सुबीर रॉय
यह किताब बहुत अच्छे ढंग से हम तक ये सभी जानकारियां उपलब्ध कराती हैं। यह भारतीय आईटी उद्योग का व्यापक और विस्तृत इतिहास है। किताब की भाषा सरल है और इसमें एक प्रवाह दिखता है।
भारतीय सॉफ्टवेयर उद्योग की सफलता जगजाहिर होने के बाद मुख्यधारा के मीडिया ने सफलता की इस गाथा के बारे में छापने या प्रसारित करने में गहरी दिलचस्पी दिखाई है।
अब चूंकि साबित हो चुका है कि यह सफलता टिकाऊ है, इसलिए हमें यह जानने की जरूरत है कि इस सफर की शुरुआत कैसे हुई और कैसे यह उद्योग लगातार तरक्की करते हुए अपने मौजूदा स्तर तक पहुंचा है।
यह किताब बहुत अच्छे ढंग से हम तक ये सभी जानकारियां उपलब्ध कराती हैं। यह भारतीय आईटी उद्योग का व्यापक और विस्तृत इतिहास है। पुराने दस्तावेजों और आईटी उद्योग की दिग्गज शख्सियतों के साथ बातचीत ने इस को बेशकीमती बना दिया है। किताब की भाषा सरल है और इसमें एक प्रवाह दिखता है।
दिनेश शर्मा इस बात से शुरूआत करते हैं कि भारत में पहली बार कंप्यूटर कैसे चालू हुआ। इनमें कोलकाता के पास भारतीय सांख्यिकीय संस्थान में 1956 में लगाई गई मशीन शामिल है। मुंबई स्थित टाटा इंस्टीटयूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च ने 1960 में अपनी मशीन लगाई। इसका नाम टीआईएफआर ऑटोमोटिक कैलकुलेटर था।
उन दिनों पीसी महलनोबिस और होमी भाभा के बीच एक आकर्षक मुकाबला चल रहा था कि आखिर कौन अपने प्रतिष्ठानों में पहले कंप्यूटर केंद्र स्थापित कर पाता है। दोनों ही जवाहर लाल नेहरू के करीबी थे। इस मुकाबले में जीत भाभा के हाथ लगी। 1950 और 1960 के दशक के दौरान शुरूआती पीढ़ी के कंप्यूटरों में हार्डवेयर डिजाइन, सॉफ्टवेयर प्रोग्रामिंग, रखरखाव और प्रशिक्षण की सुविधा थी।
जल्दी शुरूआत के साथ ही उन दिनों की सरकारी और राजनीतिक सोच के कारण देश में कंप्यूटरों का तेजी से प्रसार हुआ। पूरी तरह से आत्मनिर्भरता और प्रौद्योगिकी पर नियंत्रण के संकल्प के कारण अधिक तेज गति से विकास हुआ। इलेक्ट्रॉनिक आयोग पूरी तरह से भारत में विकसित कंप्यूटर प्रणाली और कलपुर्जे हासिल करना चाहता था, क्योंकि अभी तक केवल कुछ खास प्रौद्योगिकी और कलपुर्जों के आयात की ही अनुमति दी गई थी।
इस दिशा में पहली बार पुख्ता सोच संतोष सोंधी समिति की रिपोर्ट आने के बाद तैयार हुई। इस समिति की स्थापना मोरारजी देसाई ने की थी। इस रिपोर्ट में कहा गया कि उद्योगों द्वारा कंप्यूटर आयात के लिए दिए गए प्रस्ताव की कोई जरूरत नहीं है और कंप्यूटरीकरण की पूरी कवायद ठंडे बस्ते में चली गई।
इसके बाद कंप्यूटर को लेकर सरकार की सोच में 1980 के दशक में उस समय से बदलाव आना शुरू हुए जब इंदिरा गांधी दोबारा सत्ता में आई और राजीव गांधी ने नीतियों को प्रभावित करना शुरू किया। यह उनके प्रधानमंत्री बनने से काफी पहले की बात है। इसलिए उनके सत्ता में आने से काफी पहले ही इलेक्ट्रॉनिक्स, कंप्यूटर और दूरसंचार के लिए उदारवादी नीतियों की जमीन तैयार की जा चुकी थी।
किताब में एक जगह शर्मा लिखते हैं कि 'अगर नेहरू भारतीय विज्ञान का राजनीतिक हिस्सा थे तो राजीव भारतीय प्रौद्योगिकी का राजनीतिक हिस्सा थे।' नेहरू के समय में राजनीतिज्ञों और वैज्ञानिकों के गठजोड़ से विज्ञान का विकास हुआ जबकि राजीव गांधी के वक्त में राजनीतिज्ञों और तकनीकविदों के गठजोड़ से प्रौद्योगिकी का विकास हुआ।
आयात पर अवरोध और विदेशी कंपनियों के साथ परिचालन के लिए सख्त नियम (इस कारण आईबीएम को 1978 में रुखसत होना पड़ा) का अच्छा असर भी दिखाई दिया और 1970 के दशक के अंत में और 1980 की शुरूआत में डीसीएम, एचसीएल और पीएसआई की अगुवाई में हार्डवेयर विनिर्माण के लिए भारतीयों ने प्रयास शुरू किए।
इन कंपनियों ने कैलकुलेटर, मिनी और माइक्रो कंप्यूटर और फिर पर्सनल कंप्यूटर बनाना शुरू किया। लेकिन 1980 के दशक में आयात और संयुक्त उद्योग को लेकर उदारवादी नीतियों के कारण प्रौद्योगिकी अंतर में कमी आई लेकिन इसका भारतीय शोध और विकास पर विपरीत असर देखने को मिला।
इसके अलावा आईटी क्षेत्र के विकास की राह में 1980 के दशक में पैदा हुए विदेशी मुद्रा संकट के कारण भी बुरा असर पड़ा। इस संकट के कारण शुल्कों को बढ़ा दिया गया। इस कारण हार्डवेयर कंपनी कारोबार के नए आयाम तलाशने के लिए मुड़ी और उनकी खोज सॉफ्टवेयर पर आकर पूरी हुई।
इस लोकप्रिय धारणा के विपरीत कि भारतीय सॉफ्टवेयर उद्योग की सफलता की गाथा में सरकार ने अहम भूमिका निभाई है, नेशनल सेंटर फॉर सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट ऐंड कंप्यूटिंग टेकि्क्स ने 1980 में करीब एक तिहाई सॉफ्टवेयर इंजीनियरों को निकाल दिया।
भारतीयों की कौशल क्षमता के कुछ संकेत उस समय मिले जब एचसीएल ने 1989 में एक दुर्घटना के बाद अपने अमेरिकी परिचालन को बंद करने का फैसला किया और उसे बाद में अपना फैसला पलटना पड़ा क्योंकि ग्राहक एचसीएल के सॉफ्टवेयर इंजीनियरों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे और वे उनके वेतन का भुगतान करने के लिए भी तैयार हो गए।
यह सॉफ्टवेयर सेवाओं की शुरूआत थी। इसके बाद विदेशी परिचालन बढ़ता चला गया और सॉफ्टवेयर प्रौद्योगिकी पार्क और सैटेलाइट संपर्क के कारण इसमें और तेजी आई। इसके अलावा किताब में कुछ और रोचक घटनाओं का जिक्र किया गया है। इसमें आईबीएम का उत्थान और पतन शामिल है। ऐसी ही एक घटना में बताया गया है कि कैसे रेलवे ने यात्री आरक्षण प्रणाली का कंप्यूटरीकरण किया।
यह जिम्मेदारी सीएमसी को सौंपी गई थी। इसके अलावा यात्रियों की स्थिति की जानकारी कंप्यूटरों के द्वारा रखी जाने लगी। रेलवे ने यह काम खुद करने का फैसला किया। शर्मा की किताब के निष्कर्ष की बात करें तो सरकार ने शुरूआत में इलेक्ट्रॉनिक्स और कंप्यूटर हार्डवेयर उद्योग की जमीन तैयार करने, उनका पोषण करने और उनके विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन सरकार की सहानुभूति सरकारी कंपनियों के साथ ही थी।
विदेशी पूंजी को लेकर पूर्वाग्रह के कारण भारत इलेक्ट्रॉनिक विनिर्माण के लिए अमेरिकी कंपनियों की अगवानी से वंचित रह गया, जो कि बाद में हांगकांग, ताइवान और सिंगापुर चली गईं। हालांकि इंदिरा गांधी के दूसरे कार्यकाल के दौरान सरकार का रुख पूरी तरह से बदल गया था। इस दौरान नीतियां मददगार थीं। उनके द्वारा की गई शुरूआत और 1991 के बजट में सॉफ्टवेयर निर्यात पर कर छूट के साथ ही सॉफ्टवेयर क्षेत्र में सफलता की इबारत लिख दी गई थी।
पुस्तक समीक्षा
द लॉन्ग रिवोल्यूशन
द बर्थ ऐंड ग्रोथ ऑफ इंडियाज आईटी इंडस्ट्री
लेखक: दिनेश सी शर्मा
प्रकाशक: हार्पर कॉलिंस इंडिया
कीमत: 595 रुपये
पृष्ठ: ४८८
http://hindi.business-standard.com/hin/storypage.php?autono=15309
2 comments:
अच्छी जानकारी दी है आपने ... धन्यवाद।
किताब से उम्दा जानकारी के लिए धन्यवाद.
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