सत्येंद्र प्रताप सिंह / सहरसा September 03, २००८
सहरसा से अमृतसर जाने वाली रेलगाड़ी जैसे ही प्लेटफॉर्म पर पहुंचती है, स्टेशन पर भयंकर चीख-पुकार मच जाती है। ठसा-ठस भरे प्लेटफॉर्म पर लोग परिजनों को चीख-चीख कर बुला रहे हैं, ताकि जल्द से जल्द गाड़ी में बैठकर इस इलाके से निकल सकें।
प्रधानमंत्री ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना सहित राज्य की विभिन्न योजनाओं के तहत काम मिलने लगा, तो मजदूर दूसरे राज्यों से घर वापस लौटने लगे थे, लेकिन बाढ़ ने जब सबको बेघर कर दिया, तो लाखों की संख्या में नए दिहाड़ी मजदूर भी पैदा हो गए, जो किसी तरह बाढ़ वाले इलाकों से निकल भाग जाना चाहते हैं। सहरसा से पटना-दिल्ली जाने वाली हर ट्रेन का यही हाल है।
मुरादपुर ब्लॉक के बिहारीगंज में रहने वाले 70 वर्षीय धनश्याम झा पूरे कुनबे के साथ अपने रिश्तेदार के घर पटना जा रहे हैं। गांव में आई बाढ़ से जूझते हुए, जब जान पर बन आई, तो एक निजी नाविक को 3,000 रुपये देकर किसी तरह बाहर निकले। अब उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि जाएं, तो कहां जाएं!वहीं मजदूर वर्ग के लोग सीधा महानगरों का रुख कर रहे हैं। सुपौल जिले के सियानी गांव के रवि यादव पंजाब जा रहे हैं, उनका परिचित वहां नौकरी करता है। वह इस आस में जा रहे हैं कि उन्हें पंजाब में कोई काम मिल जाएगा, जिससे दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो जाएगा। उसके बाद वह पूरे परिवार को वहां लाने की सोचेंगे। फिलहाल, मां, बाप, बहन को बांध पर छोड़ आए हैं।
बहुत से ऐसे मजदूर भी हैं, जो बाहर जाकर काम करते हैं और अब पूरे परिवार को लेकर पलायन कर रहे हैं। सहरसा के जमरा गांव के दिनेश सिंह दिल्ली के बदरपुर इलाके में रहकर वाहन चालक का काम करते हैं। अब वे पूरे कुनबे को लेकर दिल्ली जा रहे हैं। उन्होंने कहा, 'जान बच गई तो कुछ न कुछ काम तो मिल ही जाएगा।' सच तो यह है कि बिहार का कोसी इलाका कृषि के लिए उपयुक्त माना जाता है, बावजूद इसके उचित जल-प्रबंधन के अभाव में हर साल नए मजदूर पैदा हो रहे हैं। महानगरों में पुल-इमारत आदि बनाने के लिए अनुमानत: इस साल करीब 5 लाख मजदूर तैयार हो चुके हैं। जिनके दम पर रियल एस्टेट, आधारभूत क्षेत्र और छोटे-बड़े उद्योग चलते हैं, फिर भी मजदूरों की हालत दयनीय है।
बाढ़ ने तो इस इलाके के लोगों की उम्मीदों पर पूरी तरह से पानी फेर दिया है, वे पूरी तरह से लाचार नजर आ रहे हैं। गुजरात समेत अन्य राज्यों के प्राकृतिक आपदा की तरह यहां न तो कोई बचाव कार्य होता है और न ही पुनर्वास का काम। पेशे से शिक्षक डॉ. मनोरंजन झा कहते हैं कि क्या जरूरत पड़ी है यहां उद्योग जगत के लोगों को आकर किसी गांव को गोद लें-फिर से बसाएं। उन्हें तो विस्थापन बाद मुफ्त के मजदूर मिलेंगे।
1 comment:
प्रभावी आलेख.
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