सत्येन्द्र प्रताप सिंह
सहरसा जिले के नवहट्टा क्षेत्र स्थित झंगहा गांव में रहने वाले शिवशंकर झा अपनी उम्र का पैंसठवां पड़ाव पार कर चुके हैं। पिछले 15 साल से कोसी नदी के तटबंध उन्हें हर साल डराते हैं। कोसी तटबंध पर मिले झा ने कहा, 'कोसी इलाके में ही जन्म हुआ और इसी की माटी पर पला, बढ़ा हूं। अब पिछले 15 साल से हालत यह है कि बारिश शुरू होते ही रात की नींद गायब हो जाती है। जैसे ही सुनते हैं कि नदी में पानी बढ़ रहा है तो रात को नींद नहीं आती है। तटबंध पर घूमने निकल जाता हूं और देखता हूं कि कहीं तटबंध टूट न जाए।Ó ऐसी स्थिति केवल उन्हीं की नहीं है। नहर के किनारे बसे हजारों गावों के लोग बरसात के मौसम में तटबंध पर घूमते मिलते हैं। उनके बीच केवल एक ही चर्चा रहती है कि कहां-कहां पर तटबंध की कटान हो रही है। नवहट्टा से सटे मल्लाह जाति की फुलिया देवी भी तटबंध पर ही मिलीं। वे शाहपुर की मुखिया हैं। बुजुर्ग होने के साथ-साथ ही उन्होंने कोसी में हो रहे बदलाव को देखा है। बताती हैं, 'अगर किसी भी चीज की देखभाल बंद कर दी जाए, तो आखिर वह कब तक टिकेगी। तटबंध तो मिट्टी की दीवार भर है। पिछले बीस साल से देख रही हूं कि इस पर कभी मिट्टी नहीं पड़ी है।Ó दरअसल कोसी नदी के तटबंध की क्षमता लगातार कम हो रही है। बीरपुर से कोपरिया तक पूर्वी तटबंध की लंबाई 125 किलोमीटर है जो पूरी तरह से जर्जर हो चुकी है। कुछ ऐसा ही हाल 120 किलोमीटर लंबे पश्चिमी तटबंध का भी है। जर्जर हो चुके पूर्वी तटबंध पर सुरंगनुमा रेनकट बन गए हैं। हालत यह है कि पानी बढ़ते ही सिंचाई विभाग के इंजिनियरों को इसे बचाने के लिए नाकों चने चबाने पड़ते हैं। सिंचाई विभाग के इंजिनियरों का कहना है कि कोसी नदी को नियंत्रित करने के लिए 1955 में तटबंध का निर्माण शुरू किया गया था, जो 1964 में पूरा कर लिया गया। तटबंध बनने के बाद नदी की जलग्रहण क्षमता बहुत ज्यादा थी। 1969 में अधिकतम प्रवाह 9 लाख क्यूसेक मापा गया था। 1990 के बाद नदी में अधिकतम जल प्रवाह 5 से 5।5 लाख क्यूसेक ही रहा है। दोनों तटबंधों के बीच की चौड़ाई 11 किलोमीटर है। शाहपुर गांव के शंकर यादव बताते हैं कि बिहार में जब कांग्रेस का राज था, तो यहां पर चौकी बनाई गई थी। चौकी में हमेशा यहां चौकीदार तैनात रहता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। तटबंध पर जब पानी का दबाव बढ़ता है, उसे रोकने के लिए बांस के खंभे गाड़े जाते हैं, उसके सहारे बालू की बोरियां रखी जाती हैं। गांव के लोग बताते हैं कि सरकार ने इस साल बोल्डर भी गिराए हैं, जिन्हें तटबंध पर बने स्पर के नोज पर रखा गया है। ऐसा पहली बार हुआ है। नवहट्टा स्थित तटबंध पर तैनात सिंचाई विभाग के कर्मचारियों ने कहा कि कटान बढऩे पर ये बोल्डर स्पर के नोज पर रख दिए जाएं, ऐसी व्यवस्था की गई है। गांव वाले सवाल उठाते हैं कि आखिर में जर्जर हो चुके तटबंध कोसी की धार को कब तक थामेंगे? जैसे-जैसे बारिश तेज होती है, बांध के बाहर रह रहे गावों के लोगों की धड़कने तेज होने लगती हैं। तटबंध पर मिले राम सुंदर की उम्र 70 साल हो चुकी है। उन्होंने कहा कि हर साल जब पानी बढ़ता है तो हम लोगों को तटबंध पर आना पड़ता है। तटबंध की मरम्मत के बारे में पूछे जाने पर उनका कहना है कि याद नहीं है कि कभी इस पर मिट्टी भी पड़ी हो। उनका कहना है कि जहां बारिश से कटान ज्यादा हो जाती है, तो उसे मिट्टी डालकर पाट दिया जाता है, बाकी तो आप देख ही रहे हैं कि क्या हालत है।तटबंध के रास्ते बीरपुर से सुपौल आने पर तमाम जगह ऐसी है, जहां तटबंध करीब-करीब खेत के बराबर पहुंच गया है। हालांकि कुछ जगहों पर पिच रोड भी है, लेकिन अधिकांश रास्ता जर्जर हालत में ही है। करीब 45 साल की उम्र पार कर चुके तटबंध को अब किसी उद्धारक की प्रतीक्षा है। भारी मात्रा में सिल्ट जमा हो जाने के कारण तटबंधों की क्षमता घट गई है, वहीं अपना आकार खो चुके तटबंध जलस्तर बढ़ते ही ग्रामीणों को डराने लगते हैं। डर पिछले साल से और ज्यादा बढ़ गया है, क्योंकि केवल 1,67000 क्यूसेक पानी में ही कुसहा में तटबंध टूट गया था। ऐसे में 27 अगस्त की रात तटबंध के किनारे रहने वाले ग्रामीणों ने रतजगा करके काटा था, जब उन्हें रेडियो पर खबर मिली कि 3,12,780 क्यूसेक पानी आ गया है। साथ ही राज्य सरकार भी इलाके के लोगों को पहली बार चुस्त नजर आई, जब ज्यादा पानी आने पर जल संसाधन विभाग के अभियंता प्रमुख (उत्तर) राजेश्वर दयाल बीरपुर पहुंच गए और उन्होंने दो दिन तक कैंप किया। कोसी नदी में इस समय इतना बालू भर गया है कि पूरे बारिश में तटबंध के बाहर के गांवों में कच्चे मकानों में खुद-ब-खुद पानी भर जाता है। हैंडपंप से चौबीसों घंटे अपने आप पानी निकलता रहता है। रात को सोने के बाद खटिया के नीचे से पानी बाहर निकालना पड़ता है। तमाम इलाके तो ऐसे हैं, जहां तटबंध के रेनकट भरने का जिम्मा भी ग्रामीणों ने ले रखा है। बलवा गांव के मदन मोहन मिश्र ने बताया कि तटबंधों पर काम होता ही नहीं है, बारिश होती है तो रातभर नींद नहीं आती। उन्होंंने कहा कि गांव के लोग ही चंदा लगाकर खुद रेनकट भरते हैं। नौलखा गांव में पहुंचने पर तटबंध की हालत और भी खस्ता नजर आती है। हालांकि इस पर लोगों के आने जाने के लिए मिनी बस भी चलती नजर आई। सड़क ऐसी है कि बस कब पलट जाए, कोई भरोसा नहीं। मजाल क्या है कि इस सड़क पर कोई चार पहिया वाहन 15 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार पार कर ले। लेकिन ग्रामीण तो इसे ही अपनी नियति मान चुके हैं। सभी निराश हैं- उन्हें बदलाव की कोई राह नजर नहीं आती।
सहरसा जिले के नवहट्टा क्षेत्र स्थित झंगहा गांव में रहने वाले शिवशंकर झा अपनी उम्र का पैंसठवां पड़ाव पार कर चुके हैं। पिछले 15 साल से कोसी नदी के तटबंध उन्हें हर साल डराते हैं। कोसी तटबंध पर मिले झा ने कहा, 'कोसी इलाके में ही जन्म हुआ और इसी की माटी पर पला, बढ़ा हूं। अब पिछले 15 साल से हालत यह है कि बारिश शुरू होते ही रात की नींद गायब हो जाती है। जैसे ही सुनते हैं कि नदी में पानी बढ़ रहा है तो रात को नींद नहीं आती है। तटबंध पर घूमने निकल जाता हूं और देखता हूं कि कहीं तटबंध टूट न जाए।Ó ऐसी स्थिति केवल उन्हीं की नहीं है। नहर के किनारे बसे हजारों गावों के लोग बरसात के मौसम में तटबंध पर घूमते मिलते हैं। उनके बीच केवल एक ही चर्चा रहती है कि कहां-कहां पर तटबंध की कटान हो रही है। नवहट्टा से सटे मल्लाह जाति की फुलिया देवी भी तटबंध पर ही मिलीं। वे शाहपुर की मुखिया हैं। बुजुर्ग होने के साथ-साथ ही उन्होंने कोसी में हो रहे बदलाव को देखा है। बताती हैं, 'अगर किसी भी चीज की देखभाल बंद कर दी जाए, तो आखिर वह कब तक टिकेगी। तटबंध तो मिट्टी की दीवार भर है। पिछले बीस साल से देख रही हूं कि इस पर कभी मिट्टी नहीं पड़ी है।Ó दरअसल कोसी नदी के तटबंध की क्षमता लगातार कम हो रही है। बीरपुर से कोपरिया तक पूर्वी तटबंध की लंबाई 125 किलोमीटर है जो पूरी तरह से जर्जर हो चुकी है। कुछ ऐसा ही हाल 120 किलोमीटर लंबे पश्चिमी तटबंध का भी है। जर्जर हो चुके पूर्वी तटबंध पर सुरंगनुमा रेनकट बन गए हैं। हालत यह है कि पानी बढ़ते ही सिंचाई विभाग के इंजिनियरों को इसे बचाने के लिए नाकों चने चबाने पड़ते हैं। सिंचाई विभाग के इंजिनियरों का कहना है कि कोसी नदी को नियंत्रित करने के लिए 1955 में तटबंध का निर्माण शुरू किया गया था, जो 1964 में पूरा कर लिया गया। तटबंध बनने के बाद नदी की जलग्रहण क्षमता बहुत ज्यादा थी। 1969 में अधिकतम प्रवाह 9 लाख क्यूसेक मापा गया था। 1990 के बाद नदी में अधिकतम जल प्रवाह 5 से 5।5 लाख क्यूसेक ही रहा है। दोनों तटबंधों के बीच की चौड़ाई 11 किलोमीटर है। शाहपुर गांव के शंकर यादव बताते हैं कि बिहार में जब कांग्रेस का राज था, तो यहां पर चौकी बनाई गई थी। चौकी में हमेशा यहां चौकीदार तैनात रहता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। तटबंध पर जब पानी का दबाव बढ़ता है, उसे रोकने के लिए बांस के खंभे गाड़े जाते हैं, उसके सहारे बालू की बोरियां रखी जाती हैं। गांव के लोग बताते हैं कि सरकार ने इस साल बोल्डर भी गिराए हैं, जिन्हें तटबंध पर बने स्पर के नोज पर रखा गया है। ऐसा पहली बार हुआ है। नवहट्टा स्थित तटबंध पर तैनात सिंचाई विभाग के कर्मचारियों ने कहा कि कटान बढऩे पर ये बोल्डर स्पर के नोज पर रख दिए जाएं, ऐसी व्यवस्था की गई है। गांव वाले सवाल उठाते हैं कि आखिर में जर्जर हो चुके तटबंध कोसी की धार को कब तक थामेंगे? जैसे-जैसे बारिश तेज होती है, बांध के बाहर रह रहे गावों के लोगों की धड़कने तेज होने लगती हैं। तटबंध पर मिले राम सुंदर की उम्र 70 साल हो चुकी है। उन्होंने कहा कि हर साल जब पानी बढ़ता है तो हम लोगों को तटबंध पर आना पड़ता है। तटबंध की मरम्मत के बारे में पूछे जाने पर उनका कहना है कि याद नहीं है कि कभी इस पर मिट्टी भी पड़ी हो। उनका कहना है कि जहां बारिश से कटान ज्यादा हो जाती है, तो उसे मिट्टी डालकर पाट दिया जाता है, बाकी तो आप देख ही रहे हैं कि क्या हालत है।तटबंध के रास्ते बीरपुर से सुपौल आने पर तमाम जगह ऐसी है, जहां तटबंध करीब-करीब खेत के बराबर पहुंच गया है। हालांकि कुछ जगहों पर पिच रोड भी है, लेकिन अधिकांश रास्ता जर्जर हालत में ही है। करीब 45 साल की उम्र पार कर चुके तटबंध को अब किसी उद्धारक की प्रतीक्षा है। भारी मात्रा में सिल्ट जमा हो जाने के कारण तटबंधों की क्षमता घट गई है, वहीं अपना आकार खो चुके तटबंध जलस्तर बढ़ते ही ग्रामीणों को डराने लगते हैं। डर पिछले साल से और ज्यादा बढ़ गया है, क्योंकि केवल 1,67000 क्यूसेक पानी में ही कुसहा में तटबंध टूट गया था। ऐसे में 27 अगस्त की रात तटबंध के किनारे रहने वाले ग्रामीणों ने रतजगा करके काटा था, जब उन्हें रेडियो पर खबर मिली कि 3,12,780 क्यूसेक पानी आ गया है। साथ ही राज्य सरकार भी इलाके के लोगों को पहली बार चुस्त नजर आई, जब ज्यादा पानी आने पर जल संसाधन विभाग के अभियंता प्रमुख (उत्तर) राजेश्वर दयाल बीरपुर पहुंच गए और उन्होंने दो दिन तक कैंप किया। कोसी नदी में इस समय इतना बालू भर गया है कि पूरे बारिश में तटबंध के बाहर के गांवों में कच्चे मकानों में खुद-ब-खुद पानी भर जाता है। हैंडपंप से चौबीसों घंटे अपने आप पानी निकलता रहता है। रात को सोने के बाद खटिया के नीचे से पानी बाहर निकालना पड़ता है। तमाम इलाके तो ऐसे हैं, जहां तटबंध के रेनकट भरने का जिम्मा भी ग्रामीणों ने ले रखा है। बलवा गांव के मदन मोहन मिश्र ने बताया कि तटबंधों पर काम होता ही नहीं है, बारिश होती है तो रातभर नींद नहीं आती। उन्होंंने कहा कि गांव के लोग ही चंदा लगाकर खुद रेनकट भरते हैं। नौलखा गांव में पहुंचने पर तटबंध की हालत और भी खस्ता नजर आती है। हालांकि इस पर लोगों के आने जाने के लिए मिनी बस भी चलती नजर आई। सड़क ऐसी है कि बस कब पलट जाए, कोई भरोसा नहीं। मजाल क्या है कि इस सड़क पर कोई चार पहिया वाहन 15 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार पार कर ले। लेकिन ग्रामीण तो इसे ही अपनी नियति मान चुके हैं। सभी निराश हैं- उन्हें बदलाव की कोई राह नजर नहीं आती।
इनकी भी जिंदगी है
नवहट्टा के पास तटबंध पर मिले अनूप शर्मा और धनिक शर्मा झरबा गांव से आए हैं। उन्हें घर जाने के लिए नाव की प्रतीक्षा है। झरबा गांव कोसी नदी के दोनों तटबंधों के बीच में बसा है। हर साल बाढ़ का पानी इनके घरों को डुबोता है। घरों का डूबना, सामान लेकर बाहर निकल आना और पानी कम होने पर फिर से वहीं आशियाना बसा लेना इनकी जिंदगी है। भेलाही गांव के ललन पासवान बताते हैं कि 40-45 गांव के लोग हैं, तो इसी स्थान से नाव पकड़कर अपने घरों को जाते हैं। कोसी तटबंध के भीतर बीरपुर से लेकर कुशेश्वर स्थान तक करीब 800 छोटे-छोटे टोले और गांव हैं, जो हर साल पानी में डूबते हैं और बाहर निकलकर अपने रिश्तेदारों और तटबंधों पर तीन महीने के लिए आशियाना बसा लेते हैं। इन गावों के ज्यादातर लोग पलायन कर चुके हैं। हर परिवार के लोग कहीं न कहीं दूसरे राज्य में जाकर नौकरी करता है और परिवार के कुछ लोग तटबंध के भीतर रहते हैं। यहां बाकायदा पंचायतें हैं, वोटिंग होती है और ये लोग अपने विधायक और सांसद भी चुनते हैं। लेकिन इनके दर्द की कोई दवा पिछले 45 साल से नहीं बनी। ललन पासवान से यह पूछने पर कि आखिर आप लोग यहां क्यों रहते हैं- वे उल्टा सवाल दाग देते हैं कि आप ही बता दीजिए कि क्या करें? इन इलाकों में एक फसल हो जाती है, जब बाढ़ का पानी नहीं रहता। इलाके के लोग बताते हैं कि यहां झींगा खाना सस्ता है, आलू महंगा है।
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