Wednesday, May 14, 2008

किसानों के दर्द का इलहाम है किसे..



श्रीलता मेनन


महंगाई के आंकड़े अखबारों और टेलिविजन चैनलों की सुर्खियां बनते जा रहे हैं। बढ़ती महंगाई से किसान परिवारों के चेहरों पर रौनक होनी चाहिए, क्योंकि बढ़ती मंहगाई से उन्हें भी अपनी फसल के लिए ऊंची कीमत मिलेगी।
उन्हें इस बात की खुशी होनी चाहिए कि जो अनाज वे उगा रहे हैं, उनके लिए उन्हें बढ़ी हुई दर पर पैसे दिए जाएंगे। पर हकीकत क्या ऐसी ही है, जैसा हम सोच रहे हैं। इस बात की सच्चाई का पता लगाने के लिए बिजनेस स्टैंडर्ड के संवाददाता देश के विभिन्न हिस्सों में गांवों में गए और किसानों से बात की।
जिंस उत्पादों की कीमतों में भले ही तेजी देखने को मिल रही हो, लेकिन इन्हें अपने खेतों में उगाने वाले किसानों को इसका सीधा फायदा नहीं मिल पा रहा है। बाजार में इनकी कीमतें भले ही कितनी भी भाग रही हों, पर किसानों को इन फसलों के एवज में अधिक पैसा नहीं दिया जा रहा है। उदाहरण के लिए दाल जैसे जिंस उत्पादों का आयात रोक दिए जाने के बावजूद इसकी पैदावार के लिए उन्हें बढ़ी दर पर भुगतान नहीं किया जा रहा है।
अगर वर्तमान परिस्थिति को देखें तो कहना गलत नहीं होगा कि महंगाई को रोकने के लिए जो भी कदम उठाए जा रहे हैं, उनसे किसानों को फायदा मिलने के बजाय उनका नुकसान ही हुआ है। इससे एक सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या सरकार को केवल उपभोक्ताओं की फिक्र है। क्या सरकार को किसानों की चिंता नहीं सता रही। पर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि महंगाई हो या नहीं हो, किसानों के लिए हालात बहुत बदलने की संभावनाएं नहीं दिखती हैं।
किसानों से धान जिस दर पर खरीदा जाता है, वह लगभग उतनी ही होती है जिस दर पर गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों के लिए चावल मिलता है, यानी 6.50 रुपये। तो ऐसे में वह धान की खेती क्यों करे?
दिल्ली की सड़कों पर रिक्शा चलाने वाले बिहार के बेगूसराय जिले के किसान रूप सिंह कहते हैं: मैं एक एकड़ जमीन पर जो गेहूं उगाता हूं, उसके लिए मुझे प्रति किलो 12 रुपये मिलते हैं। वहीं मुझे 14 रुपये में यहां एक किलो आटा मिल जाता है तो मैं खेती क्यों करूं? यही वजह है कि पैदावार खेती के मौसम में भी रूप सिंह और उनके गांव के कुछ और किसान दिल्ली की सड़कों पर रिक्शा चलाना ही बेहतर समझते हैं।
सरकार ने अधिकतर अनाजों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय कर रखा है। पर दालों और तिलहन की सरकारी खरीद के लिए कोई इंतजाम नहीं है। साथ ही धान की सरकारी खरीद केवल पंजाब और हरियाणा में की जाती है। इसके अलावा यह बात भी खास ध्यान देने योग्य है कि गेहूं (प्रति क्विंटल 1,000 रुपये) को छोड़कर अधिकांश अनाज के लिए एमएसपी इतना कम है कि, इससे बेहतर है कि इन अनाजों के लिए सरकारी खरीद हो ही नहीं।
अब एक सवाल जो जेहन में उठता है वह यह है कि आखिर एमएसपी को इतना कम क्यों रखा गया है। धान जैसी कुछ फसलों के लिए तो पिछले दस सालों में एमएसपी में कुछ ही रुपयों से अधिक की बढ़ोतरी नहीं की गई है। जब सरकार किसानों पर ऋण माफी की घोषणा करती है तो देश में इसे लेकर हो हल्ला मचाया जाता है, पर क्या हमने कभी यह सोचा है कि कृषि को मुनाफे का सौदा बनाने की कोशिश क्यों नहीं की जाती है। किसानों को आखिर इन हालात तक पहुंचने ही क्यों दिया जाता है।
कृषि मंत्रालय के अंतर्गत कृषि लागत एवं कीमत आयोग ने उस समय एक क्रांतिकारी कदम उठाया था जब उसने अपनी नई रिपोर्ट में यह सुझाव पेश किया था कि विभिन्न जिंस उत्पादों के लिए एमएसपी में 50 फीसदी तक की बढ़ोतरी की जानी चाहिए। हालांकि इसकी एक वजह यह भी थी कि आयोग के अध्यक्ष टी हेक सेवानिवृत्त होने वाले थे और वह पद छोड़ने के पहले कोई साहसिक कदम उठाना चाहते थे।
सरकार ने भले ही आयोग के सुझाव को मानते हुए गेहूं के एमएसपी को प्रति क्विंटल 650 रुपये से बढ़ाकर 1000 रुपये करने का निर्णय कर लिया, पर शेष सुझावों के लिए कैबिनेट की मंजूरी मिलनी बाकी है। इन सुझावों में धान के एमएसपी को 650 रुपये से बढ़ाकर 1,000 रुपये और दालों के एमएसपी को 1,500 रुपये से बढ़ाकर 2,400 रुपये करना शामिल है।
चाहे जो भी हो पर आत्महत्या कर रहे किसानों और जिंस उत्पादों के बढ़ते मूल्य के बावजूद पिछली सरकारों को यह समझ में नहीं आया कि उन्हें एमएसपी को बढ़ाना चाहिए। कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन कहते हैं, 'किसान हमारे सबसे बड़े उपभोक्ता हैं। अगर उन्हें चुकाई जाने वाली कीमतें सुधर जाती हैं तो बाकी सब कुछ खुद-ब-खुद ठीक हो जाएगा।'
देश में कृषि के बिगड़ते हालात को देखते हुए ही आने वाली पीढ़ी भी इसे रोजगार के अवसर के तौर पर नहीं देख रही है। हरियाणा के झार जिले में ऐसे बच्चे जो कंप्यूटर का पहला अध्याय पढ़ रहे हैं, कहते हैं कि उन्हें अपने अभिभावक के खेतों पर खेती करने का मन नहीं है। 14 साल के एक किशोर को यह कहने में कोई झिझक नहीं होती कि खेती से कोई कमाई नहीं हो सकती। वह कहता है कि यह आय का जरिया नहीं हो सकता है।
उसने कहा कि खेती में इतना खर्च हो जाता है कि वापस मिलने वाली रकम से कोई मुनाफा नहीं हो पाता। पर फिर यही बच्चे यह भी कहते हैं कि गेहूं पर एमएसपी को बढ़ाकर 1,500 रुपये कर दिया जाता है तो उन्हें खेती से कोई गुरेज नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो किसानों को दान (कर्जमाफी) नहीं चाहिए, बस हालात को सुधार कर ऐसा बना दिया जाए कि उन्हें खेती से मुनाफा होने लगे।


साभारः बिजनेस स्टैंडर्ड

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