Friday, May 30, 2008

...कुछ इस कदर रखी गई थी देश में उदारीकरण की बुनियाद


सीरज कुमार सिंह

भारतीय अर्थतंत्र में 1991 को मील के पत्थर के रूप में याद किया जाता है। इस वर्ष आर्थिक सुधारों और ढांचागत पुनर्गठन की जो बुनियाद रखी गई, देश की अर्थव्यवस्था की मौजूदा इमारत उसी पर खड़ी है।
इससे पहले के कुछ दशकों में देश की आर्थिक दशा और दिशा में कई गंभीर रुकावटों की वजह से एक ठहराव या यूं कहें कि बदहाली की सी स्थिति आ गई थी। इन सबने कुल मिलाकर एक गंभीर वित्तीय और भुगतान संतुलन का संकट पैदा कर दिया, जो 1991 तक एक नासूर का रूप ले चुका था।
ऐसे समय में आर्थिक सुधारों को भारतीय संदर्भ में एक क्रांति के रूप में देखा गया। इसे नरसिंह राव की अल्पमत सरकार ने शुरू किया और आजाद भारत के चुनिंदा महत्वपूर्ण अर्थशास्त्रियों में से एक, मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री के रूप में इसका निर्देशन किया।
नियंत्रण में जकड़े, अंतर्मुखी और ठहराव में फंसते देश के अर्थतंत्र में सुधारों की जरूरत अर्से से महसूस की जा रही थी। साठ के दशक के मध्य में इस दिशा में नाकाम कोशिश भी की गई थी। 70 के दशक में कुछ सुधार लागू भी किए गए, जिसे 'चोरी-छिपे सुधार' कहा जाता है।
इंदिरा गांधी ने 1980 में सत्ता में वापस लौटने के बाद उदारीकरण के कुछ कदम उठाने की कोशिश की गई। यह काम मुख्य रूप से औद्योगिक लाइसेंसिंग और बड़े उद्योगों पर लगे बंधनों को कम करने के रूप में किया। पर ये 1991 के सुधारों के मुकाबले बेहद छिछले कहे जा सकते हैं।
1984 में सत्ता में आने के बाद राजीव गांधी ने औद्योगिक गैर-नियमन, विनिमय दरों में छूट और आयात नियंत्रणों को आंशिक रूप से हटाए जाने संबंधी कुछ कदम जल्दी-जल्दी उठाए। पर उस वक्त भी बड़े पैमाने पर आर्थिक असंतुलन का सवाल अनसुलझा छोड़ दिया गया। बाद के कुछ वर्षों में बोफोर्स की आंधी और राजनीतिक अस्थिरता की वजह से राजीव गांधी द्वारा शरू की गई सुधारों की छिपपुट कोशिशों को भी तिलांजलि दे दी गई।
दरअसल, उस वक्त वित्तीय अनुशासन और श्रम सुधारों जैसे सख्त कदम उठाए जाने की जरूरत थी। पर इसे राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी कही जाए या फिर तत्कालीन सरकारों की मजबूरियां, ऐसे कदम नहीं उठाए जा सके। नौकरशाही और उद्योगों के कुछ निहित स्वार्थ इसके खिलाफ थे, जिनके हित कहीं न कहीं तत्कालीन व्यवस्था से सधते थे। वामपंथियों का विचारधारात्मक विरोध भी इस प्रक्रिया की शुरुआत मे आड़े आ रहा था।
1991 में भुगतान संकट चरम सीमा पर पहुंच गया। उस वक्त तक विचारधारात्मक और निहित स्वार्थों के विरोध काफी कमजोर पड़ चुके थे। लिहाजा नरसिंह राव की अगुआई में तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने पुरानी मानसिकता पर चोट करते हुए असाधारण और व्यापक सुधार आरंभ किए। गौरतलब है कि चीन 13 वर्ष पहले ही उस नक्शेकदम पर चल चुका था।
बहरहाल, भारत ने 'देर आए, दुरुस्त आए' की तर्ज पर चलते हुए कई कदम उठाए। इसके तहत तुरंत वित्तीय सुधार (जिसके तहत रुपये की विनियम दर को बाजार से जोड़ दिया गया और शुरू में ही रुपये का 20 फीसदी अवमूल्यन हो गया), आयात आसान बनाए जाने, औद्योगिक लाइसेंसिंग का काफी हद तक सरलीकरण, सार्वजनिक क्षेत्र का धीरे-धीरे निजीकरण और पूंजी बाजार व वित्तीय क्षेत्र में सुधार जैसे कदम उठाए गए।
इतना ही नहीं, विदेशी निवेश का रास्ता आसान करने और बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर से कई बंदिशें हटाए जाने जैसे कुछ ज्यादा विवादास्पद कदम उठाए जाने से भी गुरेज नहीं किया गया। कुल मिलाकर यह संदेश दिए जाने की कोशिश की गई कि भारत को इस हिसाब से तैयार किया जा रहा है कि यह भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में हिस्सा ले सके। हालांकि तब से लेकर अब तक इन कदमों की मुखालफत करने वालों की भी कमी नहीं रही है।
आंकड़ों की बात करें तो 1991-92 में देश में जीडीपी की विकास दर महज 0.8 फीसदी थी, 1993-94 में बढ़कर 6.2 फीसदी हो गई। यह पहली दफा पूर्वी एशिया की ज्यादातर सफल अर्थव्यवस्थाओं के करीब थी। इसी तरह, 1991-92 में औद्योगिक उत्पादन की विकास दर 1 फीसदी से भी कम थी, जो 1993-94 में बढ़कर 6 फीसदी हो गई। केंद्र सरकार का वित्तीय घाटा 1990-91 में जीडीपी के 8.3 फीसदी पर पहुंच चुका था।
यह 1996-97 में 5.2 फीसदी पर आ गया, जिनमें 4.7 फीसदी सूद भुगतान पर खर्च हो रहा था। भारत का विदेशी कर्ज 1991-92 में जीडीपी का 41 फीसदी था, जो 1995-96 में गिरकर 28.7 फीसदी हो गया। इसी तरह, विदेशी निवेश और शेयर मार्केट के बाजार पूंजीकरण में भी काफी अच्छी तरक्की दर्ज की गई।
इन तमाम आंकड़ों के बावजूद गरीबों की माली हालत में किसी तरह का गौरतलब सुधार न होने (और कई मामलों में बदतर होने) का जबाव सुधार के पैरोकार नहीं दे पाते। सार्वजनिक बचत बढ़ाने, सरकारी खर्च और वित्तीय घाटे को कम किए जाने का मसला आज भी अनसुलझा है। सब्सिडी में कटौती की बात हो या फिर तेल-पुल घाटा कम किए जाने की, इन सभी मुद्दों बहुत ठोस कामयाबी नजर नहीं आती।
सरकार की लोकलुभावन नीतियां (किसानों को दी गई हालिया कर्जमाफी इसका उदाहरण है) भी एक बड़ी अड़चन है। जीडीपी की विकास दर अब भी दहाई अंकों में नहीं पहुंच पाई है। आर्थिक सुधारों के दूसरे दौर को कायदे से लागू किए जाने का इंतजार आज भी देश का जनमानस कर रहा है।


Friday, May 23, 2008

सितारों का जहां और निराले खेल


अंतरिक्ष वैज्ञानिकों को पहली बार ब्रह्मांड में एक विशाल और हजारों वर्ष पुराने तारे के महाविस्फोट के साथ ‘सुपरनोवा’ में तब्दील होने के बेहद रोमांचक दृश्यों को देखेने का मौका मिला है।नासा के ‘स्विफ्ट उपग्रह’ ने अपने एक्स-रे कैमरे के जरिए सुपरनोवा से निकलने वाले अद्भुत प्रकाश को कैद किया है।

विस्फोट से निकलने वाला यह प्रकाश हमारे सूरज के प्रकाश से 100 अरब गुना ज्यादा तेज।वैज्ञानिकों के मुताबिक आमतौर पर सुपरनोवा की ऐसी घटनाएं शताब्दी में एक या दो बार ही होती हैं।दरअसल, नासा ने 9 जनवरी को आकाश गंगा में तकरीबन खत्म हो रहे एक तारे का पता लगाने के लिए यह उपग्रह भेजा था, लेकिन इसी दौरान इसी आकाश गंगा में एक अन्य बेहद पुराने तारे में विस्फोट होने लगा और उपग्रह को एक बेहद रोमांचक घटना की तस्वीरें उतारने का मौका अनायास की हाथ लग गया।

वैज्ञानिकों के मुताबिक आमतौर पर किसी तारे में विस्फोट की घटना की जानकारी चार या पांच दिन बाद ही मिल पाती है, लेकिन पहली बार मौके पर इस घटना की तस्वीरें खींची जा सकी हैं।अमेरिका के प्रिंस्टन विश्वविद्यालय में खगोल भौतिकी की विशेषज्ञ अलीशिया सोडरबर्ग ने इसपर कहा, “यह खगोलविज्ञान के क्षेत्र में एक लॉटरी निकलने जैसा था”।एक अन्य वैज्ञानिक फ्लिपेन्कों ने कहा यह घटना एक तारे की मौत के साथ उसके नए जन्म की कहानी भी कहती है। ब्रह्मांड में मात्र एक फीसदी तारों को ऐसी मौत नसीब होती है जब उनके मरने के साथ उनके जन्म की प्रक्रिया का भी आगाज होता है।
साभारः वार्ता

Friday, May 16, 2008

विदेशी आईफोन के देसी जादू के लिए रहिए तैयार


सत्यव्रत मिश्र


एप्पल के आईफोन की चर्चा आज कल अपने मुल्क में भी खूब चल रही है। उम्मीद है कि इसके दीवाने इस बार उसे अपने हाथों में थामे ही दीवाली मनाएंगे।
वैसे ऐसा पहली बार नहीं है, जब इस फोन को लेकर इतना हंगामा हो रहा हो। अमेरिका में पिछले साल जब इसके आने की बात चली थी, तब तो इसका लोग-बाग पागल हो गए थे। उन्होंने कई-कई रातें इसे खरीदने के लिए दुकानों के बाहर बिताई थीं।
मशहूर अमेरिकी मैगजीन 'टाइम' ने इसे इनोवेशन ऑफ द ईयर के खिताब से नवाजा था। लेकिन इसमें ऐसा क्या है, जिसकी वजह है से लोगों पर इसका जादू सिर चढ़ कर बोल रहा है? आखिर है तो यह एक फोन ही। अगर आप भी ऐसा सोच रहे हैं, तो हुजूर आप गलत हैं। अपने दीवानों के लिए यह केवल एक फोन से कहीं बढ़कर है।



कैसे हुई शुरुआत?
आईपॉड की जबर्दस्त कामयाबी के बाद एप्पल द्वारा इसी तरह के फोन को लॉन्च किए जाने की चर्चा तो काफी पहले से चल रही थी, लेकिन काफी दिनों तक कंपनी के बड़े अधिकारियों ने इस मुद्दे पर अपनी जुबान बंद रखी थी।
इसके बारे में पहली बार संकेत 2003 में तब मिले थे, जब एक समारोह में कंपनी के सीईओ स्टीव जॉब्स ने एप्पल का नया पीडीए लॉन्च करने से मना कर दिया। उनका कहना था कि, 'एप्पल पीडीए या टैब्लेट कंप्यूटरों के मार्केट में अपना पैर पसारने को ज्यादा उत्सुक नहीं है। हमें लगता है आने वाले कल में मोबाइल फोन ही कहीं से कोई भी जानकारी जुटाने के लिए अहम मशीनरी के रूप में सामने आएंगे।
वैसे, इस वक्त तो हम आईपॉड और आईटयूंस को ही मजबूत बनाने के लिए काम कर रहे हैं।' फिर सिंतबर, 2005 में मोटोरोला अपना रॉकर ई1 वन मोबाइल फोन लेकर सामने आई, जो आईटयूंस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करने वाला पहला फोन था।
वैसे जॉब्स उस फोन से खुश नहीं थे क्योंकि मोटोरोला ने रॉकर को उस तरह से डिजाइन नहीं किया था, जिस तरह जॉब्स चाहते थे। इसलिए तो सिंतबर 2006 में एप्पल ने रॉकर के लिए सॉफ्टवेयर सपोर्ट देना बंद कर दिया। फिर आया 9 जनवरी, 2007 का वह दिन जब जॉब्स ने मैकवर्ल्ड कनवेंशन में आईफोन को उतारने का ऐलान किया।



जबर्दस्त रिस्पॉन्स
जैसे ही जॉब्स ने इस फोन की घोषणा की थी, लोगों की तो जैसे मन चाही मुराद पूरी हो गई। अमेरिका में तो जैसे तरफ यही चर्चा थी कि आईफोन ऐसा होगा, आईफोन वैसा होगा। इसकी पहली झलक लोगों को देखने को मिली पिछले साल के ऑस्कर पुरस्कार समारोह की लाइव कवरेज के दौरान।
तीन जून, 2007 को एप्पल ने इसे 29 जून को लॉन्च करने की घोषणा की। फिर तो वहां के अखबारों में इसी चर्चा खूब जोर-शोर से होने लगी। जैसे-जैसे यह तारीख करीब आती गई, लोगों के बीच इसका क्रेज भी परवान चढ़ता गया। तब 4जीबी वाले फोन की कीमत 499 डॉलर (करीब 20 हजार रुपये) तय की गई थी, जबकि 8 जीबी वाले फोन की कीमत रखी गई थी 599 डॉलर (करीब 24 हजार रुपये)।
इसे लेने के लिए तो लोगों ने दो-दो रातें तक दुकानों के बाहर सड़क पर बिताईं थीं। एप्पल ने तो कंपनी में एक साल तक काम कर चुके लोगों को यह फोन मुफ्त में दिया था। अमेरिकी अखबारों की मानें तो केवल तीन दिनों में ही ढाई से सात लाख आईफोन बिक चुके थे।



कमाल की हैं खूबियां
इस फोन में तो अनोखे फीचर्स का जैसे अंबार लगा हुआ है। सबसे प्यारा तो इसका डिजाइन है। इस फोन को देखते ही इसे अपनी हाथों में उठा लेने का दिल करता है। इस क्यूट से फोन में आपको मिलेगा 3.5 इंच का एलसीडी कलर डिस्प्ले, वो भी टचस्क्रीन के साथ। यानी अब आपको फोन के बटनों के साथ कुश्ती नहीं लड़नी पड़ेगी।
बस एक छूअन भर से आप अपने फोन को कंट्रोल कर पाएंगे। इस स्क्रीन में एक और कमाल की चीज है, लैंडस्केप ऑरिएंटेशन। इसके जरिये आपका फोन जिस भी कोण में रखा हो, वहां से स्क्रीन सीधा ही नजर आएगा। इस फोन से आप मजे ले पाएंगे दुनिया को दीवाना कर देने वाले आईपॉड का भी। यह फोन अपने आप ही आपके फेवरेट म्यूजिक को अलग-अलग कैटेगरी जैसे सॉन्ग्स, ऑर्टिस्ट, एल्बम और जॉनर्स में बांटकर आपके लिए अच्छी-खासी मीडिया लाइब्रेरी तैयार कर सकता है।
अगर आपको एक गाने से दूसरे पर जाना है, तो आपको ज्यादा मेहनत भी नहीं करनी पड़ेगी। बस हल्के से स्क्रीन के एक खास हिस्से को टच करिए और आप दूसरे गाने को सुन रहे होगें। इसके साथ एक और मजे की बात यह है कि यह फोन गैपलेस प्लेबैक तकनीक का इस्तेमाल करता है। इसका मतलब यह कि अगर एक गाना खत्म हो गया तो दूसरा तुरंत ही बजने लगेगा। यानी एक से दूसरे गाने के लिए आपको जरा सा भी इंतजार नहीं करना पडेग़ा।
इसका इस्तेमाल कर चुके लोगों की मानें तो इसकी आवाज कमाल की है। इसके अलावा, आप चाहें तो इसके दो मेगापिक्सल कैमरा की मदद से खूबसूरत तस्वीरें भी खिंच सकते हैं। फिर अपने दोस्तों को वह तस्वीर भेजने के लिए आप ब्लूटूथ या वाई-फाई का इस्तेमाल कर सकते हैं।
आप चाहें तो इस फोन में आईटयूंस स्टोर से अपने मनपसंद गाने भी खरीद सकते हैं। इस फोन के जरिये आप यूटयूब के मजेदार विडियोज का भी खूब मजा उठा सकते हैं। इसका सफारी वेब ब्राउजर भी कमाल का है। इसमें अगर आपको वेबसाइट का टेस्ट छोटे नजर आएंगे, तो आपको जरूरत होगी सिर्फ स्क्रीन पर दो बार हल्के से छूने की। वहां खुद ब खुद जूम हो जाएगा।



बड़ी खामियां
खूबियां तो इस फोन में कई हैं, लेकिन इसमें कुछ ऐसी खामियां भी हैं जिसे अनदेखा करना नामुमकिन है। इन्हीं खामियां की वजह से तो आलोचक आईफोन की कड़ी आलोचना करते हैं। इसकी सबसे बडी खामी तो यह है कि जिस कंपनी से आप यह फोन खरीदेंगे, उसके सिम के अलावा किसी और कंपनी का सिम इसमें काम ही नहीं करेगा।
इसका सिम लॉक खुलवाने के लिए आपको मोटी रकम चुकानी पड़ सकती है। इसकी बड़ी खामियों में से एक तो इसका काफी वजनी होना है। इसका वजह करीब 135 ग्राम है, जो आज मोबाइल फोनों को देखते हुए काफी ज्यादा है। साथ ही, इसमें कैमरे के साथ फ्लैश भी नहीं है। यानी तस्वीरें लेने के लिए आपको काफी रोशनी की जरूरत पडेग़ी। आईफोन के कैमरे में रोशनी की कमी की वजह से तस्वीरें काफी खराब आती हैं। इसकी बड़ी खामियों में एक यह भी है कि इसके जरिये आप विडियो नहीं रिकॉड कर पाएंगे। कहने को तो इसकी बैटरी आठ घंटों का टॉक टाइम देती है, लेकिन इसका इस्तेमाल कर रहे लोगों की मानें तो यह ज्यादा देर तक नहीं चलती। एक और बड़ी खामी इसके एसएमएस मेन्यु के साथ है।
आप इस फोन में एसएमएसों को अपने अजीजों को फॉरवर्ड नहीं कर पाएंगे। इसमें आप आईपॉड का मजा तो उठा सकते हैं, लेकिन इसके जरिये आप एफएम का लुत्फ नहीं उठा पाएंगे। इसमें रेडियो है ही नहीं। इसमें आप केवल बोलकर किसी का नंबर डाइल करने की सुविधा यानी वॉयस डाइलिंग सेवा का भी इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे।
इसकी स्क्रीन है तो काफी जबर्दस्त पर इस पर स्क्रैच भी काफी जल्दी लगाता है। साथ ही, इसमें ब्लूटूथ तो है, लेकिन इसके जरिये गानों के स्टीरियोफोनिक साउंड का लुत्फ नहीं उठा पाएंगे। यह फोन तो 3जी टेक्नोलॉजी से भी लैस नहीं है। इसकी बड़ी खामी इसका काफी महंगा होना भी है।



भारत पर भी चला जादू
अब तो अपने देश पर भी आईफोन का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा है। अब तक तो आईफोन अपने देश में ब्लैकमार्केट में ही मिला करते थे। लेकिन इस महीने की शुरुआत में वोडाफोन ने यह कहकर सनसनी मचा दी कि वह इसे भारत में लॉन्च करने के बारे में सोच रही है।
कुछ ही दिनों में यह बात भी साफ हो गई वोडाफोन इसे साल के अंत में दीवाली तक भारतीय बाजार में लॉन्च करने वाली है। कंपनी के सूत्रों के मुताबिक वह इसकी कीमत 24 से 27 हजार रुपये के बीच रख सकती है। वैसे, वह इकलौती कंपनी नहीं है, जो आईफोन को लॉन्च करने की कोशिश कर रही है। एयरटेल ने भी घोषणा की है कि वह भी आईफोन उतारने वाली है।



क्या है एप्पल के इस फोन में


खूबी
3.5 इंच की एलसीडी टच स्क्रीन, जबर्दस्त आवाज, आईपॉड, मन मोह लेने वाला डिजाइन, लैंडस्केप ऑरियंटेशन, गैपलेस प्लेबैक, दो मेगापिक्सल कैमरा, यूटयूब, सफारी वेब ब्राउजर, ब्लूटूथ और वाई-फाई, वेबपेज पर जूम
खामी
नहीं चलेगा किसी और कंपनी का सिम, नहीं है एफएम रेडियो, कम चलती है बैटरी, विडियो रिकॉर्डिंग नहीं, एसएमएस फॉरवर्ड की कमी, काफी भारी, नहीं है फ्लैश, नहीं है 3जी तकनीक, काफी महंगा, जल्दी लगते हैं स्क्रैच, नहीं है वॉयस


साभारः http://www.bshindi.com/

Wednesday, May 14, 2008

किसानों के दर्द का इलहाम है किसे..



श्रीलता मेनन


महंगाई के आंकड़े अखबारों और टेलिविजन चैनलों की सुर्खियां बनते जा रहे हैं। बढ़ती महंगाई से किसान परिवारों के चेहरों पर रौनक होनी चाहिए, क्योंकि बढ़ती मंहगाई से उन्हें भी अपनी फसल के लिए ऊंची कीमत मिलेगी।
उन्हें इस बात की खुशी होनी चाहिए कि जो अनाज वे उगा रहे हैं, उनके लिए उन्हें बढ़ी हुई दर पर पैसे दिए जाएंगे। पर हकीकत क्या ऐसी ही है, जैसा हम सोच रहे हैं। इस बात की सच्चाई का पता लगाने के लिए बिजनेस स्टैंडर्ड के संवाददाता देश के विभिन्न हिस्सों में गांवों में गए और किसानों से बात की।
जिंस उत्पादों की कीमतों में भले ही तेजी देखने को मिल रही हो, लेकिन इन्हें अपने खेतों में उगाने वाले किसानों को इसका सीधा फायदा नहीं मिल पा रहा है। बाजार में इनकी कीमतें भले ही कितनी भी भाग रही हों, पर किसानों को इन फसलों के एवज में अधिक पैसा नहीं दिया जा रहा है। उदाहरण के लिए दाल जैसे जिंस उत्पादों का आयात रोक दिए जाने के बावजूद इसकी पैदावार के लिए उन्हें बढ़ी दर पर भुगतान नहीं किया जा रहा है।
अगर वर्तमान परिस्थिति को देखें तो कहना गलत नहीं होगा कि महंगाई को रोकने के लिए जो भी कदम उठाए जा रहे हैं, उनसे किसानों को फायदा मिलने के बजाय उनका नुकसान ही हुआ है। इससे एक सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या सरकार को केवल उपभोक्ताओं की फिक्र है। क्या सरकार को किसानों की चिंता नहीं सता रही। पर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि महंगाई हो या नहीं हो, किसानों के लिए हालात बहुत बदलने की संभावनाएं नहीं दिखती हैं।
किसानों से धान जिस दर पर खरीदा जाता है, वह लगभग उतनी ही होती है जिस दर पर गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों के लिए चावल मिलता है, यानी 6.50 रुपये। तो ऐसे में वह धान की खेती क्यों करे?
दिल्ली की सड़कों पर रिक्शा चलाने वाले बिहार के बेगूसराय जिले के किसान रूप सिंह कहते हैं: मैं एक एकड़ जमीन पर जो गेहूं उगाता हूं, उसके लिए मुझे प्रति किलो 12 रुपये मिलते हैं। वहीं मुझे 14 रुपये में यहां एक किलो आटा मिल जाता है तो मैं खेती क्यों करूं? यही वजह है कि पैदावार खेती के मौसम में भी रूप सिंह और उनके गांव के कुछ और किसान दिल्ली की सड़कों पर रिक्शा चलाना ही बेहतर समझते हैं।
सरकार ने अधिकतर अनाजों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय कर रखा है। पर दालों और तिलहन की सरकारी खरीद के लिए कोई इंतजाम नहीं है। साथ ही धान की सरकारी खरीद केवल पंजाब और हरियाणा में की जाती है। इसके अलावा यह बात भी खास ध्यान देने योग्य है कि गेहूं (प्रति क्विंटल 1,000 रुपये) को छोड़कर अधिकांश अनाज के लिए एमएसपी इतना कम है कि, इससे बेहतर है कि इन अनाजों के लिए सरकारी खरीद हो ही नहीं।
अब एक सवाल जो जेहन में उठता है वह यह है कि आखिर एमएसपी को इतना कम क्यों रखा गया है। धान जैसी कुछ फसलों के लिए तो पिछले दस सालों में एमएसपी में कुछ ही रुपयों से अधिक की बढ़ोतरी नहीं की गई है। जब सरकार किसानों पर ऋण माफी की घोषणा करती है तो देश में इसे लेकर हो हल्ला मचाया जाता है, पर क्या हमने कभी यह सोचा है कि कृषि को मुनाफे का सौदा बनाने की कोशिश क्यों नहीं की जाती है। किसानों को आखिर इन हालात तक पहुंचने ही क्यों दिया जाता है।
कृषि मंत्रालय के अंतर्गत कृषि लागत एवं कीमत आयोग ने उस समय एक क्रांतिकारी कदम उठाया था जब उसने अपनी नई रिपोर्ट में यह सुझाव पेश किया था कि विभिन्न जिंस उत्पादों के लिए एमएसपी में 50 फीसदी तक की बढ़ोतरी की जानी चाहिए। हालांकि इसकी एक वजह यह भी थी कि आयोग के अध्यक्ष टी हेक सेवानिवृत्त होने वाले थे और वह पद छोड़ने के पहले कोई साहसिक कदम उठाना चाहते थे।
सरकार ने भले ही आयोग के सुझाव को मानते हुए गेहूं के एमएसपी को प्रति क्विंटल 650 रुपये से बढ़ाकर 1000 रुपये करने का निर्णय कर लिया, पर शेष सुझावों के लिए कैबिनेट की मंजूरी मिलनी बाकी है। इन सुझावों में धान के एमएसपी को 650 रुपये से बढ़ाकर 1,000 रुपये और दालों के एमएसपी को 1,500 रुपये से बढ़ाकर 2,400 रुपये करना शामिल है।
चाहे जो भी हो पर आत्महत्या कर रहे किसानों और जिंस उत्पादों के बढ़ते मूल्य के बावजूद पिछली सरकारों को यह समझ में नहीं आया कि उन्हें एमएसपी को बढ़ाना चाहिए। कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन कहते हैं, 'किसान हमारे सबसे बड़े उपभोक्ता हैं। अगर उन्हें चुकाई जाने वाली कीमतें सुधर जाती हैं तो बाकी सब कुछ खुद-ब-खुद ठीक हो जाएगा।'
देश में कृषि के बिगड़ते हालात को देखते हुए ही आने वाली पीढ़ी भी इसे रोजगार के अवसर के तौर पर नहीं देख रही है। हरियाणा के झार जिले में ऐसे बच्चे जो कंप्यूटर का पहला अध्याय पढ़ रहे हैं, कहते हैं कि उन्हें अपने अभिभावक के खेतों पर खेती करने का मन नहीं है। 14 साल के एक किशोर को यह कहने में कोई झिझक नहीं होती कि खेती से कोई कमाई नहीं हो सकती। वह कहता है कि यह आय का जरिया नहीं हो सकता है।
उसने कहा कि खेती में इतना खर्च हो जाता है कि वापस मिलने वाली रकम से कोई मुनाफा नहीं हो पाता। पर फिर यही बच्चे यह भी कहते हैं कि गेहूं पर एमएसपी को बढ़ाकर 1,500 रुपये कर दिया जाता है तो उन्हें खेती से कोई गुरेज नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो किसानों को दान (कर्जमाफी) नहीं चाहिए, बस हालात को सुधार कर ऐसा बना दिया जाए कि उन्हें खेती से मुनाफा होने लगे।


साभारः बिजनेस स्टैंडर्ड

Sunday, May 11, 2008

कब करें म्युचुअल फंडों से निकासी


मनीश कुमार मिश्र
अधिकांश निवेशक म्युचुअल फंडों की वास्तविक धारणा से अनभिज्ञ हैं। उनकी मानें तो म्युचुअल फंड में निवेश करने का मतलब है, शेयरों में निवेश करना।
ऐसे निवेशकों को वैसी योजनाएं ज्यादा भाती हैं जिनके एनएवी (शुध्द परिसंपत्ति मूल्य)कम होते हैं या जब किसी योजना पर अधिक लाभांश की घोषणा की जाती है या फिर कोई नया फंड ऑफर आता है। ऐसे निवेशक प्राय: इन बातों से प्रेरित होकर ही अपनी यूनिट भी बेच डालते हैं।
नया फंड ऑफ र आया नहीं कि अपने पुराने निवेश को भुनाकर वे उसमें निवेश करने चले जाते हैं। वे 10 रुपये के मूल्य वाले नए फंड को सस्ता समझते हैं। ऐसा नहीं है कि सारे निवेशक ऐसा अपनी मर्जी से ही करते हों, वितरक भी अपने फायदे के लिए निवेशकों को गुमराह करते रहते हैं।
वैसे तो म्युचुअल फंड या इक्विटी में दीर्घावधि के लिए निवेश करने को ज्यादा लाभकारी माना जाता है। लेकिन कभी-कभार परिस्थितियां कुछ ऐसी हो जाती हैं कि यूनिटों को बेचना जरुरी हो जाता है। आज हम उन परिस्थितियों पर विचार करेंगे जिसके तहत म्युचुअल फंड की यूनिटों को बेचना आवश्यक हो जाता है।


नकदी की विशेष जरुरत होने पर
म्युचुअल फंड बेचने की एक महत्वपूर्ण वजह पैसे की सख्त जरुरत भी हो सकती है। हम सभी भविष्य के किसी विशेष लक्ष्य को पूरा करने के लिए ही निवेश करते हैं। मान लीजिए कि आपको बच्चे की पढ़ाई का शुल्क तुरंत देना है या परिवार के किसी सदस्य की शल्य क्रिया करवानी है या आप महंगी कार खरीदना चाहते हैं तो इसके लिए आपको अपने निवेश के एक हिस्से को भुनाने की जरुरत होगी।
यहां यह देखा जाना महत्वपूर्ण है कि आपको अपने निवेश पोर्टफोलियो के किस फंड को भुनाना चाहिए। वैसे फंड को बेचा जा सकता है जिसका प्रदर्शन बढ़िया न हो या जिस पर आयकर का पर्याप्त लाभ न मिल पा रहा हो। अगर ऐसी कोई बात न हो तो आप बाहर से भी उधार लेकर अपनी जरुरतों को पूरी कर सकते हैं।


फंड की निवेश शैली में परिवर्तन
किसी फंड विशेष की निवेश शैली को ध्यान में रखकर ही हम निवेश करते हैं। मान लीजिए कि आपके पोर्टफोलियो में पहले से ही मिड कैप फंड है और पोर्ट फोलियो के विशाखण के लिए आप लार्ज कैप फंड में निवेश करते हैं।
कुछ समय बाद आपको यह जानकारी होती है कि जिस लार्ज कैप फंड योजना में आपने निवेश किया था वह मिड कैप फंड में भी निवेश कर रहा है। ऐसे में आपको अपना वर्तमान लार्ज कैप फंड बेच कर किसी विशुध्द लार्ज कैप फंड में निवेश करना चाहिए। जब कभी कोई फंड अपने निवेश की मूल नीति से हट कर निवेश करने लगे तो आपको वह फंड बेच कर अन्यत्र निवेश करना चाहिए।


किसी फंड का खराब प्रदर्शन
अभी बाजार में 200 से भी अधिक इक्विटी फंड हैं। सभी फंडों ने पिछले एक साल में प्राय: अच्छा प्रतिफल दिया है। 9 मई को समाप्प्त हुए एक वर्ष में सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वाले फंड, रिलायंस डाइवर्सिफायड पावर सेक्टर रिटेल ने 69.80 प्रतिशत का प्रतिफल दिया है (स्रोत: वैल्यूरिसर्चऑनलाइन)।
बाजार में आये उतार-चढ़ाव के दौरन सभी फंडों का प्रदर्शन बेहतर हो यह आवश्यक नहीं है। किसी फंड का प्रदर्शन जानने के लिए 1-5 सालों के उसके प्रतिफल का समान समूह वाले अन्य फंडों एवं बेंचमार्क सूचकांक के प्रतिफल से उसकी तुलना की जानी चाहिए। अल्पावधि के खराब प्रदर्शन की कोई भी वजह हो सकती है। कुछ फंड दीर्घावधि के उद्देश्य से किए गए हो सकते हैं और संभव है कि कुछ खास सेक्टर का प्रदर्शन बढ़िया न चल रहा हो। लेकिन अगर किसी फंड का प्रदर्शन लगातार औसत से नीचे चल रहा हो तो बेहतर है कि आप अपने यूनिटों को भुना लें और किसी अच्छे फंड में उसका निवेश करें।


पोर्टफोलियो के पुनर्संतुलन के लिए
हम सबके पोर्टफोलियो में परिसंपत्तियों का आवंटन जोखिम उठाने की क्षमता और निर्धारित लक्ष्य के अनुसार निवेश के विभिन्न विकल्पों में होता है। इसमें प्राय: ऋण, इक्विटी, रियल एस्टेट, सोना आदि शामिल होते हैं। आपके वित्तीय व्यवस्था में बदलाव के साथ ही आपक ो अपने पोर्टफोलियो को पुनर्संतुलित करने की जरुरत पड़ सकती है।
मान लीजिए आप पहले बैचलर थे और ज्यादा जोखिम उठा सकते थे इसलिए आपने इक्विटी वाले म्युचुअल फंड में निवेश किया। अब आपकी शादी हो चुकी है और जिम्मेदारियां बढ़ चुकी है। जोखिम उठाने की क्षमता भी कम हो गई है। ऐसे में आपको इक्विटी के जोखिम से मुक्त होने के लिए अपने इक्विटी फंड के निवेश को घटाना चाहिए।

साभारः www.bshindi.com

पढ़े फारसी, बेचे तेल!


श्यामल मजूमदार

स्मिता राजन (बदला हुआ नाम) ने मुंबई के किसी साधारण बिजनेस स्कूल से एमबीए की डिग्री हासिल की है।
जब उन्हें भारत के एक नामीगिरामी बैंक के मार्केटिंग डिपार्टमेंट से नौकरी का ऑफर आया, तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। शुरूआत करने के लिहाज से वेतन भी ठीकठाक था और साथ ही बेहतर करियर की संभावना भी नजर आ रही थी।
एक साल बाद स्मिता के पापा को पांच लाख के लोन का जुगाड़ करना पड़ा। यह राशि स्मिता के बैंक को अदा करना थी। दरअसअल बैंक के साथ स्मिता के करार के मुताबिक, अगर दो साल से पहले वह नौकरी छोड़ती है तो उसे पांच लाख रुपये बैंक को देने होंगे। हालांकि स्मिता के पापा का कहना है कि अपनी बेटी की प्रताड़ना को देखने के बजाय वह इससे भी ज्यादा लोन का भार सहना करना पसंद करते।
आइए अब स्मिता की आपबाती के बारे में जानते हैं। 24 साल की इस लड़की को दफ्तर में सुबह 9 बजे से रात 10 बजे तक गुजारना पड़ता था। यही नहीं खाता खुलवाने के लिए उन्हें लोगों को प्रेरित करने के लिए हर घर का दरवाजा खटखटाना पड़ता था। टार्गेट नहीं पूरा होने के मद्देनजर 3 महीने उनके वेतन में शामिल वैरिएबल की राशि में से 8500 रुपये काट लिए गए।
स्मिता के पिता के मुताबिक, इस काम के लिए एमबीए को बहाल करने की कोई जरूरत नहीं है। उनकी बेटी पूरी तरह टूट चुकी है और बैंक ने स्मिता का आत्मविश्वास खत्म कर दिया है। आलम यह है कि बैंक ने टेलर मशीनों की देखरेख के लिए भी एमबीए डिग्री प्राप्त लोगों की भर्ती कर रखी है।
इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि स्मिता इस मामले में अकेली नहीं है। भारत में रोजगार के अंबार का ढिंढोरा पीटे जाने के बीच कई ऐसे उदाहरण मौजूद हैं। इसी तरह देवाशीष भौमिक (बदला हुआ नाम) ने कोलकाता के किसी प्राइवेट संस्थान से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की है। वह किसी विंडमिल कंपनी में नौकरी करने नवी मुंबई पहुंचे। इस कंपनी का मुख्यालय यूरोप में है। इस कंपनी में भौमिक का जॉब प्रोफाइल सिक्युरिटी गार्ड से थोड़ा ही बेहतर था।
हालांकि वह खुशकिस्मत रहे और उन्हें चार महीने के भीतर दूसरी नौकरी मिल गई। उन्होंने बताया कि पिछली कंपनी के उनके बॉस ने उन्हें कंपनी के गोदामों में सिक्युरिटी सिस्टम पर प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार करने को कहा था। दरअसल कंपनी को आशंका थी कि उसके गोदामों में छिटपुट चोरी का सिलसिला काफी तेज है। इसके तहत इस इंजीनियरिंग ग्रैजुएट को गोदाम सिस्टम की गड़बड़ियों का पता लगाने के लिए सिक्युरिटी ऑफिस में बैठने का निर्देश दिया गया।
इस काम के दौरान भौमिक ने पाया कि लंच के दौरान जब सिक्युरिटी गार्ड खाना लाने के लिए कैंटीन जाता है, तो गोदाम की देखभाल करने वाला कोई नहीं होता। भौमिक की इस राय से प्रभावित हो होकर उनके बॉस ने उन्हें यह पता लगाने का निर्देश दिया कि ऐसा चाय या डिनर के दौरान हो रहा है या फिर सिक्युरिटी गार्ड्स हमेशा गेट को छोड़कर टॉयलेट जाते रहते हैं।
भौमिक ने अपने इस्तीफा पत्र में लिखा कि मैंने लोगों की चाय और टॉयलेट की आदतों पर गौर करने के लिए इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल नहीं की है। अब हम एक फर्स्ट क्लास से पास बी. कॉम. ग्रैजुएट की बात करते हैं। यह जनाब बीपीओ में बतौर सर्विस ऑफिसर काम करते हैं। उनका ऑफिस शाम 4 बजे से शुरू होता है और रात को 2 बजे डयूटी खत्म होती है।
अत्याधिक काम के बोझ और अनियमित रूटीन की वजह से अक्सर उन्हें स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से जूझना पड़ रहा है। सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि कंपनी ने उन्हें अमेरिकी एक्सेंट में अंग्रेजी बोलना सीखने के लिए जीभ के नीचे मार्बल रखकर अंग्रेजी बोलने का अभ्यास करने को कहा है। कंपनी में नौकरी छोड़कर जाने वालों की तादाद (30 से 40 फीसदी) काफी ज्यादा है।
इसके बावजूद कंपनी को इसकी कोई चिंता नहीं है, क्योंकि अंग्रेजी बोलने वाले ग्रैजुएट्स की भरमार होने के कारण उसे कभी भी कर्मचारियों की किल्लत का सामना नहीं करना पड़ता। 12 हजार रुपये प्रति महीना पर काम करने के लिए ऐसे ग्रैजुएट्स की कतार लगी होती है। फर्स्ट क्लास से पास करने वाले ग्रैजुएट्स और अपेक्षाकृत कम नामीगिरामी संस्थानों से इंजीनियरिंग या एमबीए की डिग्री लेने वालों से बात करने पर एक आम बात उभर कर सामने आती है।
वह यह कि कंपनियां इंसेंटिव का लालच देकर लोगों को ऐसा बिजनेस लक्ष्य देती हैं, जिन्हें हासिल करना मुमकिन नहीं होता। साथ ही जॉब प्रोफाइल भी ठीक नहीं होता। ऐसे वक्त में जब सभी लोग भारत में रोजगार के बढ़ते अवसरों की दुहाई दे रहे हैं, ये उदाहरण बताते हैं कि भारतीय कंपनियों की भर्ती का तरीका काफी बेतरतीब है और इस प्रक्रिया में योग्यता और जॉब प्रोफाइल का सामंजस्य बिल्कुल भी नजर नहीं आता।
इसके मद्देनजर लार्सन एंड टूब्रो के चेयरमैन ए. एम नायक ने आईटी कंपनियों पर नाराजगी जताते हुए कहा था कि यह सेक्टर इंजीनियरों को हाईजैक कर रहा है, जबकि उन्हें सिर्फ बी. कॉम. ग्रैजुएट्स की जरूरत है। जरूरत से ज्यादा योग्यता वाले लोगों की नियुक्ति के बारे में कंपनियों की दलील है कि जिस देश में हर दूसरा शख्स फर्स्ट क्लास ग्रैजुएट, इंजीनियर या एमबीए है, वहां इस तरह की घटनाओं को रोकना संभव नहीं है।
इसके अलावा दूसरे दर्जे के इन संस्थानों में पढ़ाई की क्वॉलिटी भी स्तरीय नहीं होती है और इस वजह से कंपनियों को इन लोगों को नए सिरे से प्रशिक्षित करना पड़ता है। एक कंपनी के एचआर मैनेजर के मुताबिक, ट्रेनिंग के बाद भी ऐसे लोग अपनी डिग्री से खुद को जोड़ने में सक्षम नहीं हो पाते और इस वजह से कंपनियों को इन लोगों को कोर्स से अलग जॉब प्रोफाइल मुहैया कराने के सिवा कोई चारा नहीं रहता।
उनकी इस बात में दम हो सकता है। अध्ययन बताते हैं कि भारत में चार में सिर्फ एक ग्रैजुएट के पास उचित रोजगार प्राप्त करने की योग्यता होती है। मतलब यह है कि जब तक शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार नहीं होता है, बाकी तीन लोगों को बैंकों में खाते खुलवाने के लिए लोगों को राजी करने, लोगों की चाय और टॉयलेट संबंधी आदतों की निगरानी करने और आधी रात में अपनी अमेरिकन एक्सेंट सुधारने जैसे कामों से खुद को संतुष्ट रखना पड़ेगा।


sआभार_ www.bshindi.com

Friday, May 9, 2008

30 साल का हुआ साइबर नटवरलाल


सत्यव्रत मिश्र


अभी हाल में साइबर स्पेस के एक बड़े नाम का 30वां जन्मदिन था। एक ऐसा नाम जिस सुन कई लोगों के पसीने छूट जाते हैं, तो कई लोगों का गुस्से सातवें आसमान को पार कर जाता है।
एक ऐसा कुख्यात नाम जो कई लोगों की जीवन भर की गाढ़ी कमाई लेकर चंपत हो चुका है। हुजूर, साइबर स्पेस के इस मिस्टर नटवरलाल को लोग-बाग को जानते हैं स्पैम के नाम से। जी हां, आपके और हमारे जीवन को मुहाल कर देने वाला स्पैम तीन मई को 30 साल का हो गया।
अपने 30 साल की इस जिंदगी में उसने जितना लोगों को हैरान और परेशान किया है, उतना तो किसी कंप्यूटर वाइरस ने भी आज तक नहीं किया है। जाहिर सी बात है इस बर्थडे के मौके पर आप केक खाने की इच्छा तो नहीं कर सकते।


क्या बला है यह?
स्पैम एक ही तरह के हजारों ईमेल मैसेजों को कहते हैं, जो हजारों लोगों को भेजे जाते हैं। इसके लिए उन लोगों से इस बात की सहमति भी नहीं ली जाती है कि वे लोग इन ईमेलों को रिसीव करना चाहते भी हैं या नहीं। स्पैम का दूसरा नाम है बल्क ईमेल या जंक ईमेल।
कानूनी जुबान में इसे कहते हैं अनसौलिसिटेड बल्क ईमेल्स (यूबीई)। इस हिसाब से किसी ईमेल को स्पैम करार देने के लिए यह जरूरी है कि वह भारी तादाद में भेजे गए हों और उन्हें प्राप्त करने के लिए लोगों ने सहमति नहीं दी हो।


कैसे हुई थी शुरुआत?
पहला स्पैम भेजा गया था तीन मई 1978 को। वह स्पैम भेजा गैरी थीयुरक ने अपरानेट के जरिये। अपरानेट को ही बाद में इंटरनेट के नाम से लोगों ने जाना। हालांकि, उस समय अमेरिका में इस सिस्टम का इस्तेमाल बस शुरू भर हुआ था। तब अपरानेट का इस्तेमाल केवल अमेरिकी सरकार की एजेंसियां, कंपनियां और बड़ी यूनिवर्सिटीज ही किया करती थीं।
इसी अपरानेट पर गैरी भाई साहब ने अपनी कंपनी डिजीटल इलेक्ट्रोनिक्स कॉरपोरेशन द्वारा विकसित किए गए एक नए सिस्टम का विज्ञापन डाल दिया। यह विज्ञापन उन्होंने 10 या 20 नहीं, बल्कि पूरे 350 लोगों को भेजा था। वैसे, तब भी जिन लोगों को यह मैसेज मिला था, उनमें से काफी ज्यादा लोगों ने इस मैसेज का कड़ा विरोध किया था। यानी तब से लेकर अब तक इसके प्रति लोगों का नजरिया ज्यादा नहीं बदला है।


स्पैम के प्रकार
स्पैम कई तरह के होते हैं। लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए स्पैमर तरह-तरह के तरीकों का सहारा लेते रहते हैं। इससे बचने का सबसे असरदार तरीका उनके बारे में जानकारी ही है। अलग-अलग तरह के स्पैमों की लिस्ट यह रही।


419 स्पैम : इसे नाइजीरियाई ईमेल स्कैम के नाम से भी जाना जाता है। यह लोगों से पैसे ठगने का सबसे कुख्यात तरीका है, इसी वजह से तो स्पैमर इसका इस्तेमाल भी धड़ल्ले से करते हैं। अक्सर इस तरह के स्पैम को भेजने वाला खुद नाइजीरिया, जॉर्जिया, उज्बेकिस्तान या ऐसे ही किसी अफ्रीकी, पूर्वी यूरोपीय या सोवियत संघ से अलग हुए किसी मुल्क का ऐसा उच्चाधिकारी बताता है।
स्पैमर अपने शिकार को यह कहकर फांसने की पूरी कोशिश करता है कि आपने एक लॉटरी में लाखों डॉलर की रकम जीती है और प्रोसेसिंग फी के नाम पर आपको एक 'छोटी-सी' रकम चुकानी पड़ेगी। अगर आपने उस ऑफर में रुचि दिखलाई तो वह आपको असली से दिखने वाले नकली कागजात भी भेज देगा। फिर जैसे ही अपने रकम चुकाई, वह इंसान आपके पैसों के साथ गायब हो जाएगा। इससे बचने का इकलौता तरीका यही है कि इस तरह के ईमेलों का जवाब ही नहीं दें।


फिशिंग : इसमें स्पैमर आपको एक ईमेल भेजता है, जिसमें आपको नीचे दिए हाइपरलिंक पर जाकर अपने बैंक अकाउंट नंबर, इंटरनेट पासवर्ड और अकाउंट से संबंधित दूसरी बातों को 'अपडेट', 'वेरीफाई' या 'कन्फर्म' करने के लिए कहा जाता है। जैसे ही आप ऐसा करते हैं, रातोंरात ही आपका बैंक अकाउंट की अच्छी-खासी तरीके से 'सफाई' हो जाती है। इकोई भी बैंक ईमेल के जरिये आपके अकाउंट इन्फॉर्मेशन को अपडेट करने के लिए नहीं कहता। इसलिए इस तरह के ईमेल्स का कतई भी जवाब नहीं दें।


वर्क एट होम स्पैम : इस तरह के स्पैम के सबसे ज्यादा शिकार होते हैं बेरोजगार नौजवान और शादीशुदा महिलाएं। इसमें स्पैमर लोगों से वादा करता है कम मेहनत और ज्यादा कर्माई का। उनसे यह भी कहा जाता है कि इसके लिए उन्हंा किसी दफ्तर आने की जरूरत नहीं, बल्कि यह काम तो वह घर बैठे बिठाए भी कर सकते हैं। हालांकि, इसमें यह नहीं बताया जाता कि काम खत्म होने के बाद तो स्पैमर यह कहाकर पैसे देने से भी इनकार कर देता है कि काम की क्वालिटी अच्छी नहीं थी।


वाइगरा स्पैम : आजकल तो इस तरह के स्पैम की खूब बारिस हो रही है। कई लोगों के इनबॉक्स तो सस्ते वाइगरा के ऑफर से भरे रहते हैं।


कैसे भेजे जाते हैं ये?
इसके लिए सबसे पहले जरूरत होती है ईमेल एड्रेसेज की। इन ईमेल एड्रेसेज को जुटाने की प्रक्रिया को ईमेल एड्रेस हार्वेस्टिंग के नाम से जाना जाता है। इसके लिए स्पैमर सबसे पहले संभावित ईमेल एड्रेसेज की एक पूरी सूची बना लेते हैं। अक्सर इसके लिए लोगों की सहमति नहीं ली जाती है।
ज्यादा से ज्यादा लोगों तक स्पैम को पहुंचने के लिए आज की तारीख में लाखों और कभी-कभी तो करोड़ों ईमेल एड्रेसेज की लिस्ट बनाई जाती है। फिर स्पैमर इन ईमेल्स को भेजने के लिए ईमेल अकाउंट खोलते हैं और फिर उसके जरिये स्पैम भेजते हैं। अब तो अपनी पहचान छुपाने के लिए स्पैमर प्रॉक्सी सर्वरों का भी सहारा लेने लगे हैं।


जीना किया दूभर
स्पैम्स की वजह से तो इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों का जीना दूभर हो गया है। हर दिन दुनिया भर में 100 अरब स्पैम भेजे जाते हैं। लेकिन डरावनी बात तो यह है कि स्पैम्स के फैलने की रफ्तार तेजी से फैल रही है। आंकड़ों की मानें तो इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों के इनबॉक्स में हर दिन आने वाले ईमेल्स में 80 से 90 फीसदी तो स्पैम होते हैं। इसकी वजह से अकेले अमेरिका को हर साल 21.58 अरब डॉलर का नुकसान झेलना पड़ता है।
पूरी दुनिया को पिछले साल इसकी वजह से 198 अरब डॉलर का नुकसान झेलना पड़ा था। आपको बता दें कि सबसे ज्यादा स्पैम भेजे जाते हैं अमेरिका से। अमेरिकी जांच एजेंसी एफबीआई की मानें तो साइबर स्पेस में होने वाले कुल गड़बड़ झाले में से 75 फीसदी की वजह यही स्पैम होते हैं।
वैसे, हमारा देश भी इससे खासा परेशान हैं। सरकार के मुताबिक भारत से जाने वाले ईमेल्स में से 76 फीसदी स्पैम होते हैं। इसलिए तो सरकार आईपीसी की धारा 40 को आईटी एक्ट में शामिल करने पर बात कर रही है।

साभारः बिज़नेस स्टैंडर्ड

Thursday, May 8, 2008

नए जमाने के मुताबिक होगा नया मूल्य सूचकांक


सत्येन्द्र प्रताप सिंह और कुमार नरोत्तम


थोक मूल्य सूचकांक से हर सप्ताह महंगाई में होने वाली बढ़ोतरी या कमी के आंकड़े मिलते हैं। वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय ये आंकड़े जारी करता है।
हालांकि मूल्यों के नमूने और इस सूचकांक में शामिल जिंसों से सामान्य अनुमान लगाया जाता है, लेकिन इससे सही आंकड़े नहीं मिल पाते। वर्तमान थोक मूल्य सूचकांक को लेकर ढेरों सवाल उठ रहे हैं। पहला मुद्दा यह है कि आधार वर्ष पुराना पड़ चुका है। दूसरा, इसमें शामिल किए गए जिंसों की संख्या कम है, साथ ही विनिर्मित क्षेत्र के उत्पादों में क ई परिवर्तन हुए हैं। वर्तमान बास्केट में शामिल कई जिंसों का महत्व घट गया है। इसके अलावा मूल्यों के ताजा आंकड़े सही समय पर नहीं पहुंचते, जिससे मुद्रास्फीति की सही सूची ही नहीं बन पाती।
थोक मूल्य सूचकांक को अद्यतन करने के लिए जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अभिजीत सेन की अध्यक्षता में कार्य समूह का गठन किया गया है। इसका प्रमुख काम वर्तमान थोक मूल्य सूचकांक, जिसका आधार वर्ष 1993-94=100 है, को पुनरीक्षित करना है।
वाणिज्य मंत्रालय के ऑफिस आफ इकनॉमिक एडवाइजर की इच्छा है कि यह कार्य समूह थोक मूल्य सूचकांक की पुनरीक्षित श्रृंखला पेश करे, जिससे मुद्रास्फीति के सही आंकड़े जानने के लिए बेहतर संकेतक मिल सके। साथ ही इस बारे में भी जानकारी हासिल हो सके कि अंतरराष्ट्रीय बाजार का भारतीय जिंसों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। इस कार्य समूह में चार उप समूह शामिल किए गए हैं।
विश्लेषणात्मक मुद्देविनिर्मित वस्तुओं के मामलेकृषि जिंस संगठित और असंगठित क्षेत्र
प्रो. अभिजीत सेन की अध्यक्षता वाले कार्य समूह से जुड़े सूत्रों का कहना है कि थोक मूल्य सूचकांक की तकनीकी रिपोर्ट बनकर तैयार हो गई है। इसे अंतिम रूप दिया जा रहा है। लेकिन संकट आंकड़ों को लेकर संकट अब भी बरकरार है। सेन रिपोर्ट में मुद्रास्फीति की साप्ताहिक के बदले मासिक रिपोर्ट जारी किए जाने की भी बात कही जा रही है। साथ ही स्पष्ट और समय के मुताबिक आंकड़े प्राप्त करना भी अहम मुद्दा बना हुआ है। बहरहाल इस साल के अंत तक रिपोर्ट आने की संभावना है।
एक्सिस बैंक के प्रमुख अर्थशास्त्री और वाइस प्रेसीडेंट सौगात भट्टाचार्य का कहना है कि पुराने थोक मूल्य सूचकांक में ढेरों खामिया है, जिसे दुरुस्त किए जाने की जरूरत है। उन्होंने कहा, ''कंपनियों के लिए परिवर्तित कीमतों के आंकड़े देना अनिवार्य नहीं किया गया है, जिससे समय पर आंकड़े नहीं मिल पाते। साथ ही कंज्यूमर डयूरेबल्स के तमाम आयटम को शामिल किए जाने की जरूरत है।
पेट्रोल की खपत भी आधार वर्ष की तुलना में बहुत ज्यादा बढ़ चुकी है, जिसका वेटेज बढ़ाया जाना चाहिए। साथ ही विभिन्न सामग्रियों की संख्या वर्तमान में 435 है, जिसे बढ़ाकर 1000 तक किए जाने की जरूरत है, जिससे महंगाई की सही स्थिति का अनुमान लगाया जा सके। ''

साथ ही औद्योगिक मूल्य सूचकांक, थोक मूल्य सूचकांक और जीडीपी के लिए एक ही आधार वर्ष बनाए जाने की बात चल रही है। इसे सांख्यिकी के जानकार बेहतर मान रहे हैं। हालांकि अभी इसकी राह बहुत कठिन लगती है।
भारत के मुख्य सांख्यिकीयविद् प्रणव सेन ने बताया कि वैसे तो राष्ट्रीय आय को निर्धारित करने के लिए 1999-2000 को भी अभी स्थिरता प्राप्त करना बाकी है। इसलिए 2004-05 को आधार वर्ष बनाने में अभी काफी समय लगेगा। एचडीएफसी के मुख्य अर्थशास्त्री अभीक बरुआ ने कहा कि कॉमन आधार वर्ष से आंकड़ों का विश्लेषण आसान हो जाएगा।


साभारः बिजनेस स्टैंडर्ड

Saturday, May 3, 2008

अब नेट को मिला वाईमैक्स का साथ



सत्यव्रत मिश्र


जब ब्रॉडबैंड आया था, तो उसे डायल अप कनेक्शन की मुश्किलों से मुक्तिदाता कहा गया था। कुछ हद तक यह बात सच भी थी।
ब्रॉडबैंड ने देश में कछुए की रफ्तार से चल रहे इंटरनेट को खरगोश की स्पीड दिला दी। अब इंटरनेट पर गाने सुनना और वीडियो देखना दूर की कौड़ी नहीं रह गई थी। लेकिन ऐसी बात नहीं थी कि ब्रॉडबैंड में कोई खामी नहीं थी। अक्सर ब्रॉडब्रैंड की तार टूट जाती है। दूरदराज के इलाके में तो यह पहुंच भी नहीं पाता।
साथ ही, यह काफी महंगा पड़ता था। इसलिए लोग-बाग अब इससे भी परेशान हो गए हैं। इन सभी प्रोबल्म्स से परेशान लोगों के लिए राहत का सबब बनकर आया है वाई-मैक्स। अपनी खूबियों की वजह से ही तो वाईमैक्स आज की तारीख में लोगों का फेवरिट बन चुका है।



क्या बला है यह?
वाई मैक्स यानी वर्ल्ड इंटरऑपरोबिलिटी फॉर माइक्रोवेब एक्सेस है नए जमाने की तकनीक। इसके जरिये आप बिना किसी तामझाम के फास्ट स्पीड इंटरनेट का लुत्फ उठा पाएंगे। वाई मैक्स नाम रखने का फैसला किया गया था 2001 में वाई मैक्स फोरम की बैठक में। इस संस्था का कहना है कि,'वाई मैक्स एक ऐसी उच्च गुणवत्ता वाली तकनीक है, जिसके जरिये वायरलेस ब्रॉडबैंड जमीन के आखिरी हिस्से तक पहुंच सकता है।'
विशेषज्ञों का कहना है कि इसके लिए आपको तारों के जंजाल की जरूरत नहीं पड़ती। वैसे, काम करने के अंदाज से यह तकनीक वाई-फाई से काफी जुदा तकनीक है। वाई मैक्स कई किलोमीटर के दायरे में फैले एक बड़े क्षेत्रफल में काम करती है। इसके लिए जरूरत पड़ती है लाइसेंस्ड स्पेक्ट्रम की।
दूसरी तरफ, वाईफाई केवल छोटी दूरी में ही यानी केवल कुछ मीटर के दायरे में काम करती है। इसके लिए किसी प्रकार के लाइसेंस की जरूरत नहीं पड़ती।
साथ ही, वाईमैक्स का इस्तेमाल इंटरनेट को एक्सेस करने के लिए जाता है, जबकि वाईफाई का इस्तेमाल अपने नेटवर्क को एक्सेस करने के लिए होता है।



कैसे काम करता है यह?
आसान शब्दों में कहें तो यह बडे ऌलाके में फैले वाई-फाई नेटवर्क की तरह ही है। लेकिन वाईमैक्स की स्पीड काफी तेज होती है और साथ ही इसकी कवरेज भी ज्यादा बड़े इलाके तक फैली होती है। इस सिस्टम के लिए जरूरत होती है वाईमैक्स टॉवर और वाईमैक्स रिसीवर की। वाईमैक्स टॉवर दिखने में बिल्कुल मोबाइल फोन टॉवर की तरह लगता है। लेकिन वह टॉवर तीन हजार वर्ग मील के इलाके को कवर कर सकता है।
दूसरी तरफ, वाईमैक्स रिसीवर एक सेटटॉप बॉक्स की तरह होता है। अब ये रिसीवर छोटी से कार्ड की शक्ल में भी आ गए हैं, जिसे लैपटॉप के साथ जोड़कर काम किया जाता है। इसके लिए आपको देनी पड़ती है फीस। वैसे, यह फीस ब्रॉडबैंड के इंस्टॉलेशन कॉस्ट से काफी कम होता है।
सबसे पहले वाईमैक्स टॉवर को तारों के सहारे इंटरनेट के साथ जोड़ा जाता है। फिर ये टॉवर सिग्नल ट्रांसमिट करते हैं। जिन्हें पकड़ते हैं आपके घर में लगा हुआ वाईमैक्स रिसीवर। आप कंप्यूटर को उस रिसीवर से जोड़कर मजे में इंटरनेट एक्सेस कर सकते हैं।



क्या हैं इसके फायदे?
साइबर स्पेस के धुरंधरों की मानें तो वाई-मैक्स इंटरनेट की दुनिया में वह चमत्कार कर सकती है, जो सेलफोन ने टेलीफोन की दुनिया में कर दिखाया था। इसका सबसे बड़ा फायदा जो इंटरनेट के धंधे से जुड़े लोग बाग बताते हैं वह यह है कि आप वाईमैक्स के जरिये कहीं से भी अपने लैपटॉप या पॉमटॉप से बड़ी आसानी के साथ इंटरनेट पर काम कर सकते हैं।
इसके लिए आपको तारों के जंजाल की जरूरत नहीं पड़ती। यानी अब आप गांवों और दूर-दराज के इलाकों से भी बड़ी आसानी से एक्सेस कर सकते हैं अपनी ईमेल। यानी ब्रॉडबैंड से अलग यह हर जगह मौजूद रह सकता है। साथ ही, ब्रॉडबैंड से काफी हद तक सस्ता भी है। इसमें डेटा ट्रांसफर की स्पीड भी काफी तेज होती है।इसी वजह से तो विदेशों में कई मोबाइल फोन कंपनियां इसका इस्तेमाल सेल फोन ऑपरेशंस में भी करना चाहती हैं।
मोबाइल फोन कंपनियों की इस तकनीक के प्रति पनपी मोहब्बत एक वजह यह भी है कि वाई मैक्स उपभोक्ताओं और कंपनियों, दोनों के लिए काफी सस्ती पड़ती है। साथ ही, व्यापारिक प्रतिष्ठानों में इसका इस्तेमाल केबल और डीएसएल के साथ-साथ एक इमरजेंसी लाइन की तरह किया जा सकता है।
इंडोनेशिया में सुनामी के दौरान इसने तो लोगों की जान भी बचाने में लोगों की काफी मदद की थी। इसी के जरिये मुसीबत में फंसे कई लोगों ने राहतकर्मियों से संपर्क साधा था। अमेरिका में आए कैटरिना तूफान के दौरान भी इसने कई लोगों की जिंदगियां बचाई थी।



इसमें भी हैं खामियां
वाईमैक्स के साथ एक आम गलतफहमी यह जुड़ी हुई है कि ये 50 किमी के दायरे में 70 मेगाबिट के स्पीड से काम कर सकता है। लेकिन हकीकत तो यही है कि यह दोनों में से कोई एक ही काम कर सकता है। या तो आप इसके 50 किमी के दायरे में इंटरनेट एक्सेस कर सकते हैं या फिर 70 मेगाबिट प्रति सेकंड की रफ्तार से नेट एक्सेस कर सकते हैं।
आप जितना ज्यादा इसके दायरे को बढ़ाते हैं, उतनी ही इसकी स्पीड कम हो जाती है। वैसे, मोबाइल वाईमैक्स के साथ सबसे बड़ी खामी यही है कि सिग्नल कम या ज्यादा होने के साथ-साथ इसमें इंटरनेट की स्पीड भी स्लो या फास्ट होती रहती है। सिग्नल कम जोर होने की सबसे बड़ी वजह कंक्रीट के जंगल। अक्सर जैसे मोबाइल फोन के साथ होता है कि घनी आबादी वाली जगहों पर सिग्नल कमजोर हो जाता है।
उसी तरह वाई मैक्स में भी घनी आबादी वाली जगहों पर सिग्नल कमजोर हो जाता है। दुनिया में वाईमैक्स सेवा मुहैया करवाने वाली कंपनियां अक्सर दावा तो करती है 10मेगाबिट्स प्रति सेकंड के स्पीड की, लेकिन हकीकत में वह दो से तीन मेगाबिट्स से ज्यादा की स्पीड लोगों को मुहैया ही नहीं करवा पाते। भारत जैसे देश में एक और बड़ी दिक्कत है स्पेक्ट्रम की।
देश में अभी हाल ही स्पेक्ट्रम बंटवारो को लेकर काफी हंगामा मचा था। अभी तक उस विवाद का हल नहीं हो पाया है, ऐसी हालत में वाईमैक्स के लिए स्पेक्ट्रम मिलने की उम्मीद काफी कम है।



दुनिया दीवानी
पूरे विश्व में इस वक्त वाईमैक्स की धूम मची हुई है। पूरे अमेरिका में इस लागू करने की तैयारी जोर शोर से चल रही है। वैसे, अभी तक वाईमैक्स का सबसे ज्यादा इस्तेमाल दो एशियाई देश ही कर रहे हैं। वो देश हैं, जापान और दक्षिण कोरिया। जापान में यह सेवा मुहैया करवा रही है केडीडीआई और दक्षिण कोरिया में कोरिया टेलीकॉम। वैसे, ये दोनों नेटवर्क भी पूरे देश में नहीं, बस कुछेक खास-खास इलाकों में ही मौजूद हैं। जापान में केडीडीआई उसे अगले साल से पूरे देश में लागू करेगी।



भारत में भी मची है धूम
अपने वतन में तो वाईमैक्स की खासी धूम मची हुई है। कई कंपनियां या तो वाईमैक्स सेवाएं लॉन्च कर चुकी हैं या फिर करने की जुगत में है। पिछले साल इसे चेन्नई में लॉन्च किया था सिफी ने। अब तो टाटा टेलीसर्विसेज ने अगले साल से इसे देश के 115 शहरों में लॉन्च करने की योजना बनाई है। यह अब तक किसी देश में वाईमैक्स का सबसे बड़ा नेटवर्क होगा।
हाल ही, अनिल अंबानी की रिलांयस कम्यु्निकेशन ने ब्रिटेन की एक वाईमैक्स कंपनी में 90 फीसदी हिस्सेदारी खरीदकर इस क्षेत्र में उतरने की मंशा के बारे में खुले तौर पर इजहार कर दिया है। वैसे, रिलायंस कम्युनिकेशन इस वक्त पुणे और बेंगलुरु में वाईमैक्स की सेवा दे रही है। वहीं, बीएसएनएल ने भी कुछ दिनों पहले इस इलाके में कूदने का इरादा जताया था। सूत्रों की मानें तो एमटीएनएल और भारती ने इस बारे में देखो और इंतजार करो की नीति अपना रखी है।


साभारः बिज़नेस स्टैंडर्ड

मौद्रिक नीति के साथ गूंजेंगे जो शब्द...



सत्येन्द्र प्रताप सिंह
भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति मंगलवार को आने वाली है। इसका सीधा असर बैंकों, आम आदमी और उद्योग जगत पर पड़ता है।
मौद्रिक नीति के तहत रिजर्व बैंक- मुद्रा की आपूर्ति, उसकी उपलब्धता, मुद्रा की कीमत या ब्याज दरें तय करता है। इसका सीधा प्रभाव महंगाई और आर्थिक विकास पर पड़ता है।
विशेषज्ञों की राय है कि महंगाई को नियंत्रित करने के लिए रिजर्व बैंक रेपो रेट में बढ़ोतरी कर सकता है, हालांकि कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि आर्थिक विकास की गति को बनाए रखने के लिए रिजर्व बैंक इसमें कोई बढ़ोतरी नहीं करेगा। मौद्रिक नीति का मुख्य उद्देश्य कीमतों को स्थिर रखना और देश के उत्पादक क्षेत्र को उचित मात्रा में धन मुहैया कराना है।


सीआरआर
कैश रिजर्व रेश्यो या नकद आरक्षित अनुपात बैंकों की जमा पूंजी का वह हिस्सा होता है, जिसे वह भारतीय रिजर्व बैंक के पास जमा करता है। अगर रिजर्व बैंक इसमें बढ़ोतरी करता है तो वाणिज्यिक बैंकों की उपलब्ध पूंजी कम होती है। रिजर्व बैंक उस स्थिति में सीआरआर में बढ़ोतरी करता है, जब बैकों में धन का प्रवाह ज्यादा हो जाता है।
इससे रिजर्व बैंक, बैंकों पर नियंत्रण करता है साथ ही इसके माध्यम से मौद्रिक तरलता पर भी नियंत्रण किया जाता है। मुद्रास्फीति पर इसका सीधा प्रभाव होता है। रिजर्व बैंक के पास सीआरआर के रूप में राशि जमा करना वाणिज्यिक बैंकों के लिए कानूनी रूप से अनिवार्य है।


ब्याज दर और मुद्रास्फीति
इस समय बैंकों के ब्याज दर और मुद्रास्फीति की चर्चा जोरों पर है। जब भी मुद्रास्फीति या महंगाई की दर बढ़ती है, तो रिजर्व बैंक सीआरआर, रेपो रेट में बढ़ोतरी करता है। इसे पूरा करने के लिए वाणिज्यिक बैंकों को ब्याज दरें बढ़ानी पड़ती हैं।


रेपो रेट
रिजर्व बैंक द्वारा वाणिज्यिक बैंकों को छोटी अवधि के लिए दिया जाने वाला कर्ज रेपो रेट कहलाता है। यदि रिजर्व बैंक रेपो रेट में बढ़ोतरी करता है तो इससे वाणिज्यिक बैंकों को अल्पकाल के लिए मिलने वाला कर्ज महंगा हो जाता है। इसकी भरपाई के लिए अमूमन वाणिज्यिक बैंक अपने विभिन्न कर्जों की दरों में बढ़ोतरी करते हैं। वर्तमान में रिजर्व बैंक ने रेपो रेट 7।75 प्रतिशत रखा है।


रिवर्स रेपो रेट
वाणिज्यिक बैंक जिस दर पर रिजर्व बैंक के पास कम अवधि के लिए अपना पैसा जमा करते हैं, उस दर को रिवर्स रेपो रेट कहा जाता है। वर्तमान में रिजर्व बैंक ने रिवर्स रेपो रेट 6।00 प्रतिशत रखा है।


बीपीएलआर
इसे बैंचमार्क प्राइम लेंडिग रेट कहा जाता है। हर वाणिज्यिक बैंक अपना बीपीएलआर तय करता है। उसी के आधार पर बैंकों के होम लोन, पर्सनल लोन समेत बैंकों द्वारा दिए जाने वाले दूसरे तरह के खुदरा कर्जों की दरों का निर्धारण होता है।


एसएलआर
बैंक अपने पास की सरकारी प्रतिभूतियों और कुछ दूसरी तरह की प्रतिभूतियों का एक खास हिस्सा रिजर्व बैंक के पास जमा रखते हैं। इस हिस्से को ही वैधानिक तरलता अनुपात यानी स्टैटयूटरी लिक्विडिटी रेश्यो कहा जाता है। रिजर्व बैंक के पास एसएलआर के रूप में राशि जमा करना बैंकों के लिए कानूनी रूप से अनिवार्य है। वर्तमान में रिजर्व बैंक ने एसएलआर 25 प्रतिशत रखा है।


बैंक रेट
भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा वाणिज्यिक बैंकों को जिस न्यूनतम दर पर कर्ज मुहैया कराया जाता है उसे बैंक रेट कहते हैं। इसे डिस्काउंट रेट भी कहा जाता है। यदि बैंक रेट में इजाफा होता है तो सामान्यतया वाणिज्यिक बैंक अपने कोषों की लागत को दुरुस्त रखने के लिए लेंडिग रेट में इजाफा करते हैं। इससे ब्याज दर बढ़ जाती है, जो ग्राहकों को देना होता है। वर्तमान में रिजर्व बैंक ने बैंक दर 6 प्रतिशत निर्धारित किया है।


साभारः बिज़नेस स्टैंडर्ड

Friday, May 2, 2008

सियासत की बिसात पर निजी आरक्षण का दांव



निजी क्षेत्र की नौकरियों में एससी-एसटी के लिए आरक्षण का मुद्दा राजनीतिक गलियारों में गर्मी पैदा कर सकता है। पर क्या उद्योग जगत आरक्षण के मामले में संजीदा है? पड़ताल कर रहे सीरज कुमार सिंह



केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी कोटे पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर के बाद निजी क्षेत्र की नौकरियों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (एससी एवं एसटी) को आरक्षण दिए जाने का मुद्दा एक दफा फिर से गर्मा सकता है।
ऐसे में दो सवाल ऐसे हैं जिन पर राजनीतिक-आर्थिक गलियारे में तेज बहस छिड़ सकती है। पहला, क्या अब राजनीतिक पार्टियों का अगला एजेंडा निजी क्षेत्र में आरक्षण है? दूसरा, क्या निजी क्षेत्र सही मायने में आरक्षण देने के मूड में है? लिहाजा इन दोनों सवालों की पड़ताल जरूरी है।
कई लोगों को लगता है कि इस बार का आम चुनाव महंगाई के मुद्दे पर लड़ा जाएगा। पर यह बात भी अहम है कि भारत जैसे देश का जनमानस अभी इतना परिपक्व नहीं हुआ है कि वह किसी आर्थिक मुद्दे को मुख्य चुनावी मुद्दे के रूप में स्वीकार करे। दिल्ली जैसे छोटे राज्य में प्याज की कीमतें भले सी सरकार गिरने की जमीन तैयार करती हों, पर राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा होना नामुमकिन-सा लगता है।
चुनाव में महंगाई भी एक मुद्दा हो सकती है, पर एक मात्र मुद्दा नहीं। ऐसे में राजनीतिक पार्टियां निजी क्षेत्र में आरक्षण के मुद्दे को भुनाने की पूरी कोशिश कर सकती हैं। दिलचस्प यह है कि यदि कोई एक पार्टी इसे अपना मुख्य चुनावी मुद्दा बनाती है, तो दूसरी पार्टियां इसका विरोध करने की हिमाकत नहीं कर सकतीं।
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने यूपी सरकार द्वारा आर्थिक मदद पाने वाले संस्थानों में एससीएसटी और आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों के लिए आरक्षण का ऐलान पहले ही कर दिया है। बहुत संभव है कि कांग्रेस पार्टी भी इस मुद्दे को हाथोंहाथ ले। कांग्रेस यह कह सकती है कि केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी को आरक्षण दिलाए जाने की मुहिम के बाद उसका अगला पड़ाव निजी नौकरियों में आरक्षण है।
सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री मीरा कुमार भी आरक्षण की लगातार हिमायत करती रही हैं। वह बार-बार कह चुकी हैं कि कॉरपोरेट जगत स्वैच्छिक आधार पर निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करे। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी उद्योग जगत से यह गुजारिश कर चुके हैं कि वह नौकरियों में वंचितों (खासतौर पर एससीएसटी) को ज्यादा से ज्यादा मौका देने के लिए एच्छिक रूप से कदम उठाए।
रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा समेत यूपीए के कई और घटक तो पहले से ऐसी मांग करते रहे हैं। इधर, बीजेपी भले ही आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाने का पुराना राग अलाप रही हो, पर इतना तो तय है कि यदि निजी क्षेत्र में एससीएसटी को आरक्षण दिए जाने का मुद्दा चुनावी बनता है, तो पार्टी चाहकर भी इसका विरोध नहीं कर पाएगी।
हो सकता है पार्टी को भी इसके सुर में सुर मिलाना पड़े, क्योंकि भारत में (जहां जातिगत आधार पर चुनाव लड़े जाते हैं और दलित वोट बैंक को नाराज करना खतरे से खाली नहीं है) मौजूदा स्थिति में ऐसा करना राजनीतिक लिहाज से सही नहीं माना जाएगा। अब दूसरा सवाल यह कि इस बारे में उद्योग जगत का क्या रुख है? अब तक ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है, जिससे पता चले कि मौजूदा निजी क्षेत्र की नौकरियों में एससीएसटी की संख्या कितनी है।
लिहाजा शुरुआत कहां से की जाए, इस विषय पर ही संशय है। हालांकि उद्योग जगत के नुमाइंदे प्रधानमंत्री को भरोसा दिला चुके हैं कि वे खुद निजी क्षेत्र में वंचितों को ज्यादा मौका दिलाए जाने के लिए एच्छिक रूप से कदम उठाएंगे।
देश के तीन बड़े उद्योग संगठन फिक्की, सीआईआई और एसोचैम प्रधानमंत्री को इस आशय का एक प्रस्ताव सुपुर्द कर चुके हैं कि निजी क्षेत्र में एससीएसटी उम्मीदवारों की मौजूदगी बढ़ाने की दिशा में निजी कंपनियां खुद से पहल करेंगी और इसके लिए किसी तरह का कानून बनाए जाने से बचा जाए। पर सचाई यह है कि उद्योग जगत ने अब तक ऐसा कुछ भी नहीं किया है, जिसे गौरतलब कहा जा सके।
उद्योग मंडल इस बात को लेकर एकमत नहीं है कि कंपनियों में एससीएसटी उम्मीदवारों की गिनती की जाए या नहीं।इंडस्ट्री चैंबर सीआईआई ने तो इस तरह की थोड़ी-बहुत कोशिशें की हैं, पर फिक्की का कहना है कि यदि कंपनियों में एससीएसटी की गिनती शुरू की गई, तो इससे कर्मचारियों में रोष बढ़ेगा। फिक्की के एक अधिकारी ने बताया - 'उद्योग मंडलों से इस तरह के डेटा जुटाए जाने की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए।
एनएसएसओ जैसी सरकारी संस्थाओं को इस तरह की जिम्मेदारी दी जानी चाहिए।' सीआईआई के एक अधिकारी ने बताया कि इंडस्ट्री चेंबर से जुड़ीं 150 कंपनियों ने अपना कर्मचारी डेटा बेस पेश किया है, जिसमें कर्मचारियों की सामाजिक स्थिति (जिसमें जाति का नाम भी शामिल है) का जिक्र है। सीआईआई से 7,000 कंपनियां संबध्द हैं और इनमें से महज 150 कंपनियों की ओर से उठाए गए कदमों से बहुत कुछ नहीं होने वाला।पर क्या सारा मामला एसटीएसटी उम्मीदवारों की गिनती तक ही सीमित है?
कंपनियों ने छोटे स्तर पर कुछ पहलें की हैं। मिसाल के तौर पर, एसोचैम ने 5 करोड़ रुपये की लागत से एक ट्रस्ट बनाया है जो वंचितों के स्किल डिवेलपमेंट, उच्च शिक्षा में वजीफे आदि पर काम कर रहा है। इसी तरह, फिक्की का मानना है कि सबसे पहले एसटीएसटी की शिक्षा और उन्हें रोजगार पाने लायक बनाए जाने पर जोर दिया जाना चाहिए।
इसके लिए इस उद्योग मंडल की ओर से देश में 110 ऐसे जिलों को चुना गया है, जहां एससीएसटी आबादी काफी ज्यादा है। इनमें से 27 जिलों में काम शुरू किया गया है। ज्यादा संजीदगी सीआईआई की ओर से देखने को मिली है, जिसने कई मोर्चों पर काम शुरू किया है। सीआईआई के एक अधिकारी ने बताया - 'हम एससीएसटी कैंडिडेट्स को ट्रेनिंग दे रहे हैं, ताकि वे नौकरी पाने लायक बन सकें।
पिछले साल हमारा लक्ष्य 10,000 लोगों को ट्रेनिंग देने का था, पर हमनें 22,000 कैंडिडेट्स को ट्रेनिंग दी।हमनें एससीएसटी कैंडिडेट्स के लिए 5,000 रुपये प्रति महीने की स्कॉलरशिप का भी प्रावधान किया है, ताकि प्रतिभावान उम्मीदवारों को उच्च शिक्षा में मदद मिल सके।' इसी तरह, एससीएसटी उम्मीदवारों में उद्यमशीलता विकसित किए जाने, कार्यस्थलों पर उनके साथ भेदभाव न किए जाने आदि के लिए भी सीआईआई की ओर से कोशिशें की गई हैं।
सीआईआई ने 'पॉजिटिव डिस्क्रिमिनेशन' का एक कॉन्सेप्ट पेश किया है, जिसके तहत कंपनियों से ताकीद की गई है कि वे ज्यादा से ज्यादा एससीएसटी उम्मीदवारों को नौकरियों पर रखें। पर उद्योग मंडलों की ओर से की जा रही ये कोशिशें नाकाफी हैं।
2001 की जनगणना के मुताबिक, देश में 16।6 करोड़ एससी और 8.4करोड़ एसटी हैं। इनमें से ज्यादातर बेरोजगार हैं या फिर उनका रोजगार वैसा नहीं है, जिसे अच्छा कहा जा सके। लिहाजा उद्योग संगठनों की इन कवायदों को ऊंट के मुंह में जीरा ही कहा जाएगा।


साभारः बिज़नेस स्टैंडर्ड

Thursday, May 1, 2008

फिशिंग से बचके रहना रे बाबा



सत्यव्रत मिश्र


स्विट्जरलैंड में रहने वाले डॉ। वेणुगोपाल अजंता को कुछ दिनों पहले एक ईमेल आया था। इसमें उनसे उस ईमेल दिए लिंक पर जाकर एचडीएफसी बैंक के अपने इंटरनेट आईडी और पासवर्ड को वेरीफाई करने के लिए कहा गया।
डॉ. अजंता ने जब उस लिंक पर क्लिक किया, तो उनकी बैंक की वेबसाइट से मिलती-जुलती एक साइट खुल गई। उन्हें सब कुछ ठीक-ठाक लगा, इसलिए उन्होंने बिना किसी शक के अपनी आईडी और पासवर्ड डाल दिया और भूल गए। लेकिन उनके होश उस वक्त फाख्ता हो गए, जब उनके अकाउंट से रातोंरात 14 लाख रुपये गायब हो गए।
भाई साहब यह कोई कहानी नहीं, बल्कि सच्ची घटना है। इस मामले में मुंबई पुलिस ने एक आदमी को गिरफ्तार किया है और तीन लोगों की तलाश में है। वैसे, डॉ। अजंता जैसे हजारों लोग साइबर स्पेस में हर रोज इस तरह की धोखाधड़ी के शिकार होते हैं। इस हाईटेक धोखाधडी क़ो कंप्यूटर की भाषा में 'फिशिंग' के नाम से जाना जाता है। इसकी वजह से तो पूरे साइबर स्पेस में कोहराम मचा हुआ है। खासतौर पर बैंकों और ई-शॉपिंग वेबसाइटों की तो इसने नींदें उड़ा रखी है।



क्या बला है 'फिशिंग'?
विशेषज्ञों का कहना है कि 'फिशिंग' में सबसे पहले कंप्यूटर हैकर अपने 'शिकार' के पास एक ईमेल भेजते हैं, जो दिखने में हूबहू बैंक के नोटिस की तरह लगता है। इस ईमेल में आपसे आपकी बैंक अकाउंट के बारे में अहम जानकारियां, जैसे बैंक अकाउंट नंबर, क्रेडिट कार्ड नंबर, इंटरनेट आईडी और पासवर्ड की मांग की जाती है।
कुछ ईमेलों में तो आपको एक लिंक भी रहता है, जिसका ऐड्रैस आपके बैंक के वेबसाइट की ऐड्रैस से मिलता-जुलता होगा। अगर जैसे ही लिंक पर क्लिक करेंगे तो आपके बैंक की वेबसाइट से मिलती-जुलती एक वेबसाइट आपके सामने होगी। इसमें आपको जो भी जानकारी डालेंगे, वो असल में आपका खाता खाली करने की जुगत में लगे इंटरनेट चोरों के पास पहुंच जाएगी। फिर वे जब चाहे और जितना चाहे आपके अकाउंट को खाली कर देंगे।
वैसे, यही इकलौता तरीका नहीं है, जिसके जरिये वह लोगों को बेवकूफ बनाते हैं। कई बार तो वह ईमेल में एक फोन नंबर देकर लोगों को अपना पिन नंबर वेरीफाई करते हैं। जब लोग-बाग उस नंबर पर फोन करते हैं, तो उनसे पिन नंबर डालने के लिए कहा जाता है। एक बार आपने अपना पिन नंबर डाल दिया तो फिर वे आपके अकाउंट को खाली करने के लिए करने में उसका बखूबी इस्तेमाल करते हैं।



कैसे हुई थी शुरुआत
इलेक्ट्रोनिक धोखेधड़ी या 'फिशिंग' की शुरुआत तो 1987 में हो गई थी। वैसे, पहली बार इलेक्ट्रोनिक धोखेधड़ी के लिए इस शब्द का इस्तेमाल किया था अमेरिका में हैकरों की एक मैगजीन में। 1990 के दशक के शुरुआती सालों में इसका इस्तेमाल होता था एओएल पर ईमेल अकाउंट बनाने के लिए।
उस समय ईमेल अकाउंट बनाने के लिए लोगों को पैसे चुकाने पड़ते थे। जब हैकरों ने यह देखा कि इस तरीके से लोगों को बेवकूफ बनाना काफी आसान होता है, तो उन्होंने इसका इस्तेमाल बैंकों से सीधे पैसे निकालने में भी शुरू कर दिया। अमेरिका में तो हर साल 'फिशिंग' की वजह से लोगों को करीब दो अरब डॉलर (8000 करोड़ रुपये) का चूना लगता है।
सिर्फ 2007 में अमेरिकी व्यस्कों के कम से कम 3।2 अरब डॉलर (12,480 करोड़ रुपये) हैकरों ने चुरा लिये। ब्रिटेन में भी इसका कहर खूब बरपा है। वहां 2005 में 'फीशिंग' ने 2.32 करोड़ पॉउन्ड (185.6 करोड़ रुपये) गायब कर लिये। अपने देश में भी इसका कहर खूब बरपा है।



हम भी हैं परेशान
हाल ही में, एंटी वायरस बनाने वाली इंटरनेट सिक्योरिटी फर्म, सिमेंटक ने एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसके मुताबिक भारत के लोग भी तेजी से 'फीशिंग' के शिकार बन रहे हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक 'फीशिंग' के सबसे ज्यादा शिकार होते हैं देश की वित्तीय राजधानी मुंबई के लोग-बाग। इस साल जितने भी 'फीशिंग वेबसाइट' सामने आए हैं, उसमें से 38 फीसदी मायानगरी से ही ताल्लुक रखते हैं।
दूसरे नंबर पर है दिल्ली, जहां कुल मिलाकर 29 फीसदी 'फीशिंग वेबसाइट' पकड़े गए हैं। वैसे, इस मामले में भोपाल, सूरत, पुणे और नोएडा भी इस मामले में ज्यादा पीछे नहीं हैं। इन शहरों से चलने वाले कई 'फीशिंग वेबसाइट' भी पकड़े गए हैं। इसी कंपनी की एक दूसरी रिपोर्ट की मानें तो सबसे ज्यादा 'फीशिंग' वेबसाइट वाले देशों की सूची में भारत का स्थान 14वां है।
सीआईआई के खुर्शीद डार का कहना है कि, 'पिछले साल तो अपने देश में कुल मिलाकर 392 फिशिंग के मामले सामने आए। इसमें से 24 फीसदी मामले में तो वित्तीय संस्थानों पर सीधा हमला किया गया था। हम इस बारे में एक मई से एक कार्यक्रम शुरू करने वाले हैं, जिसके तहत लोगों को फिशिंग के खतरों के बारे में बताया जाएगा।'



बैंक हैं चुस्त
भारत में इस बैंकों ने भी इस मामले में अपनी कमर कस ली है। आईसीआईसीआई बैंक का कहना है कि, 'हमने अपने उपभोक्ताओं को इस जंजाल से बचाने के लिए अपनी वेबसाइट पर सारी जानकारी डाल दी है। हमारा कोई अधिकारी कभी भी अपने उपभोक्ताओं को फोन करके उनसे उनके पर्सनल डिटेल नहीं मांगता। अगर हमारे उपभोक्ता ऐसे किसी ऐसी वेबसाइट के बारे में बताता है, तो हम तुरंत ही उन्हें ब्लॉक करवा देते हैं।
हमारा आईटी डिपार्टमेंट इस मामले में काफी चुस्त है।' वैसे, बैंक ने यह बताने से साफ इनकार कर दिया कि अब तक उनके कितने कस्टमर इसके शिकार हुए हैं। दूसरी तरफ, पंजाब नैशनल बैंक के जनरल मैनेजर (आईटी) आर. आई. एस. सिद्दू ने बताया कि, 'हमने अपनी वेबसाइट पर एक डू'ज एंड डोंट्स का कॉलम डाल रखा है। इसके जरिये हम अपने ग्राहकों को इस मामले में अप टू डेट रखते हैं।
साथ ही, हम उन्हें समय समय पर टिप्स भी देते रहते हैं, ताकि वे 'फिशिंग' के शिकार न बन पाएं।' वैसे, विशेषज्ञों का कहना है कि ज्यादातर बैंक तो इस मामले को काफी चुस्त रहते हैं। असल दिक्कत तो ग्राहकों की तरफ से होती है। उनके मुताबिक अब भी कई ग्राहक न्यूमतम सुरक्षा मानकों को भी नहीं अपनाते।



कैसे हो बचाव
इस बारे में विशेषज्ञों का केवल इतना ही कहना है कि सावधान रहें। सिद्दू ने बताया कि, 'इससे केवल सावधान रहकर और अपनी आंखें खोलकर ही लड़ा जा सकता है। हैकर हम लोगों से हमेशा एक कदम आगे की सोचते हैं, इसलिए लोगों को काफी सावधान रहने की जरूरत है।
सबसे बड़ी बात यह है कि देश का कोई भी वित्तीय संस्थान कभी भी लोगों से उनके पासवर्ड या पिन की मांग नहीं करता। इसलिए कभी भी ऐसे ईमेल का जवाब नहीं दें और उसके बारे में अपने बैंक को बताएं। कभी भी अपनी आईडी, पासवर्ड या पिन को कहीं लिखकर न रखें। कोशिश करें, उन्हें याद रखने की।'



साभारः बिज़नेस स्टैंडर्ड

प्रमुख जिंसों के आधार पर बनता है थोक मूल्य सूचकांक




सत्येन्द्र प्रताप सिंह और कुमार नरोत्तम


थोक मूल्य सूचकांक सरकार की नीतियों को प्रभावित करता है। पिछले कुछ महीनों से यह सूचकांक बता रहा था कि महंगाई दर बढ़ रही है।
सरकार पर दबाव बढ़ा, आयात और निर्यात नीतियां बदलीं। इसके साथ ही रिजर्व बैंक ने भी कड़े कदम उठाए। कैश रिजर्व रेश्यो बढ़ा दिया गया। यानी कि आपसे अब बैंक अधिक ब्याज लेंगे। बाजार में धन का प्रवाह कम होगा, लोगों की खरीद शक्ति कम होगी और परोक्ष रूप से महंगाई पर लगाम लगेगी।
इस समय प्रोफेसर एसआर हाशिम की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट के आधार पर तैयार किया गया थोक मूल्य सूचकांक लागू है, जिसका आधार वर्ष 1993-94 है। इस सूचकांक में कुल 435 वस्तुएं शामिल किए गए हैं, जिनके लिए कीमतों के नमूने देश के 1918 स्थानों से लिए जाते हैं।



उत्पादक मूल्य
उत्पादक मूल्य के तहत सभी प्रकार के करों और आवागमन के शुल्कों को शामिल किया जाता है। उत्पादक मूल्य के अंतर्गत उस राशि को शामिल किया जाता है जो किसी सामान या सेवा की किसी एक इकाई के लिए क्रेता, उत्पादक को भुगतान करता है।
इसमें विक्रेता के द्वारा भुगतान की जाने वाली वैट और अन्य करों को हटा दिया जाता है। इसमें उत्पादकों के द्वारा दी जाने वाली कोई भी आवागमन शुल्क को भी घटा दिया जाता है। हालांकि उत्पादक मूल्य के तहत खुदरा या थोक मूल्य को शामिल किया जाता है।



आधार वर्ष का विकल्प
आधार वर्ष के चयन का जाना माना तीन तरीका उपलब्ध है। पहला, एक सामान्य वर्ष यानी वह वर्ष जिसमें उत्पादन के स्तरों पर व्यापार और मूल्यों के संदर्भ में किसी तरह की कोई अनियमितता नही हुई हो। दूसरा, वह वर्ष जिसमें उत्पादन, मूल्य और अन्य गतिविधियों से जरूरी आंकड़े उपलब्ध हों।
तीसरा, राष्ट्रीय और राज्य स्तरों पर आंकड़े एकत्र करने का कोई ताजातरीन वर्ष। राष्ट्रीय सांख्यिकीय आयोग ने इस बात की अनुशंसा की है कि इस आधार वर्ष की समीझा पांच वर्ष में एक बार होनी चाहिए, दस वर्ष की अवधि के बाद इस समीझा का कोई महत्व नही है।



सामग्रियों, किस्मों, ग्रेड्स तथा बाजार का चयन
किसी आधार वर्ष के अंतर्गत ऐसी हर सामग्री जिसका लेनदेन काफी महत्वपूर्ण है, को इस सूचकांक की श्रेणी में शामिल किया जाना चाहिए। इस संबंध में एक बात महत्वपूर्ण है कि ये सामग्रियां अर्थव्यवस्था को काफी प्रभावित कर रही हो। मुक्त अर्थव्यवस्था में किसी किस्म या सामग्री की महत्ता इस बात को लेकर है कि कथित आधार वर्ष में उसका व्यापार मूल्य कितना अधिक रहा।
थोक स्तरों पर सामानों और सेवाओं का लेनदेन भी शामिल किया जाता है। थोक मूल्य सूचकांक के अंतर्गत मुख्यत: सामानों को ही शामिल किया जाता है और इसमें सेवाओं को उतनी महत्ता के साथ शामिल नही किया जाता है। अगर व्यापार कीमत के आंकड़े के लिए कोई एक स्रोत उपलब्ध नही हो तो इसमें शामिल किए गए कृषि और गैर-कृषि जिंसों की चयन प्रक्रिया में भिन्नता आ जाती है।



कृषि जिंसों का चयन
वैसे कृषि जिंसों के चयन के अंतर्गत नए प्रकार की सामग्रियों की संभावना बहुत कम दीखती है लेकिन फिर भी इस श्रेणी में अगर कोई सामग्री थोक मूल्य बाजार में तेजी से उभर कर सामने आती है तो इसे शामिल किया जा सकता है। अगर किसी सामग्री के महत्व में गिरावट आती है तो इसे अगली समीक्षा के अंतर्गत शामिल नही किया जा सकता है। वैसे इस श्रेणी में किसी सामग्री के शामिल या नही शामिल किए जाने का मुद्दा विभिन्न विभागों की स्वीकृति पर निर्भर करता है।
वर्तमान की थोक मूल्य सूचकांक श्रेणी की बात करें तो उनमें सामग्रियों की विशिष्टता और बाजार का निर्धारण राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड, मसाला बोर्ड, चाय बोर्ड, कॉफी बोर्ड, रबर बोर्ड , सिल्क बोर्ड, तंबाकू निदेशालय, भारतीय सूती निगम आदि करता है।



खदान सामग्री
किसी भी खदान सामग्री को शामिल किया जाए या नही इस संबंध में भारतीय खदान ब्यूरो के सुझावों को महत्व दिया जाता है। कोयला, कोक और आग्नेय चट्टानों की विशिष्टता के लिए कोयला विभाग से संपर्क स्थापित किया जाता है। इसी तरह अगर पेट्रोलियम और बिजली की सामग्री का चयन करना हो तो इसके लिए क्रमश: पेट्रोलियम और केंद्रीय बिजली प्राधिकरण से सुझाव लिए जाते हैं।



निर्मित उत्पाद
निर्मित उत्पादों के तहत सामग्रियों का चयन अन्य चयन की अपेक्षा सबसे ज्यादा मुश्किल भरा होता है। इस चयन प्रक्रिया में समय भी काफी लगता है। इसे हम अलग अलग श्रेणी में बांटकर समझ सकते हैं-



(क) संगठित निर्मित उत्पाद
फैक्ट्री समेत उद्योग जगत के वार्षिक सर्वे से उत्पादों के मूल्य के जो आंकड़े मिलते हैं उसी के आधार पर निर्मित उत्पादों के सूचकांक बनाए जाते हैं। इसके अंतर्गत सामग्रियों के चयन का एक मानक यह है कि निर्धारित आधार वर्ष में उस सामग्री की कट ऑफ कीमत क्या रही।
इस श्रेणी में सबसे ज्यादा मुश्किल टेक्सटाइल सामग्री को शामिल करते वक्त होती है। वैसे टेक्सटाइल सामग्री का चयन टेक्सटाइल आयुक्त के सुझाव पर निर्भर करता है। इस श्रेणी में कभी कभी ऐसे भी सामानों को शामिल नही किया जाता है जिसने कट ऑफ मूल्य की सीमा पार कर ली है।



(ख) असंगठित निर्मित उत्पाद
इस श्रेणी में हैंडलूम, रेशम उत्पाद, नारियल की जटाएं, खादी और ग्रामीण उद्योगों के उत्पाद शामिल किए जाते हैं। आधुनिक श्रेणी में छोटे उद्योगों के उत्पाद सहित पावर लूम को भी इसमें शामिल किया जाता है।


साभारः बिजनेस स्टैंडर्ड-हिंदी