Friday, December 21, 2007

अजब जीवट हैं... फिर बस गए

सत्येन्द्र प्रताप

दिल्ली की सरकार ने तो उन्हें उजाड़ दिया था। और कोई जगह नहीं मिली। चार दिन भी नहीं बीते हैं, मूर्तियां फिर से बनने लगीं। खुले आसमान के नीचे। पहले पालीथीन की छाजन थी। अब नहीं है। एक युवक बैठा हुआ सरस्वती की मूर्ति बना रहा था। उसे छोटे बच्चे घेरे हुए थे।
उसी कुनबे से एक ११-१२ साल की बच्ची निकली। साथ में उससे कम उम्र के बच्चे थे। एक छोटा सा हारमोनियम लिए हुए। बड़ी बच्ची के हाथ में खपड़ा था। उसे आकार देने में जुट गई। शायद संगीत उपकरण बनाना चाहती है, जिसे बजाकर बच्चे बसों में भीख मांगते हैं।
उसी समय डीटीसी की एक बस आई। उसमें हारमोनियम के साथ बच्ची चढ़ी। साथ में तीन-चार साल का बच्चा था। कुछ देर तक गीत के धुन निकालती रही। हारमोनियम के साथ उसके गले से भी मोटी सी आवाज निकली। दिल के अरमां आंसुओं में बह गए। वही स्टाइल, जिसमें भीख मांगी जाती है। हारमोनियम अच्छा बज रहा था। छोटे बच्चे ने भीख मांगना शुरु किया। शुरु से अंत तक पूरे बस में पैसा न मिला। एक आदमी ने उसे गुड़ का छोटा टुकड़ा दिया। चेहरे पर मुस्कान लिए वह लौटा। उसने हारमोनियम बजा रही लड़की को खुश होकर दिखाया, लेकिन उसके चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नही हुई। वह फिर से बजाने और गाने लगी। शायद उसे कुनबे के अन्य सदस्यों की भूख का भी एहसास था। बच्चा गुड़ का टुकड़ा लेकर बैठ गया औऱ खाने लगा। गीत के धुन खत्म हुए। और लड़की ने भीख मांगना शुरु किया। लोगों के पैर छूने और विभिन्न तरह के दयनीय चेहरे बनाने पर भी उसे एक पाई न मिली। शायद बस में यात्रा कर रहे लोगों को इस दृश्य की आदत सी पड़ गई है। आशय बदल चुके हैं। बच्चे की मुस्कराहट और अपनी हार के साथ वह बस से उतर गई। उसके दिल के अरमां, सचमुच आंसुओं में बह चुके थे।

1 comment:

pururava akhilesh said...

aap to vikat emotional ho rahe hain....jara sambhal ke...