Thursday, December 11, 2008

देखें पाकिस्तान की दुर्भावनाएं.. बन रही है भयावह स्थिति ?

उर्दू में प्रकाशित होने वाले एक पाकिस्तानी अखबार ने २०१२ और २०२० तक पाकिस्तान शासित भूभाग का वर्णन किया है। उसका मानना है कि २०२० तक भारत का नामोनिशान मिट जाएगा। तस्वीरें इस्लामिक राज्य के सपने की हैं। अगर आप उर्दू जानते हैं तो इस अखबार ( http://express.com.pk/ ) को जरूर पढ़ें। यह ३ दिसंबर के संस्करण में प्रकाशित किया गया। या तो ऐसे अखबारों या इस तरह के लेखन पर पाकिस्तानी सरकार का अंकुश नहीं है, या यह अखबार पाकिस्तान सरकार के मंसूबे को प्रदर्शित करता है। आप अपनी राय जरूर दें।

Wednesday, December 3, 2008

आम भारतीय से दूर होता बड़े लोगों का मीडिया

ए. के. भट्टाचार्य

सरकार भारत पर मंडरा रहे किसी संकट का मुंहतोड़ जवाब देगी। यह बात पालानीअप्पन चिदंबरम ने सोमवार को उस समय कही थी जब वह गृह मंत्रालय की कमान संभाल रहे थे।
मुंबई पर हुए हमले के बाद उनका यह बयान काफी सुकून दिलाने वाला था। लेकिन गृहमंत्री आखिर कौन से भारत की बात कर रहे थे? जी हां, मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले का एक असर यह भी हुआ है कि इसने अमीरों के भारत और आम आदमी के भारत के बीच मौजूद खाई को और भी चौड़ा कर दिया।
इस बात से किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए कि आज भी इस तरह की खाई अपने मुल्क में मौजूद है और वह दिनोंदिन चौड़ी होती जा रही है। हैरत अगर है तो उस अंदाज पर, जिसमें मीडिया ने इस हमले को पेश किया। उसने इस खाई को और भी गहरा व चौड़ा कर दिया। उसकी वजह से यह खाई खुलकर लोगों के सामने आ गई। जिस तरह से मीडिया ने इस त्रासदी को कवर किया, उसने हमारे सबसे बुरे सपनों में से एक को हकीकत में तब्दील कर दिया। मीडिया में कौन सी चीज कैसे दिखाई जानी है, इस बारे में फैसला करने में कहीं न कहीं खामी जरूर है। साथ ही, आज मीडिया का नजरिया वही कुछेक लोग तय कर रहे हैं, जो उसे चला रहे हैं।
यहां संकट की गंभीरता या फिर इस त्रासदी की व्यापकता पर सवाल नहीं उठाए जा रहे हैं। मुंबई पर हुए इस आतंकवादी हमले में कम से कम 200 लोगों की जान गई। 60 घंटे तक मुट्ठी भर आतंकवादियों ने बंदूक के दम पर हिंदुस्तान के हाई प्रोफाइल होटलों में से दो पर अपना कब्जा जमाए रखा। उन्होंने सैकड़ों की तादाद में लोगों को बंधक बनाकर रखा, जिनमें से कई को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। इस पूरे घटनाक्रम को मीडिया ने अच्छे या कहें कि काफी अच्छे तरीके से पेश किया।
लेकिन असल दिक्कत है उस तरीके के साथ, जिससे उसी मीडिया ने भारतीय रेलवे के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस (सीएसटी) की घटना की जानकारी दी थी। आखिर वहां भी तो आतंकवादियों ने कई मासूमों की जिंदगी की लौ वक्त से पहले ही बुझा दी। शुरुआत में तो टीवी चैनलों ने रेलवे स्टेशन पर हुई गोलीबारी के बारे में जानकारी दी थी, लेकिन जल्दी ही सभी के सभी टीवी चैनलों का ध्यान वहां से हट गया और उनके कैमरों के लेंस दोनों लक्जरी होटलों की तरफ टिक गए। अखबारों में भी छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर हुई घटना के बारे में खबरों को भूलेभटके ही जगह दी गई।

क्या अपनी मीडिया के लिए किसी रेलवे स्टेशन पर खड़े आम लोगों की जिंदगियों की कीमत पांच सितारा होटलों में जुटे अमीरों की जान से कम है? या क्या मीडिया को हिंदुस्तान के अमीरों की जिंदगी में ज्यादा दिलचस्पी होती है?
या फिर क्या मीडिया इन होटलों में हो रही घटनाओं में इस कदर उलझा हुआ था कि वह दूसरी तरफ ध्यान ही नहीं दे पा रहा था? आप कह सकते हैं कि इन दोनों होटलों में हुई घटनाएं काफी ज्यादा अहम थीं, इसलिए सीएसटी की खबर को ज्यादा तव्वजो नहीं दी गई? आपकी बात में दम है, लेकिन इस घटना की तुलना पिछले साल या उससे पहले ही हुई आतंकवादी घटनाओं को मिले मीडिया कवरेज से कीजिए। यहां बिल्कुल साफ-साफ दिखता है कि मीडिया को उन लोगों की काफी चिंता रहती है, जो उच्च वर्ग से ताल्लुक रखते हैं।

जुलाई, 2006 में मुंबई में सात जगहों पर लोकल टे्रनों में बम धमाके हुए थे। उस हमले में भी उतने ही लोग मारे गए थे, जितने पिछले हफ्ते की आतंकी घटनाओं में मारे गए। लेकिन उन धमाकों को उस स्तर पर कवरेज नहीं मिला, जितना कि पिछले हफ्ते की आतंकवादी हमले को मिला था।
हालांकि, इन दोनों आतंकवादी घटनाओं में दो बड़े अंतर हैं। पहली बात तो यह है कि 2006 के हमले कुछ ही घंटों के दौरान हुए थे। वहीं, पिछले हफ्ते का हमला तीन दिनों तक चला था। दूसरी बात यह है कि ये दोनों हमले अलग-अलग तरह के थे। 2006 में एक अनजान और अनाम आतंकवादी ने लोकल टे्रनों में बम रखे थे, जो एक के बाद एक फटे। वहीं पिछले हफ्ते हाथों में बंदूक थामे आतंकवादियों ने अलग-अलग जगहों पर खुद ही लोगों को मौत के घाट उतारा था।
इन दोनों हमलों में कोई समानता ही नहीं थी। इसलिए हो सकता है कि अभूतपूर्व स्तर पर किए गए इस हमले को दिखाने के लिए तैयारी करने का मौका ही नहीं मिला हो। ऐसा है तो आप उस बाढ़ के बारे में क्या कहेंगे, जिनसे महज कुछ महीनों पहले ही बिहार के बड़े हिस्से को अपनी चपेट में ले लिया था? उन मासूम लोगों का क्या, जो हर रोज अलग-अलग आतंकवादी या उग्रवादी संगठनों के हमलों में मारे जाते हैं?
दिक्कत साफ तौर पर उस कवेरज को लेकर कतई नहीं है, जो पिछले हफ्ते मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले को मिला था। असल दिक्कत यह है कि जब आम लोग ऐसे हमलों में मारे जाते हैं, तो उन्हें खबरों में इतनी जगह नहीं मिलती। इसी वजह से तो सवाल उठते हैं कि क्या मीडिया कवरेज का असल मकसद, ज्यादा से ज्यादा लोगों तक खबरों को पहुंचाने का होता है या फिर विज्ञापनदाताओं के सामने ज्यादा से ज्यादा अंक बटोरने का मिसाल के तौर पर बिहार में बाढ़ या फिर छत्तीसगढ क़े किसी गांव में नक्सलियों का हमला तो टीवी चैनलों को उतनी रेटिंग तो कतई नहीं देगा, जितना अमीर हिंदुस्तानियों पर हुआ आतंकवादी हमला दिला सकता है।
यह देखकर भी काफी दुख होता है कि आज मीडिया कवरेज का फैसला उन लोगों के विवेक पर होता है, जो उसके कंटेट के बारे में फैसला करते हैं। इसलिए जन परिवहन प्रणाली पर निशाना साधा जाता है क्योंकि इससे कारों के मालिकों पर बुरा असर पड़ता है। इसीलिए तो लक्जरी होटलों पर हुआ हमला, किसी रेलवे स्टेशनों पर हुए हमले से ज्यादा अहम हो जाता है। सबसे दिक्कत वाली बात यह है कि आज मीडिया और उसे चलाने वाले, दोनों उच्च वर्ग का हिस्सा बन चुके हैं।
इसीलिए तो उनकी चिंताएं उच्च वर्ग की चिंताओं के बारे में बताती हैं, आम हिंदुस्तानियों के बारे में नहीं। यह बात अपने-आप में किसी हमले से कमतर नहीं है।

www.bshindi.com

पाकिस्तान की चिंताः अगर ६५ आतंकवादी दे भी दिया तो उनका क्या करेंगे भारतीय?

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री से लेकर प्रशासन तक, सभी इन दिनों परेशान हैं। भारत ने अजीब सी मांग रख दी है कि वहां के ६५ आतंकवादियों को हमें दे दो। पाकिस्तानी नेता इसी को लेकर परेशान हैं कि भारत उन आतंकवादियों को लेकर करेगा क्या? यहां तो पहले से ही कैदियों की संख्या से जेलें कराह रही हैं। कुछ लाइव फायरिंग करने और कराने वाले जेल में बंद हैं। उन पर दस-बीस साल बीत जाने पर भी कोई फैसला नहीं लिया जा सका है। ऐसे में अगर ६५ आतंकवादी और दे दिया तो वे भारत की जेलों में रहकर पाकिस्तान की ही मुसीबत बढ़ाएंगे। उन्हें बेहतरीन सुविधाएं, सैटेलाइट फोन आदि जेल में पहुंचा दिए जाएंगे, भारतीय नेता उनकी तुलना शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद से करेंगे। वे खुलेआम जेलों में बैठकर सुरक्षित रहकर आतंकवादी शिविरों का संचालन करने लगेंगे।

Sunday, November 30, 2008

सोनिया जी माफ करिए- इस फैसले से हम तीनों खुश... देश जाए भाड़ में

बेचारे मनमोहन सिंह, उम्मीद थी कि सरकार उन्हें वित्तमंत्री बनाएगी और बन गए प्रधानमंत्री। सोनिया ने फंसा दिया। इतना बड़ा देश, इतनी समस्याएं। कई बार इस्तीफे की पेशकश की। लेकिन सोनिया ने स्वीकार ही नहीं किया। क्या करें। सबसे बड़ा गम तो वित्तमंत्रालय दूसरे के हाथ जाने का था। अब खुश हैं। कम से कम फिर से वित्तमंत्रालय मिल गया।
अपने भाई चिदंबरम अलग परेशान। छोटी मोटी समस्या होती तो निपट लेते। आर्थिक मंदी ने नाक में दम कर रखा है। अब बढ़िया फैसला लिया है सोनिया ने। उनको हटा दिया। प्रोमोशन भी मिली और वित्त मंत्रालय की आफत से मुक्ति भी मिल गई।
सबसे ज्यादा परेशान तो चीनी माफिया शिवराज पाटिल थे। बढ़िया धंधा पानी चल रहा था। बुढ़उती में परेशान कर दिया इस सोनिया ने। वे तो इसलिए उनके पांव पखारते थे कि धंधे में कोई सरकारी अधिकारी खलल न डाले। लेकिन ये क्या? गृहमंत्री बनाकर मुसीबत में डाल दिया। अब कहां फाइव स्टार होटल की रंगरेलियां और कहां हर विस्फोट पर उठते सवाल? कभी कभी तो बेचारे को रोना आता था कि नींद हराम कर रखी है इस विभाग ने।अब तीन के तीनों खुश हैं। देश जाए भाड़ में...

गंदी राजनीति की एक और मिसाल- आईएसआई के चीफ को बुलाना, गृहमंत्री का इस्तीफा देना

धांसू राजनीतिग्य हैं ये कांग्रेस वाले। आखिर इतना लंबा इतिहास जो है। दिल्ली के चुनाव को किस तरह से मैनेज किया इन सभों ने। दिल्ली के चुनाव को ध्यान में रखकर ये खबर इस्लामाबाद से प्लान कराई गई कि भारत के प्रधानमंत्री ने अपने पाकिस्तानी समकक्ष से फोन कर आईएसआई के मुखिया को भारत भेजने की मांग की और यह आग्रह पाकिस्तान ने स्वीकार भी कर लिया। कोशिश की गई है कि जनता की थू-थू से थोड़ा बचा जा सके। और हुआ भी यही, इधर आधी वोटिंग भी नहीं हुई थी कि पाकिस्तान से खबर आई कि वे आईएसआई के चीफ को नहीं भेज रहे हैं। उसके बाद से ही भारत के प्रधानमंत्री के मुंह में ताला लग गया है। अब उन्होंने गृहमंत्री से इस्तीफा ले लिया। अलग खबर चल पड़ी। पाकिस्तान वाला धारावाहिक दब गया। अगर कोई पूछे भी कि मनमोहन भाई, वो पाकिस्तानी प्रधानमंत्री तो आपकी बात मानता ही नहीं, अब क्या करेंगे? तो स्पष्ट रूप से कह देंगे, ऐसा तो हमने कुछ कहा ही नहीं। मीडिया ने ऐसा भ्रम फैलाया कि मैने पाक प्रधानमंत्री से आईएसआई के चीफ को भेजने को कहा था।

Tuesday, November 4, 2008

राज ठाकरे जी, आप यूपी-बिहार की जनता की मदद करें... यहां के नेताओं को पीटने में

अब इसमें कोई संदेह नहीं रहा कि आप बहुत महान नेता हैं। महाराष्ट्र की रक्षा करते हैं, यूपी और बिहार या कहें उत्तर भारत के ठेले खोमचे वालों, रिक्शेवालों को पीटकर। हमें आपकी मदद चाहिए। हमें यूपी-बिहार के नेताओं को पीटना है।

ये हमारे लिए कुछ नहीं कर सकते। इनके पास प्रदेश के विकास की कोई योजना नहीं है। रोजगार के अवसर कुछ खास प्रदेशों के कुछ बड़े शहरों तक सिमटते गए। और हमारे नेता- चाहे मुलायम-राजनाथ-मायावती हों या नीतीश-लालू-रामविलास, किसी ने अपने प्रदेश में कृषि के विकास के बारे में नहीं सोचा। वहां का किसान आलू, लहसुन, गन्ना, लीची, आम, दूध... आदि, आदि सब कुछ उपजाने को तैयार है। उपजाता भी है। लेकिन इन सरकारों के पास व्यावसायिक खेती के क्षेत्रवार विभाजन, यानी किस इलाके में क्या उपजाया जाए, किस जिले में टमाटर उपजाया जाए और वहां उसके संरक्षण और प्रासेसिंग प्लांट, बाजार की व्यवस्था कर दी जाए- ऐसी योजना नहीं है।

बिहार के नेता तो ठीक हैं। केंद्र में भी आपके लोगों द्वारा पिटाई के खिलाफ कम से कम आवाज उठाते हैं। ठीक है कि आप दबाव में न आकर पिटाई जारी रखे हैं क्योंकि आपके चाचा ने आपको अपने उत्तराधिकार से बेदखल कर दिया है, तो अब अपना कुछ राजनीतिक धंधा तो चमकाने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही है। ठीक ही कर रहे हैं। बिहार के नेताओं का रोना-पीटना सुनकर आपने उत्तर भारतीयों की पिटाई की कुछ स्पीड कम कर दी है, यह खुशी की बात है।

लेकिन यूपी के नेता तो कुछ भी करने में सक्षम नहीं हैं, सब के सब निपनिया हैं। निपनिया शब्द उनके लिए होता है, जिनको कोई लाज शर्म न हो। राजनाथ सिंह को देख लीजिए। पता नहीं कहां से टपके हैं। भाजपा के अध्यक्ष बन गए। जुबान ही नहीं खुल रही है, जबकि बिहार की तुलना में आपके लोगों ने उत्तर प्रदेश के तीन गुना लोगों को मार डाला है।

सही कहें तो उत्तर प्रदेश कानूनी रूप से नहीं तो व्यावहारिक रूप से पूरी तरह विभाजित है। लखनऊ में पिछले १५-२० साल से सत्ता में आ रहे नेता पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हैं। वे कभी पूर्वी उत्तर प्रदेश के बारे में सोचते नहीं। उन्हें केवल उनके वोट से मतलब होता है।

अब आप ही से एक आस बची है। ऐसे निकम्मे और विध्वंसक नेताओं से आप ही यूपी और बिहार के लोगों को बचा सकते हैं। आप हमारी मदद करें। हम इन निकम्मे नेताओं को पीटना चाहते हैं। हमी लोग हैं, जो देश और दुनिया में जाकर नौकरी करते हैं और उन प्रदेशों को चमका देते हैं, लेकिन अपने प्रदेश में भैंस पालकर दूध भी नहीं पैदा कर सकते। दूध से बने पदार्थ भी हम दूसरे राज्यों से लेते हैं। आपसे अनुरोध है कि इन गरीब ठेले-खोमचे और रिक्शावालों को पीटने की बजाय हमारा साथ ले लें। हमारे नेताओं को पीटना शुरू कर दें। पूरे देश के नेता बन जाएंगे।

राज ठाकरे जी, शायद आप भूल गए हैं कि आप भारतीय हैं और भारत के नेता बन सकते हैं। लेकिन हम आपको भारत का नेता बनाएंगे, जो महाराष्ट्र की तुलना में हर लिहाज से बड़ा है।

Sunday, November 2, 2008

आग से आग नहीं बुझती (हरिवंश जी का क्रांतिकारी मैराथन लेख)

आप छात्रों को शायद अपना इतिहास मालूम हो। आप उदारीकरण के आसपास या बाद की पौध हैं। उदारीकरण के पहले राजनीति विचारों, सिद्धांतों और वसूलों से संचालित होती थी। उदारीकरण के बाद की राजनीति, आर्थिक सवालों, प्रगति, विकास और बिजनेस के आसपास घूम रही है। यह विचार की राजनीति के दिनों का नारा है, 'जिस ओर जवानी चलती है, उस ओर जमाना चलता है।' इस नारे में आपकी ताकत की कहानी लिखी हुई है। याद करिए, बिहार में '60 के दशक में पटना में छात्रों पर पहला गोलीकांड हुआ। देशव्यापी प्रतिक्रिया हुई। महामाया बाबू ने छात्रों को जिगर का टुकडा कह आकाश पर पहुंचा दिया। फिर आया '74 का आंदोलन। इस आंदोलन ने देश की राजनीति की सूरत ही बदल दी। आंदोलन का लंबा सिलसिला है। फिर भी हिंदी प्रदेश अपनी पीडा और बदहाली से मुक्ति नहीं पा सके। इतिहास का सबक यही बताता है कि आपके इस तोड़फोड़ और विरोध आंदोलन से भी कुछ हासिल नहीं होनेवाला।ऐसा नहीं है कि '74 के पहले बिहार, उत्तर प्रदेश के लोगों के साथ भेदभाव नहीं होता था। 1980 के आसपास महाराष्ट्र के जानेमाने विचारक और संपादक माधव गडकरी ने तीखे सवाल उठाये थे, जिनका आशय था कि हिंदी भाषी पिछडे़ राज्यों के विकास का खर्च अन्य राज्य क्यों उठाएं। क्यों बंबई या महाराष्ट्र आयकर से अधिक कमायें और सेंट्रल पूल में पैसा दें। क्यों केंद्र से संसाधनों का बंटवारा गरीबी के आधार पर हो। और महाराष्ट्र का कमाया अधिक धन केंद्र के रास्ते हिंदी पट्टी के गरीब राज्यों के पास क्यों जाये। यह प्रश्न वैसा ही था जैसे परिवार में एक कमाऊ भाई, दूसरे बेरोजगार या कम कमानेवाले से पूछता है कि आपका बोझ हम कब तक उठाएं।
आज राज ठाकरे हैं। कल वहां बाल ठाकरे थे। वह '60 के दशक में मुबंई से दक्षिण भारतीयों को भगाते थे। इसी दौर में दत्ता सामंत, यूनियन नेता हुए, जो मराठावाद की ही बात करते थे। पर जब बाल ठाकरे ने दक्षिण भारतीय भगाओ का नारा दिया और वहां उपद्रव हुए, तब दक्षिण के किसी राज्य में प्रतिक्रिया में हिंसा नहीं हुई। दक्षिण के राज्यों ने क्या किया। इसके बाद दक्षिण के राज्यों ने अपनी ऊर्जा विकास में झोंक दी। सड़कें, इंजीनियरिंग कॉलेज, मेडिकल कॉलेज, प्रबंधन के संस्थान और नये-नये उद्योग धंधे। आज हालत यह है कि हैदराबाद, बेंगलुरू, चेन्नई वगैरह कई अर्थों में मुंबई से आगे निकल गये हैं। दक्षिण का कम्युनिस्ट केरल, आज देंग शियाओ पेंग के रास्ते पर है। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, खुद पूंजीवादी निवेशक की भूमिका में है। एक कर्नाटक अकेले, आइटी उद्योग से आज 70 हजार करोड अर्जित कर रहा है। दक्षिण सर्वश्रेष्ठ अस्पतालों की राजधानी बन गया है।

दक्षिण के एयरपोर्टों पर सीधे दुनिया के महत्वपूर्ण देशों से विमान उड़ान भरते हैं। एक-एक राज्य में छह-आठ एयरपोर्ट हैं। जहाज से जुडे हैं। हैदाराबाद, बेंगलुरू के हवाईअड्डे विश्व स्तर के हैं। चार लेन - छह लेन की सड़कें हैं। बेहतर सुविधाएं हैं। बाल ठाकरे की शिवसेना ने मद्रासी भगाओ (सभी दक्षिण भारतीयों को मद्रासी कह कर ही संबोधित करते थे, जैसे सभी हिंदी भाषियों को बिहारी या भैया कह कर संबोधित करते हैं) नारा दिया, तो दक्षिण के राज्यों ने ट्रेन जलाकर, अपना नुकसान कर, अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारकर जवाब नहीं दिया। क्या बिहार में ट्रेन जलाने, उपद्रव करने, अपना नुकसान करने से राज ठाकरे सुधर जाएंगे? क्या वह ऐसे इंसान हैं, जिनकी आत्मा है? या संवेदनशीलता है? बिहार के आक्रोश की यह तात्कालिक प्रतिक्रिया है। यह श्मशान वैराग्य जैसा है। जैसे श्मशान में चिता जलते देख, वैराग्य बोध होता है। संसार छोड़ने का मानस बनता है। पर श्मशान से बाहर होते ही वहीं प्रपंच, राग-द्वेष। दुनिया के छल-प्रपंच। ऐसा कहा जाता है कि श्मशान वैराग्य भाव, मनुष्य में ठहर जाए तो वह जीवन में संकीर्णताओं से ऊपर उठ जाएगा। उसका जीवन तर जाएगा। बिहार में हो रही हिंसा, बंद और तोड़फोड़ अंग्रेजी में कहें, तो क्रिएटिव रिसपांड आफ द क्राइसिस नहीं है। हम बिहारी, झारखंडी या हिंदी भाषी, गंभीर संकट का रचनात्मक जवाब कैसे दे सकते हैं।अपना नुकसान कर हम अपनी कायरता का परिचय दे रहे हैं। अपनी पौरुषहीनता दिखा रहे हैं। अगर सचमुच हम दुखी, आहत और अपमानित हैं, तो दुख, पीड़ा और अपमान को एक अद-भुत सृजनात्मक ऊर्जा में बदल सकते हैं। चुनौतियों को स्वीकार करने की पौरुष दृष्टि ही इतिहास बनाती है। इस घटना से सबक लेकर हम हिंदीभाषी भविष्य का इतिहास बना सकते हैं। जिस तरह दक्षिण ने अपने आर्थिक चमत्कार से दुनिया को स्तब्ध कर दिया है। बेंगलुरू को संसार में दूसरा सिलिकन वैली कहा जा रहा है। उससे बेहतर चमत्कार और काम, हम कर सकते हैं। क्या आप छात्रों को मालूम है, कि हिंदीभाषी राज्यों के लड़के दक्षिण के इस बदलाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं? हमारे उत्तर के पैसे से दक्षिण के बेहतर अस्पताल, बेहतर इंजीनियरिंग कॉलेज, उत्कृष्ट संस्थाएं चल रही हैं। हजारों करोड़ रुपये प्रतिवर्ष चिकित्सा, शिक्षा के मद में, उत्तर के गरीब राज्यों से देश के संपन्न राज्यों में जा रहे हैं। क्यों? क्योंकि हमारे यहां चिकित्सा, शिक्षा, इंजीनियरिंग वगैरह में सेंटर ऑफ एक्सीलेंस (उत्कृष्ट संस्थाएं) नहीं हैं। क्या हम ऐसी संस्थाओं को बनाने, गढ़ने और नींव रखने की बाढ़ नहीं ला सकते? अभियान नहीं चला सकते? नीतीश सरकार ने ऐतिहासिक काम किया है। लॉ, इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट, कृषि, मेडिकल वगैरह में बडे़ पैमाने पर बिहार सरकार ने संस्थाओं को शुरू किया है। इसके चमत्कारी असर कुछ वर्षों बाद दिखाई देंगे। पर ऐसी संस्थाओं की बाढ़ आ जाए, आप छात्र यह कोशिश नहीं कर सकते? बिहार के तीन नेता, आज देश में प्रभावी हैं। लालू प्रसाद, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार। आप छात्र बाध्य कर सकते हैं, इन तीनों नेताओं को। कैसे और किसलिए? आप बेचैन छात्र इनसे मिलिए और अनुरोध कीजिए। बिहार को गढ़ने और बनाने के सवाल पर, आप तीनों एक हो जाएं। आप तीनों नेता मिल जाएं, सिर्फ बिहार बनाने के सवाल पर, तो बिहार संवर जाएगा। इनसे गुजारिश करें कि आप तीनों के सौजन्य से बिहार में संस्थाओं की बौछार हो। आप छात्र सिर्फ यह एक काम करा दें, तो राज ठाकरे को जवाब मिल जाएगा। अशोक मेहता ने एक सिद्धांत गढा, 'पिछड़ी अर्थव्यवस्था की राजनीतिक अनिवार्यता'। इसी सिद्धांत पर आगे चलकर पीएसपी (पिपुल सोशलिस्ट पार्टी) का कांग्रेस में विलय हो गया। हमारे कहने का आशय यह नहीं कि लालूजी, रामविलास जी और नीतीशजी को आप युवा एक पार्टी में जाने को कहें बल्कि 'पिछडी अर्थव्यवस्था की राजनीतिक अनिवार्यता' के तहत बिहार के हितों के सवाल पर इन तीनों को एक साथ खडे़ होने के लिए आप विवश कर सकते हैं। यह याद रखिए कि कभी पटना मेडिकल कॉलेज, भारत के सर्वश्रेष्ठ मेडिकल कॉलेजों में से एक था। देश में जितने एफआरसीएस डॉक्टर थें, उनमें से आधे से अधिक तब सिर्फ पटना मेडिकल कॉलेज में थे। पर आज क्या हालत है, उस संस्था की? साइंस कालेज जैसी संस्थाएं थीं। पर क्या स्थिति है संस्थाओं और अध्यापकों की? रोज नारे, धरने, प्रदर्शन, जुलूस। आप छात्र अगर शिक्षण संस्थाओं को सर्वश्रेष्ठ बनाने का अभियान चलाएं और इसके लिए सख्त से सख्त कदम उठाने के लिए सरकार को विवश करें, तो हालात बदल जाएंगे। आज की दुनिया में नौकरियों की कमी नहीं। योग्य और क्षमतावान युवकों की कमी है। मेरे युवा मित्र, इरफान और कौशल (जो आइआइएम, अहमदाबाद से पढे़ हैं और बड़ी नौकरियों के प्रस्ताव छोड़ कर बिहार में काम कर रहे हैं) कहते हैं, कि अगर दक्ष, पढे़-लिखे युवा मिलें, तो सैकड़ों नौकरी देने के लिए हम तैयार हैं। मेरे मित्र संतोष झा, मिकेंजी की एक रिपोर्ट का हवाला देते हैं, जिसमें कहा गया है कि भारतीय शिक्षण संस्थाओं से अनइम्प्लायबल यूथ (नौकरी के अयोग्य युवा) निकल रहे हैं। इस फ़‍िज़ा को आप छात्र बदलिए। करोड़ों-अरबों रुपये शिक्षण संस्थाओं पर खर्च हो रहे हैं। अध्यापकों के वेतन-भत्तों में भारी इजाफा हुआ है, पर क्वालिटी एजुकेशन क्यों खत्म हो गया? अगर जात-पात और पैरवी के व्याकरण से ही आप शिक्षण संस्थाओं को चलाना चाहते हैं, तो याद रखिए, इन संस्थाओं से लाखों अयोग्य, अकर्मण्य और अकुशल पढे़-लिखे युवा निकलेंगे और वे रोजगार के लिए दर-दर भटकेंगें, याचक के रूप में। जीवन का एक और सिद्धांत गांठ बांध लीजिए - याचक अपमानित होने के लिए ही होता है। अपने अंदर की प्रतिभा, ईमानदारी, कठोर श्रम, निवेशक को जगाइए और दाता की भूमिका में आइए। आपको देश ढूंढेगा और पूजेगा। हम कहां-कहां और कब-कब और कितने आंदोलन करेंगे? बिहार बंद करेंगे? ट्रेनें जलाएंगे? इस हकीकत से मुंह मत चुराइए कि आज हिंदी भाषी राज्य लेबर सप्लायर राज्यों के रूप में ही जाने जाते हैं। मत भूलिए, असम और पूर्वोत्तर में कई बार बिहारियों पर हमले हुए, भगाये गये, वहां कर्फ्यू लगा। शिविरों में रहना पड़ा। अपमान, तिरस्कार और भय के बीच। जम्मू-कश्मीर में रेल लाइन बिछाने में सुरंगों में विस्फोट हो या आतंकवादी विस्फोट हो, बिहारी, झारखंडी या हिंदीभाषी मजदूर ही मारे जाते हैं। पंजाब और हरियाणा के खेतों में या फार्म हाउसों में, कितनी जिल्लत की ज़‍िंदगी झारखंडी-बिहारी मजदूर जीते हैं, आप जानते हैं? गुजरात हो या राजस्थान या दक्षिण के राज्य, झारखंडी-बिहारी मजदूरों की दुर्दशा आप देख सकते हैं। याद करिए, दो साल पहले का दिल्ली का वह दृश्य। छठ के अवसर पर बिहार आ रहे थे। स्टेशन पर भगदड़ हुई। दर्जनों बिहारी मर गये। दब-कुचल कर। भगदड़ में। हाल में असम में जो उत्पात हुआ उसमें झारखंड से गये लोगों के साथ क्या सुलूक हुआ? अपमान, तिरस्कार का एक लंबा विवरण है। क्या-क्या गिनाएं? पर तोड़फोड़, आगजनी, उत्पात सबसे आसान है। सबसे कठिन है, सृजन और निर्माण। अपने राजनेताओं को बाध्य करिए कि वे सृजन और निर्माण के कामों में राजनीति न करें। सरकार चाहे जिसकी हो, पर अगर वह शिक्षा संस्थाओं को दुरुस्त करने, सड़क बनाने, बिजली ठीक करने जैसे बुनियादी कामों में कठोर कदम उठाती है, तो उस पर राजनीति बंद कराइए। अगर इन संस्थानों में कमियां हैं, तो सरकार के कठोर कदमों के पक्ष में खडे़ होइए। अनावश्यक यूनियनबाजी, नेतागिरी और हर चीज में राजनीतिक पेंच लगाने की बिहारी संस्कृति के खिलाफ विद्रोह करिए। क्यों एक बिहारी बाहर जाकर अपने काम, उपलब्धि और श्रम के लिए गौरव पाता है, पर बिहार में वही फिसड्डी हो जाता है। क्योंकि बिहार की कार्यशैली, प्रवृत्ति और चिंतन में कहीं गंभीर त्रुटि है। इस त्रुटि को दूर करना अपमान की आग में झुलस रहे युवाओं की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। बिहार में वह माहौल, कार्यसंस्कृति बनाइए कि हम बिहारी होने पर गर्व करें। बिना रिजर्वेशन के ट्रेन में घुसना, टिकट न लेना, उजड्डता दिखाना, मारपीट करना, परीक्षा केंद्रों पर हजारों की संख्या में पहुंच कर चिट कराना, ऐसी आदतों को छोड़ने का हम सामूहिक संकल्प लें, क्योंकि इनसे मुक्ति के बाद ही बिहार के लिए नया अध्याय शुरू होगा। स्मरण करिए बिहार के इतिहास को।

कई हजार वर्षों पहले जब सूचना क्रांति नहीं हुई थी, चंद्रगुप्त मौर्य ने आधुनिक भारत की नींव रखी। सबसे बड़ा साम्राज्य खड़ा किया। अफगानिस्तान तक। चाणक्य दुनिया के गौरव के विषय बने। अशोक के करुणा के गीत आज भी गाये जाते हैं। नालंदा की सुगंध आज भी दुनिया में है। तब के बिहार से हम अगर आज प्रेरित हों, तो दुनिया में हमारी सुगंध फैलेगी।आप बिहारी, झारखंडी विद्यार्थियों से एक और निवेदन, याद रखिए देश के जिस किसी हिस्से में बिहारियों-झारखंडियों के साथ अपमान हुआ, वहां उनसे जाति नहीं पूछी गयी? बल्कि पहचान का एक ही फार्मूला है, बिहारी होना या झारखंडी होना या हिंदी पट्टी का होना। तो आप ऐसा ही माहौल बनाइए। यादव, भूमिहार, कुर्मी, राजपूत, ब्राह्मण, पासवान, आदिवासी, गैरआदिवासी या अन्य होने का नहीं? छात्रावासों में जातिगत मोर्चे तोड़ दीजिए। जाति के आधार पर अध्यापकों और नेताओं का समर्थन बंद करिए। काम करनेवाले और राज्य को आगे ले जानेवाले नेताओं के साथ खडे़ रहिए। जो नेता, विधायक इस बिहारीपन-झारखंडीपन के बीच बाधा बनें, उनके खिलाफ अभियान चलाइए। बिहार की राजनीति बिहार के लिए, झारखंड की राजनीति, झारखंड के लिए, कुछ ऐसी फ़‍िज़ा बनाइए, तब शायद बात बने।विचारों की राजनीति के दौर में भाषा के प्रति प्रबल आग्रह था, तब के लिए वह नारा भी ठीक था, हिंदी में सब कुछ। पर आज उदारीकरण के बाद की दुनिया में यह नारा बेमानी है। अंग्रेजी पढ़‍िए। चीन से सीखिए। आप जानते हैं, गुजरे चार-पांच वर्षों में चीन में सबसे लंबी लाइन किन दुकानों पर लगती थी? 2001 के बाद चीन में अंग्रेजी सीखने की भूख पैदा हुई और किताब की उन दुकानों पर मीलों लंबी कतारें लगने लगीं, जहां आक्सफोर्ड द्वारा प्रकाशित अंग्रेजी-चीनी शब्दकोश उपलब्ध था। चीन ने यह प्रेरणा भारत से ली। 2000 के आसपास चीन के प्रधानमंत्री ने भारत आकर देखा। सॉफ्टवेयर उद्योग में भारत दुनिया में क्यों अग्रणी है? तब उन्हें बेंगलुरू देखकर लगा कि भारतीय युवा अंग्रेजी जानते हैं। इस कारण भारत साफ्टवेयर में चीन से आगे है। चीन ने भारत से सबक लेकर अपनी कमी को पहचान कर सृजनात्मक अभियान चलाया, अंग्रेजी सीखने का, ताकि चीन विश्वताकत बन सके। क्या हम बिहारी-झारखंडी या हिंदी पट्टी के लोग चीन के इस प्रसंग से सबक ले सकते हैं? अपने नेताओं और राजनीतिज्ञों को बाध्य करिए कि वे शिक्षा में अंग्रेजी को महत्व दिलाएं, उत्कृष्ट संस्थाओं को आमंत्रित करें। मेरे एक मित्र हैं, संजयजी। देशकाल संस्था के सचिव। इस संस्था ने मुसहरों-दलितों में उल्लेखनीय काम किया है। वह कहते हैं, मुसहर लोग जो खुद पढे़ नहीं है, शिक्षा के तीन प्रतीक बताते हैं -


(1) शहर(2) टेक्नोलाजी, और(3) इंग्लिशउन्होंने जेएनयू विश्वविद्यालय दिल्ली की एक दलित छात्रा का अनुभव बताया। उसने कहा - मोबाइल (टेक्नोलॉजी), अंग्रेजी, वैश्विक दृष्टि (ग्लोबलाइजेशन) और शहर (अरबनाइजेशन) का असर नहीं होता तो मैं दलित लड़की जेएनयू नहीं पहुंचती। दलित चिंतक चंद्रभान बार-बार कह-लिख रहे हैं, अंग्रेजी, पूंजीवाद और शहरीकरण (अरबनाइजेशन) ही दलितों के उद्धार मार्ग हैं। इसलिए अंग्रेजी हिंदी पट्टी की शिक्षा में अनिवार्य हो।दूसरा मसला, शहरीकरण (अरबनाइजेशन) का है। हाल में सिंगापुर में एक आयोजन हुआ भारत को लेकर। मिनी प्रवासी भारतीय दिवस। इसमें सिंगापुर के मिनिस्टर मेंटर (दो-दो बार पूर्व प्रधानमंत्री रहें और विश्‍व के चर्चित श्रेष्ठ नेताओं में से एक) ने कहा, भारत तेजी से प्रगति कर सकता है, पर उसे कठोर कदम उठाने पड़ेंगे। उन्होंने कहा, चीन आज एक करोड़ लोगों को प्रतिवर्ष गांवों से शहरों में ले जा रहा है। शहरीकरण की प्रक्रिया तेज कर गांवों को शहर बना रहा है। उनके अनुसार, अगर भारत सुपर हाइवे, सुपरफास्ट ट्रेनें, बडे़-बडे़ हवाई अड्डे और बडे़ निमार्ण नहीं करता, तो वह इस दौर में पीछे छूट जाएगा। फिर उसके भाग्य होगा, खोये अवसरों की कहानी। ली ने पूछा कि सुकरात और ग्रीक के बुद्धिजीवी गांवों में नहीं, शहरों में रहते थे। गांव के स्कूलों को बेहतर बनाइए। देश के शिक्षण संस्थाओं को श्रेष्ठ बनाइए। ली की दृष्टि में भारत इसी रास्ते महान और बड़ा बन सकता है। ली ने दो हिस्से में अपनी आत्मकथा लिखी है। नेहरू जमाने के भारत का अदभुत वर्णन है। भारत ने कैसे अवसर खोये, इसका वृत्तांत है। ली, जीते जी किंवदंती बन गये हैं। उनकी आत्मकथा को, उन भारतीयों को ज़रूर पढ़ना चाहिए, जो भारत को बनाना चाहते हैं। अंत में महाराष्ट्र के ही मधु लिमये को उद्धृत करना चाहूंगा। चरित्र, सच्चाई, कार्य क्षमता और उद्यमशीलता के अभाव में आप कैसे सफल हो सकते हैं। आलस्य, समय की पाबंदी, अच्छी नीयत जिम्मेदार नागरिक के लिए आवश्यक सदगुणों का संपोषण आदि के बिना आधुनिक तकनीक के पीछे भागना मूर्खता है। वह कहते हैं, बेईमानी, भ्रष्ट आचरण, आलस्य, अनास्था, इन दुर्गुणों की दवा कंप्यूटर नहीं है। यह उन्होंने राजीव राज के दौरान लिखा था। अगर हम सचमुच हिंदी पट्टी के राज्यों का कायापलट करना चाहते हैं तो क्या हम इन चीजों से प्रेरणा?युवा मित्रो, जीवन में कोई शार्टकट नहीं होता। परिश्रम, ईमानदारी, तप और त्याग का विकल्प, धूर्तता, बेईमानी, आलस्य और कामचोरी नहीं। यह दर्शन अपने इलाके के घर-घर तक पहुंचाइए। कहावत है, 'सूर्य अस्त, झारखंड मस्त'। दारू, शराब और मुफ्तखोरी के खिलाफ आप युवा ही अभियान चला सकते हैं। इतिहास पलटिए और देखिए, बंगाल और महाराष्ट्र में आजादी के पहले पुनर्जागरण (रेनेसां) आंदोलन चले, समाज सुधार आंदोलन। हिंदी पट्टी में आज ऐसे समाज सुधार के आंदोलन चाहिए। रेनेसां की तलाश में है, हिंदी पट्टी। आप युवा ही इस ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं। बिना श्रम किये, जीवन में कुछ न स्वीकारें। यह दर्शन आप युवा ही समाज से मनवा सकते हैं। बेंजामिन फ्रेंकलिन का एक उद्धरण याद रखिए। एक युवा के जीवन में सबसे अंधकार का क्षण या दौर वह होता है, जब वह अपार धन की कामना करता है, बिना श्रम किये, बिना अर्जित किये। आज की राजनीति क्या सीख देती है? सत्ता, रुतबा और पैसा कमाना। इस शार्टकट से हिंदी समाज को निकाले बिना बात नहीं बनेगी।

आप हालात समझिए। पहला तथ्य। राज ठाकरे को हीरो मत बनाइए। कांग्रेस और शरद पवार की पार्टी, एनसीपी ने एक उद्देश्य के तहत राज ठाकरे को आगे बढ़ाया है। उसी तरह जैसे संजय गांधी ने भिंडरावाले को बढ़ाया था। कांग्रेस की चाल है कि आगामी चुनावों में भाजपा एवं बाल ठाकरे की शिव सेना को अपदस्थ कर दें। इसलिए उन्होंने राज ठाकरे को आगे बढ़ाया। आप युवा इस ख़तरनाक राजनीति को समझिए। अपने स्वार्थ और वोट के लिए पार्टियां देश बेचने पर उतारू हैं। पहले नेता होते थे। अब दलाल और बिचौलिये नेता बनते हैं। उनके सामने देश की एकता, अखंडता का सपना नहीं है। पैसा लूटना वे अपना धर्म समझते हैं। और इस काम के लिए उन्हें गद्दी चाहिए। गद्दी के लिए वे कोई भी षड्यंत्र-तिकड़म कर सकते हैं। महाराष्ट्र में यही षड्यंत्र हुआ है। क्या उस आग में आप युवा भी घी डालेंगे? यह सिर्फ आपकी जानकारी के लिए। केंद्र में कांग्रेस चाहती तो नेशनल सिक्यूरिटी एक्ट के तहत राज ठाकरे को गिरफ्तार कर सकती थी। यह कदम उठाने में गृह मंत्रालय सक्षम है। एक आदमी जिसके पिछले एक साल के बयानों से लगातार उपद्रव हो रहे हैं, दंगे हो रहे हैं, करोड़ों का नुकसान हो रहा है, जानें जा रही हैं, देश में विषाक्त माहौल बन रहा है, क्या उसके खिलाफ कार्रवाई नहीं होगी? फिर क्यों हैं सरकारें? इस राज ठाकरे नाम के आदमी का सबसे गंभीर अपराध है, देश की एकता, अखंडता पर सीधे प्रहार। भयहीन आचरण। पर उसके खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं। इससे केंद्र सरकार की मंशा स्पष्ट है।

महाराष्ट्र सरकार का गणित समझिए। वहां के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे हैं। कांग्रेस का एक गुट, उन्हें हटाना चाहता है। वह चाहते हैं कि यह मुद्दा जीवित रहे ताकि उनकी कुर्सी बची रहे। महाराष्ट्र की पुलिस कभी स्काटलैंड की पुलिस की तरह सक्षम और चुस्त-दुरुस्त मानी जाती थी। पर राज ठाकरे प्रकरण ने साबित कर दिया कि राजनीति ने कैसे एक बेहतर पुलिस संस्था को अक्षम और पंगु बना दिया। वरना महाराष्ट्र में मकोका लागू है। क्या राज ठाकरे उसके तहत गिरफ्तार नहीं किये जा सकते थे?सबसे स्तब्धकारी घटना और गवर्नेंस के खत्म हो जाने का सबूत एक और है। महाराष्ट्र पुलिस ने राज ठाकरे जैसे देशतोड़क के खिलाफ सारी जमानती धाराएं लगायीं? क्यों? इससे सरकार का इंटेंशन (इरादा) साफ होता है। राज ठाकरे के समर्थक उत्पाती पहले पकड़ लिये गये होते तो हालात भिन्न होते। कोर्ट में उनकी पेशी के वक्त पुलिस पहले सजग होती, धारा 144 होती, तो हिंसा नहीं होती। पर वोट और सत्ता की राजनीति तो खून की प्यासी है। इस खूनी राजनीति के खिलाफ अपना खून बहा कर आप क्या कर लेंगे? आप युवा इस तरह के षड्यंत्र की राजनीति का मर्म समझिए और ऐसी राजनीति के खिलाफ उतरिए। रचनात्मक ढंग से। ऐसी ताकतों को चुनावों में पाठ पढाने की दृष्टि से। राष्ट्रीय नेतृत्व ने महाराष्ट्र में जो कुछ हिंदी भाषियों के साथ हुआ या हो रहा है, उस पर स्तब्धकारी आचरण किया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चुप्पी पीड़ा पहुंचानेवाली है।

बिहार में प्रलयंकारी बाढ़ आती है, तब भी बिहार के लोगों को केंद्र के नेताओं को कुंभकरण की नींद से जगाना पड़ता है। मुंबई में एक बारिश होती है, तो राहत के लिए प्रधानमंत्री 3-4 करोड़ रुपये दे देते हैं। पर बिहार की विनाशकारी बाढ़ पर केंद्र तब उदार होता है, जब राज्य की आवाज़ उठती है और केंद्र में बैठे बिहार के नेता ध्यान दिलाते हैं। मुंबई में हुई घटना असाधारण है। देश के भविष्य की दृष्टि से। पर इसके लिए विशेष कैबिनेट की बैठक नहीं। विशेष प्रस्ताव नहीं। तत्काल आग बुझाने के लिए अलग प्रयास नहीं। केंद्र की कोई उच्चस्तरीय टीम मुंबई नहीं गयी। देश को एक रखने का दायित्व जिस केंद्र पर है, उसका यह आचरण? पिछले 60 वर्षों में बिहार और झारखंड ने खनिज के मामले में देश को कितना दिया है, क्या इसका हिसाब कोई देगा? फ्रेट इक्वलाइजेशन के मामले में लाखों करोड़ों का भेदभाव बिहार-झारखंड से हुआ होगा। बिहार और झारखंड से निकले सस्ते श्रम और बहुमूल्य खनिज से देश के विभिन्न हिस्सों में औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया से संपन्नता आयी। क्या बिहार की इस कीमत को कोई चुकायेगा? आज जब नीतीश कुमार बिहार के साथ हुए एतिहासिक भेदभाव का सवाल उठाते हैं तो बिहार के सभी दल एवं जनता एक स्वर में बोले... तब इस अंधेरी सुरंग से बिहार के लिए एक राह निकलेगी।

यह सही है कि हिंदीभाषी राज्य विकास के बस से छूट गये हैं। अगर देश ऐसे छूटे राज्यों के प्रति सदाशयता का परिचय नहीं देगा, तो क्षेत्रीय विस्फोट की इस आग को रोक पाना कठिन होगा। यह कैसे संभव है कि देश के कुछ हिस्से या राज्य संपन्नता के टापू बन जाएंगे और अन्य राज्य भूख और गरीबी से तबाह हो कर मूक दर्शक बने रहेंगे। क्षेत्रीय विषमता की यह आग देश को ले डूबेगी। 1995 के आसपास पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने बढ़ती क्षेत्रीय विषमता पर एक लंबा (लगभग 30-40 पेजों का) लेख लिखा था और आगाह किया था कि हम देश को किधर ले जा रहे हैं। अंततः क्षेत्रीय विषमता जैसे गंभीर सवालों को कौन एड्रेस (सुलझाना) करेगा? केंद्र सरकार ही न या संसद? केंद्र सरकार, संसद, योजना आयोग और राजनीतिक पार्टियां ही न। पर कहां पहुंच गयी है हमारी संसद? क्या इन विषयों पर सचमुच कोई डीबेट हो रहा है? क्या आचरण रह गया है हमारे सांसदों, राजनीतिक दलों और सरकारों का? अगर आप हिंदी पट्टी के युवा सचमुच इस देश को और अपने राज्यों को विकास के रास्ते पर ले जाना चाहते हैं, खुद आत्सम्मान के साथ जीना चाहते हैं, निजी जीवन में प्रगति और विकास चाहते हैं तो आपको सुनिश्चित करना होगा कि राजनीति का चाल, चरित्र और चेहरा बदले? ऐसा माहौल बनाइए कि केंद्र की राजनीति (चाहे सरकार किसी पक्ष की हो) भारत के पिछडे़ राज्यों और क्षेत्रीय असंतुलन के सवालों पर अलग नीति बनाये। आप युवा राजनीति की धारा बदल सकते हैं।1974 में हुए छात्र आंदोलन के एक तथ्य से आप परिचित होंगे। 1972 के आसपास गुजरात में नवनिर्माण आंदोलन हुआ। जेपी को इस छात्र आंदोलन में एक नयी रोशनी दिखाई दी। वह गुजरात गये। फिर इस आंदोलन पर एक लंबा लेख लिखा। आप छात्र जानते हैं, यह आंदोलन गुजरात के मोरवी इंजीनियरिंग कालेज के एक मेस से शुरू हुआ। उस छात्रावास में रह रहे छात्रों को लगा मेस में खाने का मासिक शुल्क अचानक बढ़ गया है और इस कीमत बढ़ोतरी के पीछे राजनीतिक भ्रष्टाचार है। छात्रों में आक्रोश पैदा हुआ और एक छात्रावास के मेस से निकली इस आग की लपटों में अंततः पहली बार केंद्र से कांग्रेस का सफाया हो गया। आप बिहारी और झारखंडी छात्रों में अगर सचमुच आग है तो अपने राज्य के नवनिर्माण के सृजन के लिए उस आग की आंच को इस्तेमाल करिए। लोकसभा के चुनाव जल्द ही होने वाले हैं। सारे राजनीतिक दलों को बाध्य करिए कि चुनाव के पहले आपके राज्य के विकास का एजेंडा लेकर जनता के पास आएं। मांग करिए कि राज्य में उद्योग लगाने को, टैक्स होलीडे के तहत पैकेज दिया जाए। एजुकेशन हब की परिकल्पना लेकर दल चुनाव में उतरे। बिहार पंजाब से भी ज्यादा उपजाऊ है, पर कृषि आधारति चीजों का विकास का प्रयास नहीं हुआ। इसके ब्लू प्रिंट की मांग करिए। 40 जिलों में 40 बेहतरीन अलग-अलग शिक्षा के उत्कृष्ट इंस्टीटूशन की परिकल्पना करिए। चौड़ी और बेहतर सड़कों के लिए अभियान चलाइए। अपने बीच से नये उद्यमियों को गढ़‍िए। कानून और व्यवस्था के अनुसार सभ्य समाज गढ़ने का अभियान चलाइए। यही रास्ता बिहार को फिर शिखर पर ले जा सकता है।लगभग 40 वर्षों पहले प्रो गुन्नार मिर्डल ने एशियन ड्रामा पुस्तक लिखी, जिस पर उन्हें अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार मिला। तब उन्होंने कहा था कि करप्शन ने भारत को तबाह कर दिया है। आप छात्र गौर करिए, भ्रष्टाचार ने बिहार को कहां पहुंचा दिया? ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के अनुसार देश के भ्रष्ट राज्यों में से एक। कांग्रेस राज्य में यह परंपरा शुरू हुई। लोग सड़क चुराने लगे, बांध चुराने लगे और यह परंपरा चलती रही। भ्रष्टाचार के खिलाफ चौतरफा हमले में सक्रिय हुई यह बिहार सरकार भ्रष्टाचारियों को धर पकड़ रही है। ऐसा माहौल बनाइए कि भ्रष्टाचारी पकडे़ जाएं। दंडित हों। पर इतना ही काफी नहीं है। भ्रष्टाचार नियंत्रण अब अकेले सिर्फ सरकार के बूते की बात नहीं है। भ्रष्ट लोगों के खिलाफ समाज में एक नफरत और घृणा का माहौल पैदा करिए। भ्रष्टाचारी समाज में पूज्य न बने। आप में अगर सचमुच आग है, पौरुष है तो राजनीतिज्ञों को एकाउंटेबल बनाने के अभियान में लगिए। राजनीति में मूल्य और आदर्श स्थापित करने के अभियान में जुटिए।

आप जानते हैं डॉ वर्गीस कुरियन को? एक आदर्शवादी केरल के युवा ने दूध उत्पादन और को-ऑपरेटिव के क्षेत्र में गुजरात को दुनिया के शिखर पर पहुंचा दिया। उनके जीवन का निचोड़ याद रखिए। हम जो कुछ सही करते हैं वही नैतिकता है। पर जो चीज हमारे सोचने की प्रक्रिया को संचालित करती है, वह इथिक्स (मूल्य) है। हम जैसे जीते हैं, वह नैतिकता है। जैसा सोचते है और अपना बचाव करते हैं, वही इथिक्स है। हिंदी पट्टी के समाज और राजनीति को आप युवा ही मॉरल और इथिकल बना सकते हैं।आप युवाओं ने नाम सुना होगा, पीटर ड्रकर का। आधुनिक प्रबंधन में दुनिया के सबसे बडे़ नामों में से एक। पहले जैसे पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, आकर्षण और विचार के केंद्र थे, उसी तरह ग्लोबल दुनिया में इक्कीसवीं सदी के दौर में कंप्यूटर क्रांति और सूचना क्रांति के इस दौर में प्रबंधन सबसे आकर्षक और नयावाद बन गया है। राजनीति हो या उद्योग धंधा या विकास, श्रेष्ठ प्रबंधन कला ही किसी इंसान, समाज और व्यवस्था को शिखर पर ले जा सकती है। इसी प्रबंधनवाद के मार्क्स कहे जाते है, पीटर ड्रकर। एक जगह उन्होंने कहा है कि चीन को भारत पछाड़ सकता है, अगर वह टेक्नोलाजी में आगे रहे, सर्वश्रेष्ठ उच्चशिक्षा संस्थान बनाये और वर्ल्ड क्लास प्राइवेट सेक्टर विकसित करे। बिहार के शिक्षा संस्थानों में बौद्धिक श्रेष्ठता का माहौल नहीं रह गया है। क्या इसे हम दोबारा वापस कर पाएंगे? यह आप छात्र करा सकते हैं। सरकारें नहीं करा सकती। शिक्षा में यूनियनबाजी, नेतागीरी, चापलूसी, पैरवी, जातिवाद और संकीर्ण माहौल को आग लगा दीजिए और इस अग्नि-परीक्षा से एक नया बिहार निकलेगा।दुनिया के प्रख्यात कंसलटेंसी मिकेंजी एंड कंपनी की रिपोर्ट है कि इस बदलती दुनिया में रिटेल व्यवसाय, रेस्टूरेंटों और होटलों, हेल्थ सर्विस में बडे़ पैमाने पर अवसर पैदा होनेवाले हैं। क्या हम हिंदी पट्टी के लोग अपने यहां ऐसे संस्थान बना सकते हैं, जहां से ऐसे कुशल और प्रशिक्षित युवा निकलें जिनकी दुनिया में मांग हो? आज अरब के देशों में बडे़ पैमाने पर प्लंबर, राज मिस्त्री वगैरह की मांग है, सीखिए दुबई और खाड़ी के देशों से। वहां मुसलिम शासक हैं। पर हर धर्म, देश और राष्ट्रीयता के कुशल लोगों को छूट है कि वे आकर काम करें। आजादी से रहें। और उनकी इसी रणनीति ने खाड़ी देशों को कितना आगे पहुंचा दिया।

प्रकृति ने हिंदी पट्टी के इलाकों को उपजाऊ बनाया। जैसा मौसम दिया, वैसा शायद अन्यत्र न मिले। पर क्या हम इसका उपयोग कर पाते हैं? थामस एल फ्रीडमैन ने 2005 में संसार प्रसिद्ध पुस्तकें लिखी, द वर्ल्ड इज फ्लैट। पुस्तक की भूमिका में उन्होंने एक फ्रेज (मुहावरे) का इस्तेमाल किया है, जो भारत देखकर उन्हें लगा, न्यू वर्ल्ड, द ओल्ड वर्ल्ड आर द नेक्सट वर्ल्ड (नया संसार, पुराना संसार या भविष्य का संसार)। आप बिहारी छात्र भविष्य का संसार गढ़‍िए। दुनिया आपके कदमों पर होगी। अक्सर बिहार के कुछ दृश्य मेरे जेहन में उभरते हैं। पेड़ों के नीचे बैठ कर ताश खेलते लोग। गप्‍पें मारते लोग। परनिंदा में व्यस्त। 10वीं-12वीं की परीक्षा में चोरी कराने में बडे़ पैमाने पर परीक्षाकेंद्रों में उपस्थित भीड़। क्या आप छात्र इन प्रवृत्तियों के खिलाफ कुछ कर सकते हैं? जिस दिन हमारी यह श्रमशक्ति अपनी ताकत पहचान लेगी, बिहार का कायाकल्प हो जाएगा।इतिहास की एक घटना से हम सीख ले सकते हैं। रूस ने स्पूतनिक उपग्रह छोड़ा था और अंतरिक्ष में रूसी यात्री यूरी गैगरिन गये थे। अमरीका रूस की इस प्रगति से स्तब्ध और आहत था। आहत अपनी स्थिति को लेकर। यह '60 के दशक की बात है। कैनेडी राष्ट्रपति बने थे, 20 जनवरी 1961 को। उन्होंने अपनी संसद (कांग्रेस) की बैठक बुलायी। बातचीत का विषय था, अर्जेंट नेशनल नीड्स (आवश्यक राष्ट्रीय सवाल)। उन्होंने ऐतिहासिक भाषण दिया। कहा, मेरी बातें स्पष्ट हैं। मैं संसद (कांग्रेस) और देश से गुजारिश कर रहा हूं। एक दृढ़प्रतिबद्धता की। एक नये कार्यक्रमों के प्रति। एक नया अध्याय शुरू करने के प्रति, जिसमें भारी खर्च होंगे और जो कई वर्ष चलेगा... यह निर्णय हमारी इस राष्ट्रीय प्रतिबद्धता से जुडा है कि वैज्ञानिक और तकनीक संपन्न मैनपावर पैदा करें। उसे सारी भौतिक और अन्य सुविधाएं दें... इस संदर्भ में उन्होंने प्रतिबद्धता, सांगठनिक कुशलता और अनुशासन की बात की। उन्होंने कहा, मैं कांग्रेस को बता रहा हूं, हजारों लाखों की संख्या में लोगों को प्रशिक्षित, पुनःप्रशिक्षित करने का ट्रेनिंग प्रोग्राम (प्रशिक्षण प्रोग्राम) और मैनपावर डेवलपमेंट (मानव संपदा विकास) करें।क्या हम इतिहास के इस पाठ से शिक्षा ले सकते हैं? हमारे दिल में अगर सचमुच राज ठाकरे के व्यवहार से जलन और आग है, तो हम इस जलन और आग को एक नये समाज गढ़ने के अभियान में ईंधन बना सकते हैं। चीन पहले अफीमचीयों का देश माना जाता था। बिल गेट्स ने चीन के बारे में एक महत्वपूर्ण बात कही है। आज वह दुनिया की महाशक्ति है। कैसे और क्यों? उसमें क्या हुनर है? बिल गेट्स के अनुसार, चीनी खतरे उठाते हैं। संकटों से जूझते हैं। कठिन श्रम करते हैं। अच्छी पढ़ाई करते हैं। बिल गेट्स के अनुसार जब किसी चीनी राजनीतिज्ञ से मिलते हैं, तो पाते हैं कि वे वैज्ञानिक हैं। इंजीनियर हैं। उनके साथ आप अनंत सवालों पर बहस कर सकते हैं। लगता है आप एक इंटेलीजेंट ब्यूरोक्रेसी से मिल रहे हैं।दुनिया के युवाओं के आदर्श और प्रेरक ताकत बिल गेट्स भी हैं, जो एक गैरेज से काम शुरू कर दुनिया के शिखर तक पहुंचे। दुनिया के सर्वश्रेष्ठ हार्वर्ड बिजनेस स्कूल के एक प्रोफेसर गर स्टरनर ने एक जगह कहा है, किसी संस्था में बदलाव, संकट या आपात स्थिति में ही शुरू होता है। वह कहते हैं कि किसी भी संस्था में तब तक कोई मौलिक बदलाव नहीं होता, जब तक उसे यह एहसास न हो कि वह अत्यंत खतरे (डीप ट्रबल) में है और अपने अस्तित्व को बचाने के लिए उसे कुछ नया, ठोस और अनोखा प्रयास करना होगा। आज बिहार या झारखंड को छात्र बदलना चाहते हैं, तो इससे प्रेरक वाक्य नहीं हो सकता। इस अपमान को सम्मान में बदल देने के रास्ते पर चलिए, आप इतिहास बनाएंगे। इतिहास बनानेवालों से ही सबक लीजिए। ऐसे ही एक इतिहास नायक चर्चिल ने कहा था, किसी चीज के निर्माण की प्रक्रिया अत्यंत धीमी होती है। इसके पीछे वर्षों का श्रम और साधना होती है। पर इसको नष्ट करने का विचारहीन काम एक दिन में हो सकता है। राष्ट्र की इस संपदा (रेलवे वगैरह) को बनाने में भारी श्रम और पूंजी लगे हैं। यह देश की संपत्ति है, बिहार की संपत्ति है। राज ठाकरे की नहीं। यह आपके और हमारे करों से बनी सार्वजनिक चीज है। हम अपमानित भी हों और अपनी ही दुनिया में आग लगाएं, ऐसा काम दुनिया में शायद कहीं और नहीं होता।आप युवा हैं। युवाओं में ही कुछ नया करने की कल्पनाशीलता होती है। सपनों के पंख होते हैं। उत्साह होता है। महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा था, कल्पनाशीलता ज्ञान से ज्यादा महत्चपूर्ण है। क्या आप युवा अपनी कल्पनाशीलता की ताकत को अपने राज्य को गढ़ने में नहीं लगा सकते?आप युवाओं ने दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी (जीइसी) का नाम सुना होगा। उसके करिश्माई चेयरमैन हुए, जैक वालेशा। उन्होंने भारत के बारे में कहा है, मैं भारत को एक बड़ा खिलाड़ी मानता हूं। आधुनिक दुनिया में। 100 करोड़ से अधिक की जनसंख्यावाला यह देश तेजस्वी लोगों का मुल्क है। यह लगातार बढे़गा और बड़ा होगा और दुनिया की अर्थव्यवस्था में इसका महत्वपूर्ण रोल होगा। नैस्कॉम (नेशनल एसोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विस कंपनीज) के अनुसार भारतीय तकनीकी कंपनियां, अमेरिका, यूरोप, जापान की बड़ी-बड़ी कंपनियों को सेवाएं दे रही हैं। विदेशी, इन कंपनियों को इंडियन टाइगर्स कहते हैं। भविष्य में इन कंपनियों की मांग और बढ़नेवाली है। यह मंदी, वर्ष-डेढ़ वर्ष में कम होगी। आज एक लाख बीस हजार छात्र सूचना तकनीक में भारतीय कॉलेजों से स्नातक की डिग्री पा रहे हैं। 30 लाख विद्यार्थी अंडर ग्रेजुएट डिग्री ले रहे हैं।
(सभी आंकडे़ नैस्कॉम रिपोर्ट 2007 के अनुसार)इन भारतीय युवाओं को पश्चिम के देशों में जो वेतन मिलते हैं, उसका महज 20 फीसदी ही मिलता है, वह भी भारत में घर बैठे। इसके लिए एक बडा रोचक फार्मूला है - Internet + Brains - High Cost = Huge Business Opportunitiesक्यों हमारे हिंदी पट्टी के प्रतिभाशाली विद्यार्थी, इस मौके का लाभ नहीं उठा सकते? इसके लिए बडे़ कल-कारखाने नहीं चाहिए। बड़ी पूंजी नहीं चाहिए। बस चाहिए सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थान, जहां से निकले प्रतिभाशाली छात्र अच्छी तरह कामकाज करना जानें। लिखना-पढ़ना जानें। फर्राटेदार अंगरेजी बोलना जानें। अच्छी सड़कें हों, बेहतर कानून-व्यवस्था हो, तो अपने आप आइटी उद्योग आपके यहां खिंचा चला आएगा। वैसे भी अब आइटी उद्योग या अन्य कंपनियां बडे़ शहरों से दूसरे दरजे के शहरों की ओर रुख कर रही हैं। लागत खर्च कम करने की दृष्टि से। यह सुनहरा मौका है बिहार, झारखंड और हिंदी पट्टी के राज्यों के लिए। पहले भारत सांप-सपेरों, जादूगरों, साधुओं और तंत्र-मंत्र का देश जाना जाता था। दुनिया में। पर भारत के युवकों ने यह छवि बदल दी है। क्या बिहार, झारखंड या हिंदी पट्टी के छात्र अपना पुरुषार्थ नहीं दिखा सकते?बीबीसी के जाने-माने पत्रकार, डेनियल लैक ने भारत पर दो किताबें लिखी हैं। एक मंत्राज ऑफ चेंज (वर्ष 2005)। उनकी ताजा पुस्तक आयी है, इंडिया एक्सप्रेस (2008)। अपनी पुस्तक मंत्राज ऑफ चेंज में उन्होंने हिंदी राज्यों के बारे में लिखा है। उन्होंने भारत के सबसे बडे डेमोग्राफर इन चीफ प्रो आशीष बोस से मुलाकात की। प्रो बोस अपने बौद्धिक कामों के लिए दुनिया में जाने जाते हैं। पहली बार '80 के दशक में, उन्होंने बीमारू राज्यों की अवधारणा को स्पष्ट किया। बीमारू राज्य यानी जो बीमार हैं, पिछडे़ हैं। बीमारू शब्द में ये राज्य हैं - बिहार, राजस्थान, यूपी, मध्य प्रदेश। सन 2000 के आसपास योजना आयोग ने माना कि राजस्थान और मध्यप्रदेश, बीमारू राज्यों की अवधारणा से निकल आये हैं। इस तरह बीमार राज्यों में दो ही राज्य बचे, बिहार और यूपी। वर्ष 2000 के अंत में ये दोनों राज्य बंट कर चार राज्य हो गये - बिहार, झारखंड, यूपी और उत्तरांचल। इस तरह ये चारों राज्य भारत के बीमार राज्य माने जाते हैं। इन राज्यों के कामकाज को लेकर विकास की दौड़ में शामिल अन्य राज्य टीका-टिप्पणी भी करते हैं। वर्ष 2000 के आसपास नेशनल डेवलपमेंट काउंसिल की बैठक में आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने कई गंभीर सवाल उठाये। उन्होंने कहा कि हमारे आंध्रप्रदेश जैसे राज्य या अन्य, जो प्रगति और विकास कर रहे हैं, अपनी बेहतर व्यवस्था, गुड गवर्नेंस, बेहतर आर्थिक प्रबंध वगैरह के कारण, वे पैसे कमा कर केंद्र को देते हैं और केंद्र का वित्त आयोग हमारे कमाये पैसे को गरीब राज्यों के विकास के लिए दे देता है। इससे हमें निराशा होती है। क्या कुशल राज्य संचालन, प्रबंधन का यही पुरस्कार है? उन्होंने साफ-साफ कहा कि हिंदी पट्टी के राज्य न अपनी जनसंख्या घटाते हैं, न आर्थिक विकास दर बढाते हैं, न बेहतर गवर्नेंस करते हैं, न उनकी दिलचस्पी अपने राज्य के विकास में है, तो उनकी अव्यवस्था, अराजकता, अकुशलता का बोझ हम क्यों उठायें? इस सवाल के मूल्यांकन की भी दो दृष्टि है। पहली, यह देश एक है, इसलिए गरीबों का बोझ संपन्न राज्यों को उठाना चाहिए। 1980 तक लगभग यही मानस पूरे देश में था, क्योंकि आजादी के समय के नेता जीवित थे। पर आज यह भावना ख़त्म हो गयी है। हर राज्य अपने विकास में सिमट गया है। इस दृष्टि से चंद्रबाबू नायडू के सवाल जायज़ एवं सही हैं। क्यों हिंदी पट्टी के राज्य अपनी अर्थव्यवस्था सुदृढ़ नहीं कर सकते? विकास दर नहीं बढा सकते? सुशासन नहीं ला सकते?आप युवा विद्यार्थी बीमारी की इस जड़ को समझिए और ऐसी राजनीति और नेता को प्रश्रय दीजिए, जो इन मोर्चों पर इन पिछडे़ राज्यों को आगे ले जा सके। अपनी ताजा पुस्तक में डेनियल लैक कहते हैं कि बीमारू राज्यों के बावजूद भारत बीकमिंग एशियाज अमेरिका (भारत, एशिया का अमेरिका बन रहा है)। ऐसी स्थिति में क्यों हिंदी पट्टी के राज्य पिछडे़ और दरिद्र बने रहे? डेनियल एक जगह नारायण मूर्ति को उद्धृत करते हैं। नारायण मूर्ति पहले साम्यवादी थे। साम्यवाद से अपने अनुभव के बाद इंफोसिस कंपनी बनायी, जिसने दुनिया में भारत को प्रतिष्ठित किया। उन्होंने एक बड़ा वाजिब सवाल उठाया। आप सीमित धन गरीबों में बांट कर, गरीबी दूर नहीं कर सकते। बल्कि अधिक से अधिक संपत्ति का सृजन कर ही गरीबों की गरीबी दूर की जा सकती है। आज क्या कारण है कि अमेरिका के राष्ट्रपति हों या चीन के प्रधानमंत्री या दुनिया के राष्ट्राध्यक्ष, पहले बेंगलुरू, हैदराबाद, चेन्नई वगैरह जाते हैं। दिल्ली बाद में पहुंचते हैं। मुंबई तो शायद जाते भी नहीं। क्या हम हिंदी पट्टी के लोग एक बेंगलुरू, एक हैदराबाद, एक चेन्नई, एक त्रिवेंद्रम, मनीपाल वगैरह भी खडा नहीं कर सकते?दुनिया के प्रतिष्ठित फाइनेंसियल टाइम्स अखबार के जाने-माने पत्रकार एडवर्ड लूस ने 2006 में एक किताब लिखी, इन स्पाइट ऑफ द गॉड्स। उसमें एक जगह लिखा है, व्यंग्य के तौर पर ही। इटली के संदर्भ में। 'रात में आर्थिक प्रगति होती है, जब सरकार सो रही होती है।' दरअसल भारत के पावर हाउस के रूप में उभरे नये शहरों में कामकाज रात में ही होता है, जब दुनिया की अर्थव्यवस्था और कंपनियों को भारत के युवा भारत में बैठे नियंत्रित करते हैं।आप युवाओं को अपनी दृष्टि बदलनी होगी, सोचने का तरीका बदलना होगा। आप खुद को समस्या न मानिए। न समस्या बनिए। बल्कि आप इस संकट के समाधान के कारगर यंत्र बनिए। हिंदी पट्टी की आबादी बहुत बड़ी है और यह बाजार बहुत बड़ा है। यह हमारी ताकत है। हमें इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए। टेक्नोलॉजी अपनाने में अग्रिम मोरचे पर रहिए। कंप्यूटर, इंटरनेट, नयी खोज, नयी चीजें, इन सबको जीवन में पहले उतारिए। इनके विरोधी मत बनिए। इतिहास से सीखिए। जो टेक्नोलॉजी में पिछड़ गया, वह गुलाम बनने के लिए अभिशप्त है। औद्योगिक क्रांति का अगुआ था ब्रिटेन। उसके राज्य में सूर्यास्त नहीं होता था। भारत उसका गुलाम बन गया। अमेरिका का वर्चस्व अपनी टेक्नोलॉजी के कारण है। दक्षिण के राज्य हमसे क्यों आगे हैं? क्योंकि अच्छी शिक्षण संस्थाएं, इंफ्रास्ट्रक्चर वगैरह बना कर वह सूचना क्रांति के केंद्र बन गये हैं।रॉबर्ट फ्रास्ट की एक मशहूर कविता है, जिसका आशय है -
आज से हजारों हजार वर्ष बादमैं भले भाव में यह कहूंगाजंगल में दो रास्ते थेमैं उस पर चलाजिस पर लोग यात्रा नहीं करते थेऔर इसी प्रयास ने सारे द्वार खोल दियेआप युवा घटिया राजनीति के पात्र न बनें। यह राजनीति देश को तोड़ने की ओर ले जाएगी। 1960 में सेलिग एस हैरिसन ने बहुचर्चित किताब लिखी थी इंडिया : द मोस्ट डेंजरस डिकेड। जो चीज़ें आज के भारत में हो रही हैं, उसका उल्लेख है इस पुस्तक में। कैसे राज ठाकरे जैसे लोग देश को तोडने की ओर ले जा रहे हैं? क्या आप भी राज ठाकरे के सपने को पूरा करना चाहते हैं? इस देश के लाखों-करोड़ों युवाओं ने आजादी के लिए कुर्बानी दी है। गर्व की बात है कि आजादी की लड़ाई में हिंदी इलाके अग्रिम मोरचे पर थे। लगभग 2500 वर्षों के ज्ञात इतिहास में भारत में स्थिर केंद्रीय शासन के चार संक्षिप्त दौर हैं। मौर्य काल, मुगल काल, ब्रिटिश काल और आजादी के बाद के 60 वर्ष। इनमें पहला और अंतिम शासन देश की धरती से निकले थे। तीसरा पूरी तरह विदेशी था। दूसरा शुरू में विदेशी था। तीन पीढ़‍ियों बाद देशी बनने लगा। भारत की इस एका को किसी कीमत पर आप युवा खंडित न होने दें। महाराष्ट्र की परंपरा आज युवा नहीं जानते। यह राज ठाकरे का राज्य नहीं रहा है। यह लोकमान्य तिलक, दादा भाई नौरोजी से लेकर साने गुरुजी, अच्युत पटवर्धन, मधु लिमये, मधु दंडवते, एसएम जोशी, एनजी गोरे, मृणाल गोरे जैसे देशभक्तों का राज्य है। बाल ठाकरे और राज ठाकरे अपवाद और इस समाज की विकृतियां हैं। यह महाराष्ट्र की मुख्यधारा नहीं है।मधु लिमये के लेख से राजनीति के बारे में एक अंश उद्धृत कर रहा हूं। वही मधु लिमये जिन्हें बिहार ने बार-बार लोकसभा में भेजा और गौरवान्वित महसूस किया। अमेरिका के एक लेखक जॉन एस सलोमा का वह हवाला देते हैं कि आज राजनीति, राजनेता, राजनीतिज्ञ और दलीय, ये सब शब्द लोगों में तिरस्कार की भावना पैदा करते हैं। इनमें संकीर्ण स्वार्थवादिता की बू आती है।

आप बिहार के युवा एक क्रांतिकारी परंपरा के वाहक हैं। क्या आप इस सड़ी राजनीति का हिस्सा बनना चाहते हैं? एक कविता की इन पंक्तियों पर गौर कीजिए...
कई बार मरने से जीना बुरा हैकि गुस्से को हर बार पीना बुरा हैभले वो न चेते हमें चेत होगाहमारा नया घर, नया रेत होगामुक्तिबोध की यह पंक्ति भी याद रखिए
एक पांव रखता हूं, हजार राहें फूट पडती हैं!


(इस लेख को तैयार करने में निम्न पुस्तकों से मदद ली गयी है। मेरा आग्रह है कि आप इन सभी पुस्तकों को पढ़ें। पढ़ने-पढ़ाने का अभियान चलाएं ताकि आपके शासक (शासन चलानेवाले, राजनीति करने वाले) इन्हें पढ़ें और जानें कि दुनिया कहां चली गयी है। भारत के अन्य राज्य कहां पहुंच गये हैं और हम हिंदी इलाके कहां हैं। पहले यह कहावत थी, इग्नोरेंस इज ब्लिस (अज्ञानता वरदान है)। पर ग्लोबल विलेज के इस दौर की बुनियादी शर्त है, इनफॉरमेशन इज पावर (सूचना ही ताकत है)। इसे नॉलेज एरा कहा जाता है। क्या इन पुस्तकों को पढ़ कर, इनके निचोड़ निकाल कर, आप छात्र बिहार के गांव-गांव, स्कूलों और संस्थाओं में इसके मर्म बताने का अभियान चला सकते हैं? इससे लोग बदलती दुनिया की हकीकत समझेंगे और तथ्य जान कर बिहारियों-झारखंडियों में आकांक्षाएं पैदा होंगी, जिनसे नया राज्य बनेगा।

1. The World Is Flat: Thomas L Friedman

2. Rising Elephant: Ashutosh Sheshabalaya

3. Building A Vibrant India: M M Luther

4. India: Aaron Chaze5. Made in India: Subir Roy

6. Banglore Tiger: Steve Hamm

7. India Booms: John Farndon

8. India Arriving: Rafiq Dossani

9. Remaking India: Arun Maira

10. Mantras of Change: Daniel Lak11. India Express: Daniel Lak

12. Inspite of Gods: Edward Luce

13. India: The Most Dangerous Decades: Selig S Harrison

14. India's New Capitalists: Harish Damodaran

15. संक्रमणकालीन राजनीति: मधु लिमये

16. भारतीय राजनीति का नया मोड़: मधु लिमये

17. The New Asian Hemishpere: Kishore Mehbubani

18. Transforming Capitalism: Arun Maira

19. 20 : 21 Vision: Bill Emmott

20. The Second World: Parag Khanna21. Rivals: Bill Emmott

Wednesday, October 22, 2008

मराठी राजनीति की एक गंदी पीढ़ी

शायद तीन दशक पहले की बात आपको याद होगी, बाल ठाकरे के नेतृत्व में मुंबई में रहने वाले दक्षिण भारतीयों के खिलाफ एक नारा दिया गया था, लुंगी उठाओ-पुंगी बजाओ। अब उसी खानदान के कुलदीपक ने उत्तर भारतीयों के विरोध का ठेका लिया है। संकट सामने है कि आगामी लोकसभा चुनाव में किसे चुनें। अब देखिए वर्तमान राजनीति--

कांग्रेस की राजनीति

कांग्रेस इसलिए नवनिर्माण सेना को बढ़ावा दे रही है कि उसे शिव सेना से अगले चुनाव में मुकाबला करना है। अगर राज ठाकरे इस तरह की नंगई करके कुछ वोट काटने में सफल हो जाता है तो वह कांग्रेस के हित में रहेगा। यही वजह है कि कांग्रेस सरकार महाराष्ट्र में जंगलराज बरकरार रखने में मदद कर रही है। विलासराव देशमुख सरकार ने अगर गिरफ्तारी की भी, तो नाटक करने के लिए। हिंदी टीवी चैनलों पर मराठी बोलकर दिखाना पड़ा कि वे भी मराठियों के खैरख्वाह हैं।

भाजपा की राजनीति

यह पार्टी तो जैसे नंगी होने के लिए पैदा ही हुई है। सत्ता में रही तब अपने मुद्दे को छो़ड़कर नंगी हुई। सत्ता के बाहर रही तो और तरीकों से। राष्ट्रीय और हिंदूवादी पार्टी होने का दावा करने वाले ये लोग भी मुंबई में चल रही गुंडई के बारे में मौन साधे हुए हैं। शायद आडवाणी को प्रधानमंत्री बनने का लोभ इतना है कि वे राज ठाकरे और बाल ठाकरे दोनों को साधे रखना चाहते हैं। लेकिन इनको यह पता नहीं कि इस तरह के दोगलेपन को जनता पसंद नहीं करती।

लालू और मुलायम की राजनीति

ये केंद्र में सत्ता में बैठे हैं, लेकिन औकात नहीं है कि केंद्र सरकार की मुंबई में उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों को पिटवाने की नीति का विरोध कर सकें। खास बात यह है कि मुलायम के मुंबई प्रतिनिधि अबू आजमी भी अब उत्तर भारतीयों को संगठित करने में लग गए हैं। कोशिश यही कि इस पिटाई का राजनीतिक फायदा उठा लिया जाए। कांग्रेस की तुष्टिकरण में अमर सिंह तो पहले से ही सहयोगी बनकर बाटला हाउस के प्रवक्ता बनकर उभरे हैं।

अब सवाल उठता है कि ऐसी बुरी दशा में जनता जाए तो कहां जाए। राष्ट्रीयता का खामियाजा यूपी और बिहार वाले भुगत ही रहे हैं, जिसके कारण न तो इन राज्यों में सार्वजनिक इकाइयां हैं और न ही निजी। नौकरी के लिए ये दूसरे राज्यों में जाते हैं और यह समझते हैं कि पूरा भारत हमारा है, क्योंकि हम हिंदुस्तानी हैं।

Sunday, October 19, 2008

नंगू


शाकाहार तो ठीक है भइया। ज्यादातर भारतीय इसका समथॆन करते हैं। लेकिन इस तरह का शाकाहार? अगर ऐसा ही किया तब तो सड़क पर धूमने वाली गाय और बकरियां हमें नंगा कर देंगी।

Monday, October 13, 2008

कुछ यूं मचा कर्नाटक में बवाल, सरकार जवाब दे, क्या किया उसने?

1) “…इन्द्रसभा की नृत्यांगना उर्वशी विष्णु की पुत्री थी, जो कि एक वेश्या थी…”।
2) “…गुरु वशिष्ठ एक वेश्या के पुत्र थे…”।
3) “…बाद में वशिष्ठ ने अपनी माँ से शादी की, इस प्रकार के नीच चरित्र का व्यक्ति भगवान राम का गुरु माना जाता है…” (पेज 48)।
4) “…जबकि कृष्ण खुद ही नर्क के अंधेरे में भटक रहा था, तब भला वह कैसे वह दूसरों को रोशनी दिखा सकता है। कृष्ण का चरित्र भी बहुत संदेहास्पद रहा था। हमें (यानी न्यूलाईफ़ संगठन को) इस झूठ का पर्दाफ़ाश करके लोगों को सच्चाई बताना ही होगी, जैसे कि खुद ब्रह्मा ने ही सीता का अपहरण किया था…” (पेज 50)।
5) “…ब्रह्मा, विष्णु और महेश खुद ही ईर्ष्या के मारे हुए थे, ऐसे में उन्हें भगवान मानना पाप के बराबर है। जब ये त्रिमूर्ति खुद ही गुस्सैल थी तब वह कैसे भक्तों का उद्धार कर सकती है, इन तीनों को भगवान कहना एक मजाक है…” (पेज 39)।


“न्यू लाईफ़ वॉइस” मिशनरी केन्द्र ने एक पुस्तक प्रकाशित की जिसका नाम रखा गया “सत्य दर्शिनी”, और इस बुकलेटनुमा पुस्तक को बड़े पैमाने पर गाँव-गाँव में वितरित किया गया। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद लोग भड़क गये और यही इन दंगों का मुख्य कारण रहा.
http://sureshchiplunkar.blogspot.com
पर इसके बारे में जानकारी मिली। अगर यह सही है कि इस तरह की किताब बांटी गई, तो सवाल यह उठता है कि क्या यह भड़काऊ नहीं है जिससे मारकाट मच जाए???
ऐसे में सरकार ने क्या किया? क्या ऐसे संगठनों और मिशनरियों पर प्रतिबंध नहीं लगना चाहिए????

Sunday, October 12, 2008

गंदी राजनीति के चलते खतरनाक बनता असम

आदिति फडणीस



असम में बोडो और मुस्लिम अल्पसंख्यकों के बीच संघर्ष में गत सप्ताह दर्जनों लोग मारे गए।

2006 में विधानसभा चुनाव के ठीक पहले भी असम में इसी तरह की मुठभेड़ हुई थी, लेकिन दो जनजाति समूहों के बीच। कबीलों, जनजातियों, जातीय और धार्मिक समुदायों में बंटा असम, अन्य राज्यों से ज्यादा हिंसा का शिकार होता है।

कहावत है कि आप अपने दोस्तों को चुन सकते हैं, लेकिन अपने संबंधियों को नहीं। असम का कुछ यही हाल है। बांग्लादेश से सटी एक सीमा की वजह से असम और बांग्लादेश के बीच पारिवारिक संबंध है। सीमा पर किसी तरह की रोक-टोक नहीं है।

अत: बोडो जाति के असामाजिक तत्व - जैसे कथित आतंकवादी परेश बरुआ- बांग्लादेश के दामाद की तरह सीमा पार कर आते जाते रहते हैं। बांग्लादेश भी उनको खुशी से दूध पिलाता है- क्या पता कब जरूरत पड़ जाए! 1960 से 1980 के दशक में असम में लगातार कांग्रेस का ही शासन रहा करता था।

राज्य के दिग्गज कांग्रेसी नेता, देवकांत बरुआ खुलेआम कहा करते थे कि जब तक अली (बांग्लादेशी मुसलमान), कुली (चाय के बागानों में काम करने वाले श्रमिक) और बंगाली (पश्चिम बंगाल से आए हुए हिंदू) कांग्रेस के साथ थे, कांग्रेस के हारने का कोई सवाल ही नहीं था। जब इन तीनों समुदायों- अली, कुली और बंगाली- के अनुपात की लगाम कांग्रेस के हाथ से निकल गई तो सामाजिक और आर्थिक विकृतियों का उभरकर आना स्वाभाविक था।

ऐसा कुछ होता चला गया 1980 के दशक से। बाहर से आए लोगों के खिलाफ आवाज उठाई अहोम गण परिषद ने। इसके बाद उत्तर प्रत्युत्तर में हिंसा असम की राजनीति का एक हिस्सा सा बन गई। कभी हिंदू मुस्लिम दंगे होते थे तो कभी बोडो-कुकी झगड़े। बांग्लादेश से भागे हिंदू भी असम आने लगे। असम के हिंदू इन्हें हिकारत की निगाह से देखते थे। तनाव स्वाभाविक था।

1980 और 84 के चुनाव किन परिस्थितियों में हुए, यह सर्वविदित है। भारत सरकार और आल असम स्टूडेंट्स यूनियन व अगप के बीच करार के बाद स्थिति संभल गई। अगप की सरकार भी बनी, लेकिन युवा आदर्शों को सत्ता के लालच ने निगल लिया। सरकार की लूटपाट से तंग आकर असम ने फिर कांग्रेस को चुना।

2001 में तरुण गोगोई मुख्यमंत्री बने और 2006 में कांग्रेस पुन: जीतकर आई। सरकार तो औपचारिक रूप से बन गई लेकिन राजनीतिक चुनौतियां बरकरार रहीं। लेफ्टीनेंट जनरल (अवकाश प्राप्त) एस. के. सिन्हा ने, जो असम के राज्यपाल थे, राज्य सरकार को कई बार चेताया कि यदि बाहरी लोगों को असम में आने से रोका नहीं गया तो असम का जनसांख्यिकीय चरित्र ही बदल जाएगा।

यही बात कही लेफ्टीनेंट जनरल (अवकाश प्राप्त) अजय सिंह ने, जो अब राज्यपाल हैं। तरुण गोगोई और राज्यपाल में तो सार्वजनिक झड़प हो गई। गोगोई ने राज्यपाल के इस कथन का खंडन किया कि रोज 6,000 लोग बांग्लादेश से भारत आते हैं और इन्हें रोकने का राज्य सरकार कोई प्रयास नहीं कर रही है।

2005 में तिनसुकिया जंगलों में फौज आतंकवादियों को ढूंढ रही थी। अचानक राज्य सरकार से आदेश मिला कि खोज को रोक दिया जाए। सेना ने 14 को मार गिराया था। सेनाध्यक्ष पशोपेश में पड़ गए। जब जंगल खाली करने का मौका था तो पीछे हटना क्या बुध्दिमानी थी? लेकिन सरकार अड़ी रही और सेना को ऑपरेशन अधूरा छोड़ना पड़ा। सच तो यह है कि चुनाव सामने था और सरकार नहीं चाहती थी कि किसी भी समुदाय के वोट वह खो दे।

तरुण गोगोई ने अपने कार्यकाल में ऐसा बहुत कुछ किया है, जिससे असम के निवासियों का विश्वास जीता जा सके। पुलिस के इंसपेक्टर जनरल की पदवी को ही रद्द कर दिया गया। जिस तरह मुफ्ती मोहम्मद सईद कश्मीर का चुनाव इस वायदे पर जीत गए कि स्पेशल टास्क फोर्स को वह राज्य से बाहर कर देंगे।

क्या सेना और पुलिस का मनोबल तब तोड़ना चाहिए, जब वे ऑपरेशन में सफलता हासिल कर रहे हों? बहरहाल दंगाइयों को लगा कि जब सैंया भए कोतवाल तब डर काहे का। लेफ्टी. जनरल सिन्हा की चेतावनी अब दिल्ली में सब को याद आ रही है।

राष्ट्रपति के. आर. नारायणन को एक पत्र में जनरल सिन्हा ने लिखा था कि बांग्लादेशी नागरिकों का असम में घर बनाना अब इतना प्रचलित हो गया है कि वह समय दूर नहीं, जब असम के बड़े हिस्सों से मांग होगी कि भारत सरकार को उन जिलों को बांग्लादेश के साथ विलय की अनुमति दे देनी चाहिए ।

भारत सरकार ने आईएमडीटी एक्ट के तहत गैर कानूनी बांग्लादेशी नागरिकों को स्वदेश भेजने के लिए एक तंत्र बनाया था। इसे संप्रग सरकार ने खारिज कर दिया है। असम अब कितने खतरनाक और संवेदनशील कगार पर खड़ा है, यह बहुत कम लोग समझते हैं।

भूटान, बांग्लादेश और बर्मा जैसे तीन देशों से सटी सीमा वाला असम भारत के लिए एक भयंकर जंजाल बन सकता है, यदि यहां की राजनीति पर नजर न रखी गई। जाति और कबीलों की राजनीति वैसे भी बहुत पेचीदा होती है। उसे धर्म का पुट मिल जाए तो पूरे भारत के लिए खतरा हो सकता है। प्रधानमंत्री जिस राज्य से चुने गए हैं, उसमें इस तरह की घटना वाकई शर्मनाक है।
courtesy: www.bshindi.com

Friday, October 10, 2008

एक खांटी अमेरिकी सीईओ की चिट्ठी

श्यामल मजूमदार / October 08, 2008
मेरे प्यारे पाठकों, अमेरिकी कॉर्पोरेट दुनिया के एक पोस्टर ब्वॉय के तौर पर मुझे हफ्ते के सातों दिन और दिन के चौबीसों घंटे खबरों में रहना काफी पसंद है।
लेकिन अगर आपको भी मेरी आंखों के नीचे काले धब्बे दिखाई देते हों, तो यह मेरी गलती नहीं है। दरअसल यह गलती है उन अखबारों की, जिनमें बड़ी-बड़ी कंपनियों के ऊंचे-ऊंचे ओहदेदारों की तस्वीर उनके मोटे-मोटे वेतन के साथ छपी होती है। हालांकि, मैंने अब इन बातों की तरफ ध्यान छोड़ दिया है।

मुझे पूरा भरोसा है कि कुछ अखबारों में हाल ही में छपा वह सर्वे पूरी तरह से झूठा और निराधार था। भाई साहब, वही सर्वेक्षण जिसमें 80 फीसदी अमेरिकियों ने यह कहा था कि कंपनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारियों को जरूरत से ज्यादा मोटा वेतन मिलता है। आखिरकार मैंने अपने वेतन को सबसे छुपाकर रखने की इतनी जबरदस्त कोशिश जो की है। लेकिन कुछ लोगों में दबी-छुपी बातों को खोद निकालने का कीड़ा होता है। इसलिए तो मुझे इस बात पर कोई हैरत नहीं हुई, जब उन लोगों ने जैक वेल्स के जीई से जुदा होने से जुड़े कई बड़े राजों को दुनिया के सामने खोल कर रख दिया था। वह भी ऐसे राज जिनके बारे में खुद कंपनी ने शुरुआत में कुछ कहने से इनकार कर दिया था।

अब तो आपको भी मालूम हो चला होगा कि अमेरिकी कॉर्पोरेट जगत में मगरमच्छ समझी जाने वाली उस कंपनी ने अपने पूर्व सीईओ को रुखसत करने के लिए उन्हें एक मोटा-ताजा रिटायरमेंट पैकेज दिया था। उस विदाई के तोहफे में कंपनी ने उन्हें न्यूयॉर्क के पॉश मैनहट्टन इलाके में एक फ्लैट, कई महंगे क्लबों की मेंबरशिप और यहां तक कि कॉर्पोरेट जेट में मुफ्त में सैर-सपाटा करने की इजाजत भी दी थी। हालांकि, सभी ऐसे नहीं होते। कुछ तो खुले तौर पर यह मान लेते हैं कि वे कंपनियों की सुविधाओं का जमकर इस्तेमाल करते हैं।

जॉन केनेथ गैल्ब्रेथ ने बिल्कुल सही कहा था कि एक बड़ी कंपनी के सीईओ का वेतन अक्सर उसका खुद को दिया गया सबसे बेहतरीन तोहफा होता है। इस बात की सबसे अच्छी मिसाल हैं लीमन ब्रदर्स के मुखिया रिचर्ड फ्लूड। उन्होंने खुद की खुशी को कभी भी नजरअंदाज नहीं किया। उन्होंने अपनी कंपनी को आसमान की ऊंचाई से पाताल की गहराई तक पहुंचाने के लिए कंपनी से अपने काम के हर घंटे के लिए 17 हजार डॉलर लिए थे। साथ ही, उन्होंने अपने मातहतों का भी पूरा ध्यान रखा और उनके बीच जमकर महंगे शेयर बांटे। लेकिन सारा दोष अकेले उनके और उनकी टीम के सिर ही क्यों मढ़ा जाए? आपने टायको के पूर्व सीईओ की वह मशहूर कहानी तो सुनी ही होगी कि उन्होंने पूरे छह हजार डॉलर में अपने बाथरूम के पर्दे खरीदे और बिल कंपनी के नाम भिजवा दिया। अभी हाल ही में बैंक ऑफ अमेरिका ने मेरिल लिंच का अधिग्रहण कर लिया।लेकिन इसके करीब एक साल पहले इस कंपनी ने अपने तत्कालीन सीईओ स्टैनली ओ'नील को रुखसत करने के लिए जो पैकेज दिया था, उसकी कीमत आज 6।6 करोड़ डॉलर है। इसके अलावा भी कई मिसालें हैं।

मुझे तो सबसे ज्यादा जलन अभी हाल ही में ह्यूलिट पैकर्ड से निकाली गईं उनकी सीईओ कार्ली फियोरिना से होती है। इसलिए नहीं कि उन्हें कंपनी छोड़ने के लिए 4.2 करोड़ डॉलर मिले, बल्कि इसलिए क्योंकि उनका जिक्र आज कल अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव अभियानों में खूब हो रहा है। हालांकि, इस चर्चा की वजह बहुत अच्छी नहीं है। राष्ट्रपति के पद के लिए डेमोक्रेट उम्मीदवार बराक ओबामा ने अभी हाल ही में अपने एक नए विज्ञापन में अपने रिपब्लिकन प्रतिद्वंद्वी जॉन मैकेन और कंपनियों के बड़े अफसरों के लिए सोने के पैरासूटों को जोड़ा है। इस 30 सेकंड के विज्ञापन में फियोरिना पर खासा जोर दिया गया है। उन्हें इसमें हद से ज्यादा मोटा वेतन लेने के प्रतीक के रूप में दिखलाया है।

अगर ओबामा राष्ट्रपति बन गए तो उनका यह गुस्सा हम लोगों को काफी भारी पड़ सकता है। वह दुनिया को यह बताने में जुटे हुए हैं कि सभी अमेरिकी कंपनियों के सीईओ आज की तारीख में 1.05 करोड़ डॉलर का वेतन पा रहे हैं।साथ ही, वे यह भी बता रहे हैं कि हम एक औसत अमेरिकी कर्मचारी की तुलना में 344 गुना ज्यादा कमा रहे हैं। यह देखकर बहुत दुख होता है। इस तरह के खुलासे हमारी जिंदगियों को और मुश्किल ही बना देंगे। वैसे, हकीकत में इसकी उम्मीद कम ही है। सुना था कि बुश बेल-ऑउट प्लान में एक नया नियम जोड़ने के बारे में सोच रहे हैं। इस नए नियम के मुताबिक सरकारी मदद से बचाई गईं कंपनियों के लिए अपने बड़े अधिकारियों को विदाई का तोहफा देना नामुमकिन हो जाएगा।

चर्चा तो हमारे वेतन पर भी लगाम कसने की है। लेकिन इससे नाउम्मीद नहीं हूं। आखिरकार, सरकार का अपनी बातों पर खरा उतरने के मामले में ट्रैक रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं है। मिसाल के लिए 1990 के दशक के शुरुआती सालों में कांग्रेस 10 लाख डॉलर से ज्यादा कमाने वाले कार्यकारी अधिकारियों के लिए टैक्स का फंदा और कड़ा कर दिया था। नतीजे उम्मीद के मुताबिक ही थे। हमने प्रोत्साहन और कामकाज पर आधारित वेतन लेना शुरू कर दिया, जो टैक्स के फंदे से बाहर था। इसी वजह से तो मेरे असल वेतन में पिछले कुछ सालों में थोड़ा-बहुत ही इजाफा हुआ है। लेकिन मेरी दूसरे तरीकों से होने वाली कमाई में जबरदस्त इजाफा हुआ है। इसलिए मुझे पूरा भरोसा है कि इस संकट से भी मैं निकल जाऊंगा। अगर कोई दूसरी तरकीब काम न आई तो वह अपना पूरा फॉर्मूला तो काम आएगा ही।

आखिरकार, किस कर्मचारी को कितना वेतन मिलना चाहिए, यह फैसला कांग्रेस को नहीं, बल्कि कंपनी के निदेशक मंडल को करना चाहिए। साथ ही, बड़े अफसरों के वेतन पर लगाम कसना मुसीबतों को बुलावा दे सकता है। हमें खुद इतना यकीन इसलिए है कि खुद अमेरिकी वित्त मंत्री हेनरी पॉलसन अभी हाल तक गोल्डमैन सैक्स के सीईओ रहे थे।साथ ही, उन्हें भी कंपनी से स्टॉक ऑप्शंस मिले हैं, जिनकी कुल कीमत आज की तारीख में 50 करोड़ डॉलर है। वह अपने भाइयों को इतनी जल्दी नहीं भूल सकते। वैसे मैं एआईजी के पूर्व सीईओ रॉबर्ट विलियम्सटैड की पेश की गई मिसाल से जरूर परेशान हूं। उन्होंने पिछले हफ्ते अपने रास्ते जुदा करने के लिए कंपनी द्वारा पेशकश की गई 2.2 करोड़ डॉलर की रकम पर यह कहते हुए लात मार दी कि उन्हें कंपनी को खुद अपने पैरों पर खड़ा करने का मौका नहीं दिया गया। उन जैसे लोगों को खत्म होने दीजिए। मेरा तो बड़ी शिद्दत से यह मानना है कि लोगों की याददाश्त बड़ी छोटी होती है।

आपका अजीज
सीईओ,ए 2जेड इंक
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Tuesday, September 30, 2008

कोसी की धारा में बह गए कारोबारियों के अरमान

सत्येन्द्र प्रताप सिंह / पूर्णिया September 06, 2008
नेपाल के कुसहा में तटबंध टूटने से दर्जन भर से अधिक बाजार जलमग्न हो गए हैं।
स्थानीय लोगों में स्वर्गनगरी के नाम से विख्यात सुपौल जिले का बीरपुर बाजार ध्वस्त हो गया है, जो नई बनी धारा के बीच में है। इस बाजार में भारत, नेपाल, चीन की बहुत सारी सामग्री उपलब्ध रहती है, महंगी शराब से लेकर सूई तक। यह बिहार और नेपाल के कुछ इलाकों के लिए पर्यटन स्थल के रूप में विख्यात था, जहां लोग छुट्टियां मनाने जाते थे।
बीरपुर बाजार के पहले भीमनगर का अस्तित्व खत्म हुआ। नदी की तेज धार ने आगे बढ़ते हुए बलुआ बाजार, छातापुर, फारबिसगंज, रानीगंज, नरपतगंज को डुबोते हुए मधेपुरा के रामनगर, कुमारखंड और मुरलीगंज के बाद पूर्णिया को प्रभावित किया है। इसके अलावा, जीतपुर, आलमनगर, पुरैनी, चौसा सहित तमाम बाजार प्रभावित हुए हैं। बीरपुर बाजार भारत-नेपाल के प्रमुख बाजार के रूप में जाना जाता है। यहां अनुमान के मुताबिक, प्रतिदिन 50 लाख रुपये का कारोबार होता था। यहां पर हीरो होंडा का शोरूम, थोक व फुटकर दुकानें, अदालत, सरकारी कार्यालय सभी डूब गए हैं। कुछ इमारतें बंद हो गई हैं, बाकी बची इमारतें भी टूट रही हैं।
इसके अलावा, मुरलीगंज और बिहारीगंज इस इलाके का सबसे बडा थोक बाजार था, जहां प्रतिदिन 2 करोड़ रुपये से ज्यादा का कारोबार होता था। सुपौल के थोक व्यवसायी तपेश्वर मिश्र ने बताया, मुरलीगंज और बिहारीगंज, सहरसा जिले से भी बड़े थोक बाजार थे, जहां सामान कोलकाता से लाया जाता था और मधेपुरा, पूर्णिया के तमाम इलाके और सुपौल में सामान की आपूर्ति की जाती थी। इन इलाकों की नदियों पर अध्ययन कर चुके रणजीव ने कहा, नदी ने रुख बदल लिया है और ये सभी बाजार भरी हुई नदी धमदाहा कोसी मार्ग पर है, जिस मार्ग को तटबंध टूटने के बाद नदी ने पकड़ा है। इन सभी बाजारों में पानी की धार तेज है और सारा कारोबार चौपट हो गया है।
सुपौल व्यापार संघ के सचिव गोविन्द प्रसाद अग्रवाल का कहना है कि जो बाजार बचे हैं, वे टापू बन गए हैं। पूरा का पूरा कारोबार चौपट हो गया है। इस समय सभी व्यापारी इस कोशिश में लगे हैं कि जो पानी से निकलकर बाहर आ रहे हैं, उन्हें बचाया जाए।

पल भर में बने करोडपति से मोहताज
मधेपुरा जिले में मुरलीगंज बाजार के जोरगामा में अरविन्द चौधरी तेल मसाला व जिंस का कारोबार करते थे। उनका एक करोड़ से अधिक को थोक व्यापार था। 21 अगस्त को उनके घर में पानी घुसा, तो वे छत पर आ गए। 7 दिनों तक छत पर रहने के बाद सेना की नाव उन तक पहुंची और किसी तरह परिवार के साथ जान बचाकर भागे।जब वे अपने बहनोई के घर सहरसा पहुंचे तो उनके तन पर केवल लुंगी और बनियान थी। कुछ भी पूछने पर शून्य में खो जाते हैं और बार-बार सेना और भगवान को धन्यवाद देते हैं कि जान बच गई। कारोबार के बारे में पूछने पर कहते हैं कि जान बच गई है, तो जीने का कोई सहारा तो ढूंढ़ ही लेंगे।

Monday, September 29, 2008

बेलगाम कोसी से जूझ रहे लोग

सत्येन्द्र प्रताप सिंह / कुसहा/नेपाल September 04, 2008
कुसहा में तटबंध टूटने के साथ कोसी नदी ने रास्ता बदल लिया है। टूटे तटबंध से प्रतिदिन एक से दो लाख क्यूसेक तक पानी निकल रहा है।
वहीं भीमनगर बैराज से, जो पहले नदी का मुख्य रास्ता था, महज 15 से 20 प्रतिशत पानी बह रहा है। तटबंध पर अधिशासी अभियंता के। एन. सिंह के नेतृत्व में इंजीनियरों का एक दल टूटे तटबंध को और ज्यादा चौड़ा होने से रोकने में लगा है।साथ ही मजदूर बालू की बोरियों से कटाव रोकने की कोशिश कर रहे हैं। तटबंध पर बोल्डर लाया जा रहा है, जो ट्रकों से भरकर नेहरू पार्क से आ रहा है। इसके साथ ही एचसीएल (हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन लिमिटेड) का एक प्रबंधक इस कार्य को देख रहा है। धारा प्रवाह पानी बह रहा है और वह बाढ़ से डूबे इलाके में जा रहा है।

राज्य सरकार ने कोसी नदी से जुड़े रहे वरिष्ठ इंजीनियर नीलेंदु सान्याल की अध्यक्षता में उच्च सदस्यीय समिति का गठन किया है, जिसके सदस्य के.एन. लाल और वृजनंदन प्रसाद हैं। समिति का पहला उद्देश्य कटे हुए तटबंध को अधिक चौड़ा होने से रोकना और पानी की धारा को मूल दिशा की और ले जाना है। बाढ़ की हालत अगर बात करें बाढ़ पीड़ित इलाकों में पानी घटने की, तो जब टूटे तटबंध से कम पानी आता है या कोई सड़क तोड़कर पानी दूसरे इलाकों को डुबाता है, तो डूबे हुए इलाके में पानी घटता है। नई बनी नदी के पेट में तो अभी तूफानी गति से पानी बह रहा है। हालांकि यह पानी कुरसेला नामक स्थान से गंगा नदी में मिलने लगा है, जहां पहले भी कोसी का पानी गंगा से मिलता था।
'जब नदी बंधी' पुस्तक के लेखक और 'बाढ़ सुखाड़ मुक्ति अभियान' के सदस्य रणजीव का कहते हैं कि जब तक राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 31 को काटकर और उस पर पुल बनाकर रास्ता नहीं दिया जाएगा, सुपौल, मधेपुरा, सहरसा,पूर्णिया के तमाम जिले लंबे समय तक डूबे रहेंगे। आने वाले हथिया और कान्हा नक्षत्र में (सितंबर-अक्टूबर में) जमकर बारिश होगी। उस समय यह पानी 2 लाख क्यूसेक के आंकड़े को भी पार करता है।

अभिशाप की वजह

फरक्का बैराज पर जमी गाद की वजह से भारी तबाही होती है, क्योंकि कोसी का पानी गंगा से जल्दी नहीं मिल पाता है। इस बार का संकट तो और गहरा है, क्योंकि नदी की नई धार को अपने मुताबिक निकलने का रास्ता बनाना है।

भ्रष्ट लोगों की चारागाह

महिषी विधानसभा क्षेत्र के स्थानीय नेता कपिलेश्वर सिंह कहते हैं कि कोसी का बांध भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों का अड्डा है, जहां करोडों का वारा-न्यारा होता है। यही कारण है कि नदी में बालू जमा हो रही है और तटबंध कमजोर हो चुके हैं।उन्होंने मांग की कि नई धारा पर भी बैराज बनाया जाना चाहिए और साथ ही भीमनगर के पुराने बैराज की मरम्मत और नदी की गाद की तत्काल सफाई की जानी चाहिए। इसी में इस इलाके के लोगों का हित है।

Sunday, September 28, 2008

जहां गम भी न हों, आंसू...

सत्येंद्र प्रताप सिंह / सहरसा September 03, २००८


सहरसा से अमृतसर जाने वाली रेलगाड़ी जैसे ही प्लेटफॉर्म पर पहुंचती है, स्टेशन पर भयंकर चीख-पुकार मच जाती है। ठसा-ठस भरे प्लेटफॉर्म पर लोग परिजनों को चीख-चीख कर बुला रहे हैं, ताकि जल्द से जल्द गाड़ी में बैठकर इस इलाके से निकल सकें।

प्रधानमंत्री ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना सहित राज्य की विभिन्न योजनाओं के तहत काम मिलने लगा, तो मजदूर दूसरे राज्यों से घर वापस लौटने लगे थे, लेकिन बाढ़ ने जब सबको बेघर कर दिया, तो लाखों की संख्या में नए दिहाड़ी मजदूर भी पैदा हो गए, जो किसी तरह बाढ़ वाले इलाकों से निकल भाग जाना चाहते हैं। सहरसा से पटना-दिल्ली जाने वाली हर ट्रेन का यही हाल है।

मुरादपुर ब्लॉक के बिहारीगंज में रहने वाले 70 वर्षीय धनश्याम झा पूरे कुनबे के साथ अपने रिश्तेदार के घर पटना जा रहे हैं। गांव में आई बाढ़ से जूझते हुए, जब जान पर बन आई, तो एक निजी नाविक को 3,000 रुपये देकर किसी तरह बाहर निकले। अब उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि जाएं, तो कहां जाएं!वहीं मजदूर वर्ग के लोग सीधा महानगरों का रुख कर रहे हैं। सुपौल जिले के सियानी गांव के रवि यादव पंजाब जा रहे हैं, उनका परिचित वहां नौकरी करता है। वह इस आस में जा रहे हैं कि उन्हें पंजाब में कोई काम मिल जाएगा, जिससे दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो जाएगा। उसके बाद वह पूरे परिवार को वहां लाने की सोचेंगे। फिलहाल, मां, बाप, बहन को बांध पर छोड़ आए हैं।

बहुत से ऐसे मजदूर भी हैं, जो बाहर जाकर काम करते हैं और अब पूरे परिवार को लेकर पलायन कर रहे हैं। सहरसा के जमरा गांव के दिनेश सिंह दिल्ली के बदरपुर इलाके में रहकर वाहन चालक का काम करते हैं। अब वे पूरे कुनबे को लेकर दिल्ली जा रहे हैं। उन्होंने कहा, 'जान बच गई तो कुछ न कुछ काम तो मिल ही जाएगा।' सच तो यह है कि बिहार का कोसी इलाका कृषि के लिए उपयुक्त माना जाता है, बावजूद इसके उचित जल-प्रबंधन के अभाव में हर साल नए मजदूर पैदा हो रहे हैं। महानगरों में पुल-इमारत आदि बनाने के लिए अनुमानत: इस साल करीब 5 लाख मजदूर तैयार हो चुके हैं। जिनके दम पर रियल एस्टेट, आधारभूत क्षेत्र और छोटे-बड़े उद्योग चलते हैं, फिर भी मजदूरों की हालत दयनीय है।

बाढ़ ने तो इस इलाके के लोगों की उम्मीदों पर पूरी तरह से पानी फेर दिया है, वे पूरी तरह से लाचार नजर आ रहे हैं। गुजरात समेत अन्य राज्यों के प्राकृतिक आपदा की तरह यहां न तो कोई बचाव कार्य होता है और न ही पुनर्वास का काम। पेशे से शिक्षक डॉ. मनोरंजन झा कहते हैं कि क्या जरूरत पड़ी है यहां उद्योग जगत के लोगों को आकर किसी गांव को गोद लें-फिर से बसाएं। उन्हें तो विस्थापन बाद मुफ्त के मजदूर मिलेंगे।

पशु नहीं, रोजी डूबी

सत्येन्द्र प्रताप सिंह / मधेपुरा September 02, 2008

'गाय-भैंस और बकरी पालि के अप्पन बेटा के पढ़ै ले भेजलिये रहे, जे डीएम-कमिश्नर नै बनतै त किरानियो बैनिये जैते। मुदा इ बाढ़ि त सब किछु खतमे क देलकै। आब की हैते।'

मधेपुरा से बाढ़ की वजह से घर छोड़कर भाग रहे अभय कुमार ने अपना दुख बताते हुए कहा कि सब कुछ डूब गया, जो पिछले 50 सालों में कमाया था। अब वे अपने परिवार के साथ पटना जा रहे हैं, जहां उनका बेटा पढ़ाई करता है।कोसी प्रमंडल के बाढ़ से डूबे इलाके में रोजगार का मुख्य साधन कृषि और पशुपालन है।

सहरसा से सड़क के रास्ते मधेपुरा जाने पर सैकड़ों महिलाएं, बच्चे, बुजुर्ग और युवक झुंड बनाकर भाग रहे हैं। सवेला चौक से पानी शुरू होता है, जबकि अररहा-महुआ, चकला गांव पानी से घिरे हैं। मुख्य मार्ग को छोड़कर हर तरफ पानी ही पानी है।शुक्र है कि इन गांवों में पानी नहीं घुसा है। इसके थोडा आगे जाने पर तुनियाही गांव है, जहां रेल मंत्री लालू प्रसाद ने विद्युत रेल इंजन कारखाना खोलने का प्रस्ताव दिया था। आसपास के इलाकों की जमीन अधिग्रहण के लिए विज्ञापन भी आया था। अब यह सब जलमग्न है। आगे बढ़ने पर मठाही बाजार है, जहां सड़क के दोनों हिस्से में पानी है। बीच में जलमग्न छोटे-छोटे टोले हैं। इसके बाद साहूगढ़ गांव आता है, जो लालू प्रसाद की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के समर्थकों का गांव माना जाता है। साहूगढ़ से आगे पुल बना है, जिसके बाद का इलाका जलमग्न है और सड़क मार्ग पूरी तरह से बंद है।
लालू प्रसाद और शरद यादव का राजनीतिक अखाडा मधेपुरा शहर पहुंचने का अब नाव ही एकमात्र जरिया है।मधेपुरा के वार्ड संख्या 11 के अब्दुल करीम अपनी बकरी और पत्नी को लेकर बाहर निकले हैं, बच्चों को पहले ही रिश्तेदार के यहां भेज दिया गया है। यह पूछे जाने पर कि बकरी क्यों लाए हैं, वे कहते हैं कि यही तो है, जो जिंदगी चलाती है। बाकी बत्तख और मुर्गी-मुर्गा तो घर में ही छोड़कर आए हैं।किसानों की फसल तो खत्म हो ही गई, घर में रखा अनाज, कपड़े और सामान भी डूब गए। पानी की मुख्यधारा में पड़ने वाले गांवों के सभी जानवर पानी में बह गए। लोगों ने खूंटा खोल दिया और अपनी जिंदगी के आधार को पानी में बहते हुए देखते रह गए।

नए इलाकों में पानी :

रोज बढ़ रहे जलस्तर से सहरसा के कई गांवों में पानी फैल गया है। बायसी अनुमंडल के नए इलाके पानी की चपेट में आ गए हैं। इसके साथ ही अररिया के फारबिसगंज कस्बे में भी पानी घुस गया है। त्रिवेणीगंज के समीप 20 फीट सड़क टूट गई है, जिससे राहत और बचाव कार्य में खासी दिक्कत आ रही है। अररिया के किनारे बहने वाली परमान नदी में जलस्तर बढ़ने से शहर में पानी घुसने की संभावना है। पूर्णिया-बनमनखी रेल खंड पर सरसी के समीप पटरी के नीचे से पानी बहने लगा है।

प्रभावित पशुओं के आंकड़े :

राज्य सरकार द्वारा जारी आंकड़े के मुताबिक, मधेपुरा में 3 लाख, अररिया में 10,250, सुपौल में 1355, सहरसा में 529 पशु प्रभावित हुए हैं। कुल प्रभावित पशुओं की संख्या 3,14,134 बताई गई है। भागकर आ रहे लोगों के साथ जो पशु आए हैं, उनके लिए सहरसा के पटेल मैदान में प्रबंध किया गया है, जहां करीब 300 पशु हैं।

दक्षिणपंथ छोड़ वामपंथी बनी कोसी

सत्येन्द्र प्रताप सिंह / सुपौल September 02, 2008

सन '1731 में फारबिसगंज और पूर्णिया के पास बहने वाली कोसी धीरे-धीरे पश्चिम की ओर खिसकते हुए 1892 में मुरलीगंज के पास, 1922 में मधेपुरा के पास, 1936 में सहरसा के पास और 1952 में मधुबनी और दरभंगा जिला की सीमा पर पहुंच गई। इस तरह लगभग सवा दो सौ साल में कोसी 110 किलोमीटर पश्चिम की ओर खिसक गई।

पिछले कुछ वर्षो से तटबंधों में कैद कोसी अब पुन: पूरब की ओर लौटने को व्यग्र दिखती है। 1984 में पूर्वी कोसी तटबंध का टूटना उसकी इस व्यग्रता का ही परिणाम था।' रणजीव और हेमंत द्वारा लिखित पुस्तक 'जब नदी बंधी' के इस अंश से संकेत मिलता है कि हिमालय से निकलकर भारत आने वाली कोसी नदी, जो उत्तर दिशा से आकर दक्षिण दिशा में गंगा से मिलती है, अब दक्षिणपंथी से वामपंथी होने को व्यग्र है। अब इसे राज्य सरकार की लापरवाही कहें, केन्द्र की लापरवाही कहें या नेपाल सरकार के मत्थे इसका दोष मढ़ दें, नेपाल में वामपंथियों की सरकार आते ही नेपाल से निकलने वाली कोसी वामपंथी हो गई है। दरअसल कोसी अपनी धारा परिवर्तन की प्रवृत्ति के कारण ही 'बिहार का शोक' कही जाती है।हालांकि यह अवगुण उत्तर बिहार की हर नदियों में है किन्तु कोसी इसलिए बदनाम है कि वह अन्य नदियों की तुलना में विस्तृत भूभाग में तेजी से धारा परिवर्तन करती है। 1892 में मुरलीगंज के पास से बहने वाली कोसी 2008 में बांध टूटने के बाद फिर मुरलीगंज से होकर बहने लगी है। इस कारण मधेपुरा जिले के मुरलीगंज क्षेत्र में सबसे ज्यादा तबाही है। सहरसा जिले में स्थापित किसी भी बांध में आज आपको मुरलीगंज इलाके के सबसे ज्यादा बाढ़ पीड़ित मिलेंगे।

कुछ कही, कुछ सुनी

चर्चा का बाजार गर्म है कि जब भी बिहार सरकार में कोशी क्षेत्र का विधायक जल संसाधन मंत्री बनता है तो इलाके में भारी तबाही आती है। 1984 में हेमपुर गांव के पास पूर्वी तटबंध टूटा था।यह गांव सहरसा जिले के नवहट्टा ब्लाक में आता है। उस समय कांग्रेस पाटी की सरकार थी और सिंचाई मंत्री थे सहरसा के महिसी विधानसभा क्षेत्र के विधायक लहटन चौधरी। 24 साल बाद 2008 में बांध टूटा है। इस समय जल संसाधन मंत्री विजेंद्र प्रसाद यादव हैं। ये भी कोसी क्षेत्र के सुपौल विधानसभा क्षेत्र के विधायक हैं।

Friday, September 26, 2008

पीने को बाढ़ का पानी...खाने को कच्चा चावल

(ये रिपोर्टें कोशी नदी का तटबंध टूटने के बाद बिहार में आई बाढ़ की हैं, जिन्हें हिंदी के अग्रणी आर्थिक अखबार बिज़नेस स्टैंडर्ड ने प्रमुखता से लगातार ६ दिनों तक पहले पन्ने पर प्रकाशित किया।पेश है पहला भाग...)
सत्येन्द्र प्रताप सिंह / सहरसा September 01, 2008
कोसी का कहर झेल रहे लोग जिंदगी भर की कमाई गंवाकर बाढ़ग्रस्त इलाकों से सिर्फ आंसू लेकर निकल रहे हैं।
सहरसा के सरकारी और गैर-सरकारी कैंपों में 50 हजार से अधिक बाढ़ पीड़ित पहुंच चुके हैं, जबकि बाढ़ प्रभावित इलाकों से लोगों के यहां आने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। सहरसा के अलावा, शोरगंज कैंप में 10 हजार, सुपौल के कैंपों और बांधों पर 1 लाख से ज्यादा लोग जान बचाने के लिए जमा हैं।
इस बाढ़ ने कई लोगों के परिवार को बिखेर दिया है। मुरलीगंज, मधेपुरा के विपिन कुमार लाइटिंग का काम करते हैं। उन्होंने बताया कि वे किसी तरह कैंप तक पहुंच पाए हैं, लेकिन परिवाार के बाकी सदस्यों का कोई अता-पता नहीं है। बाढ़ प्रभावित इलाकों से बचकर निकल आने वाले कई लोगों ने 4-5 दिनों से कुछ भी खाया-पीया नहीं है। छोटे-छोटे बच्चों के लिए दूध तो जैसे सपना बन गया है। शंकरपुर के जंझड़ से आए रामकिशुन अपने पूरे परिवार के साथ यहां के एक कैंप में पड़े हैं। उन्होंने जो बताया उससे बाढ़ की विभीषिका का अंदाजा लगाया जा सकता है। रामकिशुन बताते हैं कि वे छत्त पर बैठे बाढ़ का पानी पीते रहे और कच्चा चावल खाकर 5 दिन तक गुजारा किया। बच्चे को पिलाने के लिए बोतल में दूध की जगह सत्तू डाला जा रहा है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, इस त्रासदी में मधेपुरा के 378 गांवों के 2 लाख 4 हजार परिवार, अररिया के 12 गांवों के 15 हजार, सुपौल के 243 गांवों के 1 लाख 79 हजार और सहरसा के 62 गांवों के 29 हजार परिवार प्रभावित हुए हैं। इन चार जिलों में करीब 700 गांवों के 4 लाख 27 हजार से ज्यादा परिवार बाढ़ की चपेट में हैं।

रक्षक भी बन रहे पीड़ित

मधेपुरा के पास रहने वाले श्रीनाथ यादव के यहां पिछले 10 दिन से 17 गांवों के तकरीबन 90 रिश्तेदार शरण लिए हुए हैं। किसी तरह इन मेहमानों को वे रख रहे थे और भोजन करा रहे थे, लेकिन शनिवार को अचानक जलस्तर बढ़ जाने से उनके घर में 2 फीट पानी जमा हो गया है। सवाल है कि इतने लोगों को कहां और कैसे ले जाया जाए।यही हाल मधेपुरा के ही कृतनारायण का है। वे अपने यहां रिश्तेदारों को शरण दिए हुए थे, पर रविवार को उनके घर में भी 5 फीट पानी जमा हो गया। अब वे सहरसा पहुंच चुके हैं। उन्होंने बताया कि वे पत्नी और दो रिश्तेदारों के साथ पटना में पढ़ाई कर रहे अपने बेटे के यहां जा रहे हैं।

कोई लालू से यह तो पूछे

रविवार को दिन के करीब 1 बजे रेलमंत्री लालू प्रसाद विशेष रेलगाड़ी से सहरसा पहुंचे। मंच पर चढ़ते ही लालू ने माइक संभाल लिया। लोगों से उन्होंने वही पुरानी बात दोहरायी कि 1 लाख बोतल पानी भेज दिया है। हर स्टेशन पर चना, चूड़ा और भूंजा बांटा जा रहा है। जैसे ही उन्होंने कहा कि कोसी की धार को पुराने रास्ते पर लाया जाएगा कि पूरा स्टेशन परिसर तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। अपनी अनोखी भाषा के लिए मशहूर लालू ने कहा कि लोगों को बचाने के लिए दो 'गजराज' (हेलीकॉप्टर) चल चुके हैं। अब उनसे कौन पूछे कि 1 लाख बोतल पानी और दो गजराज से बाढ़ में फंसे 15 लाख लोगों को कैसे बचाया जा सकेगा!

कुछ लुभावने दृश्य

मां-बेटे का प्यार- असली है भाई

वाह भाई वाह, क्या स्टाइल है पानी पीने का।

Sunday, September 21, 2008

कुछ ऐसे दृष्य, जिन्हें आप पसंद नहीं करेंगे





गुजरात के वड़ोदरा में हिंदू-मुस्लिम के बीच सांप्रदायिक लड़ाई में शहीद हो गया मंदिर। यह १५ सितंबर २००८ का दृष्य है।

Tuesday, September 9, 2008

अहमद फ़राज़ की ग़ज़ल -3

इक संगतराश1 जिसने बरसों
हीरों की तरह सनम2 तराशे
आज अपने सनमकदे3 में तन्हा
मजबूर, निठाल, ज़ख़्मखुर्दा4
दिन रात पड़ा कराहता है।

1. पत्थर तराशने वाला,
2. मूर्ति
3. मूर्ति घर, मंदिर,
4. घाव से परेशान

कज1 अदाओं की इनायत2 है कि हमसे इश्शाक़3
कभी दीदार के पीछे कभी दीदार के बीच
तुम होना खुश तो यहाँ कौन है खुश भी फराज़
लोग रहते हैं इसी शहरे-दिल-आजार4 के बीच

मुहब्बतों का भी मौसम है जब गुज़र जाए
सब अपने-अपने घरों को तलाश करते हैं।

सुना है कि कल जिन्हें दस्तारे-इफ़्तिख़ार5 मिली
वह आज अपने सरों को तलाश करते हैं।
रात क्या सोए कि बाकी उम्र की नींद गई
ख़्वाब क्या देखा कि धड़का लग गया ताबीर6 का

अब तो हमें भी तर्के-मिरासिम7 का दुख नहीं
पर दिल यह चाहता है कि आगाज़8 तू करे

अब तो हम घर से निकलते हैं तो रख देते हैं
ताक पर इज़्ज़ते-सादात9 भी दस्तार10 के साथ

हमको इस शहर में तामीर11 का सौदा है जहाँ
लोग मेमार12 को चुन देते हैं दीवार के साथ

1. कुटिल, वक्र, 2. कृपा, 3. प्रेमी, 4. जख्मी दिल शहर 5. पगड़ी का सम्मान, 6. साकार, 7. संबंध-विच्छेद, 8. प्रारंभ, 9. सैयदों की इज़्ज़त, 10. पगड़ी, 11. निर्माण। 12. निर्माता

इतने सुकून के दिन कभी देखे न थे ‘फ़राज़’
आसूदगी1 ने मुझको परेशान कर दिया

रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़2 करती हैं
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं।

राहे-वफ़ा3 में हरीफ़े-ख़राम4 कोई तो हो
सो अपने आप से आगे निकलके देखते हैं।

1. संपन्नता, 2. परिक्रमा, 3. प्रेम का पथ, 4. प्रतिद्वंदी साथी

मुझे तेरे दर्द के अलावा
भी और दुख थे यह मानता हूँ
हज़ार गम थे जो ज़िंदगी की
तलाश में थे यह जानता हूँ
मुझे ख़बर थी कि तेरे आँचल
में दर्द की रेत छानता हूँ

मगर हर एक बार तुझको छूकर
यह रेत रंगे-हिना1 बनी है
यह जख़्म गुलज़ार बन गए हैं
यह आहे-सोज़ाँ घटा बनी है
यह दर्द मौजे-सबा2 बनी है
आग दिल की सदी बनी है
और अब यह सारी मताए-हस्ती3
यह फूल यह जख़्म सब तेरे हैं
यह दुख के नोहे4 यह सुख के नग़में
जो कल मेरे थे वो अब तेरे हैं
जो तेरी कुरबत5 तेरी जुदाई
में कट गए रोज़ो-शब6 तेरे हैं

(ये मेरी ग़ज़लें, ये मेरी नज़्में)

यह कौन मासूम हैं
कि जिनको
स्याह7 आँधी
दीये समझकर बुझा रही है
उन्हें कोई जानना नहीं है
उन्हें कोई जानना न चाहे
यह किस क़ाबिल के सरबकफ़-जॉनिसार8 हैं
जिनको कोई पहचानना न चाहे
कि उनकी पहचान इम्तहान है
न कोई बच्चा, न कोई बाबा, न कोई माँ है
महल सराओं में खुश-मुकद्दर9
श्य्यूख़10 चुप
बादशाह चुप हैं
हरम के पासबान11
आलम पनाह चुप है।
तमाम अहले-रिया12 कि जिनके लबों पे है
‘लाइलिहा’ चुप हैं
(-बेरुत-1)

1. मेहंदी का रंग, 2. सुबह की हवा, 3. वजूद की पूँजी, 4. शोकगीत, 5. प्रेम, 6. दिन-रात, 7. काली, 8. सर पर कफन बांध, जान देने वाले, 9 अच्छा भाग्यशाली, 11 पहरेदार, 12, तमाम जनता

कौन इस कत्ल-गाहे-नाज1 के समझे इसरार
जिसने हर दशना2 को फूलों में छुपा रखा है
अमन की फ़ाख़्ता उड़ती है निशां पर लेकिन
नस्ले-इंसाँ को सलीबों3 पे चिढ़ा रखा है
इस तरफ नुफ्त4 की बाराने-करम5 और इधर
कासाए-सर6 से मीनारों को सजा रखा है।
(-सलामती कौउंसिल)
मुझे यकीन है
कि जब भी तारीख की अदालत में
वक़्त लाएगा
आज के बे-जमीर-ब-दीदा-दलेर कातिल7 को
जिसकी दामानों-आसतीं
ख़ून बेगुनाही से तरबतर हैं
तू नस्ले-आदम
वुफूर-नफरत8 से सुए-क़ातिल पे थूक देगी
मगर मुझे भी यक़ीन है
कि कल तारीख़
नस्ले-आदम से यह पूछेगी
ऐ-मुहज़्जब जहाँ9 की मख़लूक़10
कल तेरे रूबरू यही बेज़मीर क़ातिल
तेरे क़बीले के बेगुनाहों को
जो तहतेग़11 कर रहा था
तो तू तमाशाइयों की सूरत
ख़ामोश व बेहिस
दरिंदगी के मुज़ाहिरे12 में शरिक
क्यों देखती रही है
तेरी यह सब नफ़रतें कहाँ थीं
बता कि इस ज़ुल्म-कैश क़ातिल की तेग़बर्रा13 में
और तेरी मसलेहत के तीरों में
फ़र्क़ क्या है ?
—————————————————————
1. दबाव, चाकू, 3. फाँसी, 4. वाणी, 5. वर्षा की कृपा, 6. सिर के कटोरों, 7. हृदयविहीन, बेशर्म हत्यारा, 8. प्रभु घृणा, 9. सभ्यसंसार, 10. रचना, 11. हत्या, 12. प्रदर्शन, 13. तलवार की धार

अहमद फ़राज़ की ग़ज़ल -2

जिससे ये तबियत बड़ी मुश्किल से लगी थी
देखा तो वो तस्वीर हर एक दिल से लगी थी

तनहाई में रोते हैं कि यूँ दिल को सुकूँ हो
ये चोट किसी साहिबे-महफ़िल से लगी थी

ऐ दिल तेरे आशोब1 ने फिर हश्र2 जगाया
बे-दर्द अभी आँख भी मुश्किल से लगी थी

ख़िलक़त3 का अजब हाल था उस कू-ए-सितम4 में
साये की तरह दामने-क़ातिल5 से लगी थी

उतरा भी तो कब दर्द का चढ़ता हुआ दरिया
जब कश्ती ए-जाँ6 मौत के साहिल7 से लगी थी
1. हलचल, उपद्रव, 2. प्रलय, मुसीबत, 3. जनता 4. अत्याचार की गली 5. हत्यारे के पल्लू 6. जीवन नौका 7. किनारा
2
तू पास भी हो तो दिले-बेक़रार अपना है
कि हमको तेरा नहीं इन्तज़ार अपना है

मिले कोई भी तेरा जिक्र छेड़ देते हैं
कि जैसे सारा जहाँ राज़दार अपना है

वो दूर हो तो बजा तर्के-दोस्ती1 का ख़याल
वो सामने हो तो कब इख़्तियार2 अपना है

ज़माने भर के दुखो को लगा लिया दिल से
इस आसरे पे कि एक ग़मगुसार3 अपना है

बला से जाँ का ज़ियाँ4 हो, इस एतमाद5 की ख़ैर
वफ़ा करे न करे फिर भी यार अपना है

फ़राज़ राहते-जाँ भी वही है क्या कीजे
वो जिसके हाथ से सीना फ़िगार6 अपना है
1. दोस्ती छोड़नी 2. वश 3. दुख सहने वाला 4. नुकसान 5. विश्वास, भरोसा, 6 घायल, आहत
3
अब वो झोंके कहाँ सबा1 जैसे
आग है शहर की हवा जैसे

शब सुलगती है दोपहर की तरह
चाँद, सूरज से जल बुझा जैसे

मुद्दतों बाद भी ये आलम है
आज ही तो जुदा हुआ जैसे

इस तरह मंज़िलों से हूँ महरूम2
मैं शरीके-सफ़र3 न था जैसे

अब भी वैसी है दूरी-ए-मंज़िल
साथ चलता हो रास्ता जैसे

इत्तफ़ाक़न भी ज़िन्दगी में फ़राज़
दोस्त मिलते नहीं ज़िया4 जैसे

1 पुरवाई, समीर, ठण्डी हवा 2. वंचित, 3. सफ़र में शामिल 4 ज़ियाउद्दीन ज़िया
4
फिर उसी रहगुज़ार पर शायद
हम कभी मिल सकें मगर, शायद

जिनके हम मुन्तज़र1 रहे उनको
मिल गये और हमसफर शायद

जान पहचान से भी क्या होगा
फिर भी ऐ दोस्त, ग़ौर कर शायद

अजनबीयत की धुन्ध छँट जाये
चमक उठे तेरी नज़र शायद

ज़िन्दगी भर लहू रुलायेगी
यादे-याराने-बेख़बर2 शायद

जो भी बिछड़े, वो कब मिले हैं फ़राज़
फिर भी तू इन्तज़ार कर शायद

1. प्रतीक्षारत 2. भूले-बिसरे दोस्तों की यादें
5
बेसरो-सामाँ1 थे लेकिन इतना अन्दाज़ा न था
इससे पहले शहर के लुटने का आवाज़ा2 न था

ज़र्फ़े-दिल3 देखा तो आँखें कर्ब4 से पथरा गयीं
ख़ून रोने की तमन्ना का ये ख़मियाज़ा5 न था

आ मेरे पहलू में आ ऐ रौनके- बज़्मे-ख़याल6
लज्ज़ते-रुख़्सारो-लब7 का अबतक अन्दाजा न था

हमने देखा है ख़िजाँ8 में भी तेरी आमद के बाद
कौन सा गुल था कि गुलशन में तरो-ताज़ा न था

हम क़सीदा ख़्वाँ9 नहीं उस हुस्न के लेकिन फ़राज़
इतना कहते हैं रहीने-सुर्मा-ओ-ग़ाज़ा10 न था

1 ज़िन्दगी के ज़रूरी सामान के बिना 2. धूम 3. दिल की सहनशीलता 4. दुख, बेचैनी, 5. परिणाम, करनी का फल 6. कल्पना की सभा की शोभा 7. गालों और होंटों का आनन्द 8. पतझड़ 9,. प्रशस्ति-गायक, प्रशंसक 10 सुर्मे और लाली पर निर्भर

अहमद फराज की गजल

हर्फ़े-ताज़ा की तरह क़िस्स-ए-पारीना1 कहूँ
कल की तारीख़ को मैं आज का आईना कहूँ

चश्मे-साफ़ी से छलकती है मये-जाँ तलबी
सब इसे ज़हर कहें मैं इसे नौशीना2 कहूँ

मैं कहूँ जुरअते-इज़हार हुसैनीय्यत है
मेरे यारों का ये कहना है कि ये भी न कहूँ

मैं तो जन्नत को भी जानाँ का शबिस्ताँ3 जानूँ
मैं तो दोज़ख़ को भी आतिशकद-ए-सीना4 कहूँ

ऐ ग़मे-इश्क़ सलामत तेरी साबितक़दमी
ऐ ग़मे-यार तुझे हमदमे-दैरीना5 कहूँ

इश्क़ की राह में जो कोहे-गराँ6 आता है
लोग दीवार कहें मैं तो उसे ज़ीना कहूँ

सब जिसे ताज़ा मुहब्बत का नशा कहते हैं
मैं ‘फ़राज़’ उस को ख़ुमारे-मये-दोशीना7 कहूँ
----------------
1. गुज़रा हुआ, पुराना क़िस्सा 2. शर्बत 3. शयनागार 4. सीना या छाती की भट्ठी 5. पुराना मित्र 6. मुश्किल पहाड़ 7. ग़ुजरी रात की शराब का ख़ुमार

न कोई ख़्वाब न ताबीर ऐ मेरे मालिक
मुझे बता मेरी तक़सीर ऐ मेरे मालिक

न वक़्त है मेरे बस में न दिल पे क़ाबू है
है कौन किसका इनागीर1 ऐ मेरे मालिक

उदासियों का है मौसम तमाम बस्ती पर
बस एक मैं नहीं दिलगीर2 ऐ मेरे मालिक

सभी असीर हैं फिर भी अगरचे देखने हैं
है कोई तौक़3 न ज़ंजीर ऐ मेरे मालिक

सो बार बार उजड़ने से ये हुआ है कि अब
रही न हसरत-ए-तामीर ऐ मेरे मालिक

मुझे बता तो सही मेहरो-माह किसके हैं
ज़मीं तो है मेरी जागीर ऐ मेरे मालिक

‘फ़राज़’ तुझसे है ख़ुश और न तू ‘फ़राज़’ से है
सो बात हो गई गंभीर ऐ मेरे मालिक
-------------
1. लगाम थामने वाला 2. ग़मगीन 3. गले में डाली जाने वाली कड़ी
तेरा क़ुर्ब था कि फ़िराक़ था वही तेरी जलवागरी रही
कि जो रौशनी तेरे जिस्म की थी मेरे बदन में भरी रही

तेरे शहर से मैं चला था जब जो कोई भी साथ न था मेरे
तो मैं किससे महवे-कलाम1 था ? तो ये किसकी हमसफ़री रही ?

मुझे अपने आप पे मान था कि न जब तलक तेरा ध्यान था
तू मिसाल थी मेरी आगही2 तू कमाले-बेख़बरी रही

मेरे आश्ना3 भी अजीब थे न रफ़ीक़4 थे न रक़ीब5 थे
मुझे जाँ से दर्द अज़ीज़ था उन्हें फ़िक्रे-चारागरी6 रही

मैं ये जानता था मेरा हुनर है शिकस्तो-रेख़्त7 से मोतबर8
जहाँ लोग संग-बदस्त9 थे वहीं मेरी शीशागरी रही

जहाँ नासेहों10 का हुजूम था वहीं आशिक़ों की भी धूम थी
जहाँ बख़्यागर11 थे गली-गली वहीं रस्मे-जामादरी12 रही

तेरे पास आके भी जाने क्यूँ मेरी तिश्नगी13 में हिरास1अ था
बमिसाले-चश्मे-ग़ज़ा14 जो लबे-आबजू15 भी डरी रही

जो हवस फ़रोश थे शहर के सभी माल बेच के जा चुके
मगर एक जिन्से-वफ़ा16 मेरी सरे-रह धरी की धरी रही

मेरे नाक़िदों17 ने फ़राज़’ जब मेरा हर्फ़-हर्फ़ परख लिया
तो कहा कि अहदे-रिया18 में भी जो खरी थी बात खरी रही
-------------------------------------------
1.बात करने में मग्न 2. जानकारी, चेतना 3. परिचित 4. मित्र 5. शत्रु 6. उपचार की धुन 7. टूट फूट 8. ऊपर, सम्मानित 9. हाथ में पत्थर लिए हुए 10. उपदेश देने वाले 11.कपड़ा सीने वाले 12. पागलपन की अवस्था में कपड़े फाड़ने की रीत
13.प्यास 1अ. आशंका निराशा 14.हिरन की आँख की तरह 15.दरिया के किनारे 16.वफ़ा नाम की चीज़ 17. आलोचक 18. झूठा ज़माना

यूँ तुझे ढूँढ़ने निकले के न आए ख़ुद भी
वो मुसाफ़िर कि जो मंज़िल थे बजाए ख़ुद भी

कितने ग़म थे कि ज़माने से छुपा रक्खे थे
इस तरह से कि हमें याद न आए खुद भी

ऐसा ज़ालिम कि अगर ज़िक्र में उसके कोई ज़ुल्म
हमसे रह जाए तो वो याद दिलाए ख़ुद भी

लुत्फ़ तो जब है तअल्लुक़ में कि वो शहरे-जमाल1
कभी खींचे कभी खिंचता चला आए ख़ुद भी

ऐसा साक़ी हो तो फिर देखिए रंगे-महफ़िल
सबको मदहोश करे होश से जाए ख़ुद भी

यार से हमको तगाफ़ुल का गिला है बेजा
बारहा महफ़िले-जानाँ से उठ आए ख़ुद भी
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1. महबूब
आज फिर दिल ने कहा आओ भुला दें यादें
ज़िंदगी बीत गई और वही यादें-यादें

जिस तरह आज ही बिछड़े हों बिछड़ने वाले
जैसे इक उम्र के दुःख याद दिला दें यादें

काश मुमकिन हो कि इक काग़ज़ी कश्ती की तरह
ख़ुदफरामोशी के दरिया में बहा दें यादें

वो भी रुत आए कि ऐ ज़ूद-फ़रामोश1 मेरे
फूल पत्ते तेरी यादों में बिछा दें यादें

जैसे चाहत भी कोई जुर्म हो और जुर्म भी वो
जिसकी पादाश2 में ताउम्र सज़ा दें यादें

भूल जाना भी तो इक तरह की नेअमत है ‘फ़राज़’
वरना इंसान को पागल न बना दें यादें

----------------
1.जल्दी भूलने वाला 2. जुर्म की सज़ा

बुझा है दिल तो ग़मे-यार अब कहाँ तू भी
मिसाले साया-ए-दीवार1 अब कहाँ तू भी

बजा कि चश्मे-तलब2 भी हुई तही3 कीस:4
मगर है रौनक़े-बाज़ार अब कहाँ तू भी

हमें भी कारे-जहाँ5 ले गया है दूर बहुत
रहा है दर-पए आज़ार6 अब कहाँ तू भी

हज़ार सूरतें आंखों में फिरती रहती हैं
मेरी निगाह में हर बार अब कहाँ तू भी

उसी को अहद फ़रामोश क्यों कहें ऐ दिल
रहा है इतना वफ़ादार अब कहाँ तू भी


मेरी गज़ल में कोई और कैसे दर आए
सितम तो ये है कि ऐ यार अब कहाँ तू भी

जो तुझसे प्यार करे तेरी नफ़रतों के सबब
‘फ़राज़’ ऐसा गुनहगार अब कहाँ तू भी
--------------
1.दीवार के साये की तरह 2. इच्छा वाली आँख 3. ख़ाली 4. झोली, कटोरा, प्याला 5. दुनिया, ज़माने वाला कार्य 6. तकलीफ़ और मुसीबत पहुँचाने पर प्रतिबद्ध

मैं दीवाना सही पर बात सुन ऐ हमनशीं मेरी
कि सबसे हाले-दिल कहता फिरूँ आदत नहीं मेरी

तअम्मुल1 क़त्ल में तुझको मुझे मरने की जल्दी थी
ख़ता दोनों की है उसमें, कहीं तेरी कहीं मेरी

भला क्यों रोकता है मुझको नासेह गिर्य:2 करने से
कि चश्मे-तर मेरा है, दिल मेरा है, आस्तीं मेरी

मुझे दुनिया के ग़म और फ़िक्र उक़बा3 की तुझे नासेह
चलो झगड़ा चुकाएँ आसमाँ तेरा ज़मीं मेरी

मैं सब कुछ देखते क्यों आ गया दामे-मुहब्बत में
चलो दिल हो गया था यार का, आंखें तो थीं मेरी

‘फ़राज़’ ऐसी ग़ज़ल पहले कभी मैंने न लिक्खी थी
मुझे ख़ुद पढ़के लगता है कि ये काविश4 नहीं मेरी

1. हिचकिचाहट, देरी, फ़िक्र, संकोच 2. रोना, विलाप, 3. परलोक 4. प्रयास