Tuesday, September 9, 2008

अहमद फ़राज़ की ग़ज़ल -3

इक संगतराश1 जिसने बरसों
हीरों की तरह सनम2 तराशे
आज अपने सनमकदे3 में तन्हा
मजबूर, निठाल, ज़ख़्मखुर्दा4
दिन रात पड़ा कराहता है।

1. पत्थर तराशने वाला,
2. मूर्ति
3. मूर्ति घर, मंदिर,
4. घाव से परेशान

कज1 अदाओं की इनायत2 है कि हमसे इश्शाक़3
कभी दीदार के पीछे कभी दीदार के बीच
तुम होना खुश तो यहाँ कौन है खुश भी फराज़
लोग रहते हैं इसी शहरे-दिल-आजार4 के बीच

मुहब्बतों का भी मौसम है जब गुज़र जाए
सब अपने-अपने घरों को तलाश करते हैं।

सुना है कि कल जिन्हें दस्तारे-इफ़्तिख़ार5 मिली
वह आज अपने सरों को तलाश करते हैं।
रात क्या सोए कि बाकी उम्र की नींद गई
ख़्वाब क्या देखा कि धड़का लग गया ताबीर6 का

अब तो हमें भी तर्के-मिरासिम7 का दुख नहीं
पर दिल यह चाहता है कि आगाज़8 तू करे

अब तो हम घर से निकलते हैं तो रख देते हैं
ताक पर इज़्ज़ते-सादात9 भी दस्तार10 के साथ

हमको इस शहर में तामीर11 का सौदा है जहाँ
लोग मेमार12 को चुन देते हैं दीवार के साथ

1. कुटिल, वक्र, 2. कृपा, 3. प्रेमी, 4. जख्मी दिल शहर 5. पगड़ी का सम्मान, 6. साकार, 7. संबंध-विच्छेद, 8. प्रारंभ, 9. सैयदों की इज़्ज़त, 10. पगड़ी, 11. निर्माण। 12. निर्माता

इतने सुकून के दिन कभी देखे न थे ‘फ़राज़’
आसूदगी1 ने मुझको परेशान कर दिया

रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़2 करती हैं
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं।

राहे-वफ़ा3 में हरीफ़े-ख़राम4 कोई तो हो
सो अपने आप से आगे निकलके देखते हैं।

1. संपन्नता, 2. परिक्रमा, 3. प्रेम का पथ, 4. प्रतिद्वंदी साथी

मुझे तेरे दर्द के अलावा
भी और दुख थे यह मानता हूँ
हज़ार गम थे जो ज़िंदगी की
तलाश में थे यह जानता हूँ
मुझे ख़बर थी कि तेरे आँचल
में दर्द की रेत छानता हूँ

मगर हर एक बार तुझको छूकर
यह रेत रंगे-हिना1 बनी है
यह जख़्म गुलज़ार बन गए हैं
यह आहे-सोज़ाँ घटा बनी है
यह दर्द मौजे-सबा2 बनी है
आग दिल की सदी बनी है
और अब यह सारी मताए-हस्ती3
यह फूल यह जख़्म सब तेरे हैं
यह दुख के नोहे4 यह सुख के नग़में
जो कल मेरे थे वो अब तेरे हैं
जो तेरी कुरबत5 तेरी जुदाई
में कट गए रोज़ो-शब6 तेरे हैं

(ये मेरी ग़ज़लें, ये मेरी नज़्में)

यह कौन मासूम हैं
कि जिनको
स्याह7 आँधी
दीये समझकर बुझा रही है
उन्हें कोई जानना नहीं है
उन्हें कोई जानना न चाहे
यह किस क़ाबिल के सरबकफ़-जॉनिसार8 हैं
जिनको कोई पहचानना न चाहे
कि उनकी पहचान इम्तहान है
न कोई बच्चा, न कोई बाबा, न कोई माँ है
महल सराओं में खुश-मुकद्दर9
श्य्यूख़10 चुप
बादशाह चुप हैं
हरम के पासबान11
आलम पनाह चुप है।
तमाम अहले-रिया12 कि जिनके लबों पे है
‘लाइलिहा’ चुप हैं
(-बेरुत-1)

1. मेहंदी का रंग, 2. सुबह की हवा, 3. वजूद की पूँजी, 4. शोकगीत, 5. प्रेम, 6. दिन-रात, 7. काली, 8. सर पर कफन बांध, जान देने वाले, 9 अच्छा भाग्यशाली, 11 पहरेदार, 12, तमाम जनता

कौन इस कत्ल-गाहे-नाज1 के समझे इसरार
जिसने हर दशना2 को फूलों में छुपा रखा है
अमन की फ़ाख़्ता उड़ती है निशां पर लेकिन
नस्ले-इंसाँ को सलीबों3 पे चिढ़ा रखा है
इस तरफ नुफ्त4 की बाराने-करम5 और इधर
कासाए-सर6 से मीनारों को सजा रखा है।
(-सलामती कौउंसिल)
मुझे यकीन है
कि जब भी तारीख की अदालत में
वक़्त लाएगा
आज के बे-जमीर-ब-दीदा-दलेर कातिल7 को
जिसकी दामानों-आसतीं
ख़ून बेगुनाही से तरबतर हैं
तू नस्ले-आदम
वुफूर-नफरत8 से सुए-क़ातिल पे थूक देगी
मगर मुझे भी यक़ीन है
कि कल तारीख़
नस्ले-आदम से यह पूछेगी
ऐ-मुहज़्जब जहाँ9 की मख़लूक़10
कल तेरे रूबरू यही बेज़मीर क़ातिल
तेरे क़बीले के बेगुनाहों को
जो तहतेग़11 कर रहा था
तो तू तमाशाइयों की सूरत
ख़ामोश व बेहिस
दरिंदगी के मुज़ाहिरे12 में शरिक
क्यों देखती रही है
तेरी यह सब नफ़रतें कहाँ थीं
बता कि इस ज़ुल्म-कैश क़ातिल की तेग़बर्रा13 में
और तेरी मसलेहत के तीरों में
फ़र्क़ क्या है ?
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1. दबाव, चाकू, 3. फाँसी, 4. वाणी, 5. वर्षा की कृपा, 6. सिर के कटोरों, 7. हृदयविहीन, बेशर्म हत्यारा, 8. प्रभु घृणा, 9. सभ्यसंसार, 10. रचना, 11. हत्या, 12. प्रदर्शन, 13. तलवार की धार

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