इससे पहले के कुछ दशकों में देश की आर्थिक दशा और दिशा में कई गंभीर रुकावटों की वजह से एक ठहराव या यूं कहें कि बदहाली की सी स्थिति आ गई थी। इन सबने कुल मिलाकर एक गंभीर वित्तीय और भुगतान संतुलन का संकट पैदा कर दिया, जो 1991 तक एक नासूर का रूप ले चुका था।
ऐसे समय में आर्थिक सुधारों को भारतीय संदर्भ में एक क्रांति के रूप में देखा गया। इसे नरसिंह राव की अल्पमत सरकार ने शुरू किया और आजाद भारत के चुनिंदा महत्वपूर्ण अर्थशास्त्रियों में से एक, मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री के रूप में इसका निर्देशन किया।
नियंत्रण में जकड़े, अंतर्मुखी और ठहराव में फंसते देश के अर्थतंत्र में सुधारों की जरूरत अर्से से महसूस की जा रही थी। साठ के दशक के मध्य में इस दिशा में नाकाम कोशिश भी की गई थी। 70 के दशक में कुछ सुधार लागू भी किए गए, जिसे 'चोरी-छिपे सुधार' कहा जाता है।
इंदिरा गांधी ने 1980 में सत्ता में वापस लौटने के बाद उदारीकरण के कुछ कदम उठाने की कोशिश की गई। यह काम मुख्य रूप से औद्योगिक लाइसेंसिंग और बड़े उद्योगों पर लगे बंधनों को कम करने के रूप में किया। पर ये 1991 के सुधारों के मुकाबले बेहद छिछले कहे जा सकते हैं।
1984 में सत्ता में आने के बाद राजीव गांधी ने औद्योगिक गैर-नियमन, विनिमय दरों में छूट और आयात नियंत्रणों को आंशिक रूप से हटाए जाने संबंधी कुछ कदम जल्दी-जल्दी उठाए। पर उस वक्त भी बड़े पैमाने पर आर्थिक असंतुलन का सवाल अनसुलझा छोड़ दिया गया। बाद के कुछ वर्षों में बोफोर्स की आंधी और राजनीतिक अस्थिरता की वजह से राजीव गांधी द्वारा शरू की गई सुधारों की छिपपुट कोशिशों को भी तिलांजलि दे दी गई।
दरअसल, उस वक्त वित्तीय अनुशासन और श्रम सुधारों जैसे सख्त कदम उठाए जाने की जरूरत थी। पर इसे राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी कही जाए या फिर तत्कालीन सरकारों की मजबूरियां, ऐसे कदम नहीं उठाए जा सके। नौकरशाही और उद्योगों के कुछ निहित स्वार्थ इसके खिलाफ थे, जिनके हित कहीं न कहीं तत्कालीन व्यवस्था से सधते थे। वामपंथियों का विचारधारात्मक विरोध भी इस प्रक्रिया की शुरुआत मे आड़े आ रहा था।
1991 में भुगतान संकट चरम सीमा पर पहुंच गया। उस वक्त तक विचारधारात्मक और निहित स्वार्थों के विरोध काफी कमजोर पड़ चुके थे। लिहाजा नरसिंह राव की अगुआई में तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने पुरानी मानसिकता पर चोट करते हुए असाधारण और व्यापक सुधार आरंभ किए। गौरतलब है कि चीन 13 वर्ष पहले ही उस नक्शेकदम पर चल चुका था।
बहरहाल, भारत ने 'देर आए, दुरुस्त आए' की तर्ज पर चलते हुए कई कदम उठाए। इसके तहत तुरंत वित्तीय सुधार (जिसके तहत रुपये की विनियम दर को बाजार से जोड़ दिया गया और शुरू में ही रुपये का 20 फीसदी अवमूल्यन हो गया), आयात आसान बनाए जाने, औद्योगिक लाइसेंसिंग का काफी हद तक सरलीकरण, सार्वजनिक क्षेत्र का धीरे-धीरे निजीकरण और पूंजी बाजार व वित्तीय क्षेत्र में सुधार जैसे कदम उठाए गए।
इतना ही नहीं, विदेशी निवेश का रास्ता आसान करने और बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर से कई बंदिशें हटाए जाने जैसे कुछ ज्यादा विवादास्पद कदम उठाए जाने से भी गुरेज नहीं किया गया। कुल मिलाकर यह संदेश दिए जाने की कोशिश की गई कि भारत को इस हिसाब से तैयार किया जा रहा है कि यह भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में हिस्सा ले सके। हालांकि तब से लेकर अब तक इन कदमों की मुखालफत करने वालों की भी कमी नहीं रही है।
आंकड़ों की बात करें तो 1991-92 में देश में जीडीपी की विकास दर महज 0.8 फीसदी थी, 1993-94 में बढ़कर 6.2 फीसदी हो गई। यह पहली दफा पूर्वी एशिया की ज्यादातर सफल अर्थव्यवस्थाओं के करीब थी। इसी तरह, 1991-92 में औद्योगिक उत्पादन की विकास दर 1 फीसदी से भी कम थी, जो 1993-94 में बढ़कर 6 फीसदी हो गई। केंद्र सरकार का वित्तीय घाटा 1990-91 में जीडीपी के 8.3 फीसदी पर पहुंच चुका था।
यह 1996-97 में 5.2 फीसदी पर आ गया, जिनमें 4.7 फीसदी सूद भुगतान पर खर्च हो रहा था। भारत का विदेशी कर्ज 1991-92 में जीडीपी का 41 फीसदी था, जो 1995-96 में गिरकर 28.7 फीसदी हो गया। इसी तरह, विदेशी निवेश और शेयर मार्केट के बाजार पूंजीकरण में भी काफी अच्छी तरक्की दर्ज की गई।
इन तमाम आंकड़ों के बावजूद गरीबों की माली हालत में किसी तरह का गौरतलब सुधार न होने (और कई मामलों में बदतर होने) का जबाव सुधार के पैरोकार नहीं दे पाते। सार्वजनिक बचत बढ़ाने, सरकारी खर्च और वित्तीय घाटे को कम किए जाने का मसला आज भी अनसुलझा है। सब्सिडी में कटौती की बात हो या फिर तेल-पुल घाटा कम किए जाने की, इन सभी मुद्दों बहुत ठोस कामयाबी नजर नहीं आती।
सरकार की लोकलुभावन नीतियां (किसानों को दी गई हालिया कर्जमाफी इसका उदाहरण है) भी एक बड़ी अड़चन है। जीडीपी की विकास दर अब भी दहाई अंकों में नहीं पहुंच पाई है। आर्थिक सुधारों के दूसरे दौर को कायदे से लागू किए जाने का इंतजार आज भी देश का जनमानस कर रहा है।