Wednesday, April 26, 2017

धूल फांक रही हैं मंडल आयोग की 40 में से 38 सिफारिशें


सत्येन्द्र पीएस

"गरीब का आंसू कुछ समय तक तो आंसू रहता है, लेकिन वही आंसू फिर तेजाब बन जाता है जो इतिहास के पन्नों को चीर करके धरती पर अपना व्यक्तित्व बनाता है। यॆ समझ लीजिए कि गरीब की आंख में जब तक आंसू हैं, आंसू हैं लेकिन जब आंसू सूख जाते हैं तो उसकी आंखें अंगार हो जाती हैं और इतिहास ने ये बताया है कि जब गरीबों की आंखें अंगार होती हैं तो सोने के भी महल पिघल करके पनालों में बहते हैं।"
विश्वनाथ प्रताप सिंह, मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के बाद 15 अगस्त 1990 को लाल किले की प्राचीर से
मंडल आयोग की सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की सिर्फ एक सिफारिश लागू होने पर देश में ऐसा तूफान उठा, मानो अगर 52 प्रतिशत आबादी को कुछ जगह सरकारी नौकरियों में दे दी गई तो देश पर कोई आफत आ जाएगी। जगह जगह धरने प्रदर्शन हुए। कांग्रेस ने पिछले दरवाजे से आरक्षण विरोधियों का समर्थन किया। भाजपा ने कांग्रेस की रणनीति अपनाने के साथ उस समय की विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार को गिरा दिया।
बहरहाल अब ओबीसी आरक्षण लागू होने के 25 साल बाद उसकी समीक्षा की मांग उठने लगी है। मंडल आयोग ने भी अपनी सिफारिश में कहा था कि सिफारिशें लागू होने के 20 साल बाद इसकी समीक्षा होनी चाहिए। हालांकि यह नहीं कहा था कि सिर्फ एक सिफारिश लागू करने के बाद ही समीक्षा हो जानी चाहिए कि उसका लाभ हुआ या नहीं।


अब जब आरक्षण विरोधी समीक्षा की मांग कर रहे हैं तो आरक्षण का आंशिक लाभ पाने वाला तबका भी आरक्षण की समीक्षा की मांग कर रहा है। अब वह तबका 100 प्रतिशत लेने और शेष 15 प्रतिशत आबादी को आरक्षण देने की मांग कर रहा है। शायद इंतजार करते करते गरीब के आंसू सूख चुके हैं।
"देश के 85 ओबीसी, एससी, एसटी अब 50 % पर नहीं मानने वाले, अब ये हर क्षेत्र में 100 % लेंगे। उसके बाद मानवता के आधार पर तुम्हे 15 % की भीख देंगे।"
हिंदुत्व और मनुवाद की प्रयोगशाला बने उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से आरक्षण को लेकर उठी डॉ हितेश सिंह की यह आवाज संदेश देती है।
इस समय आरएसएस के विचारकों की ओर से रह रहकर आरक्षण की समीक्षा की बात होती है। अब नए तरह की समीक्षा सामने आई है कि आखिर संविधान में प्रावधान होने के बावजूद बेईमानी क्यों हो रही है। जिन लोगों का जातीय आधार पर सदियों से शोषण किया गया उनके लिए थोड़ा सा स्पेस देने में दिक्कत क्यों आ रही है ?

यह सवाल उठना ऐसे दौर में लाज़िम है जब विभिन्न रिपोर्ट आ रही हैं कि देश के विश्व विद्यालयों, सरकारी संस्थानों, सरकारी विभागों में आरक्षण होने के बावजूद न तो 22.5 % sc, st का कोटा भरा है और न ही 27 % ओबीसी का कोटा भरा है। केंद्रीय सेवाओं में ओबीसी का प्रतिनिधित्व वर्ष 2016 में 14 फीसदी तक सिमट कर रह गया है। हालांकि वर्ष 2016 के ये आंकड़े 33 मंत्रालयों/विभागों के हैं, बाकी विभागों ने इस संदर्भ में रिपोर्ट डीओपीटी को नहीं दी है।


1931 की जनगणना के आधार पर मंडल आयोग ने 1980 में पेश अपनी रिपोर्ट में अनुमाम लगाया था कि देश में ओबीसी आरक्षण में आने वाली गैर द्विज जातियों की आबादी 52 प्रतिशत है। 1993 में मंडल आयोग की सिर्फ एक सिफारिश लागू की गई। 2008 में अर्जुन सिंह जब मानव संसाधन मंत्री थे तब एक और सिफारिश लागू हुई। शेष करीब 38 सिफारिशें धूल फांक रही हैं। उनको पूछने वाला कोई नहीं है।

इतनी कम सुविधा में भी सदियों से सुविधा भोग रहे सुविधा भोगियों का कलेजा फटने लगा। सिर्फ 2 सिफारिशें लागू की गई। परिणाम यह हुआ कि ओबीसी तबके को बहुत सीमित लाभ हुआ। कुछ बच्चे पढ़ पाए। आरक्षण मिल रहा है और हमे भी जगह मिल सकती है इस उत्साह में तमाम बच्चे नौकरियां हासिल करने में सफल रहे, लेकिन सीमित दायरे में।


मंडल आयोग ने नौकरियों में आरक्षण की सिफारिश में यह भी लिखा था, “हमारा यह तर्क नहीं है कि ओबीसी अभ्यर्थियों को कुछ हजार नौकरियां देकर हम देश की कुल आबादी के 52 प्रतिशत पिछड़े वर्ग को अगड़ा बनाने में सक्षम होंगे। लेकिन हम यह निश्चित रूप से मानते हैं कि यह सामाजिक पिछड़ेपन के खिलाफ लड़ाई का जरूरी हिस्सा है, जो पिछड़े लोगों के दिमाग में लड़ा जाएगा। भारत में सरकारी नौकरी को हमेशा से प्रतिष्ठा और ताकत का पैमाना माना जाता रहा है। सरकारी सेवाओं में ओबीसी का प्रतिनिधित्व बढ़ाकर हम उन्हें देश के प्रशासन में हिस्सेदारी की तत्काल अनुभूति देंगे। जब एक पिछड़े वर्ग का अभ्यर्थी कलेक्टर या वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक होता है तो उसके पद से भौतिक लाभ उसके परिवार के सदस्यों तक सीमित होता है। लेकिन इसका मनोवैज्ञानिक असर बहुत व्यापक होता है। पूरे पिछड़ा वर्ग समाज को लगता है कि उसका सामाजिक स्तर ऊपर उठा है। भले ही पूरे समुदाय को ठोस या वास्तविक लाभ नहीं मिलता है, लेकिन उसे यह अनुभव होता है कि उसका “अपना आदमी” अब “सत्ता के गलियारे” में पहुंच गया है। यह उसके हौसले व मानसिक शक्ति को बढ़ाने का काम करता है।”

अब ज्योतिबा फुले, शाहू जी महराज, भीमराव अंबेडकर, काशीराम से आगे बढ़कर मामला नई पीढ़ी के हाथों में आ गया है। नई पीढ़ी स्वाभाविक रूप से ज्यादा तार्किक और ज्यादा आक्रामक तरीके से अपने हित और अहित की बात सोच रही है। लेकिन इसमें भी पेंच है। पिछड़े वर्ग को यह कहकर बरगलाया जा रहा है कि उसमें जो अमीर हैं, वही सारा लाभ ले जा रहे हैं। जबकि आंकड़े कहते हैं कि 27 प्रतिशत कोटा भी नहीं भरा जा सका है। खुले तौर पर बेइमानी हो रही है और देश की 52 प्रतिशत आबादी को अभी भी सुविधाओं से वंचित किया जा रहा है।

निजी क्षेत्र में स्थिति और भयावह है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सुखदेव थोराट के एक अध्ययन के मुताबिक निजी क्षेत्र में उन आवेदकों के चयनित होने की संभावना बहुत कम होती है, जिनकी जातीय टाइटल से यह पता चलता है कि वह अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या पिछड़े वर्ग से आते हैं।


भेदभाव को इस तरह भी समझा जा सकता है कि ओबीसी, एसटी, एसटी के लोग बड़े पैमाने पर अपनी जाति छिपाते हैं। उच्च जाति यानी क्षत्रिय या ब्राह्मण होने के दावे करते हैं। उन दावों के समर्थन में हजारों तर्क इतिहास और भूगोल से खोदकर लाते हैं। लेकिन उच्च जाति होने का दावा और तर्क उनके जातीय समूह तक ही सिमटा होता है। समाज का कोई अन्य तबका, अन्य जाति उनके दावे को नहीं मानता और उस दावे का मजाक ही उड़ाता है।
उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश की दो सशक्त पिछड़ी जातियां अहिर और कुर्मी खुद को क्षत्रिय होने का दावा करती हैं। लेकिन क्षत्रिय या ब्राह्मणों द्वारा उनके क्षत्रिय माने जाने की बात तो दूर, इनको कोई बढ़ई, लोहार, बरई, तेली तमोली, चमार, ढाढ़ी भी क्षत्रिय नहीं मानता। यह व्यावहारिक बात है। लेकिन इसके बावजूद यह तबका अपनी जाति ऊंची बताने, अपनी जाति व टाइटिल छिपाने की कवायद में रहता है कि सत्तासीन अपर कास्ट शायद इन्हें धोखे में ही सही, कुछ लाभ पहुंचा दे।
मुस्लिम समुदाय के प्रति भेदभाव की खबरें तो अक्सर आती रहती हैं। ऐसे में निजी क्षेत्र में आरक्षण भी एक महत्त्वपूर्ण मसला बन गया है, जिससे बहुसंख्यक आबादी को मुख्य धारा में शामिल किया जा सके।
कुल मिलाकर मौजूदा सत्तासीन दल भाजपा और उसके संरक्षक आरएसएस की पृष्ठभूमि देखें तो पिछड़े वर्ग के आरक्षण का विरोध का इनका लंबा इतिहास रहा है। अनुसूचित जाति के आरक्षण को तो इन्होंने बर्दाश्त कर लिया, लेकिन पिछड़ा वर्ग इन्हें कतई बर्दाश्त नहीं है।
सरकार की नीतियां भी इस ओर इशारा करती हैं। किसानों की तरह तरह की मांगों पर सरकार बिल्कुल ध्यान नहीं दे रही है। सरकारी नौकरियां खत्म की जा रही हैं। जो सरकारी पद खाली हैं, उनकी वैकेंसी नहीं आ रही है। निजी क्षेत्र में संभावनाएं कम हो गई हैं।
ऐसे में देश के पिछड़े वर्ग के लोग भी संगठित हो रहे हैं। पिछड़े वर्ग में आज भी किसान, छोटे मोटे कारोबार करने वाले, लघु व कुटीर उद्योग चलाने वाले लोग हैं। आज इस तबके की बर्बादी किसी से छिपी हुई नहीं है। इस तबके की ओर से असंगठित रूप से ही सही, विरोध हो रहा है। लोग विरोध में सड़कों पर उतर रहे हैं। इसकी पूरी संभावना है कि आने वाले दिनों में आंदोलन और तेज हो सकता है।


https://youtu.be/x94cu5gKiew


https://youtu.be/x94cu5gKiew


Saturday, March 18, 2017

टेक सेवी मोदी और उनकी ढाई कदम की चाल से पस्त विपक्ष


सत्येन्द्र पीएस
मैंने सबसे पहले नरेंद्र मोदी से सेल्फी शब्द सुना था। उसके बाद गूगल में खोजने पर पता चला कि मोबाइल में फ्रंट कैमरे आ गए हैं, उससे खुद की फोटो लेने को सेल्फी कहते हैं। हालांकि सेल्फी शब्द की हिंदी मैं उस समय नहीं खोज पाया था।
यह उस समय की बात है, जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। मोदी पर तमाम आर्टिकल और टीवी शो मैंने देखा। कई में यह बताया गया था कि मोदी शुरू से बहुत ज्यादा टेक सेवी हैं। वह लैपटॉप का इस्तेमाल करते हैं। अत्याधुनिक मोबाइल फोन रखते हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट पर मौजूद रहते हैं।

हालांकि सबसे पहले ट्विटर के बारे में कांग्रेस के नेता शशि थरूर के माध्यम से मुझे जानकारी मिली थी। लेकिन कुछ महीनों बाद यह जानकारी आने लगी मोदी के ट्विटर पर फॉलोवर बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं। उस समय ट्वीट नया नया ही था। ब्लॉग, फेसबुक होते हुए हम ट्विटर की ओर बढ़े थे। भारतीय नेताओं में टेक्नोलॉजी, सोशल साइट्स के मामले में मोदी सबसे तेज हैं।

लोकसभा चुनाव जब शुरू हुआ तो मोदी ने फेसबुक और ट्विटर के माध्यम से प्रचार शुरू किया। कांग्रेस शासन काल में उन्होंने मीडिया के खिलाफ माहौल बनाने के साथ मीडिया को अपने पक्ष में बखूबी किया। बड़ी संख्या में अपने फॉलोवर तैयार किए। उस समय तक कांग्रेस या किसी अन्य भारतीय दल को यह एहसास नहीं था कि चुनाव ट्विटर और फेसबुक के माध्यम से लड़ा जा सकता है। राजनेता इसे हल्के में ले रहे थे और मोदी अपनी टेक टीम के साथ इसका बखूबी इस्तेमाल कर रहे थे। किसे ट्रोल कराना है, किस मीडिया पर्सन को निशाना बनाना है, यह पूरी टीम भावना के साथ तय होता था। जिस पर हमला करना है, उसे लहूलुहान और पस्त करने तक उसका पीछा किया जाता था। टीम कोई भी मसला छोड़ती और फेसबुक और ट्विटर पर फॉलोवर बने समर्थक इसे बहुत तेजी से लपक लेते। साथ ही तरह तरह की गालियों की बौछार शुरू होती और अगर कोई अन्य दल या विचारधारा का समर्थक होता तो वह भाग खड़ा होता।

राजनीतिक दलों में सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर मोदी समर्थकों का सबसे तेजी से आम आदमी पार्टी व उसके समर्थकों ने किया। तेजी से फेसबुक पर सदस्य बनाए। मिस्ड कॉल से पार्टी का कार्यकर्ता बनाकर लोगों के मोबाइल डेटा बेस तैयार किए। हालांकि पहले से आधार न होने की वजह से पार्टी सिर्फ दिल्ली तक सिमटी रह गई।

केंद्र में जब भाजपा सत्ता में आई और मोदी प्रधानमंत्री बने तो थोड़ा बहुत कांग्रेस की भी तंद्रा टूटी और वह भी सोशल साइट्स की ओर चली। यू ट्यूब पर विज्ञापन देना भी कांग्रेस ने शुरू किया। लेकिन रफ्तार बहुत सुस्त रही। लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, अखिलेश यादव सहित तमाम दलों ने सोशल साइट्स का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। सोशल साइट्स इतनी प्रसिद्ध हो गईं कि राजनीतिक दल और सरकार भी ट्विटर और फेसबुक से खबरें देने लगे। आज हम इस दौर में जी रहे हैं कि तमाम खबरें और खबरों के लिए कोट्स ट्विटर से मिलते हैं। पार्टियों की ओर से जारी होने वाली प्रेस विज्ञप्ति और नेताओं के बयान की जगह ट्विटर पर किए गए उनके ट्वीट ही खबरों में बदल चुके हैं। हर अखबार, टीवी चैनल के बीट रिपोर्टर की नजर ट्विटर पर होती है।

उत्तर प्रदेश का चुनाव आते आते करीब सभी दल सोशल साइट्स पर सक्रिय हो गए। समाजवादी पार्टी ने जहां सोशल साइट्स के लिए पूरी टीम लगा दी, वहीं बसपा के समर्थकों ने भी मोर्चा संभाल लिया। वहीं मोदी ने फिर नई रणनीति अपनाई। फेसबुक और ट्विटर तो पार्टी समर्थकों पर छोड़ दिया गया, जिन्हें समाज में “भक्त” के नाम से जाना जाता है।

भक्त ऐसे तत्व होते हैं, जो बेरोजगार या रोजगार पाए युवा, बुजुर्ग, सेवानिवृत्त व्यक्ति कोई भी हो सकते हैं। इनका न तो पार्टी से कोई लेना देना होता है, न नीतियों से। प्रशासन से इन लोगों का काम कम ही पड़ता है। मोदी से भी इन्हें कोई खास काम नहीं है। भक्तों की चिंता सिर्फ कथित 'राष्ट्र' होता है। वह राष्ट्र की माला जपते हैं और उनका एक सूत्री कार्यक्रम होता है कि मोदी की प्रशंसा करें।

उत्तर प्रदेश के चुनाव में फेसबुक और ट्विटर को इसी तरह के भक्तों पर छोड़ दिया गया, जो सपा और बसपा की टीमों से लगातार मोर्चा संभाले रहे।

राजनीतिक विश्लेषक अश्विनी कुमार श्रीवास्तव लिखते हैं कि भाजपा के ध्रुवीकरण की शातिर चाल में बसपा फंस गईं। उनका मानना है कि ध्रुवीकरण की रणनीति भाजपा ने पहले ही बना ली थी और इसके तहत मुस्लिमों को एक भी टिकट नहीं दिया। साथ ही गैर यादव पिछड़ा वर्ग, जो बसपा का बड़े पैमाने पर आधार वोट रहा है, उसे लुभाने की कवायद की। इस घाटे की भरपाई के लिए मायावती को मुस्लिम वोट खींचने की कवायद करने के लिए बाध्य किया। मायावती इस ट्रैप में फंस गईं और ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देने का काम किया। इससे भाजपा को खुद को हिंदूवादी साबित करने व अति पिछड़े तबके को हिंदू बनाने का मौका मिला और वह पूरी तरह से अपनी इस रणनीति में कामयाब रही।

मोदी और उनकी तकनीकी पेशेवर टीम ने यूपी चुनाव में ह्वाट्स ऐप पर जोर दिया। लोगों के परिवारों, कार्यालय आदि के ग्रुप बनाने व व्यक्तिगत मैसेज, वीडियो भेजने के लिए व्हाट्स ऐप ने खासी जगह बना ली है। यह सब सेवाएं फेसबुक पर भी उपलब्ध हैं। लेकिन ग्रुप बनाने, इंस्टैंट मैसेजिंग, वीडियो शेयरिंग के मामले में यह ऐप बहुत ही कारगर और उपभोक्ताओं के अनुकूल है।

मोदी की टीम ने ह्वाट्स ऐप के मुताबिक मैसेज और वीडियो पर जोर दिया। चुनाव के पहले भुगतान वाले ढेरों नेट पैक उपलब्ध थे, लेकिन चुनाव के तीन महीने पहले हाई स्पीड 4जी जियो कनेक्शन मुफ्त मिल गया। यह कनेक्शन मिलते ही ईरान, ईराक, सीरिया और पता नहीं किन किन देशों के वीडियो, तमाम धार्मिक सांप्रदायिक वीडियो स्मार्ट फोन पर आने लगे। जियो का 4 जी धकाधक उसे डाउनलोड और अपलोड करने में मदद करने लगा।

मैसेज सभी वही थे, जो आरएसएस अपने जन्म के समय से ही प्रसारित करता रहा है। इसमें नेहरू के मुस्लिम परिवार के होने से लेकर चौतरफा हिंदुओं पर हमले होने के मामले, अगले दो दशक में हिंदुओं के खत्म होने और मुसलमानों के बहुसंख्यक होने, विपक्षी नेताओं पर अश्लील चुटकुले, टिप्पणियां और वीडियो भेजने का काम बहुत बहुत तेजी से हुए।

इस खेल को विपक्ष उस तेजी से नहीं समझ पाया, जितनी तेजी से उसे समझना चाहिए था। मिस्ड कॉल वाली सदस्यताओं ने पार्टी को बहुत बड़ी संख्या में मोबाइल डेटा बेस दिया और इन मोबाइलों पर भारी मात्रा में ध्रुवीकरण करने वाले मैसेज, वीडियो, चुटकुले, टिप्पणियां बड़े पैमाने पर लोगों को पहुंचाई गईं।

इस तरह से तकनीक के मामले में मोदी ने एक बार फिर साबित कर दिया कि हमारी उभरती युवा पीढ़ी और टेक्नोक्रेट्स की तुलना में वह 62 साल की उम्र में भी बुड्ढे नहीं हुए हैं।

और भाजपा ने उत्तर प्रदेश को 403 में से 325 सीटें जीतकर भारी बहुमत के साथ अपनी झोली में डाल लिया। विपक्ष के लिए बचा जाने माने शायर मोहम्मद इब्राहिम जौक का यह शेर..
कम होंगे इस बिसात पे हम जैसे बद-क़िमार
जो चाल हम चले सो निहायत बुरी चले

(इस पर एक अलग लेख बनता है कि जब 2009 की हार के बाद जीवीएल नरसिम्हाराव इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन के खिलाफ लेख लिखने, लाल कृष्ण आडवाणी इसके विरोध प्रदर्शन में व्यस्त थे तो मोदी किस कदर खामोश रहे। उन्हें तो जैसे कोई फॉर्मूला मिल गया था। 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद गुजरात में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन से जब निकाय चुनाव हुए तो भाजपा ने 70 प्रतिशत के करीब वोट हासिल कर एकतरफा निकाय चुनाव जीता था।)

Saturday, March 11, 2017

बसपा क्यों हारी?

“हम लोग बसपा को वोट देते रहे हैं। कई दशक से। ब्राह्मणवाद के खिलाफ हमारे परिवार ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया। मायावती अब सतीश मिश्रा की गोदी में खेलती हैं। जिन ब्राह्मणवादियों से हम लड़ते थे, वो हमें गालियां देते हैं कि देखिए आपकी नेता क्या कर रही हैं। दलित हमें गाली देते हैं कि ये ब्राह्मणवाद की पालकी ढोते हैं। हमारे ऊपर चौतरफा मार पड़ रही है। अब बसपा को वोट देने का क्या मतलब बनता है?”
यह पिछड़े वर्ग के बहुजन समाज पार्टी (बसपा) समर्थक का बयान है। इसमें कुछ गालियां जोड़ लें, जिन्हें हिंदी भाषा की बाध्यता के चलते यहां नहीं लिखा गया है।
“छोटी जातियों के लोग बहुत खुश हैं। उनको लगता है कि ब्राह्मण, ठाकुर और बड़े लोग नोटबंदी से पूरी तरह बर्बाद हो गए हैं। उन्हें अपना फल, सब्जियां, दूध फेकना पड़ा। रिक्शेवालों की कमाई घट गई। फिर भी उन्हें आंतरिक खुशी है कि मोदी जी ने ऐसी चाल चली कि ब्राह्मण ठाकुर बर्बाद हो गए। नोटबंदी पूरी तरह भाजपा के पक्ष मे जा रही है।”
यह भारतीय जनता पार्टी के उत्तर प्रदेश के एक बड़े नेता का बयान है। यह पूछे जाने पर कि उत्तर प्रदेश में नोटबंदी का क्या असर है, खासकर ग्रामीण इलाकों में, तो उन्होंने यह जवाब दिया था।

करीब 2 महीने पहले के यह बयान सुनकर यह संकेत मिल रहे थे कि उत्तर प्रदेश में क्या हो सकता है। उत्तर प्रदेश घूम रहे तमाम लोग भी यह सूचना दे रहे थे कि बसपा बुरी तरह हार रही है। यह सूचनाएं व बयान देने वालों की निजता की रक्षा के लिए जरूरी है कि उनके नाम न लिखे जाएं। हां, उल्लेख करना इसलिए जरूरी है कि जमीनी हकीकत का पता चल सके और लोग रूबरू हो सकें कि आखिर हार की क्या वजह है। बसपा ने ऐसा क्या कर दिया, जिसकी वजह से उसके खिलाफ आंधी चली। अगर उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा के समर्थन में आंधी चली है तो यह भी मानना होगा कि बसपा के खिलाफ भी उतना ही तगड़ा तूफान था। और बसपा उड़ गई।
उत्तर प्रदेश चुनाव को लेकर मेरी राय बड़ी स्पष्ट थी। तमाम साथी, समीक्षक यह मानकर चल रहे थे कि त्रिशंकु विधानसभा होगी। मैंने यह बार बार दोहराया कि त्रिशंकु की कोई स्थिति उत्तर प्रदेश में नहीं है। या तो बसपा 300 पार कर जाएगी, या भाजपा। इन दोनों दलों में से इस चुनाव में एक का बर्बाद होना निश्चित है। ऐसा अनुमान लगाने की बड़ी वजह उपरोक्त दो बयान थे, जिसमें नोटबंदी का सार्थक असर और बसपा समर्थक पिछड़े वर्ग के मतदाताओं का बसपा के प्रति वैचारिक घृणा थी। बसपा के लोगों का कहना था कि उनके कुछ पिछड़े वोट भाजपा की ओर जा रहे हैं, लेकिन ब्राह्मण प्रत्याशियों को मिलने वाले वोट और मुस्लिम वोट मिलकर इसे कवर कर लेंगे। ऐसे में मेरी स्पष्ट राय थी कि अगर ब्राह्मण और मुस्लिम वोट एकतरफा बसपा को मिला (हालांकि पुराने अनुभव चींख चींखकर कह रहे थे कि ऐसा नहीं होने जा रहा है) तो वह सबका सूपड़ा साफ करेगी। अगर बसपा के प्रति ओबीसी की नफरत प्रभावी हुई तो वह मत भाजपा की ओर जाएंगे और बसपा पूरी तरह उड़ जाएगी। और वही हुआ।
2007 में विधानसभा चुनाव में जीत के बाद से ही बसपा का समीकरण बदलना शुरू हो गया। पार्टी में निश्चित रूप से तमाम ब्राह्मण व ठाकुर नेता पहले से ही जुड़े हुए थे। लेकिन 2007 में सत्ता में आने के बाद से सतीश मिश्रा पार्टी में अहम हो गए। मायावती जब भी कोई प्रेस कान्फ्रेंस या आयोजन करतीं, सतीश मिश्र वहां खड़े नजर आते। इतना ही नहीं, उसके बाद हुए चुनावों में सतीश मिश्रा के रिश्तेदारों, परिवार वालों को जमकर लाभ पहुंचाया गया, उन्हें टिकट बांटे गए। बसपा का बहुजन, सर्वजन में बदल गया।
सर्वजन में बदलना एक तकनीकी खामी है। सभी के लिए काम करना देवत्व की अवधारणा है। राजनीतिक दलों का एक पक्ष होता है कि उनका झुकाव किधर है। यहां तक भी ठीक था। बसपा की गलती तब शुरू हुई, जब पार्टी ने अति पिछड़े वर्ग की उपेक्षा शुरू कर दी, जो काशीराम के समय से ही पार्टी के कोर वोटर थे। शुरुआत में जब सोनेलाल पटेल से लेकर ओमप्रकाश राजभर जैसे नेता निकाले गए तो उनके समर्थकों ने यह मान लिया कि व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा के चलते इन नेताओं को निकाल दिया गया है। बाद में पिछड़ों की यह उपेक्षा संगठनात्मक स्तर पर भी नजर आने लगी। टिकट बटवारे में यह साफ दिखने लगी।
बसपा ने 2012 में सर्वजन समाज के जातीय समीकरण के मुताबिक टिकट बांटना शुरू किया। करारी शिकस्त के बाद भी पार्टी नहीं संभली और 2014 के लोक सभा चुनाव में भी उसी समीकरण पर भरोसा किया। 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी पूरी तरह से और खुलेआम कांग्रेस के ब्राह्मण दलित मुस्लिम समीकरण पर उतर आई। टिकट बंटवारे में यही दिखाया गया कि कितने मुस्लिमों और कितने ब्राह्मणों को टिकट दिए गए।
बसपा या मायावती के लिए ब्राह्मण, मुस्लिम और दलित समीकरण बिल्कुल मुफीद नहीं लगता। कांग्रेस के लिए तो यह ठीक है। वहां नेतृत्व ब्राह्मण का होता है, जहां मुस्लिम और दलित खुशी खुशी नेतृत्व स्वीकार करते रहे हैं। जहां बसपा नहीं है, वहां देश भर में कांग्रेस का आज भी यही समीकरण सफलता पूर्वक चल रहा है। लेकिन बसपा के साथ दिक्कत यह है कि ब्राह्मण या मुस्लिम कभी दलित नेतृत्व नहीं स्वीकार कर सकता, क्योंकि वह शासक जाति रही है। बसपा के रणनीतिकारों ने न सिर्फ 2017 के विधान सभा चुनाव में यह चूक की है, बल्कि 2012 के विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव में भी यही किया था। बसपा बुरी तरह फेल रही।
काशीराम का समीकरण बड़ा साफ था कि जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। उन्होंने पिछड़े वर्ग को लठैत बनाया। दलित तबका उस समय लाठी उठाने को तैयार नहीं था। ऐसे में दलितों का वोट और पिछड़ों की लाठी का समीकरण बना। काशीराम तक पिछड़ा वर्ग दलितों के रक्षक की भूमिका में था। लेकिन जैसे ही मायावती के हाथ सत्ता आई, सतीश मिश्र की भूमिका बढ़ी। पिछड़े वर्ग की लठैती वाली भूमिका खत्म हो गई। पिछड़े नेता एक एक कर निकाले जाते रहे। दलित समाज का नव बौद्धिक वर्ग पिछड़ों को ब्राह्मणवाद की पालकी ढोने वाला बताता रहा। पिछड़ों की बसपा के प्रति नफरत बढ़ती गई। उसकी चरम परिणति 2017 के विधानसभा चुनाव में दिखी।
समाजवादी पार्टी का तो भविष्य करीब करीब पहले से ही साफ था। सोशल मीडिया से लेकर जमीनी स्तर तक उसके सिर्फ यादव समर्थक बचे। यादवों में भी जिन लोगों ने इलाहाबाद में त्रिस्तरीय आरक्षण की लड़ाई लड़ी या जेएनयू में अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे युवा सपा से उम्मीद छोड़ चुके थे। पारिवारिक कलह पहले से ही कोढ़ में खाज बन चुकी थी। ऐसे में उसका बेड़ा गर्क होना तय था।
मायावती का कहना है कि ईवीएम के साथ छेड़छाड़ हुई। यह सही भी हो सकता है, गलत भी हो सकता है। तकनीक के इस युग में ईवीएम सेट करना शायद संभव हो कि आप बसपा को वोट करें और वह भाजपा को चला जाए। लेकिन यह कहकर कछुए की तरह अपनी खोल में गर्दन छिपा लेने से जान बचने की संभावना कम है।
पूर्वांचल के जाने माने छात्र नेता पवन सिंह कहते हैं कि बसपा को अति पिछड़े वर्ग का वोट नहीं मिला है। मुस्लिमों का भी वोट नहीं मिला है। यह पूछे जाने पर कि क्या आपके पास बूथ स्तर पर आंकड़ा है कि ऐसा हुआ है ? या मीडिया में चल रही खबरों के आधार पर ऐसा कह रहे हैं, उन्होंने कई गांवों के आंकड़े गिना डाले। उन्होंने दावा किया कि जिस विधानसभा में वह मतदाता हैं, उनके तमाम गांवों के आंकड़ों से यही लगता है कि अति पिछड़े वर्ग का एकतरफा वोट भारतीय जनता पार्टी को मिला है, जबकि मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी को मिला है। उनका कहना है कि ऐसी स्थिति कमोबेश पूर्वी उत्तर प्रदेश के हर जिले में रही है। साथ ही वह बताते हैं कि ब्राह्मण बनिया और कायस्थ का एकमुश्त वोट भारतीय जनता पार्टी को मिला है। उन्होंने कहा कि भाजपा से जीतने वाले उम्मीदवार ऐसे हैं, जिन्हें विधानसभा में कितनी पंचायतें, कितने थाने हैं, यह भी नहीं पता होगा, जनता से उनका कोई लेना देना नहीं है, लेकिन मोदी के नाम पर वोट पड़ा है। सभी भाईचारा खत्म हो गया। किसी के लिए काम कराना, किसी के सुख दुख में शामिल होना कोई फैक्टर नहीं रहा, सिर्फ और सिर्फ मोदी के लिए लोगों ने अपना प्रेम दिखाया।
उनका कहना है कि कथित सवर्ण जातियों को तो उनकी मनचाही जातीय पार्टी मिल ही गई थी। हालांकि पवन सिंह ठाकुरों के बारे में कुछ भी नहीं कहते कि वह किधर गए।
बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के लिए संघर्षरत एचएल दुसाध कहते हैं कि इन दलों को अपने मुद्दे पर लौटना होगा, दूसरा कोई रास्ता नहीं है कि यह दल अपने को बचा सकें। परिवार और जाति से ऊपर उठकर वंचित तबके की राजनीति करनी होगी। उनकी रोजी रोजगार के लिए लड़ना होगा, तभी यह दल फिर से जगह बना सकते हैं।
बहरहाल बसपा को अब शून्य से नहीं दोहरे शून्य से शुरुआत करनी है। एक लोकसभा का शून्य, और अब उसमें विधानसभा का भी शून्य जुड़ गया। सपा का भी कमोबेश यही हाल है। सपा और बसपा को कम से कम यह समझना होगा कि सामाजिक न्याय की राजनीति, हिस्सेदारी की राजनीति ही बचा सकती है। जातीय समीकरण बनाना न सपा के लिए संभव है और न बसपा के लिए। भाजपा और आरएसएस स्वाभाविक ब्राह्मणवादी राजनीतिक संगठन है। वह 5,000 साल से जाति के खिलाड़ी रहे हैं। उन्होंने पूरे समाज को 10,000 से ज्यादा जातियों में बांट रखा है। जाति पर चुनाव खेलने पर वही जीतेंगे।

बल्ली सिंह चीमा की कुछ पंक्तियां बहुत सामयिक हैं
तय करो किस ओर हो तुम, तय करो किस ओर हो
आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो।
खुद को पसीने में भिगोना ही नहीं है जिंदगी
रेंगकर मर-मर के जीना ही नहीं है जिंदगी
कुछ करो कि जिंदगी की डोर न कमजोर हो
तय करो किस ओर हो तुम, तय करो किस ओर हो
खोलो आंखें फंस न जाना तुम सुनहरे जाल में,
भेड़िये भी घूमते हैं आदमी की खाल में,
जिंदगी का गीत हो या मौत का कोई शोर हो।
तय करो किस ओर हो तुम, तय करो किस ओर हो।
सूट और लंगोटियों के बीच युद्ध होगा जरूर
झोपड़ों और कोठियों के बीच युद्ध होगा जरूर
इससे पहले युद्ध शुरू हो, तय करो किस ओऱ हो
तय करो किस ओर हो तुम, तय करो किस ओर हो
आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो।




Saturday, September 17, 2016

गोरक्षा के नाम पर शर्मसार होती मानवता


सत्येन्द्र पीएस


गोरक्षा के नाम पर गुजरात के ऊना में दलितों को बंधक बनाए जाने, बांधकर उनकी पिटाई किए जाने की घटना ने पूरी दुनिया में भारत को शर्मसार किया है। गाय की रक्षा के नाम पर मनुष्यों को मार दिए जाने की घटना दुनिया के किसी भी सभ्य समाज के लिए वीभत्स है।
हालांकि भारत में दलितों का उत्पीड़न नया नहीं है। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सत्ता में प्रभावी होने पर गोरक्षा कुछ ज्यादा ही जोर पकड़ लेता है। इसके पहले जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी थी, तब भी हरियाणा में कथित गोरक्षकों ने गाय का चमड़ा उतारने ले जा रहे दलितों की हत्या कर दी थी।
अब दोबारा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनने और आरएसएस के प्रभावी होने के बाद से गोरक्षक सड़कों पर हैं। देश के तमाम इलाकों से गुंडागर्दी, हत्या, मारपीट की खबरें आनी शुरू हो गईं। उत्तर प्रदेश के दिल्ली से सटे नोएडा इलाके में अखलाक को निशाना बनाया गया। मंदिर की माइक से ऐलान हुआ कि अखलाक के फ्रिज में गाय का मांस रखा है। भीड़ जुटी। उसने फैसला कर दिया। अखलाक को पीट पीटकर मार डाला गया।
उसके बाद पंजाब का एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें ट्रक पर गाय लादकर ले जा रहे कुछ सिखों को कुछ लोग बड़ी बेरहमी से लाठी डंडों से पीट रहे थे। इसके अलावा स्थानीय स्तर पर गाय की रक्षा के नाम पर गाय ले जा रहे लोगों के उत्पीड़न की खबरें आती रहती हैं। गुजरात के उना में मरे जानवर का चमड़ा उतारने ले जा रहे दलितों की पिटाई का वीडियो वायरल होने के कुछ दिनों पहले भी राज्य में कुछ दलितों की पिटाई हो चुकी थी, लेकिन जब ऊना मामले ने तूल पकड़ा तब जाकर उस मामले में आरोपियों को गिरफ्तार किया गया।
साफ है कि कानून की धमक कहीं नहीं दिख रही है। कथित गोरक्षक गुंडों को लगता है कि उनकी सरकार बन गई है और वह हर हाल में सुरक्षित हैं। उन्हें किसी को भी मारने पीटने का पूरा अधिकार मिल गया है।
हालांकि इस बीच प्रधानमंत्री ने एक कार्यक्रम के दौरान अजीबोगरीब बयान दिया। उन्होंने कहा, “मुझे गोली मार दो, लेकिन मेरे दलित भाइयों को मत मारो।” आखिर इसका क्या मतलब निकाला जाए? क्या प्रधानमंत्री के हाथ में कोई ताकत नहीं रह गई है? क्या प्रधानमंत्री कहना चाह रहे हैं कि गोरक्षा के नाम पर पिटाई उचित है और कोई दलित चमड़ा उतारता है उसे पीटने के बजाय प्रधानमंत्री को पीटा जाए? क्या प्रधानमंत्री कानून की रक्षा में सक्षम नहीं हैं? क्या प्रधानमंत्री सीधे अपील नहीं कर सकते कि यह अपराध न किया जाए? क्या प्रधानमंत्री को सचमुच नहीं पता है कि यह कौन कर रहा है? ऐसे तमाम सवाल हैं, जो प्रधानमंत्री के बयान के बाद उठते हैं।
भारत में सदियों से जातीय भेदभाव है। एक जाति विशेष के लोग ही मरे हुए जानवरों को निपटाते हैं। किसान या किसी के घर कोई जानवर मरता है तो उस जाति विशेष के लोगों को पशु के मरने के पहले ही सूचना दे दी जाती है। वह पशुओं को सिवान में ले जाते हैं, उनकी खाल उतारते हैं। खाल बेचने से उन्हें कुछ धन मिल जाता है। हां, गरीबी के दौर में मरे हुए जानवरों का मांस भी वह तबका खाता था, लेकिन अब शायद मांस खाने की स्थिति नहीं है। ओम प्रकाश बाल्मीकि और प्रोफेसर तुलसीराम ने अपने प्रसिद्ध उपन्यासों में खाल उतारने और मरे हुए जानवरों का मांस हासिल करने के लिए गिद्धों और दलित महिलाओं के बीच संघर्ष के बारे में बताया है।
यह कितना दुखद है कि जो काम दलित करते आए हैं, और कोई तबका वह काम करने को तैयार नहीं है, उसके लिए भी उन्हें पीटा जाता है। शायद पीटा जाना हिंदुत्व या हिंदू संस्कृति का एक अभिन्न अंग है, जिसके तहत एक दुश्मन खोजना जरूरी होता है, जिससे हिंदुत्व को बचाना होता है।
इस हिंदुत्व की रक्षा के लिए वह काल्पनिक दुश्मन मुस्लिम हो सकता है, इसाई हो सकता है, दलित हो सकता है, या नास्तिक हो सकता है। कोई भी। कभी भी। कुछ भी। एक दुश्मन होना जरूरी है, जिससे जंग छेड़नी है। जंग इसलिए कि हिंदुत्व बच सके। यह पता नहीं कैसा हिंदुत्व है, जो गाय या मरी हुई गाय की खाल में रहता है, जिसे बचाने की कवायद की जाती है।
हिंदुत्व की रक्षा के अजब गजब रूप और अजब गजब दुश्मन रहे हैं। हिंदू देवी देवता हथियारों से लैस हैं। हर देवी देवता के हाथ में असलहे हैं। मुस्लिम नहीं थे, तब यह देवता धर्म की रक्षा के लिए लड़ते थे। आखिर किससे लड़ते थे? उल्लेख तो मिलता है कि वैदिक यज्ञों में गायों की बलि दी जाती थी। इस बलि प्रथा और खून खराबे की वजह से ही जैन और बौद्ध धर्म का उद्भव हुआ था, जो यज्ञों की हिंसा के पूरी तरह खिलाफ थे। आखिर में वे कौन लोग थे, जो वैदिक हिंसा के विरोधी थे और वैदिक यज्ञों को तहस नहस करने के लिए तत्पर रहते थे। इन्ही राक्षसों से यज्ञों की रक्षा के लिए वैदिक देवता हमेशा हथियार लिए फिरते थे।
अब नए दौर में गोरक्षा का प्रभार कुछ संगठनों ने संभाल लिया है। गोरक्षक दल, गोसेवा दल जैसे कितने संगठन आ गए हैं, जो अभी गोआतंकी बने घूम रहे हैं।
अहम बात यह है कि ऊना की घटना का जोरदार विरोध हुआ। गुजरात ही नहीं, महाराष्ट्र में भी तमाम रैलियां निकलीं। संसद में विपक्षी दलों ने इस मसले को उठाया। वहीं गुजरात में अहमदाबाद से ऊना तक की पदयात्रा और उसके बाद ऊना में सभा का आयोजन हुआ। युवा वकील जिग्नेश शाह इस आंदोलन के अगुआ बनकर उभरे। हालांकि पहले वह आम आदमी पार्टी से जुड़े थे, लेकिन विवादों के बाद उन्होने आम आदमी पार्टी से इस्तीफा देने की घोषणा कर दी। उन्होंने कहा कि सिर्फ दलित आंदोलन उनका मकसद है और गुजरात के आंदोलन में आम आदमी पार्टी की कोई भूमिका नहीं रही है।
इस आंदोलन के बाद गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को पद छोड़ना पड़ा। भले ही सरकार ने तमाम अन्य वजहें गिनाईं, आनंदीबेन की उम्र का हवाला दिया गया। लेकिन माना जा रहा है कि पाटीदार आरक्षण आंदोलन के बाद दलित आंदोलन ने मुख्यमंत्री के इस्तीफे में अहम भूमिका निभाई।
इन आंदोलनों व विरोध प्रदर्शनों का असर जो भी नजर आ रहा हो, लेकिन भारतीय जनता पार्टी का मातृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सेहत पर इससे कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा है। आगरा में 21 अगस्त 2016 को आयोजित एक कार्यक्रम में गोरक्षकों पर उठ रहे सवाल को लेकर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि गोरक्षा का काम कानून के दायरे में चल रहा है, अगर किसी को शंका होती है तो भला बुरा कह सकता है। उन्होंने कहा कि गोरक्षा के काम ही उनके लिए उत्तर है, जो पहले विरोधी थे वह भी गोरक्षा के काम को देखकर समर्थन में आ गए। भागवत ने कहा कि गोरक्षा की गतिविधियां चल रही हैं और आगे भी चलती रहेंगी, गोरक्षक अच्छा काम कर रहे हैं। आशय साफ है। आरएसएस समाज के ध्रुवीकरण के पक्ष में खड़ा है। गोरक्षा की आड़ में वह सियासी रोटियां सेंकने को तैयार है। उत्तर प्रदेश में अगले साल की शुरुआत में चुनाव होने को हैं और गुजरात मामला अभी शांत नहीं हुआ है। वहीं आरएसएस ने उत्तर प्रदेश के आगरा शहर से साफ संकेत दे लिया कि गोरक्षा के नाम पर जो चल रहा है, वह चलते रहना चाहिए।
प्रधानमंत्री के दलित प्रेम से भी यही छलकता हुआ दिख रहा है। उन्हें अखलाक की घटना स्वीकार्य है, दलितों के ऊपर सीधा हमला स्वीकार नहीं है। परोक्ष रूप से वह इस मामले को हिंदू और मुस्लिम ध्रुवीकरण तक ही सीमित रखना चाहते हैं। दलितों व पिछड़ों के बारे में प्रधानमंत्री की सोच का पता उनके 23 अगस्त 2016 के दिल्ली के एनडीएमसी हॉल में सभी 29 राज्यों और 7 केंद्रशासित प्रदेशों से आए पार्टी के नेताओं के सम्मेलन में दिए गए बयान से चलता है। मोदी ने कहा कि राष्ट्रवादी तो हमारे साथ हैं, हमें दलित और पिछड़ों को साथ लाना है। शायद उनका आशय यह था कि अपर कास्ट राष्ट्रवादी होता है और दलित पिछड़े अराष्ट्रवादी, राष्ट्रदोही या कुछ और हैं। वे राष्ट्रवादी नहीं हैं और उन्हें राष्ट्र से शायद कोई प्रेम नहीं है।
कुल मिलाकर सरकार का रोना धोना और दलित उत्पीड़न की घटनाओं का विरोध जताना एक दिखावटी कवायद ज्यादा बन गई है। शायद भाजपा आरएसएस और उनके अनुषंगी संगठनों को यह संदेश साफ जाता है कि उन्हें किसे पीटना है और किसके खिलाफ गुंडागर्दी करनी है। गुजरात में ऐसा हुआ भी। प्रधानमंत्री के लाख रोने गाने के बावजूद जब ऊना में दलित रैली खत्म हो रही थी तो दलितों पर हमले हो गए। दरबार यानी काठी दरबार गुजरात के क्षत्रिय हैं जिनकी सौराष्ट्र में कभी 250 से ज्याीदा रियासतें हुआ करती थीं। इस समुदाय ने ऊना की रैली से लौटते दलितों पर लाठी, तलवार और बंदूक से हमला किया।
गुजरात में दलित चेतना नई बात नहीं है। बड़ौदा के महाराज सयाजी राव गायकवाड़ ने 1882-83 में सभी के लिए अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान कर दिया था और बड़ौदा, नवसारी, पाटन व अमरेली में चार अंत्यएज स्कू ल व हॉस्टाल खुलवाए थे। 1939 में उनकी मृत्यु हुई। उसके बाद 1931 में बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के अहमदाबाद आगमन के बाद से यहां आंबेडकरवादी विचारधारा का जो काम चालू हुआ, वह अभी जमीनी स्तसर पर चालू है। गुजरात में दलितों के घर में बाबा साहेब की तस्वींरों लगी हुई नजर आती हैं। कांग्रेस का मजदूर महाजन संघ, आर्य समाज, आंबेडकर का बनाया शेड्यूल कास्टी फेडरेशन, कांग्रेस का हरिजन सेवक संघ, बौद्ध महासंघ आदि तमाम संगठनों के मिले जुले काम ने दलितों की चेतना जगाने का काम किया है।
हालांकि गुजरात में बाबाओं का प्रकोप भी कम नहीं है। सौराष्ट्रस में भी काठियावाड़ के जो दलित हैं, उनमें अस्सीा प्रतिशत जैसलमेर के रामदेवरा धाम के भक्तड हैं। रामदेव स्वािमी जाति से क्षत्रिय थे, लेकिन दलितों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। गुजरात में रामदेव स्वा मी के दो मंदिर हैं। जामनगर से भावनगर तक के दलित वहां हर साल मंडप नामक त्योकहार में जाते हैं और अलग अलग जाति के लोगों के साथ मिलकर पूजा अर्चना करते हैं। इनके अलावा सवैयानाथ से लेकर जालाराम तक तमाम संत हुए, जिनकी भक्ति दलित करते हैं। इसमें संत की जाति नहीं देखी जाती। संतों की आराधना के मामले में दलितों के साथ भेदभाव गुजरात में मिट चुका है।
गुजरात के दलितों के बीच सामाजिक सुधार की जो प्रमुख धारा करीब सौ साल से मौजूद रही है, वह आज कहीं कहीं राष्ट्रावादी राजनीति के रूप में नजर आती है। सौराष्ट्र के दलितों के धर्मगुरु शम्भूतनाथ बापू हैं। वे राज्यिसभा में भाजपा सांसद हैं। पाकिस्तालन के सिंध में भी उनके करीब दो लाख अनुयायी रहते हैं। जाति से वे खुद दलित हैं और दलितों की जमकर हिमायत करते हैं, लेकिन अपनी पार्टी लाइन के खिलाफ कभी नहीं जाते। 21 जुलाई 2016 को राज्यलसभा में शम्भू नाथ बापू ने ऊना मामले पर जोरदार भाषण दिया, लेकिन उनका सामाजिक न्याूय बीजेपी की सत्ता की पुष्टि करने में लगा रहा। कुल मिलाकर दलित या शोषण का मसला अपने राजनीतिक स्वार्थ या विचारधारा के खांचे में बंधा हुआ नजर आता है।
इसके पहले भी गुजरात में दलित आंदोलन हुए हैं। 1980 के आसपास आरक्षण विरोधी आंदोलन हुआ था, जिसमें दलितों को निशाना बनाया गया। उस समय भी दलितों पर कहानियां लिखी गईं, उसे प्रचारित प्रसारित किया गया। दलितों ने प्रतिज्ञा की कि वे मरे जानवरों को नहीं उठाएंगे। हालांकि इसका कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया। तीन साल पहले जूनागढ़ में 80,000 दलितों ने एक साथ बौद्ध धर्म में दीक्षा लेकर तूफान खड़ा कर दिया था। इस पर भी कोई खास हलचल नहीं हुई।
फिलहाल इस आंदोलन से भाजपा के विरोधी खासे खुश हैं। खासकर गुजरात को लेकर कांग्रेस उत्साह में है। आम आदमी पार्टी भी इस मामले को भुनाने में लगी है। दलित वहीं के वहीं खड़े हैं। गुजरात में दलित चेतना अन्य राज्यों की तुलना में ज्यादा ही है। इसके बावजूद कांग्रेस व भाजपा दोनों ने ही दलितों को अलग थलग रखा है। माना जाता है कि दलित ज्यादातर कांग्रेस को अपना वोट देते हैं, लेकिन कांग्रेस के लिए भी गुजरात के दलित वोटर से ज्यादा कुछ नहीं हैं। अनुमान के मुताबिक राज्य में महज 6 प्रतिशत दलित हैं। ऐसे में न तो वह लोकतंत्र में वोट की राजनीति के सशक्त प्रहरी बन पा रहे हैं, न ही अपने संवैधानिक हक का इस्तेमाल कर पा रहे हैं। इन 6 प्रतिशत मतों की अन्य किसी वर्ग मसलन पिछड़े या मुस्लिम या किसी अन्य के साथ लाबीयिंग भी नहीं है, जिससे मतदान के वक्त ये सशक्त मतदाता बनकर कुछ कर दिखाने या राजनीतिक बदलाव लाने में सक्षम हों।
ऊना में दलितों पर हुए हमले और उसके असर को देखने के लिए अभी बहुत कुछ देखना बाकी है। अगर गुजरात के अलावा इसे पंजाब, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र के संदर्भ में देखें, जहां दलितों की निर्णायक आबादी है, तो इसके राजनीतिक निहितार्थ और असर देखना अभी बाकी है।

Friday, September 16, 2016

झूठे जग की झूठी प्रीत, कैसी हार और किसकी जीत




(सामाजिक न्याय के पुरोधा एक बार फिर खींचतान में फंस गए हैं। इनसे आस लगाए बैठा समाज निराश है। इन पुरोधाओं से उम्मीद थी कि यह हिंदुत्व, गाय, गोबर और गोमूत्र की राजनीति से निकालकर राह दिखाएंगे, लेकिन यह अपने ही विवादों में फंसे और पतनोन्मुख नजर आ रहे हैं।)

सत्येन्द्र पीएस

उत्तर प्रदेश में सत्तासीन समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के परिवार में घमासान मची है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने दो कैबिनेट मंत्रियों गायत्री प्रसाद प्रजापति और राजकिशोर सिंह को बर्ख़ास्त कर दिया। गायत्री जहां मुलायम सिंह के करीबी माने जाते हैं, वहीं राजकिशोर शिवपाल सिंह यादव के खासमखास हैं। इसके पहले भी इस परिवार में कई बार टकराव की स्थिति आई है।
मऊ के विधायक मुख्तार अंसारी को शिवपाल ने सपा में शामिल होने की घोषणा की, वहीं अखिलेश ने इसके खिलाफ बयान दे दिया। आखिरकार मुलायम सिंह के हस्तक्षेप के बाद किसी तरह से बवाल टला। उसके कुछ दिन ही बीते थे कि शिवपाल ने इस्तीफे की पेशकश कर दी। मंत्रियों की बर्खास्तगी पर पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह की प्रतिक्रिया थी कि यह जानकारी उन्हें समाचार माध्यमों से मिली।
मंत्रियों की बर्खास्तगी के विवाद को 24 घंटे भी नहीं बीते थे कि अखिलेश ने मुख्य सचिव दीपक सिंघल को हटा दिया। सिंघल ने दो महीने पहले ही मुख्य सचिव का पदभार ग्रहण किया था। उनकी जगह प्रमुख सचिव (वित्त) राहुल भटनागर को नया मुख्य सचिव नियुक्त किया गया। सिंघल को शिवपाल का करीबी माना जाता है, जो मुख्य सचिव बनने के पहले सिंचाई विभाग में प्रमुख सचिव थे। सिंचाई विभाग के मंत्री शिवपाल यादव हैं और माना जाता है कि उन्हीं के दबाव में सिंघल को मुख्य सचिव बनाया गया था। सपा के कुछ नेताओं का मानना है कि सिंघल सपा के राज्यसभा सदस्य अमर सिंह द्वारा दिल्ली में दिए गए रात्रिभोज में शामिल हुए थे, जिससे अखिलेश नाखुश थे।

उधर बिहार में अलग बवाल मचा है। राष्ट्रीय जनता दल के बाहुबली नेता शहाबुद्दीन जेल से रिहा हो गए। छूटते ही उन्होंने कहा कि नीतीश कुमार तो परिस्थितिवश मुख्यमंत्री बने हैं, नेता तो लालू प्रसाद हैं। वहीं नीतीश पर लगातार हमलावर रहे राजद उपाध्यक्ष रघुवंश प्रसाद सिंह ने भी शहाबुद्दीन का समर्थन कर दिया। हमले के बीच नीतीश ने कहा कि उन्हें कौन क्या कहता, उसकी वह परवाह नहीं करते। वहीं जदयू के वरिष्ठ नेता बिजेंद्र प्रसाद यादव व ललन सिंह ने मीडिया से बातचीत कर राजद प्रमुख लालू प्रसाद से अपील की कि गैर जिम्मेदाराना बयान देने वाले नेताओं पर लगाम लगाएं।

शुक्र है कि लालू प्रसाद का बयान आ गया कि गठबंधन के सर्वमान्य नेता नीतीश कुमार हैं। इसमें कहीं से किसी को संदेह की जरूरत नहीं है। रघुवंश बाबू की लगातार बयानबाजी पर भी उन्होंने अपना पक्ष साफ करते हुए कहा गया है कि पार्टी नेताओं को मीडिया में ऐसी बयानबाजी से बचने को कहा गया है, लेकिन बड़े नेता कुछ न कुछ बोल रहे हैं। हालांकि शहाबुद्दीन के बयान में लालू को कोई खामी नजर नहीं आई और उन्होंने कहा कि अपने दल के प्रमुख की प्रशंसा करना कहीं से गलत नहीं है!
उत्तर प्रदेश और बिहार के यह दो नेता लालू प्रसाद और मुलायम सिंह सामाजिक न्याय के पहरुआ माने जाते हैं। पिछड़े वर्ग के लोग जब भी खुद को पीड़ित या दबा महसूस करते हैं, मुंह उठाकर इन दो नेताओं की ओर देखते हैं। 2014 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी / आरएसएस की शानदार जीत के बाद जब पिछड़ा तबका हाशिए पर महसूस करने लगा तो उसने इन नेताओं की ओर देखा। बिहार में विधान सभा चुनाव होने वाले थे। लालू प्रसाद और नीतीश कुमार ने सक्रिय कोशिश करना शुरू किया कि समाजवादियों को एक झंडे के नीचे लाया जाए। तमाम बैठकें हुईं। पुराने जनता दली नेताओं ने मिलकर मुलायम सिंह यादव को महागठबंधन का नेता भी घोषित कर दिया। सामाजिक न्याय के पुरोधाओं से उम्मीद की जाने लगी कि राष्ट्रीय स्तर पर कोई कामन मिनिमम प्रोग्राम बनेगा और अब पिछड़े वर्ग का राजनीतिक अस्तित्व बचाया जा सकेगा।

बिहार विधानसभा चुनाव के पहले ही महागठबंधन की हवा निकल गई। सपा में शिवपाल लॉबी जहां संयुक्त एकता के पक्ष में थी, वहीं रामगोपाल-अखिलेश लॉबी इसके खिलाफ थी। रामगोपाल यादव ने सार्वजनिक बयान भी दिया कि दलों का विलय व्यावहारिक नहीं है। आखिरकार सपा अलग हो गई। इसके बावजूद शिवपाल यादव ने व्यक्तिगत स्तर पर जाकर राजद और जदयू गठबंधन का प्रचार किया। फिर भी एका की हवा निकल चुकी थी। मुलायम कुनबे में शिवपाल यादव जमीनी नेता रहे हैं। जब नेता जी दिल्ली और राष्ट्रीय स्तर की राजनीति करते थे तो उन्हें पहले विधानसभा और फिर लोकसभा में पहुंचाने के लिए स्थानीय लेवल पर लठैती करने का काम शिवपाल यादव संभालते थे।

अगर मुलायम के किसी जीवनीकार ने ईमानदारी दिखाई होगी तो इस पहलू पर जरूर प्रकाश डाला होगा कि मुलायम सिंह यादव को राष्ट्रीय स्तर पर नेताजी बनाने में शिवपाल नींव के पत्थर थे। बावजूद इसके, जब सपा 2012 में विधानसभा चुनाव जीती तो अचानक अखिलेश यादव ने शिवपाल को पीछे छोड़ दिया। बिहार में लालू प्रसाद के बड़े बेटे तेज प्रताप यादव कैबिनेट मंत्री हैं, वहीं तेजस्वी यादव उप मुख्यमंत्री। मतलब नीतीश कुमार के बाद दूसरे स्थान पर। लालू प्रसाद के दल में भी निश्चित रूप से रघुबंश बाबू और अब्दुल बारी सिद्दीकी को भी उम्मीदें रही होंगी, भले ही ये नेता लालू प्रसाद के परिवार के नहीं रहे हैं। बहरहाल लालू प्रसाद के दोनों पुत्र ठीक उसी तरह राजद के सबसे बड़े नेता बन गए, जैसे मुलायम सिंह के पुत्र अखिलेश यादव बने थे।

पिछड़ा वर्ग विकल्पहीन है। शरद यादव का जनाधार नहीं है, जिनके परिवार के बारे में कोई जानता नहीं। परिवारवाद से कोसों दूर नीतीश कुमार का रुख साफ नहीं रहता। लगातार 17 साल भाजपा के साथ रहे और लोकसभा चुनाव के पहले धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अलग हो गए। नीतीश कुमार ने न तो कभी पिछड़े वर्ग के पक्ष में खुलकर बयान दिया और न ही वर्गीय हित को लेकर कोई आंदोलन या लड़ाई छेड़ी। वहीं मुलायम और लालू ने शुरुआती दिनों में पिछड़े वर्ग के लिए समाज में खुलकर लोहा लिया। बाद में यह दोनों यादव नेता हुए। इनकी सीमाएं सिमटते सिमटते अब अपने परिवार के नेता तक पहुंच गई। निश्चित रूप से इस आइडेंडिटी पॉलिटिक्स ने उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस को और उसके बाद भाजपा को शीर्षासन करा दिया। यह दोनों दल जीत के लिए तरस गए।

स्वाभाविक है कि नेताओं को जनता का जबरदस्त प्यार मिला। नेताओं ने प्यार वापस भी किया। कुछ हद तक पिछड़े वर्ग का उत्थान भी हुआ। विभिन्न क्षेत्रों में पिछड़े चेहरे दिखाई देने लगे। अब पिछड़े वर्ग के युवा पढ़ रहे हैं। चीजों को अपने नजरिए से समझ रहे हैं। एका भी बनी है। तमाम विश्वविद्यालयों में पिछड़े वर्ग के छात्रनेता निकल रहे हैं। हालांकि इन कुनबों की राजनीति और आपसी खींचतान में एक निराशा नजर आती है। स्वाभाविक रूप से लालू प्रसाद से उम्मीद थी कि बिहार विधानसभा चुनाव के बाद वह दिल्ली में बैठेंगे और केंद्र की राजनीति करेंगे। उसी तरह से मुलायम सिंह यादव से भी उम्मीद थी कि वह राष्ट्रीय स्तर पर एकता बनाकर केंद्रीय राजनीति में सशक्त हस्तक्षेप करेंगे।

इन ताजा विवादों से वंचित तबके, या कहें कि इन नेताओं से आस लगाए बैठे लोगों की उम्मीदें तार तार हो रही हैं। एक राजनीतिक हताशा सामने आ रही है कि अब आगे क्या ? क्या कोई नेता ऐसा आएगा, जो संकीर्णताओं से ऊपर उठकर पिछड़े वर्ग का नेता बने। पूरे समाज का नेता तो बनना दूर, पारिवारिक विवादों में उलझी क्षेत्रवादी राजनीति एक बार फिर अपने समर्थकों को निराशा की गर्त में ढकेल रही है।

इस काली आधी रात को बेगम अख्तर का गाया गीत ही बेहतर नजर आ रहा है....
झूठे जग की झूठी प्रीत।
दुनिया का दिन रैन का सपना
मोह नगर में चैन का सपना,
रूप अनूप है नैन का सपना
कैसी हार और किसकी जीत

Tuesday, September 13, 2016

आखिर कौन लोग हैं जो यह प्रचारित कर रहे हैं कि दलितों के असल शोषक पिछड़े वर्ग के लोग हैं ?


सत्येन्द्र पीएस

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में स्टूडेंट यूनियन चुनाव के बाद एक चर्चा जोरों पर है। बापसा (बिरसा अंबेडकर, फुले स्टूडेंट एसोसिएशन) दलित आदिवासी और मुस्लिम का संगठन है। बापसा को आरएसएस ने खड़ा किया, जिससे वाम दलों के वोट काटे जा सकें। बापसा उग्र वामपंथियों का संगठन है, खासकर इसके पीछे माओवादियों का वह तबका खड़ा है जो संविधान और मौजूदा भारतीय प्रणाली में विश्वास नहीं रखता।
बापसा, बापसा, बापसा। कुल मिलाकर बापसा चर्चा में है।
बहरहाल... नवोदित विद्यार्थी संगठन ने दलित-पिछड़े का मसला भी छेड़ दिया है। जेएनयू में चर्चा रही कि इस संगठन से पिछड़ा वर्ग बाहर है। कैंपस में यह भी चर्चा रही कि बापसा पिछड़ों को ही दलितों का सबसे बड़ा शोषक मानती है।

हालांकि दलित शब्द भ्रामक और असंवैधानिक है। इसकी अलग अलग व्याख्याएं की जा सकती हैं। लेकिन अगर समाज में कहीं भी दलित कहा जाए तो उसका मतलब अनुसूचित जातियों से ही होता है। कुछ मामलों में अनुसूचित जनजातियों को भी दलित कहा जाता है। कम से कम उत्तर भारत के किसी भी राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) अपने को दलित नहीं मानता।
मुझे याद है कि 1991 में विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार द्वारा मंडल आयोग की सिफारिशें स्वीकार किए जाने के बाद जब मंडल विरोधी आंदोलन चला तो इसमें आधे से ज्यादा छात्र पिछड़े वर्ग के हुआ करते थे। एक सामान्य धारणा थी कि विपिया ने हमारा सब कुछ छीन लिया और अब चमार सियार ही नौकरी पाएंगे। यह अपर कास्ट ही नहीं, उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर ओबीसी स्टूडेंट्स कहते थे।
धीरे-धीरे मामला साफ हुआ। उच्च जाति, खासकर जोर शोर से क्षत्रिय बनने की कवायद में लगी हजारों की संख्या में जातियों ने एक हद तक खुद को ओबीसी मान लिया।
हालांकि ओबीसी में वर्ग चेतना आज भी नहीं है। ओबीसी राजनीति जाति चेतना तक ही सिमटी रही। राज्य स्तर पर दबंग ओबीसी जातियां अपनी जाति को एकीकृत कर और तमाम अन्य पिछड़ी जातियों के नेताओं का क्लस्टर बनाकर, मुस्लिम समुदाय का वोट खींचकर सत्ता में आती और जाती रहीं। खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार का समीकरण तो कुछ ऐसा ही रहा। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के करीब 25 साल बाद भी अभी ओबीसी वर्ग नहीं बन सका, जिसका वर्ग हित हो। हालांकि यह वर्ग बनने की प्रक्रिया में है।

अन्य पिछड़े वर्ग की सोच सामंती है और यह तबका कथित उच्च वर्ण से भी ज्यादा दलितों का शोषण करता है, यह चर्चा बापसा तक ही सीमित नहीं है। उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के पहले सोशल मीडिया पर जबरदस्त चर्चा है कि पिछड़ा वर्ग ही दलितों का दुश्मन नंबर वन है।

इतना ही नहीं, बसपा छोड़कर बाहर जाने वाले नेताओं ने यह दावा किया कि बसपा अब दलित-ब्राह्मण-मुस्लिम समीकरण पर चल रही है। उसे न तो बसपा से टिकट मिलने की संभावना है, न सम्मान। सोशल मीडिया पर सक्रिय दलित युवा और लेखक भी यह पूरे जोश के साथ लिखते हैं कि ब्राह्मणवाद का असल वाहक या कहें कि रीढ़ पिछड़ा वर्ग है।
यह अपने आप में भ्रामक और खतरनाक प्रवृत्ति लगती है, जब यह प्रचारित किया जा रहा है कि दलितों के असल शोषक पिछड़े ही हैं।
वहीं दलित वर्ग का एक तबका (कुछ को यह कहने में आपत्ति होती है और वह खुद को बहुजन विचारक कहना पसंद करते हैं, हालांकि उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी ही अब सर्वजन के नारे के साथ आगे बढ़ रही है) इसे पूरे उत्साह के साथ कह रहा है कि सवर्ण से ज्यादा दलितों का शोषण ओबीसी करता है।
आइए दलित पिछड़े तबके के स्वतंत्रता के बाद की राजनीति को खंगाल लेते हैं। मंडल आयोग लागू होने के बाद ओबीसी में जो भी जातियां शामिल की गई हैं, वे ज्यादातर कांग्रेस के खिलाफ रही हैं। चाहे वह जेपी आंदोलन हो या वीपी आंदोलन या मोदी आंदोलन। जब जब कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई है, किसी न किसी बहाने ओबीसी में शामिल जातियां एकत्र हुईं, उसके बाद कांग्रेस परास्त हुई। यह अलग बात है कि ओबीसी तबका कभी यूनिटी नहीं बना पाया और वह वर्ग के रूप में कभी एकत्र नहीं हुआ। ध्यान देने वाली बात यह है कि भाजपा के अस्तित्व में आने के पहले भी ओबीसी जातियां कांग्रेस के खिलाफ रही हैं। वहीं यह खुली सी बात है कि अब तक कांग्रेस ने ब्राह्मणवादी राजनीति की है। स्वतंत्रता के पूर्व तो अंग्रेज मान चुके थे और तमाम इतिहासकारों ने लिखा भी कि कांग्रेस हिंदुओं की पार्टी है और मुस्लिम लीग मुसलमानों की। हां, कांग्रेस के हिंदू कौन लोग थे, यह उनके नेतृत्व करने वाले तबके को देखकर समझा जा सकता है।
डॉ भीमराव आंबेडकर कांग्रेस को पूरी तरह ब्राह्मणवादी और जातिवाद का पोषक मानते थे। जाति व्यवस्था, हिंदुत्व आदि को श्रेष्ठ बताने के चलते उन्होंने तमाम लेखों में मोहनदास करमचंद गांधी की खिंचाई की है।
साथ ही आर्य समाज के पुरोधाओं के साथ आंबेडकर के पत्र व्यवहार भी पठनीय हैं, जो दलितों और पिछड़ों के शोषण को लेकर एक नजरिया पेश करते हैं।
आज की स्थिति पर गौर करें तो अनुसूचित जनजाति भी एक वर्ग के रूप में संगठित नहीं हो पाया है। हालांकि अगर उत्तर प्रदेश व बिहार को छोड़ दें तो राजस्थान, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, गुजरात, उत्तराखंड सहित तमाम राज्यों में, जहां कांग्रेस सत्ता पक्ष या विपक्ष में है, वहां अनुसूचित जाति या कहें कि दलित मतदाता कांग्रेस के साथ है। वही कांग्रेस, जिसे आंबेडकर से लेकर बड़े बड़े दलित चिंतकों ने सवर्णो की, ब्राह्मणों की पार्टी करार दिया था।
कांशीराम ने दलित पिछड़ा पसमांदा को एकजुट करने के लिए बुद्ध से शब्द और विचार उधार लिया और "बहुजन" शब्द को स्थापित किया। कांशीराम के बहुजन की बात होती है तो उसमें अलग से बताने की जरूरत नहीं रहती कि किनकी की जा रही है।
कांशीराम ने जेनयू में कहा था, ‘दलित शब्द भिखारी का प्रतीक है, मैंने अपने समाज को जोड़ने के लिए, उसको मांगने वाला से देने वाला बनाने के लिए तो बहुजन शब्द इस्तेमाल किया और आप लोग फिर से दलित पिछड़ा को अलग अलग करने की ब्राह्मणवादी परियोजना का हिस्सा बन गए।’ इस तरह से कांशीराम ने दलित-बहुजन शब्द का इस्तेमाल करने वाले लोगों को कड़ा जवाब दिया था और साफ किया था कि बहुजन की परिभाषा में देश की 85 प्रतिशत आबादी आ जाती है, चाहे वह किसी धर्म से जुड़ा हुआ हो।

वहीं बापसा या अन्य तमाम संगठनों के दलित का कंसेप्ट साफ नहीं है। कम से कम पिछड़ा वर्ग अपने को न तो दलित समझता है और न वह दलित है। और आज की राजनीति की हकीकत यह है कि जब तक कांशीराम वाला बहुजन (मायावती का सर्वजन नहीं) एक साथ नहीं आता है, तब तक वंचित तबके की मजबूती नहीं होने वाली है।

भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने, उसके प्रति पिछड़े वर्ग का प्रेम सर्वविदित है। हालांकि केंद्र सरकार के ढाई साल के कार्यकाल के दौरान खासकर पिछड़े वर्ग में सरकार के प्रति मोहभंग साफ नजर आ रहा है। किसान और निम्न मध्यम वर्ग पर तगड़ी मार पड़ी है। चाहे रेल भाड़ा बढ़ने का मामला हो, अनाज के न्यूनतम समर्थन मूल्य, गन्ने का उचित एवं लाभकारी मूल्य न बढ़ने का मामला हो, मार इसी तबके पर पड़ रही है। किसानों के खेत में जब प्याज होती है तो वह आज एक रुपये किलो बिक रही है, वहीं उन किसानों को सहारा देने वाले, सिपाही, क्लर्क, फौजी, अर्धसैनिक बल सहित निजी क्षेत्र में कम वेतन पर काम कर शहरों में रह रहे उनके भाई बंधु 15 रुपये किलो प्याज खरीदते हैं। किसानों की खेती करने की लागत बढ़ी है और असंतोष बढ़ा है। ध्यान रहे कि गांवों में अब पिछड़े वर्ग की संख्या ही ज्यादा मिलती है। खेत मजदूर और उच्च सवर्ण कहे जाने वाले ज्यादातर लोग गांवों से निकल चुके हैं। साफ है कि खासकर हिंदी पट्टी में हर हर मोदी का नारा लगाने वाले ग्रामीण तबाह हैं।
लेकिन इस बीच यूपी का चुनाव आते आते दलित और पिछड़े तबके को लड़ाने का मकसद क्या हो सकता है? आखिर यह विमर्श किसने छेड़ दिया है कि दलित वर्ग का सबसे बड़ा दुश्मन ओबीसी है? यह खतरनाक विमर्श है, जिसमें ओबीसी व एससी दोनों ही वर्ग को खासा नुकसान होने जा रहा है।

Friday, August 26, 2016

दलित आंदोलन और मौजूदा आक्रोश



सत्येन्द्र पीएस


गोरक्षा के नाम पर गुजरात के ऊना में दलितों को बंधक बनाए जाने, बांधकर उनकी पिटाई किए जाने की घटना ने पूरी दुनिया में भारत को शर्मसार किया है। गाय की रक्षा के नाम पर मनुष्यों को मार दिए जाने की घटना दुनिया के किसी भी सभ्य समाज के लिए वीभत्स है।
हालांकि भारत में दलितों का उत्पीड़न नया नहीं है। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सत्ता में प्रभावी होने पर गोरक्षा कुछ ज्यादा ही जोर पकड़ लेता है। इसके पहले जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी थी, तब भी हरियाणा में कथित गोरक्षकों ने गाय का चमड़ा उतारने ले जा रहे दलितों की हत्या कर दी थी।
अब दोबारा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनने और आरएसएस के प्रभावी होने के बाद से गोरक्षक सड़कों पर हैं। देश के तमाम इलाकों से गुंडागर्दी, हत्या, मारपीट की खबरें आनी शुरू हो गईं। उत्तर प्रदेश के दिल्ली से सटे नोएडा इलाके में अखलाक को निशाना बनाया गया। मंदिर की माइक से ऐलान हुआ कि अखलाक के फ्रिज में गाय का मांस रखा है। भीड़ जुटी। उसने फैसला कर दिया। अखलाक को पीट पीटकर मार डाला गया।
उसके बाद पंजाब का एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें ट्रक पर गाय लादकर ले जा रहे कुछ सिखों को कुछ लोग बड़ी बेरहमी से लाठी डंडों से पीट रहे थे। इसके अलावा स्थानीय स्तर पर गाय की रक्षा के नाम पर गाय ले जा रहे लोगों के उत्पीड़न की खबरें आती रहती हैं। गुजरात के उना में मरे जानवर का चमड़ा उतारने ले जा रहे दलितों की पिटाई का वीडियो वायरल होने के कुछ दिनों पहले भी राज्य में कुछ दलितों की पिटाई हो चुकी थी, लेकिन जब ऊना मामले ने तूल पकड़ा तब जाकर उस मामले में आरोपियों को गिरफ्तार किया गया।
साफ है कि कानून की धमक कहीं नहीं दिख रही है। कथित गोरक्षक गुंडों को लगता है कि उनकी सरकार बन गई है और वह हर हाल में सुरक्षित हैं। उन्हें किसी को भी मारने पीटने का पूरा अधिकार मिल गया है।
हालांकि इस बीच प्रधानमंत्री ने एक कार्यक्रम के दौरान अजीबोगरीब बयान दिया। उन्होंने कहा, “मुझे गोली मार दो, लेकिन मेरे दलित भाइयों को मत मारो।” आखिर इसका क्या मतलब निकाला जाए? क्या प्रधानमंत्री के हाथ में कोई ताकत नहीं रह गई है? क्या प्रधानमंत्री कहना चाह रहे हैं कि गोरक्षा के नाम पर पिटाई उचित है और कोई दलित चमड़ा उतारता है उसे पीटने के बजाय प्रधानमंत्री को पीटा जाए? क्या प्रधानमंत्री कानून की रक्षा में सक्षम नहीं हैं? क्या प्रधानमंत्री सीधे अपील नहीं कर सकते कि यह अपराध न किया जाए? क्या प्रधानमंत्री को सचमुच नहीं पता है कि यह कौन कर रहा है? ऐसे तमाम सवाल हैं, जो प्रधानमंत्री के बयान के बाद उठते हैं।
भारत में सदियों से जातीय भेदभाव है। एक जाति विशेष के लोग ही मरे हुए जानवरों को निपटाते हैं। किसान या किसी के घर कोई जानवर मरता है तो उस जाति विशेष के लोगों को पशु के मरने के पहले ही सूचना दे दी जाती है। वह पशुओं को सिवान में ले जाते हैं, उनकी खाल उतारते हैं। खाल बेचने से उन्हें कुछ धन मिल जाता है। हां, गरीबी के दौर में मरे हुए जानवरों का मांस भी वह तबका खाता था, लेकिन अब शायद मांस खाने की स्थिति नहीं है। ओम प्रकाश बाल्मीकि और प्रोफेसर तुलसीराम ने अपने प्रसिद्ध उपन्यासों में खाल उतारने और मरे हुए जानवरों का मांस हासिल करने के लिए गिद्धों और दलित महिलाओं के बीच संघर्ष के बारे में बताया है।
यह कितना दुखद है कि जो काम दलित करते आए हैं, और कोई तबका वह काम करने को तैयार नहीं है, उसके लिए भी उन्हें पीटा जाता है। शायद पीटा जाना हिंदुत्व या हिंदू संस्कृति का एक अभिन्न अंग है, जिसके तहत एक दुश्मन खोजना जरूरी होता है, जिससे हिंदुत्व को बचाना होता है।
इस हिंदुत्व की रक्षा के लिए वह काल्पनिक दुश्मन मुस्लिम हो सकता है, इसाई हो सकता है, दलित हो सकता है, या नास्तिक हो सकता है। कोई भी। कभी भी। कुछ भी। एक दुश्मन होना जरूरी है, जिससे जंग छेड़नी है। जंग इसलिए कि हिंदुत्व बच सके। यह पता नहीं कैसा हिंदुत्व है, जो गाय या मरी हुई गाय की खाल में रहता है, जिसे बचाने की कवायद की जाती है।
हिंदुत्व की रक्षा के अजब गजब रूप और अजब गजब दुश्मन रहे हैं। हिंदू देवी देवता हथियारों से लैस हैं। हर देवी देवता के हाथ में असलहे हैं। मुस्लिम नहीं थे, तब यह देवता धर्म की रक्षा के लिए लड़ते थे। आखिर किससे लड़ते थे? उल्लेख तो मिलता है कि वैदिक यज्ञों में गायों की बलि दी जाती थी। इस बलि प्रथा और खून खराबे की वजह से ही जैन और बौद्ध धर्म का उद्भव हुआ था, जो यज्ञों की हिंसा के पूरी तरह खिलाफ थे। आखिर में वे कौन लोग थे, जो वैदिक हिंसा के विरोधी थे और वैदिक यज्ञों को तहस नहस करने के लिए तत्पर रहते थे। इन्ही राक्षसों से यज्ञों की रक्षा के लिए वैदिक देवता हमेशा हथियार लिए फिरते थे।
अब नए दौर में गोरक्षा का प्रभार कुछ संगठनों ने संभाल लिया है। गोरक्षक दल, गोसेवा दल जैसे कितने संगठन आ गए हैं, जो अभी गोआतंकी बने घूम रहे हैं।
अहम बात यह है कि ऊना की घटना का जोरदार विरोध हुआ। गुजरात ही नहीं, महाराष्ट्र में भी तमाम रैलियां निकलीं। संसद में विपक्षी दलों ने इस मसले को उठाया। वहीं गुजरात में अहमदाबाद से ऊना तक की पदयात्रा और उसके बाद ऊना में सभा का आयोजन हुआ। युवा वकील जिग्नेश शाह इस आंदोलन के अगुआ बनकर उभरे। हालांकि पहले वह आम आदमी पार्टी से जुड़े थे, लेकिन विवादों के बाद उन्होने आम आदमी पार्टी से इस्तीफा देने की घोषणा कर दी। उन्होंने कहा कि सिर्फ दलित आंदोलन उनका मकसद है और गुजरात के आंदोलन में आम आदमी पार्टी की कोई भूमिका नहीं रही है।
इस आंदोलन के बाद गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को पद छोड़ना पड़ा। भले ही सरकार ने तमाम अन्य वजहें गिनाईं, आनंदीबेन की उम्र का हवाला दिया गया। लेकिन माना जा रहा है कि पाटीदार आरक्षण आंदोलन के बाद दलित आंदोलन ने मुख्यमंत्री के इस्तीफे में अहम भूमिका निभाई।
इन आंदोलनों व विरोध प्रदर्शनों का असर जो भी नजर आ रहा हो, लेकिन भारतीय जनता पार्टी का मातृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सेहत पर इससे कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा है। आगरा में 21 अगस्त 2016 को आयोजित एक कार्यक्रम में गोरक्षकों पर उठ रहे सवाल को लेकर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि गोरक्षा का काम कानून के दायरे में चल रहा है, अगर किसी को शंका होती है तो भला बुरा कह सकता है। उन्होंने कहा कि गोरक्षा के काम ही उनके लिए उत्तर है, जो पहले विरोधी थे वह भी गोरक्षा के काम को देखकर समर्थन में आ गए। भागवत ने कहा कि गोरक्षा की गतिविधियां चल रही हैं और आगे भी चलती रहेंगी, गोरक्षक अच्छा काम कर रहे हैं। आशय साफ है। आरएसएस समाज के ध्रुवीकरण के पक्ष में खड़ा है। गोरक्षा की आड़ में वह सियासी रोटियां सेंकने को तैयार है। उत्तर प्रदेश में अगले साल की शुरुआत में चुनाव होने को हैं और गुजरात मामला अभी शांत नहीं हुआ है। वहीं आरएसएस ने उत्तर प्रदेश के आगरा शहर से साफ संकेत दे लिया कि गोरक्षा के नाम पर जो चल रहा है, वह चलते रहना चाहिए।
प्रधानमंत्री के दलित प्रेम से भी यही छलकता हुआ दिख रहा है। उन्हें अखलाक की घटना स्वीकार्य है, दलितों के ऊपर सीधा हमला स्वीकार नहीं है। परोक्ष रूप से वह इस मामले को हिंदू और मुस्लिम ध्रुवीकरण तक ही सीमित रखना चाहते हैं। दलितों व पिछड़ों के बारे में प्रधानमंत्री की सोच का पता उनके 23 अगस्त 2016 के दिल्ली के एनडीएमसी हॉल में सभी 29 राज्यों और 7 केंद्रशासित प्रदेशों से आए पार्टी के नेताओं के सम्मेलन में दिए गए बयान से चलता है। मोदी ने कहा कि राष्ट्रवादी तो हमारे साथ हैं, हमें दलित और पिछड़ों को साथ लाना है। शायद उनका आशय यह था कि अपर कास्ट राष्ट्रवादी होता है और दलित पिछड़े अराष्ट्रवादी, राष्ट्रदोही या कुछ और हैं। वे राष्ट्रवादी नहीं हैं और उन्हें राष्ट्र से शायद कोई प्रेम नहीं है।
कुल मिलाकर सरकार का रोना धोना और दलित उत्पीड़न की घटनाओं का विरोध जताना एक दिखावटी कवायद ज्यादा बन गई है। शायद भाजपा आरएसएस और उनके अनुषंगी संगठनों को यह संदेश साफ जाता है कि उन्हें किसे पीटना है और किसके खिलाफ गुंडागर्दी करनी है। गुजरात में ऐसा हुआ भी। प्रधानमंत्री के लाख रोने गाने के बावजूद जब ऊना में दलित रैली खत्म हो रही थी तो दलितों पर हमले हो गए। दरबार यानी काठी दरबार गुजरात के क्षत्रिय हैं जिनकी सौराष्ट्र में कभी 250 से ज्याीदा रियासतें हुआ करती थीं। इस समुदाय ने ऊना की रैली से लौटते दलितों पर लाठी, तलवार और बंदूक से हमला किया।
गुजरात में दलित चेतना नई बात नहीं है। बड़ौदा के महाराज सयाजी राव गायकवाड़ ने 1882-83 में सभी के लिए अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान कर दिया था और बड़ौदा, नवसारी, पाटन व अमरेली में चार अंत्यएज स्कू ल व हॉस्टाल खुलवाए थे। 1939 में उनकी मृत्यु हुई। उसके बाद 1931 में बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के अहमदाबाद आगमन के बाद से यहां आंबेडकरवादी विचारधारा का जो काम चालू हुआ, वह अभी जमीनी स्तसर पर चालू है। गुजरात में दलितों के घर में बाबा साहेब की तस्वींरों लगी हुई नजर आती हैं। कांग्रेस का मजदूर महाजन संघ, आर्य समाज, आंबेडकर का बनाया शेड्यूल कास्टी फेडरेशन, कांग्रेस का हरिजन सेवक संघ, बौद्ध महासंघ आदि तमाम संगठनों के मिले जुले काम ने दलितों की चेतना जगाने का काम किया है।
हालांकि गुजरात में बाबाओं का प्रकोप भी कम नहीं है। सौराष्ट्रस में भी काठियावाड़ के जो दलित हैं, उनमें अस्सीा प्रतिशत जैसलमेर के रामदेवरा धाम के भक्तड हैं। रामदेव स्वािमी जाति से क्षत्रिय थे, लेकिन दलितों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। गुजरात में रामदेव स्वा मी के दो मंदिर हैं। जामनगर से भावनगर तक के दलित वहां हर साल मंडप नामक त्योकहार में जाते हैं और अलग अलग जाति के लोगों के साथ मिलकर पूजा अर्चना करते हैं। इनके अलावा सवैयानाथ से लेकर जालाराम तक तमाम संत हुए, जिनकी भक्ति दलित करते हैं। इसमें संत की जाति नहीं देखी जाती। संतों की आराधना के मामले में दलितों के साथ भेदभाव गुजरात में मिट चुका है।
गुजरात के दलितों के बीच सामाजिक सुधार की जो प्रमुख धारा करीब सौ साल से मौजूद रही है, वह आज कहीं कहीं राष्ट्रावादी राजनीति के रूप में नजर आती है। सौराष्ट्र के दलितों के धर्मगुरु शम्भूतनाथ बापू हैं। वे राज्यिसभा में भाजपा सांसद हैं। पाकिस्तालन के सिंध में भी उनके करीब दो लाख अनुयायी रहते हैं। जाति से वे खुद दलित हैं और दलितों की जमकर हिमायत करते हैं, लेकिन अपनी पार्टी लाइन के खिलाफ कभी नहीं जाते। 21 जुलाई 2016 को राज्यलसभा में शम्भू नाथ बापू ने ऊना मामले पर जोरदार भाषण दिया, लेकिन उनका सामाजिक न्याूय बीजेपी की सत्ता की पुष्टि करने में लगा रहा। कुल मिलाकर दलित या शोषण का मसला अपने राजनीतिक स्वार्थ या विचारधारा के खांचे में बंधा हुआ नजर आता है।
इसके पहले भी गुजरात में दलित आंदोलन हुए हैं। 1980 के आसपास आरक्षण विरोधी आंदोलन हुआ था, जिसमें दलितों को निशाना बनाया गया। उस समय भी दलितों पर कहानियां लिखी गईं, उसे प्रचारित प्रसारित किया गया। दलितों ने प्रतिज्ञा की कि वे मरे जानवरों को नहीं उठाएंगे। हालांकि इसका कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया। तीन साल पहले जूनागढ़ में 80,000 दलितों ने एक साथ बौद्ध धर्म में दीक्षा लेकर तूफान खड़ा कर दिया था। इस पर भी कोई खास हलचल नहीं हुई।
फिलहाल इस आंदोलन से भाजपा के विरोधी खासे खुश हैं। खासकर गुजरात को लेकर कांग्रेस उत्साह में है। आम आदमी पार्टी भी इस मामले को भुनाने में लगी है। दलित वहीं के वहीं खड़े हैं। गुजरात में दलित चेतना अन्य राज्यों की तुलना में ज्यादा ही है। इसके बावजूद कांग्रेस व भाजपा दोनों ने ही दलितों को अलग थलग रखा है। माना जाता है कि दलित ज्यादातर कांग्रेस को अपना वोट देते हैं, लेकिन कांग्रेस के लिए भी गुजरात के दलित वोटर से ज्यादा कुछ नहीं हैं। अनुमान के मुताबिक राज्य में महज 6 प्रतिशत दलित हैं। ऐसे में न तो वह लोकतंत्र में वोट की राजनीति के सशक्त प्रहरी बन पा रहे हैं, न ही अपने संवैधानिक हक का इस्तेमाल कर पा रहे हैं। इन 6 प्रतिशत मतों की अन्य किसी वर्ग मसलन पिछड़े या मुस्लिम या किसी अन्य के साथ लाबीयिंग भी नहीं है, जिससे मतदान के वक्त ये सशक्त मतदाता बनकर कुछ कर दिखाने या राजनीतिक बदलाव लाने में सक्षम हों।
ऊना में दलितों पर हुए हमले और उसके असर को देखने के लिए अभी बहुत कुछ देखना बाकी है। अगर गुजरात के अलावा इसे पंजाब, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र के संदर्भ में देखें, जहां दलितों की निर्णायक आबादी है, तो इसके राजनीतिक निहितार्थ और असर देखना अभी बाकी है।

Monday, November 16, 2015

बिहार चुनाव और आर्थिक समीकरण

सत्येन्द्र प्रताप सिंह

दिल्ली से बिहार के बक्सर जिले में अपने मित्र के लिए चुनाव प्रचार करके वापस पहुंचे आलोक कुमार अभी थकान उतार रहे हैं। गांव गिरांव के मतदाताओं ने उन्हें शारीरिक से ज्यादा मानसिक रूप से थका दिया। उनके मित्र भारतीय जनता पार्टी से किस्मत आजमा रहे थे, जो महज 8000 मतों से चुनाव हार चुके हैं।
आलोक बताते हैं कि दिल्ली से समीक्षा करने और स्थानीय स्तर पर लोगों से बात करने में खासा अंतर है। गांव में कहीं गोबध का मसला नहीं था। आरक्षण भी कोई मसला नहीं था। गाय के बारे में लोगों का जवाब यह होता था कि हम लोग तो बूढ़ी गाय को शुरू से ही बेच देते हैं। उसे कौन ले जाता है, क्या करता है, हमें नहीं मालूम। यही हाल आरक्षण का रहा। स्थानीय लोगों ने कहा कि भारतीय जनता पार्टी सत्ता में और मजबूत होती है तब भी आरक्षण नहीं खत्म कर पाएगी। कोई भी राजनीतिक दल इस समय इतना जोखिम नहीं लेगा कि आरक्षण खत्म करने के बारे में विचार करे।
तो आखिर कौन सा मसला रहा, जिसने बिहार में भाजपा की मिट्टी पलीत कर दी। जिस भाजपा और नरेंद्र मोदी को जनता ने एक साल पहले सिर आखों पर बिठाया था, उसे क्यों जमीन से उखाड़ फेंका?
आलोक बताते हैं कि सबसे बड़ा मसला जेब का है। वह गुस्से में कहते हैं कि पब्लिक हरामखोर हो गई है। उन्हें गैस सब्सिडी चाहिए, मनरेगा का पैसा चाहिए, वृद्धावस्था पेंशन, बेसहारा पेंशन चाहिए। कुल मिलाकर इतने पैसे जेब में आने जरूरी हैं कि लोग आराम से अपने घर का खर्च चला सकें। केंद्र सरकार ने इसमें कटौती कर दी। गांवों में धन आना बंद हो गया। कांग्रेस के समय में आखिरी दो साल तक लोग महंगाई से तबाह थे, जिसके चलते सरकार को उखाड़ फेंका था। नई सरकार से भी उन्हें इस मोर्चे पर कोई राहत नहीं मिल सकी
लोगों की सही आर्थिक स्थिति और जेब की हालत के बारे में सबसे बड़ा पैमाना जेब का होता है। अभी हाल में दीपावली और दशहरा में एफएमसीजी कंपनियों के बिक्री के आंकड़े यही कह रहे हैं कि कस्बों और गांवों में स्थिति खराब रही। बड़े शहरों में जहां कंपनियों ने जबरदस्त बिक्री की, वहीं छोटे शहरों और कस्बाई इलाकों में उन्हें निराशा हाथ लगी।
गैस सब्सिडी खाते में भेजने की मार भी भाजपा को झेलनी पड़ी है। भले ही इसे कांग्रेस ने शुरू किया था, लेकिन इसके दुष्प्रभाव भाजपा के शासन में व्यापक तौर पर नजर आया। जनता सवाल पूछ रही है कि ज्यादा गैस लेकर हम क्या करेंगे, गैस आखिर में पीना नहीं है कि सस्ती मिली तो दो गिलास ज्यादा पी ली। पहले से कांग्रेस सरकार में महंगाई ने तबाह कर रखा था, अब और कचूमर निकल गई। खाते में पैसे आने से क्या होता है? वह कब आ रहा है, कितना आ रहा है, पता ही नहीं चलता। यह पूछे जाने पर कि दुकानदार सब्सिडी वाली रसोई गैस का इस्तेमाल करते थे, वह दुरुपयोग रुक गया। इसके जवाब में स्थानीय लोग कहते हैं कि चाय बनाने वाला उसका इस्तेमाल करता था तो वह चाय समोसे थोड़ा सस्ता देता था, उसने भी उसी अनुपात में दाम बढ़ा दिया, हमें क्या फायदा मिल गया इससे?
मामला यहीं तक नहीं है। केंद्र सरकार से लोगों की उम्मीदें भी बहुत ज्यादा हैं। उन्हें रोजी रोजगार की चाह है। उन्हें वेतन बढ़ने की उम्मीद है। ग्रामीण लोगों का कहना है कि खाते खुल गए, लेकिन उसमें पैसे कहां हैं? सस्ता बीमा तो ठीक है, लेकिन उसके लिए जान दे दें क्या? काला धन कहां है? बिहारी मतदाताओं के अजीब अजीब सवाल हैं। आपके हर जवाब पर उनका सवाल खड़ा मिला।
चुनाव के दौरान बिहार में सक्रिय रहे समाजसेवी राकेश कुमार सिंह कहते हैं कि प्रधानमंत्री के भाषण इस समय बिहार के मतदाताओं को चिढ़ाते हुए नजर आए। उन्हें नरेंद्र मोदी के वादे जुमला और जोकरई लग रहे थे। सिंह कहते हैं कि मोदी का भाषण सुनकर तमाम लोगों ने मतदान का मन बदला। उन्हें लगा कि यह व्यक्ति तो सिर्फ कांग्रेस या पहले से सत्तासीन दलों को गालियां दे रहा है! कोई नई योजना नहीं है। डेढ़ साल में कुछ भी नहीं मिल सका। वही पुराना भाषण, वही पुराने वादे। उसके साथ लफ्फाजी और पूर्व नेताओं को गालियां देने की धार और बढ़ी है। सिंह कहते हैं कि इसने लोगों को अच्छा खासा चिढ़ाया है।
बिहार में डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय आशीष झा भी कुछ ऐसा ही कहते हैं। झा का कहना है कि महिलाओं ने इस बार दाल और तेल का हिसाब सरकार से ले लिया। वह बताते हैं कि तमाम ऐसे परिवार हैं, जिनके सब्सिडी वाले गैस सिलेंडर कैंसिल हो गए। उन्हें पूरे दाम पर गैस खरीदनी पड़ रही है। उनकी कोई सुनवाई नहीं है। एजेंसी से लेकर जिला पूर्ति कार्यालय तक चक्कर लगा रहे हैं, लेकिन निरस्त हो गया तो फिर सब्सिडी से बाहर। उनका कहना है कि पैसे न आने से परिवारों में रोजमर्रा का खर्च चलाने को लेकर तनाव बढ़ा है। परिवारों में रोज झगड़े हो रहे हैं। जब महिलाएं मतदान करने निकलीं तो लोग इस बात को समझ भी न पाए कि यह थोक वोट किसके पक्ष में जा रहा है और किसके खिलाफ। जब परिणाम आया तो यह साफ हो गया कि बिहार में महिला मतदाता एक अलग जाति बन चुकी है। आने वाले चुनावों में शायद महिलाओं को लेकर राजनीतिक दलों को गंभीर और महिला केंद्रित रणनीति बनाने की जरूरत पड़ सकती है।
आलोक कहते हैं कि लोग नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के कामों की तुलना करते नजर आए। ग्रामीण सवाल पूछते नजर आए कि आखिर डेढ़ साल में मोदी सरकार ने ऐसा क्या कर दिया, जिसके चलते उन्हें वोट दे दिया जाए। वहीं नीतीश कुमार का काम भारी पड़ रहा था, चाहे वह सड़कों का निर्माण हो, या लड़कियों को साइकिल देना।
आखिर प्रधानमंत्री की रैली में लाख लोगों तक जुटने वाली भीड़ मतों में तब्दील क्यों नहीं हो पाई? बिहार चुनाव प्रचार में सक्रिय लोगों ने भीड़ की गणित भी बताई। पार्टी भीड़ जुटाने वाले ठेकेदार लोगों को प्रति व्यक्ति 500 रुपये देती थी। इसमें से भेजने वाला व्यक्ति 300 रुपये में अपना मुनाफा, वाहन पर आने वाला व्यय और दिन भर के खाने और नाश्ते का व्यय निकालता था। भाषण सुनने जाने वाले व्यक्ति को 200 रुपये नकद मिलते थे। इसके अलावा भाषण के दौरान नजदीक के पेड़ों पर चढ़ जाने, खंभों पर चढ़ जाने वालों को 50 रुपये अतिरिक्त दिए जाते थे। इस तरह लोग सपरिवार शहर घूमने के लिए निकल जाते थे। कहीं कहीं ग्रामीण लोग इतनी शर्त रख देते थे कि ले जाने वाली गाड़ी शाम को निकले, जिससे लोग बाजार में खरीदारी जैसे काम आराम से निपटा सकें।
कुल मिलाकर देखें तो बिहार के चुनाव परिणाम ने स्पष्ट किया है कि अगर सरकार ने जेब पर हमला किया तो उसे कहीं से कोई ढील नहीं मिलने वाली है। भावनात्मक मसलों, जातीय मसलों का दौर खत्म हो रहा है। गांवों से लेकर शहरों तक मतदाता अपना हित बहुत गंभीरता से देख रहा है। सरकार को भी अब दिखावे से आगे बढ़कर काम करना होगा। मतदाताओं को जीडीपी में बढ़ोतरी ज्यादा समझ में नहीं आती, उन्हें अपनी रोजी रोटी और रोजगार ज्यादा समझ में आ रहा है कि उसमें किस तरह से बेहतरी आए।


Friday, November 13, 2015

असहिष्णुता का भ्रमजाल



सत्येन्द्र पीएस

भारत की भूमि पर न सही, ब्रिटेन जाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कह ही दिया कि असहिष्णुता किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं है। बुद्ध और गांधी की धरती पर छोटी से छोटी घटना पर कड़ी कार्रवाई की जाएगी।
असहिष्णुता या इन्टालरेंस शब्द भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का प्रिय शब्द रहा है। जहां तक मुझे याद आता है, विपक्ष में रहते हुए वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और मौजूदा गृहमंत्री राजनाथ सिंह इस शब्द का भरपूर इस्तेमाल करते थे। जब भी देश में कोई आतंकवादी वारदात होती थी या नक्सली हमला होता था, ये नेता अक्सर इस शब्द का इस्तेमाल करते थे कि भारत को जीरो टालरेंस की पॉलिसी अपनानी होगी। साथ ही हिंदी में सहिष्णुता शब्द का इस्तेमाल आरएसएस से जुड़े संत सन्यासी खूब इस्तेमाल करते रहे हैं। मौका बेमौका दोहराते रहे हैं कि हिंदू समाज कब तक सहिष्णु बना रहेगा, कब तक अपने धर्म पर हमले बर्दाश्त करेगा।
भाजपा के सत्ता में आने के बाद इस इन्टालरेंस ने व्यापक रूप ले लिया। आतंकवादियों के मामले में सरकार सफल हुई हो या नहीं, सरकार ने अपने विरोधियों को कुचलने के लिए इसका खूब इस्तेमाल किया। लोकसभा चुनाव के पहले जहां नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पार्टी के भीतर उग्र होकर इन्टालरेंस दिखाते हुए सभी बुजुर्ग नेताओं की असहमतियों और उनके सुझावों को दरकिनार कर उन्हें बेकार साबित कर दिया, वहीं इनके समर्थकों ने सोशल मीडिया पर सक्रियता दिखाते हुए विरोधियों को भला बुरा कहने, गालियां और धमकियां देने का रिकॉर्ड बनाया। चुनाव पूर्व के सोशल वेबसाइट्स पर गौर करें तो देश के बड़े नेताओं को जमकर गालियां दी गईं। उन पर व्यक्तिगत आरोप लगाए गए। बड़े बड़े नेताओं के विकृत फोटो, उनके बारे में तमाम ऊल-जुलूल बातें लिखी जाने लगीं। ये हमले इतने तेज थे कि ऐसा लगता है कि पूरी टीम लगी हुई थी, जो सक्रिय होकर इस काम को अंजाम दे रही हो।
भाजपा के नए युग में कमान संभाले लोगों ने विपक्ष के वरिष्ठ नेताओं को भरपूर निशाना बनाया। खासकर वे नेता इस अभियान के ज्यादा शिकार बने, जो सोशल मीडिया पर खासे सक्रिय थे। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह का उदाहरण अहम है, जिनके ट्विटर और फेसबुक हैंडल पर सबसे ज्यादा गालियां दी गईं। इतना ही नहीं, समाचार माध्यमों/अखबारों की जिन वेबसाइट्स पर सबसे ज्यादा हिट्स आती हैं, यानी जो सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली वेबसाइट्स हैं, उन पर अगर भाजपा विरोधी खबर आती थी, उस पर भाजपा की यह टीम पूरी ताकत के साथ टूट पड़ती थी। विरोध एवं गालियों की पूरी सिरीज चल पड़ती थी। इन अभियानों का पूरा लाभ भाजपा को मिला और लोकसभा चुनाव बाद पूर्ण बहुमत से सत्ता में आ गई।
असहिष्णुता के इस माहौल को भाजपा के दल ने सत्ता में आने के बाद भी बनाए रखा। चुनाव के दौरान ऊल जुलूल बयान देने वाले गिरिराज सिंह, साध्वी निरंजन ज्योति जैसे लोग जहां मंत्रिमंडल में शामिल किए गए, वहीं अन्य तमाम छुटभैये नेताओं को भी भरपूर बढ़ावा दिया गया कि वे गाली गलौज वाले तरीके से किसी भी विरोध को निपटाएं और समाज में इस कदर भय फैलाएं, जिससे विरोध में कोई आवाज न उठने पाए।
भाजपा के इस रवैये के शिकार लेखक तबका बना। स्वतंत्र रूप से लेखन का कार्य करने वाले और सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों को गालियां और धमकियां दिए जाने की घटनाएं आम हो गईं। बीच बीच में किसी बड़ी घटना पर सरकार में बैठे मंत्री बूस्टर डोज भी देते रहे। चाहे वह नोएडा के अखलाक की हत्या के बाद केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा का बयान हो, जिन्होंने कहा कि गलतफहमी में दुर्घटना हो गई, या फरीदाबाद में दलित परिवार के जलने की घटना, जिसमें केंद्रीय मंत्री वीके सिंह ने कहा कि किसी कुत्ते को अगर कोई ढेला मार दे तो उस पर प्रधानमंत्री बयान नहीं देंगे।
इन सब घटनाओं और इसे लेकर सरकार के रवैये से समाज में एक ऐसे तबके की संख्या बढ़ती गई, जो स्वतः स्फूर्त सोशल साइट्स या कोई हिंदू समूह बनाकर लोगों को धमकियां देने, नारेबाजी करने या बयान देने का काम करने लगा। उस तबके को यह भरोसा हो चला कि उनके इस असंवैधानिक, अमानवीय, असंवेदनशील कार्य को सरकार का समर्थन है। इतना ही नहीं, अगर चर्चा में बने रहा जाए तो सरकार उसे पुरस्कृत भी कर सकती है।
इस असहिष्णुता के विरोध में जब हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार उदय प्रकाश ने बगावत की और साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया तो साहित्य जगत की ओर से पुरस्कार वापस करने वालों की पूरी सिरीज ही बन गई। नयनतारा सहगल से लेकर अशोक वाजपेयी और तमाम नाम सामने आए और दर्जनों लेखकों, साहित्यकारों ने पुरस्कार वापस किए।
आखिरकार भारत के राष्ट्रपति को बयान देना पड़ा। प्रणव मुखर्जी ने कहा कि भारत में असहिष्णुता बढ़ रही है, जो भारतीय संस्कृति के विपरीत है। बिहार चुनाव के दबाव में प्रधानमंत्री ने नोएडा के अखलाक की हत्या पर तो कुछ नहीं बोला, लेकिन चुनावी रैली में इतना जरूर कहा कि राष्ट्रपति महोदय ने जो कहा, वह ठीक है।
लेकिन सरकार ने साहित्य जगत से बातचीत की कोई कवायद नहीं की। किसी ने उदय प्रकाश या किसी साहित्यकार से संपर्क नहीं किया कि आखिर उन्हें समस्या क्या है। संपर्क करके समस्या जानना तो दूर, सरकार ने इतना कहने की भी जहमत नहीं उठाई कि साहित्य जगत से जुड़े विद्वान पुरस्कार लौटाने जैसे कदम न उठाएं, केंद्र सरकार राज्यों को एडवाइजरी जारी कर रही है कि ऐसी घटनाओं से सख्ती से निपटा जाए। प्रधानमंत्री के खास माने जाने वाले और वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बयान दिया कि कोई असहिष्णुता नहीं है, जो भी साहित्यकार अपने सम्मान वापस कर रहे हैं, वे अलग विचारधारा वाले हैं और सरकार का महज विरोध करने के लिए इस तरह के कदम उठा रहे हैं।
दिलचस्प है कि राष्ट्रपति से लेकर तमाम गणमान्य लोगों ने असहिष्णुता बढ़ने की बात कही। लेकिन जैसे ही फिल्म कलाकार शाहरुख खान ने समाज में असहिष्णुता बढ़ने की बात कही, उन्हें विदेशी एजेंट घोषित कर दिया गया। जिम्मेदार पदों पर बैठे भाजपा नेताओं ने उन्हें पाकिस्तान भेजे जाने की धमकी/सलाह दे डाली। सरकार इस तरह की धमकियों पर खामोश बैठी रही।
अब प्रधानमंत्री के ब्रिटेन में दिए गए बयान पर आते हैं। मोदी देश के पहले प्रधानमंत्री बन गए हैं, जिनकी बात पर विश्वास करने के पहले कई बार सोचना पड़ता है कि वह क्या कह रहे हैं। क्यों कह रहे हैं। उसके निहितार्थ क्या हैं। निहितार्थ हैं भी या यूं ही बात कही जा रही है। उन्होंने किन बातों पर कहा है कि असहिष्णुता बर्दाश्त नहीं की जा सकती। छोटी से छोटी घटनाओं पर भी नजर रखी जाएगी?
हाल में बिहार में भाजपा बुरी तरह चुनाव हारी है। इसके चलते पार्टी के भीतर घमासान शुरू हो गई है। परोक्ष रूप से चुनाव पूर्व मोदी द्वारा मुसलमानों को कुत्ते का पिल्ला, सत्ता में आने के बाद जनरल वीके सिंह द्वारा दलितों को कुत्ता कहने का क्रम बिहार में हार के बाद भाजपा नेताओं ने एक दूसरे को कुत्ता कहना शुरू कर दिया। पार्टी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय और वरिष्ठ नेता शत्रुघ्न सिन्हा के बयान इसकी बानगी है। साथ ही पार्टी के वरिष्ठ नेताओं लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा और शांता कुमार ने बाकायदा बयान जारी करके भाजपा के मौजूदा प्रभावी लोगों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।
संदेह होता है कि अखलाक, कलबुर्गी की हत्याओं या उदय प्रकाश के दर्द का एहसास करते हुए मोदी ने ब्रिटेन में बयान दिया है या कोई और वजह है? प्रधानमंत्री और उनके खास माने जाने वाले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के खिलाफ पार्टी के भीतर विरोध तेजी से उभरकर सामने आ रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि मोदी अपने ही दल के वरिष्ठ नेताओं की इस असहिष्णुता के खिलाफ कार्रवाई का मन बना रहे हैं और उनके असहिष्णु बयानों के चलते इन्हें जेल में ठूंस देने की तैयारी में हैं!

Friday, April 10, 2015

जमीन की लूट में हाशिये पर आदिवासी

सत्येन्द्र
केंद्र सरकार ने भूमि अधिग्रहण विधेयक पेश किया है। इसे वह किसान हितैषी भी बता रही है। इस पर विपक्ष राजी नहीं है। उसका कहना है कि विधेयक किसान विरोधी है। दिलचस्प है कि हाशिये पर रहे आदिवासियों की चर्चा कहीं नहीं हो रही है। न तो सरकार इन आदिवासियों की बात कर रही है और न ही विपक्ष। वहीं असल लड़ाई आदिवासियों की है, जिनसे जमीन लेकर खनन किया जाना है। कोयला, लौह अयस्क व अन्य प्राकृतिक खनिजों के लिए आदिवासी क्षेत्रों की जमीनों की जरूरत सरकार व उद्योग जगत को है।
दरअसल असली लड़ाई आदिवासियों की जमीन छीनने को लेकर ही है। खेती वाली भूमि के अधिग्रहण की जरूरत कम है। जहां अधिग्रहण होता भी है, शहरी इलाकों के नजदीक के किसानों को मुआवजा दे दिया जाता है। लेकिन इस अधिनियम में आदिवासियों की स्थिति क्या है, यह सवाल बहुत महत्त्वपूर्ण है। खासकर ऐसी स्थिति में सवाल और भी महत्त्वपूर्ण है, जब छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड से लेकर देश का एक बड़ा हिस्सा कथित लाल गलियारे में तब्दील हो चुका है। कथित नक्सलियों और भारत सरकार के सैन्य बलों के बीच खूनी संघर्ष हो रहे हैं।
खुद को किसान हितैषी बताने वाली केंद्र सरकार ने विश्वबैंक से कहा है कि वह बैंक द्वारा वित्त पोषित परियोजनाओं से विस्थापित होने वाले आदिवासियों से पूर्व सहमति लेने, उन्हें स्वतंत्र रूप से राय देने और परियोजना के बारे में उनको पूरी जानकारी दिए जाने संबंधी अनिवार्यता को लेकर 'सहज' नहीं है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार की ओर से बैंक को दी गई यह प्रस्तुतीकरण ऐसे समय में आई है, जब सरकार आदिवासियों के परंपरागत वन क्षेत्र को उद्योगों को सौंपे जाने को लेकर आदिवासियों से सहमति लिए जाने की जरूरत खत्म करने पर काम कर रही है।
इसके पीछे राजग सरकार ने विश्व बैंक के सामने तर्क दिया है कि भारत के घरेलू कानून और नियम हैं, जो आदिवासियों के हितों की रक्षा करते हैं, जिसमें 'कुछ मामलों में' सहमति लेने का अधिकार भी शामिल है। साथ ही बैंक अपनी शर्तें रखने के बजाय घरेलू कानून पर भी गौर कर सकता है। लेकिन अगर घरेलू स्थिति देखें तो राजग सरकार तमाम कार्यकारी आदेश पारित कर रही है, जिससे ज्यादातर मामलों में आदिवासियों को अपनी वनभूमि की रक्षा करने के लिए वीटो पावर से वंचित होना पड़ेगा। वर्तमान में वन अधिकार अधिनियम के तहत जब उद्योगों को या विकास परियोजनाओं के लिए आदिवासियों की परंपरागत वन भूमि लेनी होती है तो सरकार को ग्राम सभाओं से अनुमति लेनी होती है। जून 2014 से सरकार इन प्रावधानों को नरम करने पर काम कर रही है। हालांकि आदिवासी मामलों का मंत्रालय इसका पुरजोर विरोध कर रहा है।
सरकार ने जो मौजूदा भूमि अध्यादेश पेश किया है उसमें आदिवासियों की गैर वन्य भूमि के मामले में सहमति की जरूरत सिर्फ खंड 5 और 6 क्षेत्रों तक सीमित है और इसका विस्तार देश के सभी आदिवासी भूमि तक नहीं है। सरकार यह बदलाव इन दावों के साथ कर रही है कि अंग्रेजों का बनाया गया कानून शोषण युक्त है। वह बूढ़ा हो चुका है। उसमें बदलाव की जरूरत है, जिससे भारत विकास के पथ पर चल सके। आखिर इन तर्कों की हकीकत क्या है, जिन्हें तथ्यों के आधार पर परखना होगा। आदिवासियों ने जमीन पर कब्जे को लेकर अंग्रेजों से मोर्चा लिया है। यूं कहें कि आम राजे महराजों की सरकारें तो अंग्रेजों से अपना राजपाठ गंवाती गईं, लेकिन आदिवासियों ने कुछ इस कदर मोर्चा संभाला कि अंग्रेज हुकूमत को वन क्षेत्र और भारत के खनिज संसाधन करीब करीब छोड़ने पड़े। उन्हें आदिवासी विद्रोहियों से जगह जगह समझौते करने पड़े। उनकी सहमति के बगैर वन्य क्षेत्र में प्रवेश कानूनन निषेध हो गया। उस समय जब बंगाल विधान परिषद में चर्चा हुई, उसमें न केवल आदिवासियों, बल्कि किसानों के हितों की भी व्यापक चर्चा हुई, जिसके बाद 1894 का भूमि कानून आया था। उस कानून की मजबूती ही कहेंगे कि स्वतंत्रता के बाद भी उस कानून में बहुत मामूली फेरबदल किए जा सके, वर्ना कानून की स्थिति यथावत है।
केंद्र सरकार भूमि अधिग्रहण विधेयक पर अड़ी है। कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार भी आदिवासी इलाकों में जमीन अधिग्रहण को लेकर अड़ी थी। लाल गलियारे की तमाम परियोजनाएं ठहर सी गईं। सरकार के लिए उन क्षेत्रों में घुसना मुश्किल हो गया। लेकिन मौजूदा सरकार इस कदर विधेयक को लेकर प्रतिबद्ध है कि उसे संविधान की धज्जियां उड़ाने में भी कोई गुरेज नहीं है। संविधान में प्रावधान है कि संसद के दोनों सदन चल रहे हों, उस समय अध्यादेश नहीं लाया जा सकता। 5 अप्रैल को भूमि अध्यादेश की अवधि खत्म हो रही थी, और राज्यसभा में विधेयक पारित नहीं हुआ था। संसद के दोनों सदन भी चल रहे थे। ऐसे में सरकार अध्यादेश नहीं ला सकती थी। इस बाधा को हटाने के लिए सरकार ने राज्यसभा का सत्रावसान कर दिया, जिससे फिर से अध्यादेश लाया जा सके। यह खुले तौर पर संविधान की धज्जियां उड़ाने जैसा है, क्योंकि संविधान की मंशा यह थी कि अध्यादेश केवल आपात स्थिति में लाया जाए, अन्यथा संसद में चर्चा के बाद ही कानून बनाया जाना चाहिए।
आखिरकार केंद्र सरकार अध्यादेश ले आई। यह समझना मुश्किल है कि अध्यादेश क्यों लाया गया है। इसमें वह 6 बदलाव भी शामिल किए गए हैं, जो केंद्र सरकार ने लोकसभा में भूमि अधिग्रहण विधेयक पेश करते समय किए थे। इसमें आदिवासियों का कोई जिक्र नहीं है। कुछ लुभावने मसलों पर रंगरोगन कर दिया गया है, जिन पर विपक्षी दल सरकार को घेर रहे थे।
सरकार का एक तर्क यह भी है कि भूमि अधिग्रहण न हो पाने के कारण तमाम बुनियादी ढांचा परियोजनाएं ठप पड़ी हैं, क्योंकि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के जनवरी 2014 में लाए गए भूमि अधिग्रहण कानून के चलते अधिग्रहण में दिक्कतें हो रही हैं। हालांकि उद्योग जगत के सर्वे की ही बात करें तो स्थिति कुछ और ही बयान कर रही है। आंकड़े बताते हैं कि भूमि अधिग्रहण न होने की वजह से बहुत मामूली परियोजनाएं फंसी हैं, जबकि ज्यादातर परियोजनाएं भूमि अधिग्रहण से इतर दिक्कतों, जैसे पर्यावरण की मंजूरी न मिलने, वैश्विक मंदी के चलते धन न मिलने आदि जैसी वजहों से फंसी हैं।
भारत सरकार खुद तो आदिवासियों के अधिकार छीनने पर तुली ही है, विदेश से उद्योग को मिलने वाली फंडिंग के मामले में भी वह आदिवासियों की उपेक्षा करने को तैयार है। वह विश्व बैंक की शर्तों में भी फेरबदल चाहती है। एमनेस्टी इंडिया की बिजनेस और मानवाधिकार शोधकर्ता अरुणा चंद्रशेखर कहती हैं, 'इससे यह पता चलता है कि सरकार अपने नागरिकोंं की बात सुनने को भी इच्छुक नहीं है। यह चिंता का विषय है कि सरकार फैसले से आदिवासियों की जमीन और उनके संसाधनों पर असर पड़ रहा है और ऐसे मामले में सरकार उनसे सहमति नहीं लेना चाहती।'
अपने ही नागरियों के एक तबके के प्रति सरकार का यह रुख काफी खतरनाक है। विकास के नाम पर सरकार यह कर रही है। दिलचस्प है कि सरकार के इस फैसले से सिर्फ और सिर्फ उन आदिवासियों पर असर पड़ने जा रहा है जो इस समय वन्य क्षेत्रों में रहते हैं। स्वतंत्रता के बाद किसान जो जमीन जोतता था, वह उसके नाम कर दी गई। उसे उस जमीन को बेचने, खरीदने का हक मिल गया। वह राजा, अंग्रेज सरकार या जमींदार को लगान देने की बजाय अपनी चुनी सरकार को लगान देने लगा। वहीं स्वतंत्रता के बाद भी वन क्षेत्र में रहने वाले लोगों के नाम वे वन नहीं किए गए। अंग्रेजों ने उन्हें कुछ हक दिए थे कि वन से जब उन्हें हटाया जाए तो उनसे सहमति ली जाए। तमाम वन कानून उन्हें त्रस्त करते रहते हैं और प्रशासन उन्हें वनोत्पाद लेने से भी रोकते हैं। अब सरकार की मंशा कहीं और ज्यादा खतरनाक हो रही है।

Monday, March 9, 2015

सामाजिक न्याय की मछलियां

(बदलते राजनीतिक माहौल और भाजपा के सत्ता में आने के बाद सभी प्रमुख दलों के कोमा में पहुंच जाने के बाद दिलीप मंडल का यह लेख एक नई दिशा देता है। इसमें सेक्युलरिज्म और सामाजिक न्याय की ताकत की व्याख्या की गई है। जनसत्ता में प्रकाशित लेख)
दिलीप मंडल
मछलियां पानी में होती हैं, तो वे जिंदा रहती हैं और उनमें काफी ताकत होती है। लेकिन वही मछलियां जब पानी के बाहर होती हैं तो छटपटा कर दम तोड़ देती हैं। ‘जनता परिवार’ की कुछ पार्टियों ने हाल में एका की जो कवायद की है, उसमें सेक्युलरवाद को मूल विचार के तौर पर पेश किया जा रहा है। यह इन पार्टियों का पानी से बाहर आना या पानी से बाहर बने रहना है। सेक्युलरिज्म का खोखला नारा इन पार्टियों के लिए मारक साबित हो सकता है।
सेक्युलरिज्म इन पार्टियों का केंद्रीय विचार नहीं है। ये पार्टियां या तो सामाजिक न्याय के अपने केंद्रीय विचार को भूल चुकी हैं, या फिर अपने पुराने स्वरूप में लौट पाना इनके लिए असहज हो गया है। ये पार्टियां सेक्युलरिज्म के नाम पर एकजुट होने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन वे भूल रही हैं कि सेक्युलरिज्म के मैदान में भाजपा उन्हें और कांग्रेस और माकपा जैसे दलों को लगातार पटक रही है। भाजपा ने सेक्युलरिज्म का राजनीतिक अनुवाद ‘मुसलिम तुष्टीकरण’ के रूप में किया है और इस अनुवाद को हिंदू मतदाताओं ने खारिज नहीं किया है। अगर भाजपा के हिंदू बहुसंख्यकवाद से अन्य पार्टियों का अल्पसंख्यक सेक्युलरवाद टकराएगा, तो इस मुकाबले में जीतने वाले का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
सेक्युलरिज्म को दरअसल कभी राजनीतिक नारा होना ही नहीं चाहिए था। यूरोपीय सामाजिक लोकतंत्र की शब्दावली से आए इस शब्द का भारत आते-आते अर्थ भी बदल चुका है। बल्कि अर्थ का अनर्थ हो चुका है। यह शब्द यूरोप में चर्च और राजकाज की शक्तियों के संघर्ष के दौरान चलन में आया था। इसका अर्थ है कि राजकाज में धर्म (यूरोपीय अर्थ में चर्च) का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। चर्च और राजनीति के संघर्ष में आखिरकार राजनीति की जीत हुई और चर्च ने अपने कदम पीछे खींच लिए। चर्च की दादागीरी के खिलाफ आधुनिक शासन व्यवस्था की ऐतिहासिक जीत के बाद से ही सेक्युलरिज्म शब्द दुनिया भर में लोकप्रिय हुआ।
लेकिन भारत का सेक्युलरवाद राजकाज और धर्म का अलग होना नहीं है। भारत में इस शब्द का अनुवाद सर्वधर्म-समभाव की शक्ल में हुआ। यानी राज्य या शासन हर धर्म को बराबर नजर से देखेगा और बराबर महत्त्व देगा। लगभग अस्सी फीसद हिंदू आबादी वाले देश में सर्वधर्म-समभाव के नारे का हिंदू वर्चस्व में तब्दील हो जाना स्वाभाविक ही था। आजादी के बाद कांग्रेस के शासन में भी हिंदू प्रतीकों और मान्यताओं को राजकाज में मान्यता मिली। सरकारी कामकाज की शुरुआत और उद्घाटन से लेकर लोकार्पण तक में नारियल फोड़ने, सरस्वती वंदना करने, राष्ट्रपतियों के द्वारा मंदिरों को दान देने से लेकर सरकार द्वारा मंदिरों के पुनरुद्धार कराने तक की पूरी शृंखला है, जो यह बताती है कि राजकाज में हिंदुत्व के हस्तक्षेप की शुरुआत भाजपा ने नहीं की है। यहां तक कि माकपा ने भी पश्चिम बंगाल में अपने तीन दशक से अधिक लंबे शासन में बेहद हिंदू तरीके से राजकाज चलाया और दुर्गापूजा समितियों में कम्युनिस्ट हिस्सेदारी के माध्यम से सांस्कृतिक हस्तक्षेप किया।
हिंदू तुष्टीकरण की शक्ल में भारतीय सेक्युलरवाद का जो प्रयोग कांग्रेस ने लंबे समय तक किया, उसी को भाजपा आगे बढ़ा रही है। भाजपा की शब्दावली में अपेक्षया तीखापन जरूर है, लेकिन इसे भारतीय सेक्युलरवाद का ही थोड़ा चटक रंग माना जा सकता है। कांग्रेस हिंदू वर्चस्ववाद पर अमल कर रही थी और भाजपा भी प्रकारांतर से इसी काम को कर रही है। सेक्युलर हिंदू वर्चस्ववाद के प्रयोग के ये दो मॉडल हैं। इसमें से कांग्रेसी मॉडल की खासियत यह है कि उसने जो शब्दावली और नारे गढ़े हैं, वे मुसलमानों को आहत नहीं करते और इस वजह से उसे मुसलमानों का समर्थन मिलता रहा। हिंदू तुष्टीकरण के साथ कांग्रेस मुसलमानों को दंगों का भय दिखाती रही और सुरक्षा प्रदान करने के नाम पर उनके वोट भी लेती रही। हालांकि उसका यह खेल 1990, और खासकर नरसिंह राव के शासनकाल में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार में पूरी तरह टूट गया, जहां सामाजिक न्याय की राजनीतिक शक्तियों ने मुसलमानों को गोलबंद कर लिया।
इसके बाद से कांग्रेस को लोकसभा में कभी अपने दम पर बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस अब भी हिंदू वर्चस्ववाद और मुसलमानों की गोलबंदी को एक साथ साधने की कोशिश में आड़ा-तिरछा चल रही है और उसे संतुलन का रास्ता मिल नहीं रहा है। भाजपा इस मायने में कांग्रेस से अलग है कि उसके बहुसंख्यक वर्चस्ववादी मॉडल में मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं है। इसलिए मुसलमान वोट खोने का उसे भय भी नहीं है। जाहिर है, भाजपा को सेक्युलरवाद के नारे से कोई भय नहीं लगता। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार तक भाजपा ने फिर भी एक झीना-सा आवरण ओढ़ रखा था, जिसकी वजह से उसका सांप्रदायिक चेहरा धुंधला दिखता था। उस समय लालकृष्ण आडवाणी के बजाय वाजपेयी का प्रधानमंत्री बनना, जॉर्ज फर्नांडीज का राजग का मुखिया होना, विवादास्पद मुद््दों से दूरी बनाए रखना आदि राजनीतिक और रणनीतिक मजबूरी थी। सोलहवीं लोकसभा में 281 सीटों पर बैठी भाजपा की अब ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। इन सीटों की जीत के लिए भाजपा को अल्पसंख्यक वोटों का मोहताज नहीं होना पड़ा।
भाजपा ने सोलहवीं लोकसभा के नतीजों से साबित किया है कि सिर्फ हिंदू वोट के एक हिस्से के बूते इस देश में बहुमत की सरकार बन सकती है। इसने पूरी अल्पसंख्यक राजनीति को सिर के बल खड़ा कर दिया है। साथ ही इसने सेक्युलरिज्म के नारे का दम भी निकाल दिया है। सेक्युलरिज्म के नाम पर भाजपा-विरोध की एक बड़ी सीमा यह भी है कि भाजपा को लेकर 1992 के बाद सामने आया सेक्युलरिज्म का ‘मत छुओ वाद’ बहुत ‘सेलेक्टिव’ है। भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टियों और लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव को छोड़ दें तो सभी दलों और नेताओं ने किसी न किसी दौर में भाजपा के नेतृत्व में चलना स्वीकार किया है। नीतीश कुमार और शरद यादव कुछ महीने पहले तक भाजपा के साथ राजग में सहजता से मौजूद थे। ओमप्रकाश चौटाला भी भाजपा के साथ राजनीति कर चुके हैं। इसलिए भाजपा-विरोध एक राजनीतिक नारा तो है, लेकिन इसे सेक्युलरवाद का वैचारिक मुलम्मा नहीं चढ़ाया जा सकता।
ऐसे में भाजपा की काट, अल्पसंख्यक वोट और तथाकथित सेक्युलरवाद में देखने वालों के हाथ निराशा के अलावा कुछ भी लगने वाला नहीं है। सारा अल्पसंख्यक वोट एकजुट होकर भी बहुसंख्यक वोट के एक हिस्से से हल्का पड़ सकता है। जाहिर है, भाजपा-विरोध की राजनीति को सफल होने के लिए सेक्युलरवाद से परे किसी और राजनीतिक व्याकरण और समीकरण की जरूरत है। भारत का हिंदू, अगर हिंदू मतदाता बन कर वोट करता है और भाजपा अगर इन मतदाताओं की प्रतिनिधि पार्टी है, तो भाजपा-शासन के लंबे समय तक चलने की संभावना या आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।
अल्पसंख्यक वोट भाजपा को हराने में कारगर हो सकता है, बशर्ते हिंदू मतदाताओं का एक हिस्सा अन्य पार्टियों से जुड़े। यानी हिंदू मतों के विभाजन के बिना उन राज्यों में गैर-भाजपा राजनीति का कोई भविष्य नहीं है, जहां हिंदू आबादी बहुसंख्यक है। क्या भारतीय राजनीति के किसी पिछले या पुराने मॉडल में गैर-भाजपा राजनीति के सूत्र मिल सकते हैं? इसके लिए हमें 1990 के दौर में जाना होगा। भाजपा के वर्तमान उभार की तरह का ही एक भारी जन-उभार उस दौर में राम जन्मभूमि आंदोलन के पक्ष में हुआ था। ऐसा लग रहा था मानो भाजपा ने राजसूय यज्ञ का घोड़ा छोड़ दिया हो, जो लगातार सूबा-दर-सूबा फतह करता जा रहा हो। लेकिन वह दौर भारतीय राजनीति में सामाजिक न्याय की नई पहल के तौर पर भी जाना जाता है।
राममनोहर लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार और कई अन्य राज्यों में ओबीसी नेतृत्व को मजबूत कर रही थी। केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी आरक्षण लागू किए जाने से भी नई सामाजिक शक्तियों का विस्फोट हो रहा था। यह सारा घटनाक्रम हिंदुओं को सिर्फ हिंदू होकर वोट करने में बाधक साबित हो रहा था।
सन 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद भाजपा-शासित चार राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया गया और जब 1993 में वहां दोबारा चुनाव हुए तो भाजपा उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और हिमाचल प्रदेश का चुनाव हार गई और राजस्थान में कांग्रेस से मामूली बढ़त हासिल कर किसी तरह वहां की सरकार बचा पाई।
लेकिन सामाजिक न्याय की राजनीति कालांतर में कमजोर पड़ती चली गई। जमात की राजनीति खास जातियों की राजनीति और बाद में चुने हुए परिवारों की राजनीति बन गई। वंचित जातियों के बीच तरक्की, समृद्धि और शक्तिशाली होने की उम्मीद जगा कर, सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दल कुछ और ही करने लगे। इस बीच भाजपा ने नरेंद्र मोदी की शक्ल में एक ओबीसी चेहरा सामने लाकर सामाजिक न्याय की कमजोर पड़ी चुकी राजनीति की रही-सही जान भी निकाल दी।
अब सवाल उठता है कि क्या आने वाले विधानसभा चुनावों और अगले लोकसभा चुनाव के लिए गैर-भाजपा दलों के पास कोई रणनीति है? भाजपा अपनी गलतियों से हार जाएगी, यह सोच कर राजनीति नहीं हो सकती। क्योंकि यह बिल्कुल मुमकिन है कि भाजपा ऐसी कोई गलती न करे, या हो सकता है कि अपनी राजनीति को और मजबूत कर ले। मौजूदा समय में गैर-भाजपा खेमे में ऐसी कोई राजनीति होती नजर नहीं आती।
कांग्रेस और बाकी विपक्षी दलों ने विपक्ष का स्थान खाली-सा छोड़ दिया है। भाजपा का थोड़ा-बहुत वैचारिक विपक्ष, भाजपा के मूल संगठन आरएसएस के एक हिस्से से आ रहा है।
विकल्पहीनता की ऐसी स्थिति में भाजपा-विरोधी पार्टियां सामाजिक न्याय की राजनीति में अपनी कामयाबी के सूत्र तलाश सकती हैं। वैसे भी कोई हिंदू, सिर्फ हिंदू नहीं होता। उसकी कोई न कोई जाति-बिरादरी भी होती है। उसकी यह पहचान हिंदू होने की पहचान से कहीं ज्यादा टिकाऊ है, क्योंकि धर्म बदलने से या घर वापसी से भी उसकी यह पहचान नहीं मिटती। शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण का कोटा सख्ती से लागू करने, आरक्षण का प्रतिशत बढ़ा कर तमिलनाडु की तरह उनहत्तर फीसद पर ले जाने, जातिवार जनगणना करा कर सामाजिक न्याय के नारे को विकास-कार्यक्रमों से जोड़ने, भूमि सुधार करने और सबके लिए समान शिक्षा जैसे अधूरे कार्यभार को अपने हाथ में लेकर गैर-भाजपा राजनीति फिर से अपना खोया इकबाल वापस हासिल कर सकती है। भाजपा को इन राजनीतिक कार्यक्रमों के आधार पर घेरना मुमकिन है। ऐसा होते ही भाजपा अपना मूल सवर्ण अभिजन हिंदू वोट बचाए रखने और वंचित जातियों को जोड़ने के दोहरे एजेंडे के द्वंद्व में घिर जाएगी।
वर्तमान समय में, सेक्युलर बनाम गैर-सेक्युलर की राजनीति भाजपा की राजनीति है। हिंदू आबादी को हिंदू मतदाता बनाने के लिए भाजपा को इसकी जरूरत है। गैर-भाजपावाद के सूत्र सेक्युलरिज्म में नहीं हैं। गैर-भाजपावाद के सूत्र, हो सकता है सामाजिक न्याय की राजनीति में हों। कभी सामाजिक न्याय की राजनीति से अपनी छाप छोड़ने वाली पार्टियों और नेताओं को अपनी राजनीति में वापस लौटना चाहिए। मछलियां पानी में लौट कर ही जिंदा रह सकती हैं। सेक्युलरिज्म की सूखी धरती उनके प्राण हर लेगी।

Wednesday, April 9, 2014


बिहार में 'राम' भरोसे भाजपा
सत्येन्द्र प्रताप सिंह
सोशल इंजीनियरिंग वाले बिहार में भारतीय जनता पार्टी को पसीने छूट रहे हैं। पार्टी ने राज्य में उच्च जाति के उन मतदाताओं के बीच अच्छी पैठ बना ली है, जो लोग लालू प्रसाद के लंबे शासनकाल से दुखी थे और सत्ता के करीब आने के लिए लालायित थे। लेकिन नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड से अलग होते ही भाजपा का नशा काफूर हो गया। अब उसे दलितों और पिछड़ों को लुभाने के लिए राम विलास पासवान और राम कृपाल यादव जैसे नेताओं की शरण में जाना पड़ रहा है, जो राज्य के सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले के मुखौटे के रूप में जाने जाते हैं। भाजपा शायद यह साबित करना चाहती है कि वह पिछड़ों-दलितों के खिलाफ नहीं है। भले ही पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने जानबूझकर या अनजाने में अपनी पहली ही रैली में संदेश देने की कोशिश की थी कि बिहार का 'सवर्ण काल' वापस आएगा।
हालांकि मंडल आयोग आने के साथ ही भाजपा ने भांप लिया था कि उसका हिंदुत्व या मुस्लिम विरोधी कार्ड नहीं चलने वाला है। यही वजह है कि उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, गुजरात में पिछड़े वर्ग के नेता आजमाए गए। यहां तक कि दक्षिण का द्वार भी पिछड़े वर्ग के नेताओं के जरिये ही खुला। वहीं कांग्रेस मंडल आंदोलन को समय पर नहीं भांप पाई और लगातार पिछड़ती गई। 'इंडियाज साइलेंट रिवॉल्यूशनÓ नामक पुस्तक में क्रिस्टोफे जैफ्रेलॉट ने राजनीति की बदलती अवधारणा का जिक्र करते हुए कहते हैं कि अब हर दल की मजबूरी बन गई है कि वह समाज के उन तबकों से जुड़े लोगों को स्थान दे, जिन्हें लंबे समय सत्ता से वंचित रखा गया। हिंदी पट्टी में कांग्रेस की नाकामी को उन्होंने इसी रूप में देखा है कि कांग्रेस इस बदलाव को समझने में नाकाम रही।
भाजपा बिहार में पिछड़े और दलित तबके के नेताओं को वह मुकाम नहीं दे पाई, जो उसे चुनावी नैया पार करा सकें। शायद इसकी वजह यह थी कि लालू प्रसाद कार्यकाल में लंबे समय से सत्ता पर काबिज रहे जिस तबके को सत्ता से दूर किया गया था, भाजपा उस वर्ग पर एकाधिकार चाहती थी। पार्टी इसमें सफल भी हुई। लेकिन पिछड़े और दलित तबके के जिन नेताओं को पार्टी ने विकसित करने की कोशिश की, वे पार्टी में दलित प्रकोष्ठ तक ही सिमटे रहे। पिछड़े वर्ग के चेहरे के रूप में नरेंद्र मोदी को पेश कर भाजपा देश भर में इस तबके के लोगोंं का मत खींचना चाहती है, लेकिन बिहार में उसे खासी दिक्कत आ रही है।
इस दिक्कत की बड़ी वजह यह है कि बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में सत्ता में वंचित तबके की हिस्सेदारी बढ़ी है। न केवल राज्य स्तर के नेतृत्व में चेहरे बदल गए हैं, बल्कि ग्राम प्रधान और जिला स्तर के नेताओं में भी इस तबके का अच्छा खासा दबदबा है। ऐसी स्थिति में इन दो बड़े राज्यों में सिर्फ मोदी का मुखौटा दलितों व पिछड़ों को लुभाने में सफल होगा, इसे लेकर भाजपा आश्वस्त नहीं है और वह सोशल इंजीनियरिंग के आंदोलन से जुड़े चेहरों को पार्टी से जोडऩा चाहती है।
हालांकि यह कहना अभी भी कठिन है कि खुद के टिकट या अपने बच्चों को राजनीति में स्थापित करने की आस लेकर भाजपा से जुडऩे वाले सोशल इंजीनियरिंग के बूढ़े हो चुके चेहरे भाजपा से मतदाताओं को जोडऩे में कितना सफल होंगे।

शेयर बाजार में लुटते लोग


सत्येन्द्र प्रताप सिंह
सामान्यतया यह माना जाता है कि शेयर बाजार किसी कंपनी की प्रगति, उसकी बैलेंस शीट, उसकी भविष्य की संभावनाओं के आधार पर काम करता है। हालांकि यह एक आदर्श धारणा है। हकीकत यह है कि इनसाइटर ट्रेडिंग, सूचनाओं के लीकेज और बड़े निवेशकों द्वारा किसी कंपनी के शेयर में जानबूझकर अनावश्यक तेजी लाने और जब जनता के पैसे से उस शेयर के दाम बढ़ जाएं तो अचानक पैसे खींचकर शेयर गिरा देने के मुताबिक कंपनियों के शेयरों के भाव घटते बढ़ते हैं।
इसी का एक उदाहरण हाल ही में सन फार्मा और रैनबैक्सी के सौदों में देखने को मिला। दोनों कंपनियों के बीच हुए सौदे के महज कुछ दिन पहले रैनबैक्सी के शेयरों की भारी खरीद फरोख्त हुई। दिलचस्प यह रहा कि पिछले हफ्ते रैनबैक्सी के शेयर मंगलवार को 370 रुपये पर थे, जो शुक्रवार तक बढ़कर 459 रुपये प्रति शेयर पर पहुंच गए। दिलचस्प है कि रैनबैक्सी के शेयर उसी दाम के करीब आकर रुक गए, जिस मूल्य पर सौदे की घोषणा की गई। साफ दिखता है कि रैनबैक्सी के विलय सौदे के मूल्यांकन की जानकारी बाजार को पहले से थी, जिसके चलते ऐसा संभव हो सका।
इस कारोबारी बेइमानी के बारे में सेबी जांच कर रहा है। लेकिन.... परिणाम के बारे में क्या कहा जा सकता है..... इनसाइडर ट्रेडिंग, भेदिया कारोबार, भारी खरीद के जरिये शेयर बाजार में आम निवेशकोंं को ठगने का बहुत तगड़ा कारोबार नजर आता है।
विलय सौदे पर सेबी की नजर
समी मोडक और सचिन मामबटा / मुंबई April 08, 2014
दिग्गज दवा कंपनी सन फार्मास्युटिकल्स और रैनबैक्सी लैबोरेटरीज के विलय सौदे की पूंजी बाजार नियामक भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) प्रारंभिक जांच कर सकती है। दरअसल सेबी 4 अरब डॉलर के इस सौदे में इस बात की पड़ताल कर सकती है कि कहीं इसमें भेदिया कारोबार के नियमों का तो उल्लंघन नहीं हुआ है। सन-रैनबैक्सी सौदे की घोषणा से कुछ दिनों पहले ही रैनबैक्सी के शेयरों की खासी खरीद-फरोख्त के बाद सेबी इस दिशा में कदम उठाने की तैयारी कर रहा है।
सेबी से जुड़े एक सूत्र ने बताया, 'शेयरों की खरीद-फरोख्त में आई तेजी इस बात की ओर इशारा करती है कि कुछ निश्चित इकाइयों को इस सौदे के बारे में अंदरुनी जानकारी रही हो। अगर इस बारे में कोई प्रमाण मिलते हैं तो कार्रवाई की जाएगी।' सन फार्मा द्वारा रैनबैक्सी के अधिग्रहण की घोषणा से पहले तीन कारोबारी सत्रों में रैनबैक्सी का शेयर करीब 24 फीसदी तक चढ़ गया था। सन ने रद्द सौदा शेयरों के जरिये करने की घोषणा की है। बीते हफ्ते मंगलवार को रैनबैक्सी का शेयर 370.70 रुपये पर बंद हुआ था जो शुक्रवार तक बढ़कर 459.55 रुपये पर पहुंच गया जबकि इस सौदे की घोषणा सोमवार को की गई।
सूत्रों के मुताबिक सेबी, सन फार्मा, रैनबैक्सी और इस सौदे से जुड़े अन्य मध्यस्थतों को पत्र लिखकर इस बारे में इस बात की जानकारी मांग सकता है कि इस सौदे के बारे में किन-किन लोगों/इकाइयों को जानकारी थी। रैनबैक्सी के शेयरों में सौदे की घोषणा से पहले तेजी तो आई लेकिन शेयर भाव उस स्तर के करीब थम गया जिस मूल्य पर सौदे की घोषणा की गई। इससे संकेत मिलता है कि बाजार को इस सौदे के मूल्यांकन की जानकारी हो सकती है। विलय सौदे के तहत रैनबैक्सी के प्रति शेयर का मूल्य 457 रुपये हो सकता है। इस बारे में जानकारी के लिए सेबी के प्रवक्ता को ईमेल भेजा गया लेकिन फिलहाल उनका जवाब नहीं आया है।
इस बीच, प्रोक्सी सलाहकार फर्मों ने कहा कि सेबी को इस मामले में भेदिया कारोबार से जुड़ी सभी संभावनाओं को देखना चाहिए। इनगवर्न रिसर्च सर्विसेज के प्रबंध निदेशक श्रीराम सुब्रमणयन ने कहा, 'सेबी उन ब्रोकरों की जांच कर सकता है जहां बड़ी मात्रा में शेयरों की खरीद हुई है। अगर इस बारे में कोई शिकायत दर्ज नहीं होती है तब भी सेबी स्वत: संज्ञान लेते हुए इसकी जांच कर सकता है।' कॉर्पोरेट गवर्नेंस फर्म स्टेकहोल्डर इम्पावरमेंट सर्विसेज के प्रबंध निदेशक जे एन गुप्ता ने कहा कि अगर इसमें किसी तरह की अनियमितता रही है तो इसकी जांच की जानी चाहिए।
रद्द होगी सिल्वरस्ट्रीट की रैनबैक्सी में शेयरधारिता
विलय के समय सन फार्मा समूह की कंपनी सिल्वरस्ट्रीट डेवलपरर्स की रैनबैक्सी में शेयरधारिता को रद्द कर दी जाएगी। ब्लूमबर्ग के आंकड़ों के मुताबिक सिल्वरस्ट्रीट ने मार्च तिमाही के दौरान रैनबैक्सी में करीब 60 लाख शेयर खरीदे हैं, जिनका मूल्य करीब 270 करोड़ रुपये है। यह खरीद औसतन 375 रुपये शेयर भाव पर की गई है। हालांकि सन फार्मा ने कहा कि यह सौदा भेदिया कारोबार के दायरे में नहीं आएगा क्योंकि विलय के बाद इन शेयरों को रद्द कर दिया जाएगा और इसके बार नई इकाई के शेयर सिल्वरस्ट्रीट को जारी नहीं किए जाएंगे।
सीसीआई भी कर सकता है सौदे की जांच
अग्रणी दवा कंपनियों सन फार्मा और रैनबैक्सी के एकीकरण को भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग की कड़ी जांच का सामना करना पड़ सकता है। आधिकारिक सूत्रों और कॉरपोरेट वकीलों के मुताबिक, सन में रैनबैक्सी के प्रस्तावित विलय के लिए विस्तृत जांच की दरकार होगी। सौदे में जटिल क्षेत्र भी शामिल हैं, जो प्रतिस्पर्धा पर असर डाल सकते हैं। प्रस्तावित सौदे की कीमत 4 अरब डॉलर है, जिसमें रैनबैक्सी के 80 करोड़ डॉलर का कर्ज सन फार्मा के खाते में हस्तांतरण शामिल है।
के के शर्मा लॉ ऑफिसेस के चेयरमैन और सीसीआई के पूर्व महानिदेशक के के शर्मा ने कहा, इस सौदे की निश्चित तौर पर सीसीआई की तरफ से विस्तृत जांच की दरकार होगी क्योंकि यह दो अग्रणी दवा कंपनियों के एक साथ आने का मामला है, जो पहले एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करती रही हैं। लॉ फर्म विभिन्न कंपनियों को प्रतिस्पर्धा के मसले पर रणनीतिक परामर्श मुहैया कराती है। सीसीआई एक निश्चित सीमा से ऊपर वाले विलय व अधिग्रहण सौदों पर नजर रखता है।
सौजन्य- http://hindi.business-standard.com/storypage.php?autono=84813