Wednesday, April 9, 2014


बिहार में 'राम' भरोसे भाजपा
सत्येन्द्र प्रताप सिंह
सोशल इंजीनियरिंग वाले बिहार में भारतीय जनता पार्टी को पसीने छूट रहे हैं। पार्टी ने राज्य में उच्च जाति के उन मतदाताओं के बीच अच्छी पैठ बना ली है, जो लोग लालू प्रसाद के लंबे शासनकाल से दुखी थे और सत्ता के करीब आने के लिए लालायित थे। लेकिन नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड से अलग होते ही भाजपा का नशा काफूर हो गया। अब उसे दलितों और पिछड़ों को लुभाने के लिए राम विलास पासवान और राम कृपाल यादव जैसे नेताओं की शरण में जाना पड़ रहा है, जो राज्य के सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले के मुखौटे के रूप में जाने जाते हैं। भाजपा शायद यह साबित करना चाहती है कि वह पिछड़ों-दलितों के खिलाफ नहीं है। भले ही पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने जानबूझकर या अनजाने में अपनी पहली ही रैली में संदेश देने की कोशिश की थी कि बिहार का 'सवर्ण काल' वापस आएगा।
हालांकि मंडल आयोग आने के साथ ही भाजपा ने भांप लिया था कि उसका हिंदुत्व या मुस्लिम विरोधी कार्ड नहीं चलने वाला है। यही वजह है कि उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, गुजरात में पिछड़े वर्ग के नेता आजमाए गए। यहां तक कि दक्षिण का द्वार भी पिछड़े वर्ग के नेताओं के जरिये ही खुला। वहीं कांग्रेस मंडल आंदोलन को समय पर नहीं भांप पाई और लगातार पिछड़ती गई। 'इंडियाज साइलेंट रिवॉल्यूशनÓ नामक पुस्तक में क्रिस्टोफे जैफ्रेलॉट ने राजनीति की बदलती अवधारणा का जिक्र करते हुए कहते हैं कि अब हर दल की मजबूरी बन गई है कि वह समाज के उन तबकों से जुड़े लोगों को स्थान दे, जिन्हें लंबे समय सत्ता से वंचित रखा गया। हिंदी पट्टी में कांग्रेस की नाकामी को उन्होंने इसी रूप में देखा है कि कांग्रेस इस बदलाव को समझने में नाकाम रही।
भाजपा बिहार में पिछड़े और दलित तबके के नेताओं को वह मुकाम नहीं दे पाई, जो उसे चुनावी नैया पार करा सकें। शायद इसकी वजह यह थी कि लालू प्रसाद कार्यकाल में लंबे समय से सत्ता पर काबिज रहे जिस तबके को सत्ता से दूर किया गया था, भाजपा उस वर्ग पर एकाधिकार चाहती थी। पार्टी इसमें सफल भी हुई। लेकिन पिछड़े और दलित तबके के जिन नेताओं को पार्टी ने विकसित करने की कोशिश की, वे पार्टी में दलित प्रकोष्ठ तक ही सिमटे रहे। पिछड़े वर्ग के चेहरे के रूप में नरेंद्र मोदी को पेश कर भाजपा देश भर में इस तबके के लोगोंं का मत खींचना चाहती है, लेकिन बिहार में उसे खासी दिक्कत आ रही है।
इस दिक्कत की बड़ी वजह यह है कि बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में सत्ता में वंचित तबके की हिस्सेदारी बढ़ी है। न केवल राज्य स्तर के नेतृत्व में चेहरे बदल गए हैं, बल्कि ग्राम प्रधान और जिला स्तर के नेताओं में भी इस तबके का अच्छा खासा दबदबा है। ऐसी स्थिति में इन दो बड़े राज्यों में सिर्फ मोदी का मुखौटा दलितों व पिछड़ों को लुभाने में सफल होगा, इसे लेकर भाजपा आश्वस्त नहीं है और वह सोशल इंजीनियरिंग के आंदोलन से जुड़े चेहरों को पार्टी से जोडऩा चाहती है।
हालांकि यह कहना अभी भी कठिन है कि खुद के टिकट या अपने बच्चों को राजनीति में स्थापित करने की आस लेकर भाजपा से जुडऩे वाले सोशल इंजीनियरिंग के बूढ़े हो चुके चेहरे भाजपा से मतदाताओं को जोडऩे में कितना सफल होंगे।

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