निजी क्षेत्र की नौकरियों में एससी-एसटी के लिए आरक्षण का मुद्दा राजनीतिक गलियारों में गर्मी पैदा कर सकता है। पर क्या उद्योग जगत आरक्षण के मामले में संजीदा है? पड़ताल कर रहे सीरज कुमार सिंह
केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी कोटे पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर के बाद निजी क्षेत्र की नौकरियों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (एससी एवं एसटी) को आरक्षण दिए जाने का मुद्दा एक दफा फिर से गर्मा सकता है।
ऐसे में दो सवाल ऐसे हैं जिन पर राजनीतिक-आर्थिक गलियारे में तेज बहस छिड़ सकती है। पहला, क्या अब राजनीतिक पार्टियों का अगला एजेंडा निजी क्षेत्र में आरक्षण है? दूसरा, क्या निजी क्षेत्र सही मायने में आरक्षण देने के मूड में है? लिहाजा इन दोनों सवालों की पड़ताल जरूरी है।
कई लोगों को लगता है कि इस बार का आम चुनाव महंगाई के मुद्दे पर लड़ा जाएगा। पर यह बात भी अहम है कि भारत जैसे देश का जनमानस अभी इतना परिपक्व नहीं हुआ है कि वह किसी आर्थिक मुद्दे को मुख्य चुनावी मुद्दे के रूप में स्वीकार करे। दिल्ली जैसे छोटे राज्य में प्याज की कीमतें भले सी सरकार गिरने की जमीन तैयार करती हों, पर राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा होना नामुमकिन-सा लगता है।
चुनाव में महंगाई भी एक मुद्दा हो सकती है, पर एक मात्र मुद्दा नहीं। ऐसे में राजनीतिक पार्टियां निजी क्षेत्र में आरक्षण के मुद्दे को भुनाने की पूरी कोशिश कर सकती हैं। दिलचस्प यह है कि यदि कोई एक पार्टी इसे अपना मुख्य चुनावी मुद्दा बनाती है, तो दूसरी पार्टियां इसका विरोध करने की हिमाकत नहीं कर सकतीं।
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने यूपी सरकार द्वारा आर्थिक मदद पाने वाले संस्थानों में एससीएसटी और आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों के लिए आरक्षण का ऐलान पहले ही कर दिया है। बहुत संभव है कि कांग्रेस पार्टी भी इस मुद्दे को हाथोंहाथ ले। कांग्रेस यह कह सकती है कि केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी को आरक्षण दिलाए जाने की मुहिम के बाद उसका अगला पड़ाव निजी नौकरियों में आरक्षण है।
सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री मीरा कुमार भी आरक्षण की लगातार हिमायत करती रही हैं। वह बार-बार कह चुकी हैं कि कॉरपोरेट जगत स्वैच्छिक आधार पर निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करे। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी उद्योग जगत से यह गुजारिश कर चुके हैं कि वह नौकरियों में वंचितों (खासतौर पर एससीएसटी) को ज्यादा से ज्यादा मौका देने के लिए एच्छिक रूप से कदम उठाए।
रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा समेत यूपीए के कई और घटक तो पहले से ऐसी मांग करते रहे हैं। इधर, बीजेपी भले ही आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाने का पुराना राग अलाप रही हो, पर इतना तो तय है कि यदि निजी क्षेत्र में एससीएसटी को आरक्षण दिए जाने का मुद्दा चुनावी बनता है, तो पार्टी चाहकर भी इसका विरोध नहीं कर पाएगी।
हो सकता है पार्टी को भी इसके सुर में सुर मिलाना पड़े, क्योंकि भारत में (जहां जातिगत आधार पर चुनाव लड़े जाते हैं और दलित वोट बैंक को नाराज करना खतरे से खाली नहीं है) मौजूदा स्थिति में ऐसा करना राजनीतिक लिहाज से सही नहीं माना जाएगा। अब दूसरा सवाल यह कि इस बारे में उद्योग जगत का क्या रुख है? अब तक ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है, जिससे पता चले कि मौजूदा निजी क्षेत्र की नौकरियों में एससीएसटी की संख्या कितनी है।
लिहाजा शुरुआत कहां से की जाए, इस विषय पर ही संशय है। हालांकि उद्योग जगत के नुमाइंदे प्रधानमंत्री को भरोसा दिला चुके हैं कि वे खुद निजी क्षेत्र में वंचितों को ज्यादा मौका दिलाए जाने के लिए एच्छिक रूप से कदम उठाएंगे।
देश के तीन बड़े उद्योग संगठन फिक्की, सीआईआई और एसोचैम प्रधानमंत्री को इस आशय का एक प्रस्ताव सुपुर्द कर चुके हैं कि निजी क्षेत्र में एससीएसटी उम्मीदवारों की मौजूदगी बढ़ाने की दिशा में निजी कंपनियां खुद से पहल करेंगी और इसके लिए किसी तरह का कानून बनाए जाने से बचा जाए। पर सचाई यह है कि उद्योग जगत ने अब तक ऐसा कुछ भी नहीं किया है, जिसे गौरतलब कहा जा सके।
उद्योग मंडल इस बात को लेकर एकमत नहीं है कि कंपनियों में एससीएसटी उम्मीदवारों की गिनती की जाए या नहीं।इंडस्ट्री चैंबर सीआईआई ने तो इस तरह की थोड़ी-बहुत कोशिशें की हैं, पर फिक्की का कहना है कि यदि कंपनियों में एससीएसटी की गिनती शुरू की गई, तो इससे कर्मचारियों में रोष बढ़ेगा। फिक्की के एक अधिकारी ने बताया - 'उद्योग मंडलों से इस तरह के डेटा जुटाए जाने की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए।
एनएसएसओ जैसी सरकारी संस्थाओं को इस तरह की जिम्मेदारी दी जानी चाहिए।' सीआईआई के एक अधिकारी ने बताया कि इंडस्ट्री चेंबर से जुड़ीं 150 कंपनियों ने अपना कर्मचारी डेटा बेस पेश किया है, जिसमें कर्मचारियों की सामाजिक स्थिति (जिसमें जाति का नाम भी शामिल है) का जिक्र है। सीआईआई से 7,000 कंपनियां संबध्द हैं और इनमें से महज 150 कंपनियों की ओर से उठाए गए कदमों से बहुत कुछ नहीं होने वाला।पर क्या सारा मामला एसटीएसटी उम्मीदवारों की गिनती तक ही सीमित है?
कंपनियों ने छोटे स्तर पर कुछ पहलें की हैं। मिसाल के तौर पर, एसोचैम ने 5 करोड़ रुपये की लागत से एक ट्रस्ट बनाया है जो वंचितों के स्किल डिवेलपमेंट, उच्च शिक्षा में वजीफे आदि पर काम कर रहा है। इसी तरह, फिक्की का मानना है कि सबसे पहले एसटीएसटी की शिक्षा और उन्हें रोजगार पाने लायक बनाए जाने पर जोर दिया जाना चाहिए।
इसके लिए इस उद्योग मंडल की ओर से देश में 110 ऐसे जिलों को चुना गया है, जहां एससीएसटी आबादी काफी ज्यादा है। इनमें से 27 जिलों में काम शुरू किया गया है। ज्यादा संजीदगी सीआईआई की ओर से देखने को मिली है, जिसने कई मोर्चों पर काम शुरू किया है। सीआईआई के एक अधिकारी ने बताया - 'हम एससीएसटी कैंडिडेट्स को ट्रेनिंग दे रहे हैं, ताकि वे नौकरी पाने लायक बन सकें।
पिछले साल हमारा लक्ष्य 10,000 लोगों को ट्रेनिंग देने का था, पर हमनें 22,000 कैंडिडेट्स को ट्रेनिंग दी।हमनें एससीएसटी कैंडिडेट्स के लिए 5,000 रुपये प्रति महीने की स्कॉलरशिप का भी प्रावधान किया है, ताकि प्रतिभावान उम्मीदवारों को उच्च शिक्षा में मदद मिल सके।' इसी तरह, एससीएसटी उम्मीदवारों में उद्यमशीलता विकसित किए जाने, कार्यस्थलों पर उनके साथ भेदभाव न किए जाने आदि के लिए भी सीआईआई की ओर से कोशिशें की गई हैं।
सीआईआई ने 'पॉजिटिव डिस्क्रिमिनेशन' का एक कॉन्सेप्ट पेश किया है, जिसके तहत कंपनियों से ताकीद की गई है कि वे ज्यादा से ज्यादा एससीएसटी उम्मीदवारों को नौकरियों पर रखें। पर उद्योग मंडलों की ओर से की जा रही ये कोशिशें नाकाफी हैं।
2001 की जनगणना के मुताबिक, देश में 16।6 करोड़ एससी और 8.4करोड़ एसटी हैं। इनमें से ज्यादातर बेरोजगार हैं या फिर उनका रोजगार वैसा नहीं है, जिसे अच्छा कहा जा सके। लिहाजा उद्योग संगठनों की इन कवायदों को ऊंट के मुंह में जीरा ही कहा जाएगा।
साभारः बिज़नेस स्टैंडर्ड
1 comment:
achha hai. reservation ko lekar organisations ki dubidha samajh me aati hai.
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