ए. के. भट्टाचार्य
देश में 24*7 टेलीविजन समाचार चैनलों की मौजूदगी दर्ज होने से बहुत पहले ही अंग्रेजी में भारत की पहली विडियो समाचार पत्रिका पेश करने का श्रेय मधु त्रेहन को जाता है। मधु ने बेहतर शोध के बाद उस समय मौजूदा सरकार के चेहरे पर से पर्दे हटाने वाले मीडिया प्रयासों पर एक किताब लिखी है।
साथ ही उनकी यह किताब सभी को हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं, प्रणालियों और संस्थानों की खूबियां और खामियों से रूबरू कराती है। उनकी किताब का विषय एक वेबसाइट,तहलका की ओर से किया गया स्टिंग ऑपरेशन है।
13 मार्च, 2001 को देशभर का मन खट्टा हो गया, क्योंकि उस दिन केंद्रीय सत्ता में मौजूद नेताओं का ऐसा मिलन देखने को मिला था, जिसमें उन्हें पैसे लेते हुए या फिर उनकी जुबानी उनकी पार्टियों के लिए पैसे लेते हुए सुना गया।
उन्होंने ये पैसे लिए भी तो उस व्यक्ति से, जिसका दावा था कि वह एक हथियारों का कारोबार करने वाली कंपनी का एजेंट है। तहलका की टेपों ने उससे कहीं ज्यादा खुलासा किया- एक सेना अधिकारी और उसके सहायक कुछ हजार रुपयों और एक महिला के साथ के बदले गुप्त दस्तावेज एजेंट को सौंप रहे थे।
तहलका खुलासे के बाद जो हुआ वह भी कम नहीं था। जहां कैमरे में कैद कुछ नेताओं पर ऐसा दबाव बनाया गया कि वे अपने-अपने इस्तीफे दे दें। जांच में सेना अधिकारियों को भी दोषी पाया गया और उन्हें निकाल दिया गया, वहीं दूसरी तरफ सरकारी तंत्र हरकत में आ गया ताकि पता चल सके कि कहीं इस 'स्टिंग' ऑपरेशन के पीछे कोई साजिश तो नहीं।
एक आयोग की जांच-पड़ताल साजिश को ध्यान में रखकर शुरू हुई, जिसके साथ इस खुलासे की योजना बनाने वाले सभी पत्रकारों पर हर तरह के दबाव डाले जाने लगे। तहलका के निवेशकों को काफी प्रताड़ित किया गया और उन्हें आर्थिक अपराधों को अंजाम देने के लिए आरोपी ठहराया गया। इसके लिए उनमें से एक को जेल तक भेजा गया।
जैसा कि त्रेहन अपनी इस किताब में कहती हैं, तहलका टेपों और उसके बाद के मामलों से पता चलता है कि भारत का प्रशासन तंत्र कितना दूषित हो चुका है। ऊंचे पदों पर जिनमें सत्ताधारी पार्टी के राजनेता भी शामिल हैं, भ्रष्टाचार अपने पैर पसार चुका है।
लेकिन जब कभी भ्रष्टाचार के इस तरह के मामले सामने आते हैं, सरकार को भारी चोट लगती है और वह अक्सर मामले का भांडा फोड़ करने वाले को चुप कराने के अपने प्रयास में सफल भी हो जाती है।
लोगों की स्मृति में ये मामले जल्द धुंधले पड़ जाते हैं और भारतीय मीडिया कभी-कभार ही इस तरह के मामलों की गहराई में जाता है। कोई कभी इस ओर ध्यान नहीं देता कि सरकार ने अपनी शक्तियों का दुरुपयोग तो नहीं किया और सरकार की ओर से पत्रकारों को किसी भ्रष्टाचार के मामले का खुलासा करने से रोकने के लिए लुभाने की कोशिश तो नहीं की गई या मीडिया की ओर से भ्रष्टाचार का खुलासा करने का तरीका सही था या नहीं।
यह जानकारी मिलने से पहले ही मीडिया किसी दूसरी बड़ी घटना या अगले घोटाले को कवर करने के लिए आगे बढ़ जाता है। फलस्वरूप, कोई यह नहीं जान पाया कि क्या तहलका खुलासे के पीछे वाकई कोई साजिश थी और क्या तहलका के निवेशकों के खिलाफ सरकारी कार्रवाई करना उचित था या नहीं।
त्रेहन की यह किताब तहलका 'स्टिंग' ऑपरेशन के करीबी मामलों पर हमारी समझ, हमारी सोच के अंतर को भरने के लिए एक गंभीर प्रयास है। उन्होंने तहलका और इस खुलासे से जुड़े लोगों के साथ 40 साक्षात्कारों का सहारा लिया है।
इस प्रक्रिया के दौरान हमें 'स्टिंग' ऑपरेशन को अंजाम देने वाले कुछ पत्रकारों (वाकई वे पत्रकार थे?) के बारे में जानने का मौका मिला है। हमने जाना कि प्रेस काउंसिल की आचार संहिता से कैसे कुछ संपादक अपरिचित हैं ।
कैसे सरकारी वकील आरोपी को जमानत नही दिए जाने की खातिर अदालतों को मना पाने में कामयाब रहे या तहलका टेप में जिनके चेहरे पहचाने जा रहे हैं उनमें से कुछ क्यों परस्पर विरोधी बातें कह रहे हैं, जबकि खुलासे के दौरान उन्होंने कुछ और ही कहा था।
किताब में इस बात के भी कुछ संकेत दिए हैं कि कैसे वरिष्ठ तहलका पत्रकार खुलासे के लिए किसे ज्यादा श्रेय जाए इस बात पर भी गुटों में बंट गए। साथ ही तहलका के कुछ शुरुआती निवेशक परियोजना से अलग क्यों हो गए, इस बात का स्पष्टीकरण भी उतना ही दिलचस्प है।
विन्यास के नजरिये से देखें तो यह किताब थोड़ी ढीली है और निश्चित रूप से इसका संपादन भी कुछ बेहतर हो सकता था। लेकिन इस किताब की एक खूबी है। एक बार जब आप किताब का पहला अध्याय पढ़ लेंगे, जिसमें किताब के केंद्र बिंदु का जिक्र किया गया है, फिर आप तहलका मामले के विभिन्न पहलुओं की जानकारी हासिल करने के लिए बचे हुए 27 अध्यायों में से किसी को भी चुन सकते हैं।
इस किताब में साक्षात्कारों का इस्तेमाल इस तरह से किया गया है कि वे किसी भी अध्याय में प्रवाह को तोड़ते नहीं हैं। अब तक किताब किसी ठोस निष्कर्ष तक नहीं पहुंची कि आखिर हुआ क्या था।
वेबसाइट के संपादक तरुण तेजपाल का कहना है कि उन्होंने अपने प्रतिनिधि को लंदन में हिंदुजा से मिलने जाने दिया, लेकिन उन्होंने खुद यह फैसला किया कि जिस भवन में यह बैठक हो रही है, वे वहां नहीं जाएंगे। क्या तहलका प्रवर्तकों के दिमाग में 'स्टिंग' ऑपरेशन करने के लिए कुछ और ही एजेंडा था? इस सवाल का कोई साफ जवाब नहीं है।
त्रेहन का कहना है कि किसी घटना को समझने या उसके पेश करने के अलग-अलग लोगों के तरीके अलग-अलग होते हैं यानी सच्चाई कई तरह की होती है। उद्देश्यपूर्ण तरीके से त्रेहन की अलग-अलग सच्चाई को पेश करने की क्षमता और जल्द निष्कर्ष पर पहुंचने की लालसा को बनाए रखना काबिल-ए-तारीफ है। यह किताब, किताब कम और तहलका मामले पर शोध करने वालों के दस्तावेज अधिक लगती है।
पुस्तक समीक्षा
प्रिज्म मी ए लाइ टेल मी ए ट्रूथ तहलका एज मेटाफर
लेखिका : मधु त्रेहन
प्रकाशक: रोली बुक्स
कीमत: 595 रुपये
पृष्ठ: 616
http://hindi.business-standard.com/hin/storypage.php?autono=14228
1 comment:
तहलका मुझे हल्का फिनामिना लगता है। सनसनी पर जीने वाला।
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