Wednesday, April 8, 2009

फिल्म नगरी से सेट की दुनिया तक

अभिलाषा ओझा

मीडिया और मनोरंजन उद्योग पर लगातार नजर बनाए हुए पत्रकारों को अनिल सारी की हिंदी सिनेमा : ऐन इन्साइडर्स व्यू काफी आकर्षक लगेगी।


यह किताब स्वर्गीय सारी के देश के प्रमुख समाचार पत्रों और आज अपनी पहचान को तरस रहीं कुछ पत्रिकाओं में छपे लेख व निबंधों का संग्रह है। सारी के वर्ष 2005 में आकस्मिक निधन के बाद प्रकाशित इस किताब के प्रति लगाव और भी बढ़ जाता है, क्योंकि यह भारत के काफी वरिष्ठ फिल्म आलोचकों में से एक की सोच को सबके सामने लाती है।
इस किताब में फिल्म उद्योग पर बारीकी से नजर डाली गई है, जिस कारण हिंदी सिनेमा सभी को पसंद आए ऐसा नहीं है। सीधे-सीधे कहें तो कंटेंट के मामले में यह काफी मजबूत है और इसमें काफी व्यापक शोध दिखाई देता है। 'इन्साइडर्स व्यू' होने के बावजूद इसमें फिल्मी दुनिया की चकाचौंध का अंश भी नजर नहीं आता, जो आमतौर पर हिंदी सिनेमा से जुड़ा हुआ है।
दूसरे शब्दों में कहें तो सारी की किताब लेखन के लिहाज से सबसे बढ़िया के स्तर पर नहीं पहुंच पाई है, खासतौर पर 'रैग्स टु रिचेस स्टोरीज मेड रियल - को पढ़ते-पढ़ते मुझे नींद आने लगी।' लेकिन इस किताब को पढ़ने के दौरान शायद ही ऐसा लगा हो कि लेखक को अपने हिंदी फिल्मों पर अनगिनत विचारों को पाठकों तक पहुंचाने में मुश्किल आई हो।
साथ ही चूंकि भारतीय फिल्मों पर बहुत सारी अकादमिक किताबें तो मौजूद नहीं हैं, इसलिए हिंदी सिनेमा कम से कम चयनित मीडिया वर्ग में उत्तेजना तो पैदा कर पाई है। सच तो यह है कि मैं हाल ही में किताब के साथ फिल्म निदेशक दीपा मेहता से मिली और उन्होंने तुरंत ही किताब का नाम लिखना शुरू कर दिया, यह कहते हुए कि वह भी इस किताब को खरीदना चाहती हैं।
पुस्तक का सबसे मजबूत पहलू यही है कि इसमें एक ऐसे पत्रकार के लेख और निबंध प्रस्तुत किए गए हैं, जिसने सिर्फ और सिर्फ भारतीय सिनेमा को समझाने के लिए इन्हें लिखा। इससे भी अहम बात यह है कि उसने भारतीय सिनेमा के हरेक पहलू का भरपूर लुत्फ उठाया था।
खुद को गुरु दत्त के प्रशंसक कहने वाले सारी ने अपनी किताब में भी 'दी मेकर्स ऑफ पॉपुलर सिनेमा' के तहत 'अ चेला सैल्युट्स गुरु दत्त' प्रकाशित किया है। उनके यहां प्रकाशित सभी लेखों या निबंधों में देखा गया है कि उन्होंने फिल्मों के प्रारूप का अध्ययन किया है और देश में अमीर-गरीब तबकों में होने वाले बदलावों के साथ उन्हें जोड़ कर देखा है। इससे भी ज्यादा अक्सर अपने लेखों में जादू बिखेरते हुए वे हिंदी फिल्मों की चमक-धमक के पीछे छिपे तर्कों पर पाठकों को पूरी तरह सहमत कर पाने में भी सफल रहे।
मिसाल के तौर पर फिल्म 'प्यासा' के यादगार गीत 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है' के अध्ययन में लेखक के मुताबिक, '....इस गाने की आत्मा पीछे चली जाती है... कबीर के पास और उस समय में जब सभी उलझनों से निपटने के लिए लोग भक्ति की शरण में पहुंचते हैं। और उस समय जब माया की काल्पनिक दुनिया की तरफ भारतीयों के भावों में।'
सेटों पर आकर्षित रिपोर्टें, शूटिंग की जगहों और फिल्मों के शेडयूल को जिस तरह उन्होंने अपने काम में बुना है- उसका जिक्र भी हिंदी सिनेमा में मिलता है। इससे ज्यादा क्या हो सकता है कि जिस सिनेमा को आज हम देख रहे हैं उसमें वह जीवंत हो उठता है। साथ ही इस किताब के जरिये मुंबई फिल्म नगरी की कम दिखलाई देने वाली झलक मिल जाती है और साथ ही यह भी पता चलता है कि वह काम कैसे करती है।
इस किताब में से मेरा एक पसंदीदा निबंध है, 'आर्किटेक्चर ऑफ इल्यूजन' जो एक राष्ट्रीय दैनिक में 1994 में प्रकाशित हुआ था। इस समाचार पत्र में सारी काम किया करते थे। जहां उन्होंने हिंदी फिल्मों में कला निर्देशकों के योगदान का जिक्र किया है, वहीं उन्होंने 'धड़कनों को थमा देने वाले आर्किटेक्चरल विशाल सेट' पर भी अपना अनुभव पाठकों के साथ बांटा है।
यह विशाल सेट बतौर निर्माता टुटु शर्मा की फिल्म 'राजकुमार' का था, जिसमें माधुरी दीक्षित और अनिल कपूर ने काम किया था, लेकिन किसी को यह मालूम नहीं था कि यह फिल्म हिंदी सिनेमा की सबसे बड़ी असफल फिल्म रहेगी।
इस फिल्म के लेखक विनय शुक्ला के मुताबिक, 'दो राज घरानों की दुश्मनी पर आधारित यह फिल्म राजस्थानी पृष्ठभूमि पर बनाई गई है।' उनका यह दावा था कि फिल्म रिकॉर्ड बनाएगी, लेकिन उनके यह दावे धराशायी हो गए। फिल्म के सेट पर मौजूदा बीबीसी की एक यूनिट के शब्दों में, '7,000 लकड़ी के लट्ठे, जिन पर मिस्र शैली में नक्काशी थी और जिन्हें ग्रीको-रशियन खंभों में तब्दील किया गया, शूटिंग के समाप्त होने पर लगभग 30 दिन बाद मिट्टी में मिल गए।'
चार भागों में बंटे हुए हिंदी सिनेमा में 35 लेखों का संग्रह है। ये चार भाग हैं: 'दी एस्थेटिक फाउंडेशंस ऑफ दी हिंदी फॉर्मूला फिल्म', 'थीम्स ऐंड वैरियेशंस ऑफ इंडियन सिनेमा', 'पर्सपेक्टिव्स ऑन इंडियन सिनेमा' और 'मेकर्स ऑफ पॉप्युलर सिनेमा'।
इस किताब को पढ़ने के बाद दिल में सिर्फ एक ही ख्वाहिश उठती है कि काश सारी से बात करना संभव होता। 'हिंदी सिनेमा : ऐन इन्साइडर्स व्यू' एक ऐसा संवाद है जिसकी शुरुआत बेहद खूबसूरत है और पाठक का मन होता है कि यह आगे भी जारी रहना चाहिए। इसीलिए तो इसे अच्छी किताब की संज्ञा दी जा सकती है।

पुस्तक समीक्षा

हिंदी सिनेमा: ऐन इन्साइडर्स व्यू

लेखक : अनिल सारी

प्रकाशक : ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस

कीमत: 495 रुपये

पृष्ठ: 6 + 222


http://hindi.business-standard.com/hin/storypage.php?autono=16714

1 comment:

संगीता पुरी said...

सुंदर जानकारी देने के लिए साधुवाद स्‍वीकारे।