यह सवाल अक्सर जेहन में कौंधता है। हर दंगे में निर्दोष मारे जाते हैं।
स्वतंत्रता के बाद भीषण दंगे हुए। विभाजन का दंगा। उसके बाद सबसे वीभत्स रहा १९८४ में सिखों पर हमला। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सामूहिक नरसंहार शुरू हुए और यह तीन दिन तक चला। देश भर में हजारों की संख्या में लोगों को जिंदा जलाया गया। अभी मैं दैनिक जागरण के पूर्व पत्रकार और चिदंबरम पर जूता फेंकने वाले जरनैल सिंह की पुस्तक पढ़ रहा था। रात को पढ़ना शुरू किया। हालात के वर्णन कुछ इस तरह थे कि रात भर नींद नहीं आई। इसमें सबसे दुखद यह रहा कि आज भी पीड़ितों का उत्पीड़न जारी है। मानसिक, शारीरिक, आर्थिक हर तरह का। न्याय मिलना तो दूर की बात है।
दिल्ली में ८४ के दंगों में भी देखा गया था कि जिन इलाकों के अधिकारी चुस्त दुरुस्त थे, उन इलाकों में दंगे का प्रभाव कम रहा। जहां नेताओं ने दंगाइयों को नेतृत्व दिया, वहीं संकट गहरा रहा। लेकिन इन दंगाई नेताओं को किसी तरह की सजा नहीं मिली।
यही स्थिति गुजरात में हुई, जब नरेंद्र मोदी सरकार कुछ नहीं कर पाई और पूरा राज्य जलता रहा।आखिर इस तरह के दंगों में प्रशासन भी भावनात्मक रूप से पागल हुए लोगों के साथ पागल क्यों हो जाता है? बार बार जेहन में यही सवाल कौंधता है।
कश्मीर के बारे में तो अब शायद कोई याद भी नहीं करता, जहां स्वतंत्रता मांगने के नाम पर आए दिन हत्याएं होती हैं। लंबे समय से वहां चल रहे आतंकी अपराध के बाद कश्मीरी पंडितों का वही हाल है, जो ८४ में दंगे से पीडित सिखों का है। अपने ही देश में निर्वासित जीवन जीने को विवश हैं कश्मीरी पंडित।राजनीति से जु़ड़े लोग इनकी लाशों पर राजनीति करते हैं। समझ में नहीं आता कि आखिर कब तक चलेंगे इस तरह के दंगे और प्रशासन इनका कब तक साथ देता रहेगा।
जब कभी भी प्रशासन चुस्त होता है, इस तरह की घटनाएं तत्काल रुक जाती हैं। कई ऐसे मामले उत्तर प्रदेश में हुए हैं। प्रशासन ने जब कर्फ्यू लगाया, लोग अपने घरों में दुबक गए। एकाध बाहर निकले दंगा करने तो उन्हें सेना ने गोली मार दी। और अगर इस तरह के ऐक्शन ज्यादा नहीं एक बड़े शहर में इक्के दुक्के होते हैं और पूरा शहर खामोश हो जाता है। लेकिन अगर आम आदमी की भावनाओं के साथ प्रशासन और नेता दंगाई हो जाते हैं, तभी लाशों की ढेर जमा होती है।
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ब्रिटेन की संसद परिसर में एक फ़िल्म के ज़रिये 25 साल पहले दंगों का शिकार हुए सिखों के दुख-दर्द को दिखाया जाएगा. इस फ़िल्म का प्रदर्शन चार नवंबर को होगा.
ये फ़िल्म सिख विरोधी दंगों के 25 साल पूरे होने के मौके पर सर्वदलीय मानवाधिकार संगठन की ओर से दिखाई जा रही है.
'विडो कॉलोनी' नामक इस फ़िल्म का निर्देशन हरप्रीत कौर ने किया है.
फ़िल्म के प्रदर्शन के बाद इस मुद्दे पर आम चर्चा भी होगी, जिसमें सांसद एन क्वायड, टाइम्स ऑफ़ इंडिया के वरिष्ठ संपादक मनोज मित्ता और एमनेस्टी इंटरनेशनल के बिक्रमजीत बत्रा के अलावा कई हस्तियाँ मौजूद रहेंगी.
फ़िल्म की कहानी उन महिलाओं पर केंद्रित है जो नवंबर 1984 के सिख विरोधी दंगों में विधवा हो गईं थीं और दंगों में उनका सब कुछ तबाह हो गया था. फ़िल्म में दिखाया गया है कि किस तरह उन्होंने न्याय और आजीविका के लिए संघर्ष किया.
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