एक सम्पूर्ण स्त्री होने के पहले ही
गर्भाधान की क्रिया से गुज़रते हुए
उसने जाना कि प्यार
घनी आबादी वाली बस्तियों में
मकान की तलाश है
लगातार बारिश में भीगते हुए
उसने जाना कि हर लड़की
तीसरे गर्भपात के बाद
धर्मशाला हो जाती है और कविता
हर तीसरे पाठ के बाद
नहीं – अब वहाँ अर्थ खोजना व्यर्थ है
पेशेवर भाषा के तस्कर-संकेतों
और बैलमुत्ती इबारतों में
अर्थ खोजना व्यर्थ है
हाँ, अगर हो सके तो बगल के गुज़रते हुए आदमी से कहो –
लो, यह रहा तुम्हारा चेहरा,यह जुलूस के पीछे गिर पड़ा था
सुदामा पांडेय- धूमिल
15 comments:
समझ में नही आया कि आप कहना क्या चाहते हैं।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
सीधा सादा सच.....बहुत करीने से सजाकर कहा आपने.....बहुत ही सुन्दर प्रभावशाली रचना ...
बधाई....
ये रचना सुदामा पांडे यानी कि धूमिल की है। इसलिए आप क्या कहना चाहते हैं का सवाल और बहुत करीने से सजाकर कहा आपने वाली ब्लॉगर को न कहें।
धूमिल जी की रचनाओं की शैली निराली...
सुदामा पांड़े को पढ़ना खतरनाक है! (ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दें।)
कुछ पल्ले पड़े तो कहें
इस बेहतरीन कविता के लिए कवि सुदामा पाण्डेय धूमिल और उनके प्रस्तोता सत्येन्द्र का ह्रदय से आभार !
आपको कविता के शुरु में ही स्व० धूमिल जी का नाम रखना था. शुरु शुरु में आभास होता है कि यह आपकी रचना है. टिप्पणियों से आप यह समझ सकते हैं
धूमिल को पढ़ने से लगता है कि वे आज के परिपेक्ष्य में ही कही जा रही हैं, या फिर समय नहीं बदला एक भी कतरा.
का कहे का चाही बाबू, कछु सम्झाय देयो तो हमौउ टिपियाय दे.
ho sakta hai ki dhumil ki puri rachana parhkar sandeh door ho jaye ki unhone 30 saal pahle aaj ke samaj ko bhaap liya tha.
उसे मालूम है कि शब्दों के पीछे
> कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं
> और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं –
> आदत बन चुकी है
> वह किसी गँवार आदमी की ऊब से
> पैदा हुई थी और
> एक पढ़े-लिखे आदमी के साथ
> शहर में चली गयी
>
> एक सम्पूर्ण स्त्री होने के पहले ही
> गर्भाधान कि क्रिया से गुज़रते हुए
> उसने जाना कि प्यार
> घनी आबादी वाली बस्तियों में
> मकान की तलाश है
> लगातार बारिश में भीगते हुए
> उसने जाना कि हर लड़की
> तीसरे गर्भपात के बाद
> धर्मशाला हो जाती है और कविता
> हर तीसरे पाठ के बाद
>
> नहीं – अब वहाँ अर्थ खोजना व्यर्थ है
> पेशेवर भाषा के तस्कर-संकेतों
> और बैलमुत्ती इबारतों में
> अर्थ खोजना व्यर्थ है
> हाँ, अगर हो सके तो बगल के गुज़रते हुए आदमी से कहो –
> लो, यह रहा तुम्हारा चेहरा,
> यह जुलूस के पीछे गिर पड़ा था
>
> इस वक़्त इतना ही काफ़ी है
>
> वह बहुत पहले की बात है
> जब कहीं किसी निर्जन में
> आदिम पशुता चीख़ती थी और
> सारा नगर चौंक पड़ता था
> मगर अब –
> अब उसे मालूम है कि कविता
> घेराव में
> किसी बौखलाए हुए आदमी का
> संक्षिप्त एकालाप है
कौतुक जी, विनीत जी शुक्रिया। भविश्य में ध्यान रखा जाएगा। लेकिन मुझे बड़ा अजीब लगता है कि लोग धूमिल की इस रचना को नहीं जानते। इसमें वैसे कोई आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए कि लोग नहीं जानते। पाश को भी लोग नहीं जानते। ये सब लोग विपरीत धारा में चलने वाले जीव थे। लेकिन मुझे लगता है कि कहते सही थे। बाकी सब तो ठीक है। कुछ लोग तो मुझे ही बहुत बड़ा कविराज समझ लेते हैं... हा.. हा.. हा... और मैं मोगैंम्बो टाइप खुश हो जाता हूं।
शीर्षक बदल देते तो अच्छा रहता। कौतुक के लिए ऐसा शीर्षक लगाये थे न...? वैसे धूमिल जी की कविताओं में खतरनाक स्तर तक का सत्य मिलता है। कॉलर पकड़कर झकझोरने वाले कवि हैं धूमिल। 'संसद से सड़क तक' कविता संग्रह में 'कविता' नामक शीर्षक से ही यह कविता प्रकाशित है।
वेद रत्न जी, बिल्कुल सही पकड़ा आपने। अगर यह शीर्षक नहीं लगाता, तो शायद इतनी बड़ी संख्या में लोग नहीं पढ़ते। साथ ही धूमिल से रूबरू भी हो गए लोग, इसी बेहतर इच्छा के साथ शीर्षक लगाया था मैने। एक बात और.. अगर वो परंपरा वाली कविता मिल जाएगी तो आगे, इतने ही खतरनाक शीर्षक के साथ पेश करने की इच्छा है। इसलिए आपसे पहले ही क्षमा मांग लेता हूं।
सत्येंद्र जी,
बहुत उम्दा लगा, एक दम धूमिल की तरह... आपने टिप्पणीकारों से संवाद करते हुए कविता के शीर्षक के बारे में जो स्पष्टीकरण दिया है, उसने एक बार फिर मुझे यह विचारने के लिए मजबूर कर दिया कि शायद हिंदी में आत्मा के प्रेमी घट रहे हैं। वैसे भी अपनी मातृभाषा में आले दर्जे की रचना बहुत कम हो रही, अगर कभी कोई प्रयास होता भी है, तो पाठक आकर्षित नहीं होते। लगता है कि हिन्दी के प्रेमी आत्मा से ज्यादा देह पर मरने लगे हैं। हिंदी के समकालीन पत्र-पत्रिका ओं और चैनलों की सामग्रियां भी यही संकेत देती है।
हिन्दी प्रेमियों से मेरा विनम्र निवेदन है कि वे धूमिल की रचना में डूबकर तो देखें,उनकी काव्य-भूख तिरोहित हो जायेगी। क्या उन्माद, फंतासी, सनसनी, उत्तेजना, रोमांस की रचनाएं ही हिन्दी को श्रेष्ठ बनाये रख पायेगी। हम ब्लॉगरों को इस पर चिंतन करना चाहिए। यह मीडिया क्रांति का दौर है। खासकर इंटरनेट मीडिया की क्रांति का । हम सभी ट्रेंड सेटर की भूमिका में हैं। इसलिए हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम हिन्दी में सार्थक और गंभीर लेखन को स्थापित करने का प्रयास करें।
धूमिल, मुक्तिबोध, समशेर, अज्ञेय हमारे थाती हैं। इन्होंने हिंदी में ऐसी रचनाएं दी हैं, जो दुनिया की किसी भी भाषा की रचनाओं से होड़ ले सकती है ंऔर उन्हें पछाड़ भी सकती हैं।
सादर
रंजीत
धूमिल की हर कविता बहुतों की पूंछ उठाती है...
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