श्यामल मजूमदार
स्मिता राजन (बदला हुआ नाम) ने मुंबई के किसी साधारण बिजनेस स्कूल से एमबीए की डिग्री हासिल की है।
जब उन्हें भारत के एक नामीगिरामी बैंक के मार्केटिंग डिपार्टमेंट से नौकरी का ऑफर आया, तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। शुरूआत करने के लिहाज से वेतन भी ठीकठाक था और साथ ही बेहतर करियर की संभावना भी नजर आ रही थी।
एक साल बाद स्मिता के पापा को पांच लाख के लोन का जुगाड़ करना पड़ा। यह राशि स्मिता के बैंक को अदा करना थी। दरअसअल बैंक के साथ स्मिता के करार के मुताबिक, अगर दो साल से पहले वह नौकरी छोड़ती है तो उसे पांच लाख रुपये बैंक को देने होंगे। हालांकि स्मिता के पापा का कहना है कि अपनी बेटी की प्रताड़ना को देखने के बजाय वह इससे भी ज्यादा लोन का भार सहना करना पसंद करते।
आइए अब स्मिता की आपबाती के बारे में जानते हैं। 24 साल की इस लड़की को दफ्तर में सुबह 9 बजे से रात 10 बजे तक गुजारना पड़ता था। यही नहीं खाता खुलवाने के लिए उन्हें लोगों को प्रेरित करने के लिए हर घर का दरवाजा खटखटाना पड़ता था। टार्गेट नहीं पूरा होने के मद्देनजर 3 महीने उनके वेतन में शामिल वैरिएबल की राशि में से 8500 रुपये काट लिए गए।
स्मिता के पिता के मुताबिक, इस काम के लिए एमबीए को बहाल करने की कोई जरूरत नहीं है। उनकी बेटी पूरी तरह टूट चुकी है और बैंक ने स्मिता का आत्मविश्वास खत्म कर दिया है। आलम यह है कि बैंक ने टेलर मशीनों की देखरेख के लिए भी एमबीए डिग्री प्राप्त लोगों की भर्ती कर रखी है।
इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि स्मिता इस मामले में अकेली नहीं है। भारत में रोजगार के अंबार का ढिंढोरा पीटे जाने के बीच कई ऐसे उदाहरण मौजूद हैं। इसी तरह देवाशीष भौमिक (बदला हुआ नाम) ने कोलकाता के किसी प्राइवेट संस्थान से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की है। वह किसी विंडमिल कंपनी में नौकरी करने नवी मुंबई पहुंचे। इस कंपनी का मुख्यालय यूरोप में है। इस कंपनी में भौमिक का जॉब प्रोफाइल सिक्युरिटी गार्ड से थोड़ा ही बेहतर था।
हालांकि वह खुशकिस्मत रहे और उन्हें चार महीने के भीतर दूसरी नौकरी मिल गई। उन्होंने बताया कि पिछली कंपनी के उनके बॉस ने उन्हें कंपनी के गोदामों में सिक्युरिटी सिस्टम पर प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार करने को कहा था। दरअसल कंपनी को आशंका थी कि उसके गोदामों में छिटपुट चोरी का सिलसिला काफी तेज है। इसके तहत इस इंजीनियरिंग ग्रैजुएट को गोदाम सिस्टम की गड़बड़ियों का पता लगाने के लिए सिक्युरिटी ऑफिस में बैठने का निर्देश दिया गया।
इस काम के दौरान भौमिक ने पाया कि लंच के दौरान जब सिक्युरिटी गार्ड खाना लाने के लिए कैंटीन जाता है, तो गोदाम की देखभाल करने वाला कोई नहीं होता। भौमिक की इस राय से प्रभावित हो होकर उनके बॉस ने उन्हें यह पता लगाने का निर्देश दिया कि ऐसा चाय या डिनर के दौरान हो रहा है या फिर सिक्युरिटी गार्ड्स हमेशा गेट को छोड़कर टॉयलेट जाते रहते हैं।
भौमिक ने अपने इस्तीफा पत्र में लिखा कि मैंने लोगों की चाय और टॉयलेट की आदतों पर गौर करने के लिए इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल नहीं की है। अब हम एक फर्स्ट क्लास से पास बी. कॉम. ग्रैजुएट की बात करते हैं। यह जनाब बीपीओ में बतौर सर्विस ऑफिसर काम करते हैं। उनका ऑफिस शाम 4 बजे से शुरू होता है और रात को 2 बजे डयूटी खत्म होती है।
अत्याधिक काम के बोझ और अनियमित रूटीन की वजह से अक्सर उन्हें स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से जूझना पड़ रहा है। सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि कंपनी ने उन्हें अमेरिकी एक्सेंट में अंग्रेजी बोलना सीखने के लिए जीभ के नीचे मार्बल रखकर अंग्रेजी बोलने का अभ्यास करने को कहा है। कंपनी में नौकरी छोड़कर जाने वालों की तादाद (30 से 40 फीसदी) काफी ज्यादा है।
इसके बावजूद कंपनी को इसकी कोई चिंता नहीं है, क्योंकि अंग्रेजी बोलने वाले ग्रैजुएट्स की भरमार होने के कारण उसे कभी भी कर्मचारियों की किल्लत का सामना नहीं करना पड़ता। 12 हजार रुपये प्रति महीना पर काम करने के लिए ऐसे ग्रैजुएट्स की कतार लगी होती है। फर्स्ट क्लास से पास करने वाले ग्रैजुएट्स और अपेक्षाकृत कम नामीगिरामी संस्थानों से इंजीनियरिंग या एमबीए की डिग्री लेने वालों से बात करने पर एक आम बात उभर कर सामने आती है।
वह यह कि कंपनियां इंसेंटिव का लालच देकर लोगों को ऐसा बिजनेस लक्ष्य देती हैं, जिन्हें हासिल करना मुमकिन नहीं होता। साथ ही जॉब प्रोफाइल भी ठीक नहीं होता। ऐसे वक्त में जब सभी लोग भारत में रोजगार के बढ़ते अवसरों की दुहाई दे रहे हैं, ये उदाहरण बताते हैं कि भारतीय कंपनियों की भर्ती का तरीका काफी बेतरतीब है और इस प्रक्रिया में योग्यता और जॉब प्रोफाइल का सामंजस्य बिल्कुल भी नजर नहीं आता।
इसके मद्देनजर लार्सन एंड टूब्रो के चेयरमैन ए. एम नायक ने आईटी कंपनियों पर नाराजगी जताते हुए कहा था कि यह सेक्टर इंजीनियरों को हाईजैक कर रहा है, जबकि उन्हें सिर्फ बी. कॉम. ग्रैजुएट्स की जरूरत है। जरूरत से ज्यादा योग्यता वाले लोगों की नियुक्ति के बारे में कंपनियों की दलील है कि जिस देश में हर दूसरा शख्स फर्स्ट क्लास ग्रैजुएट, इंजीनियर या एमबीए है, वहां इस तरह की घटनाओं को रोकना संभव नहीं है।
इसके अलावा दूसरे दर्जे के इन संस्थानों में पढ़ाई की क्वॉलिटी भी स्तरीय नहीं होती है और इस वजह से कंपनियों को इन लोगों को नए सिरे से प्रशिक्षित करना पड़ता है। एक कंपनी के एचआर मैनेजर के मुताबिक, ट्रेनिंग के बाद भी ऐसे लोग अपनी डिग्री से खुद को जोड़ने में सक्षम नहीं हो पाते और इस वजह से कंपनियों को इन लोगों को कोर्स से अलग जॉब प्रोफाइल मुहैया कराने के सिवा कोई चारा नहीं रहता।
उनकी इस बात में दम हो सकता है। अध्ययन बताते हैं कि भारत में चार में सिर्फ एक ग्रैजुएट के पास उचित रोजगार प्राप्त करने की योग्यता होती है। मतलब यह है कि जब तक शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार नहीं होता है, बाकी तीन लोगों को बैंकों में खाते खुलवाने के लिए लोगों को राजी करने, लोगों की चाय और टॉयलेट संबंधी आदतों की निगरानी करने और आधी रात में अपनी अमेरिकन एक्सेंट सुधारने जैसे कामों से खुद को संतुष्ट रखना पड़ेगा।
sआभार_ www.bshindi.com
3 comments:
एक बहुत अच्छा टापिक आपने उठाया है , यही हाल हर जगह है.शोषण ज्यादा है पर कहने वाला कोई नही
अच्छा लेख है मगर इस मामले में सहानुभूति जताने के अलावा कुछ किया नहीं जा सकता - यह बाज़ार की ताकतों का खेल है - डिमांड सप्लाई का खेल है!
सौरभ
एक अच्छा मुद्दा है जिस पर काफी लिखे जाने और सार्थक विचार की आवश्यक्ता है. बधाई इस मुद्दे पर लिखने के लिए.
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आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं, इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.
एक नया हिन्दी चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरु करवायें और हिन्दी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें.
यह एक अभियान है. इस संदेश को अधिकाधिक प्रसार देकर आप भी इस अभियान का हिस्सा बनें.
शुभकामनाऐं.
समीर लाल
(उड़न तश्तरी)
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