Thursday, November 19, 2009

आखिर क्यों न मिले गन्ने का उचित दाम...क्या कंपनियां और सरकार जवाबदेह नहीं?

दिल्ली में आज गन्ना किसानों ने जोरदार प्रदर्शन किया। उनकी सिर्फ एक मांग है कि गन्ने का उचित दाम मिलना चाहिए। बेशर्म सरकार ने ऐसे समय में गन्ने का कथित रूप से उचित और लाभकारी मूल्य १२९ रुपये क्विंटल तय कर दिया, जब गुड़ बनाने वाली खांडसारी इकाइयां किसानों को २०० रुपये क्विंटल गन्ने का दाम दे रही थीं। चीनी कंपनियों और सरकार का पेट इतना बड़ा है कि भरने का नाम ही नहीं ले रहा है, चाहे जितना उसमें गन्ना किसानों का खून और पसीना डाला जाए।
जन्तर मंतर पर ४ दिन से प्रदर्शन चल रहा है। किसानों के चेहरे पर बेबसी साफ झलकती है। राजनीति करने वाले राजनीति कर रहे हैं, करना भी चाहिए। कंपनियों ने चीनी की कमी दिखाकर करोड़ो कमाए और अब चीनी के दाम ३६ रुपये किलो के करीब तय जो चुके हैं। शीरे का दाम कंपनियां बढ़ाकर २६ रुपये लीटर करने की तैयारी कर रही हैं, ऐसे में किसानों को क्यों बेबस बनाए रखना चाहती है सरकार।
किसानों के पास इसका तर्क भी है कि क्यों उन्हें ज्यादा दाम मिलना चाहिए। बागपत शुगर फैक्ट्री (सहकारी) के अध्यक्ष एवं उत्तर प्रदेश के तमाम सहकारी मिलों के अध्यक्षों के संगठन के चेयरमैन प्रताप सिंह गुर्जर किसानों की इस मांग को सही ठहराते हुए कहते हैं, 'थोक बाजार में चीनी की मौजूदा कीमत 3,600 रुपये प्रति क्विंटल है। पेराई से निकले बगास 280 रुपये प्रति क्विंटल, शीरा 1,600 रुपये प्रति क्विंटल और प्रेस मड 126 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बिकते हैं। एक क्विंटल गन्ने से करीब 10 किलोग्राम चीनी का उत्पादन होता है। यानी अन्य सह उत्पादों को छोड़ भी दिया जाए तो एक क्विंटल गन्ने से केवल 360 रुपये की चीनी बनती है। ऐसे में 165-170 रुपये प्रति क्विंटल गन्ने की कीमत को कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता।'
आखिर सरकार को ये क्यों समझ में नहीं आता? क्या चुनाव के पहले चीनी कंपनियों से इतना ब्लैक मनी वसूल लिया गया था कि १५ रुपये किलो लागत वाली चीनी ६ महीने तक ३० रुपये किलो बेचवाने के बाद भी कंपनियों का सरकार पर चढ़ा एहसान नहीं उतर रहा है?

4 comments:

सहसपुरिया said...

शुक्रिया, ये मुद्दा ब्लॉग पर उठाने के लिए, वरना ब्लॉग वाले तो 'धर्म' बचाने मैं लगे हुए हैं. ये कैसी विडंबना है के यह लोगो असली मुद्दो को भूल कर ,अपने आपको बुद्धिजीवी साबित करने मैं लगे हुए हैं, किसानो का दर्द कौन समझेगा, संस्कृति से ज़्यादा ज़रूरी धरतीपुत्र को बचना हैं, क्यों नही सब मिल कर गन्ना किसानो के हक़ मैं खड़े होते.

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

इनके पास अपनी मूर्तिया सजाने के लिए पैसा है , इनके पास तेल कुंए में जलाने के लिए पैसा है, इनके पास पैसे का कॉमन खेल खेलने के लए पैसा है, मगर जो किसान म्हणत कर इनका पेट भर रहा है उसको देने के लिए इनके पास पैसा(फंड ) नहीं है !

RAJ SINH said...

सत्येन्द्र जी ,
आप का यह लेख और बाकी के भी लगातार पढता रहा .जन सरोकारों पर आपकी नज़र को सलाम !

सोचते सोचते यही ज़िंदगी गुजर गयी .उम्र हो आयी .किया क्या जाये .कुछ तो करना ही होगा .
हम से ,जो भी हैं ,जहां भी ,कुछ कर सकते हैं ? कुछ जमीन पर उतरे बिना नहीं बनेगा .
अब तो ये सूरत बदलनी चाहिए ........

Gyan Dutt Pandey said...

मेरे पास तो आयातित कच्ची चीनी का एक रेक बहुत दिनों से स्टेबल पड़ा है। किसी की हिम्मत नहीं हो रही उसकी डिलिवरी ले प्रयोग करने की। देखें क्या होता है!