Thursday, August 27, 2009

कुछ आसरा मिला...और रुक गया मजदूरों का पलायन

सत्येन्द्र प्रताप सिंह


मजदूरी करके जीवन गुजारने वाले मजदूरों का बस यही सपना है कि सरकार की ओर से 10,000
रुपये मिल जाएं, जिससे वे बांस की दीवार बनाकर टिन शेड डाल लें। साथ ही जब तक खेत
में मजदूरी नहीं मिलती, सरकार उन्हें गेहूं-चावल और नमक मुहैया कराती रहे।

आज तक मैं यह नहीं समझ पाया
कि हर साल बाढ़ में पडऩे के बाद भी
लोग दियारा छोड़कर कोई दूसरी जगह क्यों नहीं जाते?




अरुण कमल की इस कविता में बाढ़ से हर साल पीडि़त होने वाले लोगों को दर्द छिपा है। लेकिन पिछले साल कोसी नदी का तटबंध टूटने पर उन इलाकों में पानी घुसा था, जहां लोगों ने स्वतंत्रता के बाद से बाढ़ देखी ही नहीं। बलुआ बाजार के दिल्ली चौक (इसे दिल्ली चौक इसलिए कहते हैं कि पूर्व रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र के जमाने से लंबे समय तक यहां से दिल्ली की राजनीति तय होती थी) से करीब 15 किलोमीटर दूर गुलामी बिसनपुर वार्ड नं. 1 के युवक पवन पासवान को उम्मीद है कि सरकार उनकी मदद के लिए हाथ बढ़ाएगी और उनकी जिंदगी एक बार फिर पटरी पर आ जाएगी।
इस इलाके में छोटे-छोटे सैकड़ों टोलों में ऐसे परिवार रहते हैं, जिनके पास न तो पक्का मकान है न अपनी जमीन। पहले घास-फूस की झोपड़ी, कुछ बर्तन, कुछ कपड़े और बिस्तर, थोड़ा बहुत अनाज था- जो बाढ़ आने के बाद रेत में दब गया। राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अपील पर गांव के लोग लौटे। उम्मीद थी कि सरकार मदद देगी। उम्मीद पूरी हुई और हर परिवार को दो किश्तों में 4000 रुपये और 1 क्विंटल अनाज मिला, जिसके चलते ग्रामीण नीतीश सरकार से खुश हैं। 74 साल के जोगी पासवान कहते हैं कि इससे पहले उन्होंने कई बाढ़ झेली है, उसके बाद इस इलाके में आकर बसे। उम्मीद थी कि बाढ़ नहीं आएगी, लेकिन ऐसी बाढ़ आई कि इसके पहले उन्होंने जिंदगी में ऐसा नहीं देखा था। जोगी ने कहा, 'बाढ़ में सब कुछ गंवाने के बाद लोग अपनी पुरानी जगह छोड़ देते और ऊंची जगह देखकर चले जाते। वहां की यादें भूल जाते थे। लेकिन इस बार किसी ने अपना स्थान नहीं छोड़ा है। क्योंकि इसी आधार पर पहचान कर सरकार मदद कर रही है।Ó जोगी कहते हैं कि इसके पहले कभी सरकारी मदद मिली ही नहीं, जिसका जहां मन होता था, चला जाता था। कोई दूसरे जिले में चला गया तो कोई दिल्ली-मुंबई। लेकिन इस बार इतनी बड़ी त्रासदी के बाद भी कोई अपना स्थान नहीं छोड़ रहा है।
पास के ही गांव के कांता लाल ने कहा, 'पहले कटान होती थी, तो कोई वापस नहीं आता था। लेकिन सरकार से उम्मीद बंधी तो सब वापस आ गए।Ó गुलामी बिसनपुर में गांव के नाम के सामने 'गुलामीÓ लिखे जाने के बारे में ग्रामीणों ने बताया कि किसी जमाने में यहां लोगों को गुलाम के रूप में लाया गया होगा, जिसके चलते यह नाम पड़ा। गुलामी बिसनपुर के पवन पासवान को सरकार से कोई शिकायत नहीं है। उसे शिकायत है तो स्थानीय जनप्रतिनिधि से, जिसने पशुओं के मरने का 1000 रुपये मुआवजा नहीं मिलने दिया। साथ ही उसने कहा, 'घास-फूस का मकान हम सब लोगों ने मिल-जुलकर बनाया है। अगर सरकार की ओर से अन्य गांवों की तरह हमें भी मदद मिल जाती तो बांस का मकान बनाकर उस पर टिन शेड डाल लेते।
स्थानीय लोगों ने बताया कि ज्यादातर खेतों में बालू आ जाने और स्थानीय लोगों के छोड़कर चले जाने से धान की रोपाई नहीं हुई। बारिश भी इस साल नहीं हुई। इसके चलते मजदूरी करके जीवन यापन करने वालों को भी काम नहीं मिल पाया। किसान से लेकर मजदूर तक सभी सरकार के सहारे हैं। मजदूरी करके जीवन गुजारने वाले मजदूरों का बस यही सपना है कि सरकार की ओर से 10,000 रुपये मिल जाएं, जिससे वे बांस की दीवार बनाकर टिन शेड डाल लें। साथ ही जब तक खेत में मजदूरी नहीं मिलती, सरकार उन्हें गेहूं-चावल और नमक मुहैया कराती रहे।
बातों बातों में अरुण कमल की कविता का जवाब भी जोगी पासवान ने दे दिया... एक भरोसा राम का, एक आस विश्वास।

1 comment:

अरविन्द श्रीवास्तव said...

सभी पोस्ट अच्छे लगे... मधेपुरा से हूँ... जनशब्द पर आपका स्वागत ...