Saturday, June 28, 2008

महंगाई के जिन्न को मारने के लिए सरकार कर रही है हर जतन

सत्येन्द्र प्रताप सिंह



एक साल 6 महीने और 17 दिन में रिजर्व बैंक ने नकद सुरक्षित अनुपात (सीआरआर) में 3.25 प्रतिशत की बढ़ोतरी की है। आंकड़े देखें तो 08 दिसंबर 2006 को सीआरआर 5.50 प्रतिशत था। इसमें बढ़ोतरी शुरू हुई तो थमने का नाम ही नहीं ले रही है। वर्तमान बढ़ोतरी के बाद यह 8.75 प्रतिशत हो जाएगा। इसी तरह से रेपो रेट (अल्पकालिक ऋण दर) में भी बढ़ोतरी हुई है और यह अब 8.50 प्रतिशत पर पहुंच गई है।

भारतीय रिजर्व बैंक यह हथकंडे तब अपनाता है, जब उसे बाजार से पैसा खींचना होता है। सीआरआर में बढ़ोतरी करने से बैंकों को केंद्रीय बैंक के पास ज्यादा प्रतिभूति जमा करनी पड़ती है। इसका परिणाम यह होता है कि बैंकों को अपना कोष बढ़ाने के लिए जनता से पैसा लेना पड़ता है। इसका तरीका सामान्यत: यह होता है कि वे लोगों के जमा पर अधिक ब्याज दर देते हैं।

जब अधिक ब्याज दर देकर बैंक पैसा उठाएंगे तो स्वाभाविक है कि उन्हें कर्ज पर भी अधिक ब्याज लेना पड़ेगा। रेपो रेट वह दर होती है, जिस पर रिजर्व बैंक, अन्य व्यावसायिक बैंकों को कर्ज देता है। स्वाभाविक है कि अगर रिजर्व बैंक से भी अधिक ब्याज दर पर बैंकों को कर्ज मिलेगा, तो वे अन्य लोगों को भी कर्ज देने पर अधिक ब्याज लेंगे।

महंगाई पर प्रभाव

सामान्य सिध्दांत है कि बाजार में पैसा कम रहेगा तो आम आदमी की क्रय शक्ति कम होगी। ऐसे में बाजार में विभिन्न सामान की कमी होने के बावजूद दाम नहीं बढ़ेंगे। सामान्यत: कीमतों में बढ़ोतरी तभी होती है, जब मांग बढ़ जाती है और आपूर्ति कम रहती है। सीआरआर और रेपो दर बढ़ने से बाजार में धन का प्रवाह कम होना स्वाभाविक है।

उद्योगों पर प्रभाव

उद्योग जगत तो कर्ज पर कुछ ज्यादा ही निर्भर रहता है। नई इकाइयां स्थापित करनी हो, क्षमता में विस्तार करना हो या कोई भी नया काम शुरू करना हो, वे बैंकों की ओर ही देखते हैं। विशेषज्ञों का अनुमान है कि वर्तमान बढ़ोतरी के बाद व्यावसायिक बैंक, ब्याज दरों में 0.5 से लेकर 1 प्रतिशत तक बढ़ोतरी करने को मजबूर हो जाएंगे। इसकी मार सीधे सीधे उद्योगों पर पड़ेगी और उनकी विकास योजनाएं खटाई में पड़ सकती हैं।

साथ ही मांग कम होने के कारण बढ़ती प्रतिस्पर्धा और बिक्री बढ़ाने के लिए कंपनियों को अपना माल कम लाभ पर बेचना पड़ेगा। इसके अलावा बाजार में आने वाले उन उत्पादों पर ज्यादा असर पड़ेगा, जिन्हें ग्राहक बैंकों से कर्ज लेकर खरीदते हैं। इसके साथ ही बैंकों के कारोबार पर भी असर होगा। इस असर का अनुमान लगते ही शेयर बाजार में बैंकों के शेयर बुधवार को धराशायी हो गए।

हालांकि कुछ आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि ब्याज दरें बढ़ाने और जनता से बैंकों में पैसे जमा कराने का महंगाई पर ज्यादा असर नहीं पड़ता। एक तो विनिर्माण की लागत बढ़ने से कीमतें बढ़ जाती हैं, दूसरे उदारीकरण की अर्थव्यवस्था में सुविधाओं की आदत डाल चुके लोग बैंक में पैसा जमा करने के बजाय शेयर बाजार या अन्य साधनों से तेजी से पैसा कमाने की इच्छा रखते हैं। वे बैंकों में पैसा जमा करना पसंद नहीं करते।

अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ ए. वी. राजवाडे ने अपने एक लेख में एक बैंक के आंतरिक सर्वेक्षण का हवाला देते हुए लिखा है कि 'बैंक में जमा पैसों का बाजार में चल रही ब्याज दरों से काफी कम वास्ता होता है।' आगे उन्होंने लिखा है, 'मुल्क में महंगाई की दर को एक फीसदी कम करने के लिए करीब एक लाख करोड़ के कुल उत्पादन को कम करना होता है। इस मतलब शायद महंगाई दर में केवल फीसदी की कमी करने के लिए हमें 6000 रुपये प्रति माह की तनख्वाह वाले करीब 50 लाख नौकरियों की कुर्बानी देनी पडेग़ी।'

केंद्र सरकार को चुनावी मौसम साफ नजर आ रहा है। चार साल तो ठीक-ठाक चला लेकिन अंतिम साल में महंगाई के भूत ने दबोच लिया। ऐसे में वह हर जतन करना चाहती है, जिससे महंगाई के दबाव को कम किया जा सके। अकबर इलाहाबादी ने शायद सत्तासीन संप्रग सरकार की ऐसी ही हालत के लिए लिखा था-
खूब उम्मीदें बढ़ीं लेकिन हुईं हिरमाँनसीब,
बदलियां उट्ठीं, मगर बिजली गिराने के लिए।

1 comment:

Udan Tashtari said...

अच्छा आलेख. प्रस्तुत करने का आभार.