सामाजिक न्याय की मछलियां
(बदलते राजनीतिक माहौल और भाजपा के सत्ता में आने के बाद सभी प्रमुख दलों के कोमा में पहुंच जाने के बाद दिलीप मंडल का यह लेख एक नई दिशा देता है। इसमें सेक्युलरिज्म और सामाजिक न्याय की ताकत की व्याख्या की गई है। जनसत्ता में प्रकाशित लेख)
दिलीप मंडल
मछलियां पानी में होती हैं, तो वे जिंदा रहती हैं और उनमें काफी ताकत होती है। लेकिन वही मछलियां जब पानी के बाहर होती हैं तो छटपटा कर दम तोड़ देती हैं। ‘जनता परिवार’ की कुछ पार्टियों ने हाल में एका की जो कवायद की है, उसमें सेक्युलरवाद को मूल विचार के तौर पर पेश किया जा रहा है। यह इन पार्टियों का पानी से बाहर आना या पानी से बाहर बने रहना है। सेक्युलरिज्म का खोखला नारा इन पार्टियों के लिए मारक साबित हो सकता है।
सेक्युलरिज्म इन पार्टियों का केंद्रीय विचार नहीं है। ये पार्टियां या तो सामाजिक न्याय के अपने केंद्रीय विचार को भूल चुकी हैं, या फिर अपने पुराने स्वरूप में लौट पाना इनके लिए असहज हो गया है। ये पार्टियां सेक्युलरिज्म के नाम पर एकजुट होने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन वे भूल रही हैं कि सेक्युलरिज्म के मैदान में भाजपा उन्हें और कांग्रेस और माकपा जैसे दलों को लगातार पटक रही है। भाजपा ने सेक्युलरिज्म का राजनीतिक अनुवाद ‘मुसलिम तुष्टीकरण’ के रूप में किया है और इस अनुवाद को हिंदू मतदाताओं ने खारिज नहीं किया है। अगर भाजपा के हिंदू बहुसंख्यकवाद से अन्य पार्टियों का अल्पसंख्यक सेक्युलरवाद टकराएगा, तो इस मुकाबले में जीतने वाले का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
सेक्युलरिज्म को दरअसल कभी राजनीतिक नारा होना ही नहीं चाहिए था। यूरोपीय सामाजिक लोकतंत्र की शब्दावली से आए इस शब्द का भारत आते-आते अर्थ भी बदल चुका है। बल्कि अर्थ का अनर्थ हो चुका है। यह शब्द यूरोप में चर्च और राजकाज की शक्तियों के संघर्ष के दौरान चलन में आया था। इसका अर्थ है कि राजकाज में धर्म (यूरोपीय अर्थ में चर्च) का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। चर्च और राजनीति के संघर्ष में आखिरकार राजनीति की जीत हुई और चर्च ने अपने कदम पीछे खींच लिए। चर्च की दादागीरी के खिलाफ आधुनिक शासन व्यवस्था की ऐतिहासिक जीत के बाद से ही सेक्युलरिज्म शब्द दुनिया भर में लोकप्रिय हुआ।
लेकिन भारत का सेक्युलरवाद राजकाज और धर्म का अलग होना नहीं है। भारत में इस शब्द का अनुवाद सर्वधर्म-समभाव की शक्ल में हुआ। यानी राज्य या शासन हर धर्म को बराबर नजर से देखेगा और बराबर महत्त्व देगा। लगभग अस्सी फीसद हिंदू आबादी वाले देश में सर्वधर्म-समभाव के नारे का हिंदू वर्चस्व में तब्दील हो जाना स्वाभाविक ही था। आजादी के बाद कांग्रेस के शासन में भी हिंदू प्रतीकों और मान्यताओं को राजकाज में मान्यता मिली। सरकारी कामकाज की शुरुआत और उद्घाटन से लेकर लोकार्पण तक में नारियल फोड़ने, सरस्वती वंदना करने, राष्ट्रपतियों के द्वारा मंदिरों को दान देने से लेकर सरकार द्वारा मंदिरों के पुनरुद्धार कराने तक की पूरी शृंखला है, जो यह बताती है कि राजकाज में हिंदुत्व के हस्तक्षेप की शुरुआत भाजपा ने नहीं की है। यहां तक कि माकपा ने भी पश्चिम बंगाल में अपने तीन दशक से अधिक लंबे शासन में बेहद हिंदू तरीके से राजकाज चलाया और दुर्गापूजा समितियों में कम्युनिस्ट हिस्सेदारी के माध्यम से सांस्कृतिक हस्तक्षेप किया।
हिंदू तुष्टीकरण की शक्ल में भारतीय सेक्युलरवाद का जो प्रयोग कांग्रेस ने लंबे समय तक किया, उसी को भाजपा आगे बढ़ा रही है। भाजपा की शब्दावली में अपेक्षया तीखापन जरूर है, लेकिन इसे भारतीय सेक्युलरवाद का ही थोड़ा चटक रंग माना जा सकता है। कांग्रेस हिंदू वर्चस्ववाद पर अमल कर रही थी और भाजपा भी प्रकारांतर से इसी काम को कर रही है। सेक्युलर हिंदू वर्चस्ववाद के प्रयोग के ये दो मॉडल हैं। इसमें से कांग्रेसी मॉडल की खासियत यह है कि उसने जो शब्दावली और नारे गढ़े हैं, वे मुसलमानों को आहत नहीं करते और इस वजह से उसे मुसलमानों का समर्थन मिलता रहा।
हिंदू तुष्टीकरण के साथ कांग्रेस मुसलमानों को दंगों का भय दिखाती रही और सुरक्षा प्रदान करने के नाम पर उनके वोट भी लेती रही। हालांकि उसका यह खेल 1990, और खासकर नरसिंह राव के शासनकाल में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार में पूरी तरह टूट गया, जहां सामाजिक न्याय की राजनीतिक शक्तियों ने मुसलमानों को गोलबंद कर लिया।
इसके बाद से कांग्रेस को लोकसभा में कभी अपने दम पर बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस अब भी हिंदू वर्चस्ववाद और मुसलमानों की गोलबंदी को एक साथ साधने की कोशिश में आड़ा-तिरछा चल रही है और उसे संतुलन का रास्ता मिल नहीं रहा है। भाजपा इस मायने में कांग्रेस से अलग है कि उसके बहुसंख्यक वर्चस्ववादी मॉडल में मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं है। इसलिए मुसलमान वोट खोने का उसे भय भी नहीं है। जाहिर है, भाजपा को सेक्युलरवाद के नारे से कोई भय नहीं लगता। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार तक भाजपा ने फिर भी एक झीना-सा आवरण ओढ़ रखा था, जिसकी वजह से उसका सांप्रदायिक चेहरा धुंधला दिखता था। उस समय लालकृष्ण आडवाणी के बजाय वाजपेयी का प्रधानमंत्री बनना, जॉर्ज फर्नांडीज का राजग का मुखिया होना, विवादास्पद मुद््दों से दूरी बनाए रखना आदि राजनीतिक और रणनीतिक मजबूरी थी। सोलहवीं लोकसभा में 281 सीटों पर बैठी भाजपा की अब ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। इन सीटों की जीत के लिए भाजपा को अल्पसंख्यक वोटों का मोहताज नहीं होना पड़ा।
भाजपा ने सोलहवीं लोकसभा के नतीजों से साबित किया है कि सिर्फ हिंदू वोट के एक हिस्से के बूते इस देश में बहुमत की सरकार बन सकती है। इसने पूरी अल्पसंख्यक राजनीति को सिर के बल खड़ा कर दिया है। साथ ही इसने सेक्युलरिज्म के नारे का दम भी निकाल दिया है। सेक्युलरिज्म के नाम पर भाजपा-विरोध की एक बड़ी सीमा यह भी है कि भाजपा को लेकर 1992 के बाद सामने आया सेक्युलरिज्म का ‘मत छुओ वाद’ बहुत ‘सेलेक्टिव’ है। भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टियों और लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव को छोड़ दें तो सभी दलों और नेताओं ने किसी न किसी दौर में भाजपा के नेतृत्व में चलना स्वीकार किया है। नीतीश कुमार और शरद यादव कुछ महीने पहले तक भाजपा के साथ राजग में सहजता से मौजूद थे। ओमप्रकाश चौटाला भी भाजपा के साथ राजनीति कर चुके हैं। इसलिए भाजपा-विरोध एक राजनीतिक नारा तो है, लेकिन इसे सेक्युलरवाद का वैचारिक मुलम्मा नहीं चढ़ाया जा सकता।
ऐसे में भाजपा की काट, अल्पसंख्यक वोट और तथाकथित सेक्युलरवाद में देखने वालों के हाथ निराशा के अलावा कुछ भी लगने वाला नहीं है। सारा अल्पसंख्यक वोट एकजुट होकर भी बहुसंख्यक वोट के एक हिस्से से हल्का पड़ सकता है। जाहिर है, भाजपा-विरोध की राजनीति को सफल होने के लिए सेक्युलरवाद से परे किसी और राजनीतिक व्याकरण और समीकरण की जरूरत है। भारत का हिंदू, अगर हिंदू मतदाता बन कर वोट करता है और भाजपा अगर इन मतदाताओं की प्रतिनिधि पार्टी है, तो भाजपा-शासन के लंबे समय तक चलने की संभावना या आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।
अल्पसंख्यक वोट भाजपा को हराने में कारगर हो सकता है, बशर्ते हिंदू मतदाताओं का एक हिस्सा अन्य पार्टियों से जुड़े। यानी हिंदू मतों के विभाजन के बिना उन राज्यों में गैर-भाजपा राजनीति का कोई भविष्य नहीं है, जहां हिंदू आबादी बहुसंख्यक है। क्या भारतीय राजनीति के किसी पिछले या पुराने मॉडल में गैर-भाजपा राजनीति के सूत्र मिल सकते हैं? इसके लिए हमें 1990 के दौर में जाना होगा। भाजपा के वर्तमान उभार की तरह का ही एक भारी जन-उभार उस दौर में राम जन्मभूमि आंदोलन के पक्ष में हुआ था। ऐसा लग रहा था मानो भाजपा ने राजसूय यज्ञ का घोड़ा छोड़ दिया हो, जो लगातार सूबा-दर-सूबा फतह करता जा रहा हो। लेकिन वह दौर भारतीय राजनीति में सामाजिक न्याय की नई पहल के तौर पर भी जाना जाता है।
राममनोहर लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार और कई अन्य राज्यों में ओबीसी नेतृत्व को मजबूत कर रही थी। केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी आरक्षण लागू किए जाने से भी नई सामाजिक शक्तियों का विस्फोट हो रहा था। यह सारा घटनाक्रम हिंदुओं को सिर्फ हिंदू होकर वोट करने में बाधक साबित हो रहा था।
सन 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद भाजपा-शासित चार राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया गया और जब 1993 में वहां दोबारा चुनाव हुए तो भाजपा उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और हिमाचल प्रदेश का चुनाव हार गई और राजस्थान में कांग्रेस से मामूली बढ़त हासिल कर किसी तरह वहां की सरकार बचा पाई।
लेकिन सामाजिक न्याय की राजनीति कालांतर में कमजोर पड़ती चली गई। जमात की राजनीति खास जातियों की राजनीति और बाद में चुने हुए परिवारों की राजनीति बन गई। वंचित जातियों के बीच तरक्की, समृद्धि और शक्तिशाली होने की उम्मीद जगा कर, सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दल कुछ और ही करने लगे। इस बीच भाजपा ने नरेंद्र मोदी की शक्ल में एक ओबीसी चेहरा सामने लाकर सामाजिक न्याय की कमजोर पड़ी चुकी राजनीति की रही-सही जान भी निकाल दी।
अब सवाल उठता है कि क्या आने वाले विधानसभा चुनावों और अगले लोकसभा चुनाव के लिए गैर-भाजपा दलों के पास कोई रणनीति है? भाजपा अपनी गलतियों से हार जाएगी, यह सोच कर राजनीति नहीं हो सकती। क्योंकि यह बिल्कुल मुमकिन है कि भाजपा ऐसी कोई गलती न करे, या हो सकता है कि अपनी राजनीति को और मजबूत कर ले। मौजूदा समय में गैर-भाजपा खेमे में ऐसी कोई राजनीति होती नजर नहीं आती।
कांग्रेस और बाकी विपक्षी दलों ने विपक्ष का स्थान खाली-सा छोड़ दिया है। भाजपा का थोड़ा-बहुत वैचारिक विपक्ष, भाजपा के मूल संगठन आरएसएस के एक हिस्से से आ रहा है।
विकल्पहीनता की ऐसी स्थिति में भाजपा-विरोधी पार्टियां सामाजिक न्याय की राजनीति में अपनी कामयाबी के सूत्र तलाश सकती हैं। वैसे भी कोई हिंदू, सिर्फ हिंदू नहीं होता। उसकी कोई न कोई जाति-बिरादरी भी होती है। उसकी यह पहचान हिंदू होने की पहचान से कहीं ज्यादा टिकाऊ है, क्योंकि धर्म बदलने से या घर वापसी से भी उसकी यह पहचान नहीं मिटती। शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण का कोटा सख्ती से लागू करने, आरक्षण का प्रतिशत बढ़ा कर तमिलनाडु की तरह उनहत्तर फीसद पर ले जाने, जातिवार जनगणना करा कर सामाजिक न्याय के नारे को विकास-कार्यक्रमों से जोड़ने, भूमि सुधार करने और सबके लिए समान शिक्षा जैसे अधूरे कार्यभार को अपने हाथ में लेकर गैर-भाजपा राजनीति फिर से अपना खोया इकबाल वापस हासिल कर सकती है। भाजपा को इन राजनीतिक कार्यक्रमों के आधार पर घेरना मुमकिन है। ऐसा होते ही भाजपा अपना मूल सवर्ण अभिजन हिंदू वोट बचाए रखने और वंचित जातियों को जोड़ने के दोहरे एजेंडे के द्वंद्व में घिर जाएगी।
वर्तमान समय में, सेक्युलर बनाम गैर-सेक्युलर की राजनीति भाजपा की राजनीति है। हिंदू आबादी को हिंदू मतदाता बनाने के लिए भाजपा को इसकी जरूरत है। गैर-भाजपावाद के सूत्र सेक्युलरिज्म में नहीं हैं। गैर-भाजपावाद के सूत्र, हो सकता है सामाजिक न्याय की राजनीति में हों। कभी सामाजिक न्याय की राजनीति से अपनी छाप छोड़ने वाली पार्टियों और नेताओं को अपनी राजनीति में वापस लौटना चाहिए। मछलियां पानी में लौट कर ही जिंदा रह सकती हैं। सेक्युलरिज्म की सूखी धरती उनके प्राण हर लेगी।
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