनेक लेखकों ने अपनी कलम चलाई है। इसे आधार बना कर सब से खूबसूरत कहानी महान रूसी कथाकार अंतोन चेखोव की ‘दी मेन इन दी केस’ है जिस के हिन्दी अनुवाद का शीर्षक ही ‘घोंघा’ है। इस कहानी को पढ़ कर मनुष्य की घोंघा प्रवृत्ति का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
खतरे से बचने के लिए कड़े खोल का निर्माण करने और खतरे की आशंका मात्र से खोल में छुप जाने की इस घोंघा प्रवृत्ति को व्यंग्य की धार बनाने का उपयोग साहित्य में अनेक लोगों ने किया है। लेकिन घोंघे की चाल की विशिष्ठता का उपयोग बिरले ही देखा गया है। विभिन्न प्रजाति के स्थलीय घोंघों की चाल नापे जाने पर प्राप्त परिणामों के अनुसार उन की न्यूनतम चाल 0.0028 मील प्रतिसैकंड और अधिकतम चाल 0.013 मील प्रति सैंकंड है। इस अधिकतम चाल से कोई भी घोंघा एक घंटे में 21 मीटर से अधिक दूरी नहीं चल सकता। पिछली सदी के महान भारतीय व्यंग्य चित्रकार केशव शंकर पिल्लई ने घोंघे की चाल का अपने व्यंग्य चित्र में जिस तरह से उपयोग किया उस का कोई सानी नहीं है। इस व्यंग्य चित्र में भारतीय राजनीति की दो महान हस्तियाँ सम्मिलित थीं। इस व्यंग्य चित्र को सामाजिक विज्ञान की पाठ्य पुस्तक में सम्मिलित किए जाने को कुछ लोगों ने प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और उसे पुस्तक से हटाने की मांग को ले कर संसद में हंगामा खड़ा किया। सरकार इस विवाद के सामने बेदम नजर आई। विभागीय मंत्री जी को खेद व्यक्त करते हुए उस व्यंग्य चित्र को पाठ्यपुस्तक से हटाने की घोषणा करनी पड़ी। भारतीय संसद नित नए प्रहसनों के लिए पहले ही कम ख्यात नहीं है। इस नए प्रहसन ने संसद की छवि में चार चांद और लगा दिए।
इस व्यंग्य चित्र में घोंघे को निर्मित होते हुए संविधान के रूप में दिखाया गया है। संविधान के इस घोंघे पर संविधान सभा के सभापति डा. भीमराव अम्बेडकर सवार हैं और चाबुक चला रहे हैं जिस से घोंघा दौड़ने लगे और शीघ्रता से अपनी मंजिल तय कर सके। घोंघे की इस चाल से तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी प्रसन्न नहीं हैं और वे भी चाबुक ले कर घोंघे पर पिले पड़े हैं। सारे भारत की जनता इन दोनों महान नेताओं की इस चाबुकमार पर हँस रही है। इस व्यंग्य चित्र से प्रदर्शित हो रहा है कि दोनों महान नेताओं को संविधान का निर्माण संपन्न होने की इतनी व्यग्रता है कि वे यह भी विस्मृत कर गए कि यह जल��दबाजी में करने का नहीं अपितु तसल्ली से करने का काम है, इसीलिए संविधान को यहाँ घोंघे के रूप में दिखाया गया है। चाहे कितने ही चाबुक बरसाए जाएँ घोंघा तो अपनी चाल से ही चलेगा, उसे दौड़ाया नहीं जा सकता। अब घोंघे को चाबुक मार कर दौड़ाने का प्रयत्न तो एक मूर्खतापूर्ण कृत्य ही कहा जा सकता है। वास्तव में कोई ऐसा करे और उसे देखने वाला उस पर हँसे न तो क्या करे? इस व्यंग्य चित्र में दोनों महान नेताओं के इस कृत्य पर जनता का हँसना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में सामने आया है।
इस व्यंग्य चित्र से न तो डाक्टर भीमराव अंबेडकर की प्रतिष्ठा को कोई आँच पहुँचती है और न ही नेहरू के सम्मान पर। हाँ उन की स्वाभाविक व्यग्रता जनता के सामने हँसी का कारण अवश्य बनती है। यह व्यंग्य चित्र दोनों नेताओं की व्यग्रता को जनता के प्रति उन की प्रतिबद्धता और कर्तव्यनिष्ठता के रूप में प्रदर्शित करता है। मुझे तो लगता है कि यदि किसी पाठ्य पुस्तक में व्यंग्य चित्रों के माध्यम से तत्कालीन राजनीति को समझाने की कोशिश की जाए तो इस व्यंग्य चित्र को अवश्य ही उस में शामिल होना चाहिए। पाठ्यपुस्तक निर्माताओं ने यही किया भी था।
संसद में जब यह प्रश्न उठा तो सरकार को उस का सामना करना चाहिए था और उस मुद्दे पर हंगामा नहीं बहस होनी चाहिए थी। सदन में उपस्थित विद्वान सांसदों को इस मामले की विवेचना को सदन के समक्ष रखना चाहिए था। यदि फिर भी संतुष्टि नहीं होती तो इस मामले को साहित्य और कला के मर्मज्ञों की एक समिति बना कर उस के हवाले करना चाहिए था और उस की समालोचना की प्रतीक्षा करनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। डा. भीमराव अम्बेडकर को भगवान का दर्जा दे कर अपनी राजनीति भाँजने वाले लोगों का खुद डा. अम्बेडकर से क्या लेना देना? उन का मकसद तो संसद में हंगामे की तलवारें भांज कर वीर कहाना मात्र था। सरकारी पक्ष ने बाँकों के इस प्रहसन को एक गंभीर चुनौती के रूप में स्वीकार करने के स्थान पर उसे अपनी गलती के रूप में स्वीकार करते हुए सीधे सीधे आत्मसमर्पण कर दिया। जैसे जूता मंदिर में प्रवेश नहीं पा सकता, व्यंग्य चित्र का पाठ्य पुस्तक में क्या काम? मंदिर में जूते के प्रवेश नही पा सकने से उस का महत्व कम नहीं हो जाता। अपितु जो व्यक्ति जूते को बाहर छोड़ कर जाता है उसका ध्यान भगवान की प्रार्थना में कम और जूते में अधिक रहता है।
इस घर में पहले भी कम नहीं थे घोंघा बसन्त।
अब जिधर भी देखो नजर आते हैं घोंघा बसन्त।।
चाबुक जो थामे है, वह तो है घोंघा बसन्त।
सिर जो झुका रहा है, वह भी है घोंघा बसन्त।।
http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/dineshraidwivedi/entry/%E0%A4%B8-%E0%A4%B0-%E0%A4%9C-%E0%A4%9D-%E0%A4%95-%E0%A4%B0%E0%A4%B9-%E0%A4%B9-%E0%A4%B5%E0%A4%B9-%E0%A4%AD-%E0%A4%B9-%E0%A4%98-%E0%A4%98-%E0%A4%AC%E0%A4%B8%E0%A4%A8-%E0%A4%A4

तार्किक है किताब में कार्टून डाला जाना

(अंबेडकर पर छपे एक कार्टून पर 50-70 साल बाद बवाल हो गया। कार्टून किताब में डाला गया, इसलिए। हिमांशु पंड्या ने इस पर एक बहुत धारदार, शानदार और तार्किक लेख लिखा। अगर ऐसी किताबें आएं तो निश्चित रूप से छात्रों की तर्कशक्ति बढ़ेगी और वह शानदार तरीके से सीख सकेंगे।)
हिमांशु पंड्या
जिस किताब में छपे कार्टून पर विवाद हो रहा है, उसमें कुल बत्तीस कार्टून हैं। इसके अतिरिक्त दो एनिमेटेड बाल चरित्र भी हैं - उन्नी और मुन्नी। मैं सबसे पहले बड़े ही मशीनी ढंग से इनमें से कुछ कार्टूनों का कच्चा चिट्ठा आपके सामने प्रस्तुत करूँगा, फिर अंत में थोड़ी सी अपनी बात।
# नेहरु पर सबसे ज्यादा (पन्द्रह) कार्टून हैं। ये स्वाभाविक है क्योंकि किताब है : भारत का संविधान : सिद्धांत और व्यवहार। # एक राज्यपालों की नियुक्ति पर है। उसमें नेहरू जी किक मारकर एक नेता को राजभवन में पहुंचा रहे हैं। # एक भाषा विवाद पर है, उसमें राजर्षि टंडन आदि चार नेता एक अहिन्दी भाषी पर बैठे सवारी कर रहे हैं। # एक में संसद साहूकार की तरह बैठी है और नेहरू, प्रसाद, मौलाना आज़ाद, जगजीवन राम, मोरारजी देसाई आदि भिखारी की तरह लाइन लगाकर खड़े हैं। यह विभिन्न मंत्रालयों को धन आवंटित करने की एकमेव ताकत संसद के पास होने पर व्यंग्य है। # एक में वयस्क मताधिकार का हाथी है जिसे दुबले पतले नेहरू खींचने की असफल कोशिश कर रहे हैं। # एक में नोटों की बारिश हो रही है या तूफ़ान सा आ रहा है जिसमें नेहरू, मौलाना आजाद, मोरारजी आदि नेता, एक सरदार बलदेव सिंह, एक अन्य सरदार, एक शायद पन्त एक जगजीवन राम और एक और प्रमुख नेता जो मैं भूल रहा हूँ कौन - तैर रहे हैं। टैगलाइन है - इलेक्शन इन द एयर।
# एक में नेहरू हैरान परेशान म्यूजिक कंडक्टर बने दो ओर गर्दन एक साथ घुमा रहे हैं। एक ओर जन-गण-मन बजा रहे आंबेडकर, मौलाना, पन्त, शायद मेनन, और एक वही चरित्र जो पिछले कार्टून में भी मैं पहचान नहीं पाया, हैं। ये लोग ट्रम्पेट, वायलिन आदि बजा रहे हैं जबकि दूसरी ओर वंदे मातरम गा रहे दक्षिणपंथी समूह के लोग हैं। श्यामाप्रसाद मुखर्जी बजाने वालों की मंडली से खिसककर गाने वालों की मंडली में जा रहे हैं। # एक में चार राजनीतिज्ञ नेहरु, पटेल, प्रसाद और एक और नेता भीमकाय कॉंग्रेस का प्रतिनिधित्त्व करते हुए एक लिलिपुटनुमा विपक्ष को घेरकर खड़े हैं। यह चुनाव और प्रतिनिधित्त्व की दिक्कतें बताने वाले अध्याय में है। # ऊपरवाले कार्टून के ठीक उलट है ये कार्टून जिसमें नेहरु को कुछ भीमकाय पहलवाननुमा लोगों ने घेर रखा है, लग रहा है ये अखाड़ा है और नेहरु गिरे पड़े हैं। घेरे खड़े लोगों के नाम हैं - विशाल आंध्रा, महा गुजरात, संयुक्त कर्नाटक, बृहनमहाराष्ट्र। ये कार्टून नए राज्यों के निर्माण के लिए लगी होड़ के समय का है।
### कवर पर बना कार्टून सबसे तीखा है। आश्चर्य है इससे किसी की भावनाएं आहत क्यों नहीं हुईं। यह आर. के. लक्ष्मण का है। इसमें उनका कॉमन मैन सो रहा है, दीवार पर तस्वीरें टंगी हैं - नेहरु, शास्त्री, मोरारजी, इंदिरा, चरण सिंह, वी.पी.सिंह, चंद्रशेखर, राव, अटल बिहारी और देवैगोडा... और टीवी से आवाजें आ रही हैं - "unity, democracy, secularism, equality, industrial growth, economic progress, trade, foreign collaboration, export increase, ...we have passenger cars, computers, mobile phones, pagers etc... thus there has been spectacular progress... and now we are determined to remove poverty, provide drinking water, shelter, food, schools, hospitals...
कार्टून छोड़िये, इस किताब में उन्नी और मुन्नी जो सवाल पूछते हैं, वे किसी को भी परेशान करने के लिए काफी हैं। वे एकबारगी तो संविधान की संप्रभुता को चुनौती देते तक प्रतीत होते हैं। मसलन, उन्नी का ये सवाल - क्या यह संविधान उधार का था? हम ऐसा संविधान क्यों नहीं बना सके जिसमें कहीं से कुछ भी उधार न लिया गया हो? या ये सवाल (किसकी भावनाएं आहत करेगा आप सोचें) - मुझे समझ में नहीं आता कि खिलाड़ी, कलाकार और वैज्ञानिकों को मनोनीत करने का प्रावधान क्यों है? वे किसका प्रतिनिधित्त्व करते हैं? और क्या वे वास्तव में राज्यसभा की कार्यवाही में कुछ खास योगदान दे पाते हैं? या मुन्नी का ये सवाल देखें - सर्वोच्च न्यायालय को अपने ही फैसले बदलने की इजाज़त क्यों दी गयी है? क्या ऐसा यह मानकर किया गया है कि अदालत से भी चूक हो सकती है? एक जगह सरकार की शक्ति और उस पर अंकुश के प्रावधान पढ़कर उन्नी पूछता है - ओह! तो पहले आप एक राक्षस बनाएँ फिर खुद को उससे बचाने की चिंता करने लगे। मैं तो यही कहूँगा कि फिर इस राक्षस जैसी सरकार को बनाया ही क्यों जाए?
किताब में अनेक असुविधाजनक तथ्य शामिल किये गए हैं। उदाहरणार्थ, किताब में बहुदलीय प्रणाली को समझाते हुए ये आंकड़े सहित उदाहरण दिया गया है कि चौरासी में कॉंग्रेस को अड़तालीस फीसदी मत मिलने के बावजूद अस्सी फीसदी सीटें मिलीं। इनमें से हर सवाल से टकराते हुए किताब उनका तार्किक कारण, ज़रूरत और संगती समझाती है। यानी किताब अपने खिलाफ उठ सकने वाली हर असहमति या आशंका को जगह देना लोकतंत्र का तकाजा मानती है। वह उनसे कतराती नहीं, उन्हें दरी के नीचे छिपाती नहीं, बल्कि बच्चों को उन पर विचार करने और उस आशंका का यथासंभव तार्किक समाधान करने की कोशिश करती है। उदाहरण के लिए जिस कार्टून पर विवाद है, वह संविधान निर्माण में लगने वाली देरी के सन्दर्भ में है। किताब में इस पर पूरे तीन पेज खर्च किये गए हैं, विस्तार से समझाया गया है कि संविधान सभा में सभी वर्गों और विचारधाराओं के लोगों को शामिल किया गया। उनके बीच हर मुद्दे पर गहराई से चर्चा हुई। संविधान सभा की विवेकपूर्ण बहसें हमारे लिए गर्व का विषय हैं, किताब ये बताती है। मानवाधिकार वाले अध्याय में सोमनाथ लाहिड़ी को (चित्र सहित) उद्धृत किया गया है कि अनेक मौलिक अधिकार एक सिपाही के दृष्टिकोण से बनाए गए हैं यानी अधिकार कम हैं, उन पर प्रतिबन्ध ज्यादा हैं। सरदार हुकुम सिंह को (चित्र सहित) उद्धृत करते हुए अल्पसंख्यकों के अधिकारों का सवाल उठाया गया है। किताब इन सब बहसों को छूती है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात ये है कि जहाँ देर के कारण गिनाए गए हैं, वहाँ ये रेखांकित किया गया है कि संविधान में केवल एक ही प्रावधान था जो बिना वाद-विवाद सर्वसम्मति से पास हो गया - सार्वभौम मताधिकार। किताब में इस पर टिप्पणी है – “इस सभा की लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति निष्ठा का इससे बढ़िया व्यावहारिक रूप कुछ और नहीं हो सकता था।”
बच्चों को उपदेशों की खुराक नहीं चाहिए, उन्हें सहभागिता की चुनौती चाहिए। उपदेशों का खोखलापन हर बच्चा जानता है। यह और दो हज़ार पांच में बनी अन्य किताबें बच्चों को नियम/ सूत्र/ आंकड़े/ तथ्य रटाना नहीं चाहतीं। प्रसंगवश पाठ्यचर्या दो हज़ार पांच की पृष्ठभूमि में यशपाल कमेटी की रिपोर्ट थी। बच्चे आत्महत्या कर रहे थे, उनका बस्ता भारी होता जा रहा था, पढ़ाई उनके लिए सूचनाओं का भण्डार हो गयी थी, जिसे उन्हें रटना और उगल देना था। ऐसे में इस तरह के कार्टून और सवाल एक नयी बयार लेकर आये। ज्ञान एक अनवरत प्रक्रिया है, यदि ज्ञान कोई पोटली में भरी चीज़ है जिसे बच्चे को सिर्फ ‘पाना’ है तो पिछली पीढ़ी का ज्ञान अगली पीढ़ी की सीमा बन जाएगा। किताब बच्चे को अंतिम सत्य की तरह नहीं मिलनी चाहिये, उसे उससे पार जाने, नए क्षितिज छूने की आकांक्षा मिलनी चाहिए।
किताब अप्रश्नेय नहीं है और न ही कोई महापुरुष। कोई भी - गांधी, नेहरु, अम्बेडकर, मार्क्स... अगर कोई भी असुविधाजनक तथ्य छुपाएंगे तो कल जब वह जानेगा तो इस धोखे को महसूस कर ज़रूर प्रतिपक्षी विचार के साथ जाएगा। उसे सवालों का सामना करना और अपनी समझ/ विवेक से फैसला लेने दीजिए। यह किताब बच्चों को किताब के पार सोचने के लिए लगातार सवाल देती चलती है, उदाहरणार्थ यह सवाल - (क्या आप इससे पहले इस सवाल की कल्पना भी कर सकते थे?) क्या आप मानते हैं कि निम्न परिस्थितियाँ स्वतंत्रता के अधिकार पर प्रतिबंधों की मांग करती हैं? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दें – क* शहर में साम्प्रदायिक दंगों के बाद लोग शान्ति मार्च के लिए एकत्र हुए हैं। ख* दलितों को मंदिर प्रवेश की मनाही है। मंदिर में जबरदस्ती प्रवेश के लिए एक जुलूस का आयोजन किया जा रहा है। ग* सैंकड़ों आदिवासियों ने अपने परम्परागत अस्त्रों तीर-कमान और कुल्हाड़ी के साथ सड़क जाम कर रखा है। वे मांग कर रहे हैं कि एक उद्योग के लिए अधिग्रहीत खाली जमीं उन्हें लौटाई जाए। घ* किसी जाती की पंचायत की बैठक यह तय करने के लिए बुलाई गयी है कि जाती से बाहर विवाह करने के लिए एक नवदंपत्ति को क्या दंड दिया जाए।
अब आखिर में, जिन्हें लगता है कि बच्चे का बचपन बचाए रखना सबसे ज़रूरी है और वो कहीं दूषित न हो जाए, उन्हें छान्दोग्य उपनिषद का रैक्व आख्यान पढ़ना चाहिए। मेरी विनम्र राय में बच्चे को यथार्थ से दूर रखकर हम सामाजिक भेदों से बेपरवाह, मिथकीय राष्ट्रवाद से बज्बजाई, संवादहीनता के टापू पर बैठी आत्मकेंद्रित पीढ़ी ही तैयार करेंगे। तब, कहीं देर न हो जाए।

Friday, May 4, 2012

अबूझ है अबूझमाड़ की चुनौती


आदिति फडणीस
माओवादियों ने उड़ीसा के विधायक झीना हिकाका को अपनी गिरफ्त से छोड़ दिया है। हिकाका माओवादियों की मदद से ही विधायक चुने गए थे। उनके बदले में राज्य सरकार ने सिर्फ एक माओवादी महिला को छोड़ा है। छत्तीसगढ़ में भी माओवादियों ने भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के अधिकारी एलेक्स पॉल मेनन को अपनी गिरफ्त से आजाद कर दिया है। हालांकि उन्होंने किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया, पर हर बात माओवादी अपहरणों को तिकड़म ही साबित करती है। बहरहाल माओवादी वह सब कुछ कर रहे हैं जिनसे वे अपने इलाके की हदबंदी तय कर सकते हों। जिसे वे अपना 'राज्य' कह सकते हों।
अबूझमाड़ माओवादियों का 'राज्य' है। इसका वास्तविक आकार एक अबूझ पहेली है। यह इलाका करीब 10,000 से 15,000 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है जो आकार में फिजी या साइप्रस के बराबर है-जो बस्तर के जंगलों वाले दूरदराज के क्षेत्र से लेकर आंध्र प्रदेश के आदिलाबाद, खमम और पूर्वी गोदावरी जिलों और महाराष्ट्र के चंद्रपुर और गढ़चिरौली से लेकर मध्य प्रदेश के बालाघाट और ओडिशा के मलकानगिरि तक फैला हुआ है। इस इलाके के क्षेत्रों का कभी सर्वेक्षण नहीं हुआ, यहां तक कि 15वीं शताब्दी के मध्य में मुगल सम्राट अकबर द्वारा भी इसका सर्वेक्षण नहीं कराया गया जिन्होंने भारत का पहला राजस्व सर्वेक्षण कराया था। भारत के पहले महासर्वेक्षक एडवर्ड एवरेस्ट भी वर्ष 1872 से 1880 के बीच अबूझमाड़ की समस्त स्थलाकृति का आकलन करने में नाकाम रहे थे। खुफिया एजेंसियों के अनुसार अबूझमाड़ में माओवादियों के सभी बड़े प्रतिष्ठान मौजूद हैं जिनमें हथियार निर्माण इकाइयों से लेकर छापामार प्रशिक्षण केंद्र भी शामिल हैं। यह शीर्ष नेताओं के लिए भी सुरक्षित पनाहगाह है। राज्य के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा, 'यह इलाका भारी उत्खनन वाला है और सुरक्षा एजेंसियों के लिए काम करना लगभग असंभव सा है।'
माओवादी भी अपने परिचालन इलाके का विस्तार कर रहे हैं। इस क्षेत्र की तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था ने कच्चे माल की मांग में इजाफा कर दिया है। तापीय ऊर्जा और इस्पात में निवेश के लिए छत्तीसगढ़ पसंदीदा ठिकाना है। सेल, एस्सार, टाटा और जिंदल में राज्य में बड़ी कोयला और लौह अयस्क खदानों को हासिल करने की होड़ में लगी हुई हैं। छत्तीसगढ़ में अपनाई जा रही नई तिकड़में दूसरे खनन इलाकों में अपना वर्चस्व दिखाने की कोशिश लगती हैं। हीरा-पट्टी के रूप में पहचाने जाने वाले रायपुर जिले में एक शीर्ष माओवादी नेता की हालिया गिरफ्तारी से इस पर मुहर भी लग जाती है। उनके हित केवल जंगल तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि खनन और औद्योगिक इलाकों तक हैं। सरगुजा जिले के सिरीडीह और मानिपत इलाकों के बॉक्साइट समृद्घ क्षेत्र में जहां हिंडाल्को और वेदांत की भारत एल्युमीनियम जैसी कंपनियों के संयंत्र हैं, वहां भी उन्होंने अपनी मौजूदगी दिखाई है। छत्तीसगढ़ में उद्योगों के विरोध के अलावा विद्रोहियों ने राज्य की अर्थव्यवस्था पर भी मार की है। इन हालात में कृषि करना असंभव है। और न ही राज्य अपने वन उत्पादों के लिहाज से लाभान्वित हो पा रहा है। क्षेत्र के लिए भारी बजट खर्च ही नहीं हो पाता। छत्तीसगढ़ सरकार के गृह विभाग का 450 करोड़ रुपये का 30 फीसदी हिस्सा माओवादियों के खिलाफ अभियान पर खर्च हो जाता है।
ये समूह कैसे संचालन करते हैं? पिछले एक दशक से माओवादी आंदोलन की तस्वीर काफी बदली है जहां गठजोड़ और एकीकरण में तेजी आई। छोटे समूहों ने खुद को बड़े समूहों के साथ संबद्घ कर लिया, कार्यकर्ताओं ने विरोधियों का दामन थाम लिया और गुटों की लड़ाई में कई वफादारों को जान गंवानी पड़ी, इसने माओवादियों को यह सोचने पर भी मजबूर कर दिया कि वे साथ मिलकर कैसे अपनी ताकत का बेहतर इस्तेमाल कर सकते हैं।
मगर व्यापक स्तर पर समूहों के बीच बेहतर समन्वय है जो पहले कभी इतना सहज नहीं था। तकरीबन 36 साल बाद ओडिशा-झारखंड सीमा के किसी जंगली इलाके में हुई सीपीआई (माओवादी) की नवीं कांग्रेस में विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज), जंगल और आदिवासियों की जमीन अधिग्रहण कर उस पर औद्योगीकरण का विरोध करने का फैसला किया गया। छत्तीसगढ़ में माओवादी पहले ही बस्तर में इस्पात संयंत्र लगाने के लिए टाटा और एस्सार को चेतावनी दे चुके हैं। सूत्रों के अनुसार कांग्रेस में कलिंग नगर, सिंगुर, नंदीग्राम और पोलावरम (आंध्र प्रदेश) में भी विरोध करने का फैसला किया गया। कुछ और खास परियोजनाओं पर उनकी टेढ़ी नजर है, इससे यह चुनौती और भयावह बन जाती है।
माओवादियों को कैसे मात दी जा सकती है-क्या उन्हें दी जानी चाहिए? यह समझना मुश्किल नहीं कि नक्सलवादी वहीं पनपेंगे जहां विकास और लोकतंत्र का नामोनिशां नहीं होगा। उनका तर्क है कि उनके संसाधनों से ही आर्थिक तेजी आई है और वे उसके लाभ से वंचित रह गए। अलगाववाद से निपटने में व्यापक अनुभव रखने वाले ब्रिगेडियर बसंत पंवार सैन्य तर्क के साथ कहते हैं, 'आप सैन्य तरीके से नक्सलवादियों को मात दे सकते हैं। आखिरकार वे क्या करते हैं-वे खनन के लिए राष्ट्रीय खनिज विकास निगम के गोदाम में रखे विस्फोटक लूटते हैं, पुलिस चौकियों से राइफल, एलएमजी और एके 47 लूटते हैं? लेकिन इन इलाकों में सैन्य दखल के लिए सरकार को इच्छाशक्ति दिखानी होगी। इन इलाकों में ऐसा करना ही होगा-क्योंकि यदि ऐसा नहीं किया जाता तो नक्सलवादी और उभरेंगे।' नक्सल प्रभाव में सरगुजा जिले में किए गए अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के सर्वेक्षण में इसका जवाब रोजगार सृजन बताया गया है। जो लोग नक्सलवाद से इत्तफाक नहीं रखते उनको संगठित करने के विचार का दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यही है कि वे नक्सली हमलों की भेंट चढ़ जाते हैं। आदिवासी जंगल को अपना घर मानते हैं, फिलहाल उन्हें नक्सली हमलों से बचाने के लिए विशेष शिविरों में रखा जा रहा है। एक बात तो तय है: चाहे कितनी भी पुलिसिया या सैन्य कार्रवाई क्यों न कर ली जाए नक्सलवादी आंदोलन के उभार को नहीं रोका जा सकता। पंवार कहते हैं, 'ऐसा नहीं कि सैन्य चुनौती बड़ी है। असल में हमारी जवाबी कार्रवाई कमजोर है।' साभारः http://hindi.business-standard.com/hin/storypage.php?autono=58347