सबकी अपनी अपनी सोच है, विचारों के इन्हीं प्रवाह में जीवन चलता रहता है ... अविरल धारा की तरह...
Thursday, July 31, 2008
...रस्ते बड़े कठिन हैं चलना संभल-संभल के
'हमें यह नहीं सोचना है कि दुनिया हम पर कितना प्रभाव डालती है, हमें यह देखना है कि हम दुनिया पर कितना प्रभाव डालते हैं।'
विश्वास प्रस्ताव के दौरान संसद में कांग्रेस नेता राहुल गांधी का यह बयान देश के बढ़ते आत्मविश्वास को प्रदर्शित करता है। भारत अमेरिका परमाणु करार का सकारात्मक पहलू यह है कि परमाणु परीक्षणों के बाद अलग-थलग पड़ा भारत अन्य देशों से नागरिक उपयोग के लिए परमाणु के क्षेत्र में सहयोग पा सकेगा।
वहीं इस करार के आलोचकों का कहना है कि समझौते के बाद हमारी स्वतंत्रता नहीं रहेगी और हम अमेरिका की निगरानी में रहेंगे।
परमाणु करार की जरूरत
पोखरण में हुए परमाणु परीक्षणों के बाद अमेरिका और कई अन्य देश भारत के खिलाफ हो गए थे। कई देशों ने भारत के खिलाफ परमाणु प्रतिबंध तक लगा दिया। भारत को बड़े पैमाने पर परमाणु ऊर्जा विकसित करने के लिए परमाणु संयंत्रों हेतु यूरेनियम उपलब्ध नहीं है। हालत यह है कि परमाणु रिएक्टरों को बंद करने की नौबत आ गई। भारत को अंतरराष्ट्रीय बाजार की ओर देखना ही था।
करार के रास्ते
भारत और अमेरिका के बीच 18 जुलाई 2005 को समझौता हुआ। इसमें शर्त रखी गई कि भारत को जिन रिएक्टरों और प्रतिष्ठानों को अपने सैनिक कार्यक्रम से अलग रखना है, उनके लिए वह अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) के स्थायी सुरक्षा मानदंडों के लिए राजी हो। यह होने पर अमेरिका अपने प्रतिबंध हटा लेगा।
02 मार्च 2006 को दिल्ली में भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश के बीच हुई बातचीत के बाद विवादास्पद नाभिकीय समझौते पर सहमति बन गई। इस समझौते में भारत ने अपने कुल 22 नाभिकीय संयंत्रों में से 14 को नागरिक उपयोग का घोषित किया और इसे निगरानी के लिए खोल दिया। 3 अगस्त 2007 को नाभिकीय 123 समझौते के प्रारूप को दोनों देशों में एक साथ जारी किया गया। वामपंथियों ने 18 जून 2008 को कहा कि वे भारत सरकार के सेफगार्ड पैक्ट पर दस्तखत करने के खिलाफ हैं।
समर्थकों का तर्क
भारत सरकार का कहना है कि ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए परमाणु ऊर्जा की सख्त जरूरत है। अब तक भारत ने 17 परमाणु रिएक्टर बना रखे हैं, जिनमें सबसे बड़े रिएक्टर से 540 मेगावाट बिजली बन सकती है। परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष डॉ. अनिल काकोडकर का कहा है कि यदि 2012 और 2020 के बीच भारत 40 हजार मेगावाट के रिएक्टर आयात कर सका तो भारत में परमाणु बिजली की कमी दूर हो जाएगी।
करार से बेकरारी
करार का विरोधी तर्क देते हैं कि परमाणु बिजली विकास भारत अपने दम पर कर रहा है और भविष्य में भी करता रहेगा। इससे ऊर्जा सुरक्षा का कोई लेना देना नहीं है। पूरा समझौता कयासों पर आधारित है। विरोध करने वालों का तर्क है कि परमाणु बिजली महंगी है। डील के बाद अगर हम 40 रिएक्टर आयात करते हैं तो इसके लिए 100 अरब डॉलर का खर्च कहां से आएगा।
पड़ोसी का दर्द
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु करार पर पाकिस्तान ने ऐतराज जताया है। पाकिस्तान को डर है कि करार हो जाने के बाद भारत, परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में सशक्त बन जाएगा और इससे उसके हथियारों के बढ़ने की आशंका भी है। उसने करीब 60 देशों को पत्र भेजा, जिसमें परमाणु करार पर भारत के बढ़ते कदम को रोकने की गुजारिश की गई है।
3 मार्च 2006 को नई दिल्ली पुराना किला से दिए गए अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश के भाषण में कहा गया कि 'अब दुनिया बदल चुकी है और विभाजित दुनिया में जो भारत-अमेरिका के बीच संबंध थे उस समय की हालत से अब बहुत परिवर्तन आ चुका है। दोनों देशों का आधार, लोकतंत्र है और 21वीं सदी में हम एक दूसरे के सबसे बड़े सहयोगी साबित हो सकते हैं।' भारत में उदारीकरण की नीति को लागू होने पर इसके विरोधियों ने कहा था कि विदेशी कंपनियां, हमारी घरेलू बहुराष्ट्रीय कंपनियों तक को निगल जाएंगी। लेकिन अब तो हालत बिल्कुल उटल है।
करार के सकारात्मक पहलू को देखें तो इसके बाद भारत, परमाणु उत्पादों के वैश्विक बाजार में उतरेगा। यह भी हो सकता है कि मानव संसाधन और अपनी सस्ती तकनीक की बदौलत भविष्य में वह सबसे बड़ा न्यूक्लियर सप्लायर बनकर उभरे। बहरहाल परमाणु करार के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही पहलू हैं और देश को इस मामले में बहुत संभलकर चलना होगा। शकील बदायूंनी के शब्दों में कहें तो-
देखो कदम तुम्हारा हरगिज न डगमगाए,
रस्ते बड़े कठिन हैं, चलना संभल-संभल के।
courtesy: bshindi.com
Thursday, July 24, 2008
कभी सूरज है बालों पर, कभी शामें हैं चेहरे पर...
सत्येन्द्र प्रताप सिंह
भारत में नव उदारवाद की नीति को लागू हुए करीब 17 साल होने जा रहे हैं। इसे राजनीतिक आंदोलन के रूप में लिया जा सकता है, जो 1970 में आई वैश्विक मंदी के बाद दुनिया के तमाम देशों में लागू किया गया था।
भारत में नव उदारवाद के दूसरे चरण में- क्षेत्र के आधार पर परमाणु ऊर्जा में निजीकरण, रक्षा के क्षेत्र में निजीकरण और बैंकिंग क्षेत्र को खोलने की कवायद चल रही है। नव उदारवाद के दौरान भारत में जीडीपी और विकास दर में बढ़ोतरी भी दर्ज की गई है और यह पहले की तुलना में अधिक रही है। अब केंद्र की मनमोहन सरकार ने विश्वास मत हासिल कर लिया है।
4 साल 2 महीने तक वामपंथियों के समर्थन में बहुत से बंधन लगे और तमाम विधेयक रुके रहे, जिन्हें केंद्र सरकार आर्थिक सुधारों के लिए जरूरी समझती थी। नव उदारवाद के समर्थक रहे वर्तमान प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री एक बार फिर अपने रंग में हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित्तमंत्री पी. चिदंबरम और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया की तिकड़ी एक बार फिर नव उदारवाद के दूसरे चरण को शुरू करने के लिए बेताब हैं।
भारतीय कम्युनिस्ट पाटी की साप्ताहिक पत्रिका पीपुल्स डेमोक्रेसी में कहा गया है कि, 'इसका प्रभाव यह रहा है कि भारत में डॉलर के हिसाब से करीब 40 अरबपति बने हैं वहीं आम लोगों का जीवन स्तर बिगड़ा है। जहां 1973-74 में 56.4 प्रतिशत लोगों को 2200 कैलोरी से कम पौष्टिकता वाला भोजन मिलता था, 1993-94 में यह बढ़कर 58.5 प्रतिशत और 2004-05 में 64.5 प्रतिशत पहुंच गया।' मतलब साफ है। जहां आईटी, दूरसंचार, सेवा क्षेत्र में विकास हुआ वहीं संतुलन में कमी आई और कृषि क्षेत्र में विकास नहीं के बराबर हुआ। गरीबी, भुखमरी और कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या बढ़ गई।
वैसे तो 1991 में केंद्र में सत्तासीन हुई कांग्रेस के वित्तमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकरण की ठोस बुनियाद रखी थी। बाजार को खोले जाने की व्यापक कोशिश उसी समय हुई। उसके बाद आई सरकारें कमोबेश उसी राह पर चलती रहीं, जिस पर मनमोहन सिंह ने चलना सिखाया था। अपनी दूसरी पारी में जब मनमोहन प्रधानमंत्री बने तो नव उदारवाद को रंग देने की सरकार की इच्छा तो नजर आई लेकिन वामपंथियों के बाहरी समर्थन ने उनका हाथ रोक रखा था।
हालांकि इसके पहले भी उदारीकरण की चोरी-छुपे कोशिशें की गई थीं। इंदिरा गांधी ने 1980 में सत्ता संभालने के बाद औद्योगिक लाइसेंसिंग और बड़े उद्योगों पर लगे बंधनों को कम किया। वर्ष 1984 में राजीव गांधी ने औद्योगिक गैर नियमन, विनिमय दरों में छूट और आयात नियंत्रणों को आंशिक रूप से हटाए जाने संबंधी कुछ कदम उठाए। लेकिन ये 1991 में उठाए गए कदमों की तुलना में मामूली ही थे। नव उदारवाद के बाद भारत में दो प्रमुख बदलाव नजर आते हैं। पहला- विकास दर में बढ़ोतरी और दूसरा- वित्तीय घाटे में तेजी से कमी।
सरकार के विश्वास मत हासिल करने के बाद स्वाभाविक है कि अब पुराने पड़े तमाम एजेंडों को लागू करने की कोशिशें फिर से शुरू होंगी। इसमें बैंकिंग विधेयक, पेंशन विधेयक, लेबर रिफार्म विधेयक, बीमा क्षेत्र में विदेशी पूंजी बढ़ाए जाने का मसला सहित तमाम मुद्दे फिर से जिंदा होंगे, जो वामपंथियों के विरोध के चलते ठंडे बस्ते में डाल दिए गए थे। इसके अलावा अमेरिका से परमाणु समझौते के बाद बिजली उत्पादन के लिए भारी भरकम निवेश की जरूरत होगी, उसके लिए भी सरकार की कोशिश होगी कि निजी क्षेत्र आगे आएं। इसके अलावा सैन्य क्षेत्र में भी सरकार निजी क्षेत्र का मुंह देख रही है।
इस सिध्दांत के तहत बुनियादी जरूरतों के क्षेत्र में भी सरकार की हिस्सेदारी कम किए जाने की बात की जाती है- चाहे वह सड़क निर्माण, शिक्षा या पेय जल जैसी जीवन की मूलभूत जरूरतों से संबंधित मामला ही क्यों न हो। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि आर्थिक उदारीकरण के बाद भारत और चीन जैसे विकासशील देशों को लाभ हुआ है। यहां के जीवन स्तर में सुधार आया है, लेकिन वैश्विक मंदी को देखते हुए पश्चिमी देशों में यह सवाल उठने लगे हैं कि क्या खुली बाजार व्यवस्था को समेटने की जरूरत है?
मार्गन स्टैनली का मानना है कि वैश्विक मंदी अब अंतिम दौर में है। अगर यह भविष्यवाणी सही साबित होती है तो यह संभावनाएं भी प्रबल हो जाएंगी कि आर्थिक सुधार की गति को तेज करने का असर तेजी से हो और गिरती विकास दर और बढ़ती महंगाई पर काबू पाया जा सके। सरकार भी कुछ वैसा ही रंग बदलते नजर आ रही है, जैसा पाकिस्तान की शायर शाहिदा हसन कहती हैं-
कभी सूरज है बालों पर, कभी शामें हैं चेहरे पर
सफर करते हुए रंगत बदलती जा रही हूं मैं।
courtesy_ bshindi.com
Wednesday, July 23, 2008
अब सीख भी लीजिए आडवाणी जी
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सरकार जीत गई। भले ही खरीद फरोख्त से। आडवाणी जी, आपलोगों की ये गलतफहमी तो दूर ही हो गई होगी कि बेहतर मैनेजर भाजपा ही है। साथ में मनमोहन सिंह ने शायद यह बात भी आप लोगों के लिए ही कही कि वामपंथी, सरकार को बंधुआ मजदूर समझते थे। आप भी सरकार में थे, जनता के बीच गए तो रोते-बिलखते। वही रोना कि गठबंधन सरकार थी, इसलिए समान नागरिक संहिता, धारा ३७० और राम मंदिर छोड़ना पड़ा। मान लेते हैं कि राम मंदिर मुसलमानों से संबंधित मुद्दा था, लेकिन समान नागरिक संहिता और धारा ३७० पर तो सहयोगियों को समझाया बुझाया ही जा सकता था न।
अब क्या होगा? केंद्र की संप्रग ने तो दिखा दिया कि हम बंधुआ नहीं हैं। लेकिन आप तो पिलपिले ही निकले थे, रोने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं तलाश पाए और ५ साल तक सत्ता सुख भोगने में ही लगे रहे। मनमोहन अगर महंगाई नहीं रोक पाए तो जनता के बीच नंगे होंगे, लेकिन ये रोना तो नहीं रोएंगे कि कम्युनिस्टों के चलते नव-उदारवाद का एजेंडा नहीं लागू कर पाए, जिसके चलते दुर्दिन देखने पड़े।
Tuesday, July 22, 2008
बिगड़ेगा कृषि उत्पादों का संतुलन!
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सत्येन्द्र प्रताप सिंह
भारत में मानसूनी बारिश से जहां कुछ इलाकों में खुशी का माहौल हैं, वहीं ज्यादातर इलाकों में हालत बेहद निराशाजनक है।
दक्षिण और दक्षिण-पश्चिमी भारत में मानसूनी बारिश कम होने की वजह से गन्ना और कपास के उत्पादन में खासी गिरावट का अनुमान लगाया जा रहा है। इसके साथ ही किसानों का कपास और गन्ने जैसी नकदी फसलों से भी मोहभंग हुआ है और किसान धान की खेती की ओर पलायन कर चुके हैं।
कृषि वैज्ञानिक इस साल 30 लाख टन अधिक धान उत्पादन का अनुमान लगा रहे हैं। मौसम विभाग के आंकड़ों के मुताबिक दक्षिण पश्चिमी भागों- गुजरात के सौराष्ट्र में 24 प्रतिशत कम वर्षा हुई, वहीं कोंकण और गोवा में 22 प्रतिशत, मध्य महाराष्ट्र और विदर्भ के इलाकों में 16 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 41 प्रतिशत, तटीय आंध्रप्रदेश में 36 प्रतिशत कम बारिश हुई है। इन इलाकों में पिछले साल 8 प्रतिशत से लेकर 130 प्रतिशत अधिक बारिश हुई थी।
इसके अलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश में पिछले साल जहां 24 प्रतिशत कम वर्षा हुई थी, वहीं इस साल 79 प्रतिशत अधिक वर्षा हुई है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 71 प्रतिशत ज्यादा वर्षा हुई है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिकों के एक सर्वेक्षण के मुताबिक इस साल 30 लाख टन धान अधिक उत्पादन होने का अनुमान है। पिछले साल धान का कुल उत्पादन 956.80 लाख टन था।
बारिश के इन आकड़ों के आधार पर काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कृषि विज्ञान संस्थान के फार्म इंजिनियरिंग विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. गिरीश चंद्र मिश्र ने बताया, 'पिछले साल जहां 47.1 लाख हेक्टेयर जमीन पर धान की रोपाई हुई थी वहीं इस साल कुल 56 लाख हेक्टेयर पर रोपाई हुई है। यही प्रमुख वजह है जिसके चलते धान का उत्पादन इस साल 30 लाख टन अधिक होने का अनुमान है। इसके अलावा किसान हाइब्रिड बीजों की ओर आकर्षित हो रहे हैं, जिससे उपज में बढ़ोतरी होगी।'
सबसे दुखद पहलू यह है कि सरकार की नीतियों के चलते किसानों ने कपास और गन्ने की ओर से मुंह मोड़ लिया है। कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक 19 प्रतिशत अधिक क्षेत्रफल में धान की रोपाई का सीधा असर कपास उत्पादन पर पडेग़ा। इसके साथ ही सौराष्ट्र में 24 प्रतिशत कम बारिश होने और मराठवाड़ा में 65 प्रतिशत कम बारिश का असर भी कपास उत्पादन पर पड़ेगा। भारत सरकार ने मौसम के हिसाब से देश को कुल 36 डिवीजन में विभाजित किया है। इसमें से 14 सब-डिवीजन में ज्यादा, 8 में सामान्य और 13 में कम वर्षा हुई है।
अगर उत्तर प्रदेश की बात करें तो 62 जिलों में अधिक, 5 में सामान्य और 5 जिलों में कम बारिश हुई है। दिलचस्प है कि मौसम विभाग के पास उत्तर प्रदेश के 15 जिलों की बारिश के आंकड़े ही उपलब्ध नहीं हैं। प्रो. मिश्र ने बताया, 'इस साल वर्षा का वितरण बेहतर रहा है जिसकी वजह से धान की रोपाई में सुविधा हुई। किसानों ने पिछले साल की तुलना में 19 प्रतिशत ज्यादा क्षेत्रफल में रोपाई की। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि पिछले कपास की तुलना में उन्हें धान की खेती से ज्यादा लाभ मिला। लेकिन इसका खामियाजा कपास की खेती से जुड़े उद्योगों को भुगतना पड़ सकता है।'
courtesy: bshindi.com
Monday, July 21, 2008
कम वाजिब नहीं हैं अमर सिंह की कुछ मांगें
कई लोगों को ऐसा लगता है कि मंगलवार को संसद में विश्वास मत हासिल करने के बाद सरकार पर अमर सिंह की मांगों को पूरा करने का बोझ नहीं रहेगा। लेकिन यह सच नहीं है।
ऐसा इसलिए है कि अगर समाजवादी पार्टी अपना समर्थन वापस ले लेती है, तो सरकार एक बार फिर मुसीबतों से घिर जाएगी। वह अगले छह महीने तक बनी तो रह सकती है, लेकिन परमाणु करार के मुद्दे पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाएगी, जो वर्तमान संकट की प्रमुख वजह है। दूसरी बात यह है कि अगर अमर सिंह की मांगें अनिल अंबानी के पक्ष में लग रही हैं, तब भी ये कम वाजिब नहीं है।
मुरली देवड़ा और अन्य
इसमें कम ही संदेह है कि पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा और उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी मुकेश अंबानी के कृष्णा गोदावरी (केजी) बेसिन से गैस निकालने के मामले में अनिल अंबानी के बनिस्बत मुकेश का सहयोग कर रहे हैं। दोनों भाइयों के बीच हुए समझौते के मुताबिक कृष्णा गोदावरी से अनिल के 5,600 मेगावाट के दादरी पॉवर प्रोजेक्ट को 2.34 डॉलर प्रति ब्रिटिश थर्मल यूनिट (बीटीयू) के हिसाब से गैस की आपूर्ति की जानी है।
मुकेश ने 2004 में अंतरराष्ट्रीय बोली में शामिल होकर सरकारी कंपनी एनटीपीसी को गैस की आपूर्ति करने का ठेका हासिल किया था, जबकि इसी कीमतों पर मुकेश-अनिल के बीच डील हुई थी। बहरहाल जबसे सरकार केजी बेसिन से राजस्व का हिस्सा पाने लगी, इस डील को देवड़ा के मंत्रालय में मंजूरी के लिए भेज दिया गया। मंत्रालय ने इस समझौते को यह कहकर खारिज कर दिया कि डील में सही ढंग से कीमतें नहीं तय हुई हैं।
मंत्रालय का यह कहना सही नहीं है क्योंकि पहली बात यह कि उसी कीमत पर एनटीपीसी से भी समझौता हुआ था, दूसरे- मंत्रालय का कहना कि मुकेश अगर बढ़ी हुई कीमतों पर सरकार को राजस्व का हिस्सा देते रहते हैं तो वे अनिल को मुफ्त में गैस दे सकते हैं। दुखद पहलू यह है कि पिछले महीने सरकार गैस उपभोग नीति इस उद्देश्य से लाई कि अनिल को कभी गैस न मिले। इस बात का भी ध्यान नहीं रखा गया कि इससे मुकेश से एनटीपीसी के साथ हुआ समझौता भी प्रभावित होगा।
25 जून को अधिकार प्राप्त मंत्रिमंडल समूह ने यह सिफारिश की कि नई जगहों पर होने वाले अनुसंधानों से मिलने वाली गैस का आवंटन किस हिसाब से किया जाए। जहां अन्य परियोजनाओं के लिए एक जैसे नियम बनाए गए, केजी बेसिन के लिए अलग से दिशानिर्देश जारी किए गए। आवंटन की प्राथमिकताएं क्या हैं? पहला- गैस पर आधारित यूरिया संयंत्रों के मामले में मात्रा निर्धारित नहीं की गई।
इसके बाद वर्तमान एलपीजी संयंत्रों के लिए 3 एमएमएससीएमडी आरक्षित किया गया, इसके बाद 18 एमएमएससीएमडी गैस पर आधारित विद्युत संयंत्रों के लिए रखा गया, जो 2008-09 में प्रस्तावित विद्युत संयंत्रों में गैस की कमी को देखते हुए आदर्श स्थिति है (न तो एनटीपीसी न ही दादरी 2008-09 में आएंगे) इसके बाद 5 एमएमएससीएमडी सिटी गैस परियोजनाओं के लिए और शेष को वर्तमान में गैस आधारित विद्युत संयंत्रों को बेचने के लिए आरक्षित किया गया।
अगर यह नियम, दादरी परियोजना को बंद करने के लिए नहीं हैं तो आखिर इस परियोजना के लिए गैस की आपूर्ति किस तरह से होगी? इसके साथ यह भी प्रावधान जोड़ा गया है कि वे प्रयोगकर्ता जो गैस ग्रिड से जुड़े हुए हैं, उन्हीं को गैस की आपूर्ति की जाएगी। दादरी गैस ग्रिड का आवेदन तो पिछले दो साल से देवड़ा के मंत्रालय में धूल फांक रहा है। यह भी आश्चर्य की बात है कि गैस उपभोग नीति के विरोध के बावजूद इसे लागू करने की कोशिश की गई। वहीं गैस आपूर्ति पर समझौते पर हस्ताक्षर तो चार साल पहले ही हो चुके हैं।
रिलायंस रिफाइनरी
अमर सिंह ने रिलायंस इंडस्ट्रीज पर कर लगाए जाने की बात की है। उनका कहना है कि पिछले एक साल में तेल की कीमतें बढ़ी हैं, जिसकी वजह से बेतहाशा फायदा हुआ है। हालांकि यह कमजोर मुद्दा है। पहला- रिलायंस अंतरराष्ट्रीय कीमतों पर तेल की खरीदारी करती है। इसलिए 'अप्रत्याशित' लाभ की बात गले नहीं उतरती। अगर आप 2007-08 की चौथी तिमाही की तुलना 2006-07 की चौथी तिमाही से करें, जिस दौरान ब्रेंट की कीमतें 58 डॉलर से बढ़कर 97 डॉलर प्रति बैरल हो गईं तो कंपनी के पीबीआईटी में केवल 1,015 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी हुई जबकि टर्नओवर बढ़कर 9,424 करोड़ रुपये हुआ।
क्षेत्रवार राजस्व पर गौर करें तो रिफाइनिंग से प्री-टैक्स लाभ केवल 600 करोड़ रुपये रहा। यह भी है कि रिलायंस रिफाइनरी का लाभ वैश्विक रूप से दो से तीन गुना बढ़ा है। अब ऐसे में यह निर्धारित करना कठिन है कि वास्तविक मुनाफा कितना है और कितनी बेतहाशा बढ़ोतरी हुई। रिफाइनरी पर ईओयू को हटाए जाने का मुद्दा भी बहुत जटिल है। इस नियम के लागू रहने पर रिफाइनरीज कुछ और साल तक कर नहीं लगेगा और इससे घरेलू बाजार में गैस की कमी होने की हालात में गैस का आयात करने की भी इजाजत मिलती है।
पिछले साल ईओयू का दर्जा दिए जाने के फैसले का अमर सिंह विरोध कर रहे हैं। बहरहाल सरकार की नीतियों से सरकारी क्षेत्र की रिफाइनरीज को संकट का सामना करना पड़ रहा है और वे बाजार भाव से कम पर बिक्री करने को मजबूर हो रही हैं।
मुफ्त स्पेक्ट्रम
सिंह का यह कहना शायद सही है कि सेल्युलर लाइसेंस धारकों को अतिरिक्त स्पेक्ट्रम मुफ्त में दिया गया, जबकि लाइसेंस के मुताबिक उन्हें 6.2 मेगाहर्ट्ज से ज्यादा स्पेक्ट्रम नहीं मिलना चाहिए। यह विभागीय नोटिसों पर निर्भर करता है, खासकर बेहतर कानूनी मामलों में सही होता, लेकिन सामान्यत: सरकारी नियम, एक दूसरे का विरोध करते हैं और काफी अस्पष्ट हैं।
इस मामले में भी अनिल अंबानी के साथ भेदभाव किया गया और उन्हें स्पेक्ट्रम के लिए लाइसेंस पाने के लिए 1,651 करोड़ रुपये का भुगतान करना पड़ा, जबकि वे इस क्षेत्र में 2001 से हैं जब केवल 40 लाख उपभोक्ता थे। इस उद्योग ने इतने उपभोक्ता तो दो सप्ताह के दौरान हासिल किए हैं। अब भले ही सिंह द्वारा उठाए गए सभी मसले उतने प्रभावी न हों, लेकिन उन्होंने केंद्र सरकार की तानाशाही और दोमुंहेपन के रवैये को उजागर किया है, जिसमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी एक पक्ष हैं।
courtesy: bshindi.com
Friday, July 18, 2008
आईफोन 3जी की दुनिया हुई दीवानी
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सत्यव्रत मिश्र
तकनीक की दुनिया में आज की तारीख में बस एक ही चर्चा चल रही है। उस चर्चा का ताल्लुक है एप्पल के नए आईफोन 3जी से। इस फोन की तो आज दुनिया दीवानी है।
लोगों में इस फोन को जल्दी से जल्दी अपनाने की होड़ मची हुई है। दीवानगी हो भी क्यों न? आखिर इसका लंबे समय से इंतजार भी किया जा रहा है। वैसे, होता यह है कि जिस चीज का लंबे वक्त से इंतजार होता है, उसमें अक्सर बड़ी खामियां होती हैं। इस वजह से लोगों का दिल खट्टा होता है। लेकिन आईफोन 3जी ने किसी को निराश नहीं किया है।
इस फोन में एप्पल ने आईफोन की पुरानी दिक्कतें को सुधारने की अच्छी-खासी कोशिश की है। बड़ी बात यह है कि उसकी कोशिश रंग भी लाती नजर आ रही है। साथ ही, इस फोन में कई ऐसे नई फीचर भी हैं, जो आपके होश उड़ाकर रख देंगे। सबसे बड़ी बात यह है कि अब तक आईफोन को युवाओं का फोन समझा जाता था। लेकिन आईफोन 3जी के जरिये कंप्यूटर जगत की दिग्गज कंपनी एप्पल ने अब सेलफोन की दुनिया के दिग्गज कंपनी ब्लैकबेरी को चुनौती दी है। इसलिए तो एप्पल ने भी अपने इस नए फोन में 'पुश' ईमेल की सु्विधा डाल दी है। हालांकि, इसके लिए उसने अपने ट्रेंडी लुक्स और मल्टीमीडिया फीचर्स के साथ कोई भी छेड़छाड़ नहीं की है।
कैसे जुदा है आईफोन 3जी?
अब जब आईफोन 3जी बाजार में आ गया तो लोगों के दिल में यह सवाल उठना तो लाजिमी ही है कि यह पुराने वाले आईफोन से कैसे अलग है? हम बताते हैं। पहली बात तो यह कि नए आईफोन को 3जी तकनीक पर काम करने के लिहाज से बनाया गया है। इसका मतलब इसमें आप तेज रफ्तार इंटरनेट का बड़े मजे से लुत्फ उठा सकते हैं। पुराने आईफोन को इस्तेमाल करने वालों की एक बड़ी शिकायत यह रहती थी कि उनका फोन बहुत धीरे काम करता है। आईफोन 3जी के साथ एप्पल ने उनकी यह शिकायत भी दूर कर दी है। यह फोन पुराने वाले आईफोन के मुकाबले दो गुना ज्यादा तेज काम करता है। साथ ही, इसके लुक्स का भी काफी ध्यान रखा गया है। इसके टच स्क्रीन की लंबाई 3।5 इंच बरकरार रखी गई है, लेकिन पहले की तुलना में नए फोन का टच स्क्रीन ज्यादा चटख है। ऊपर से यह फोन पुराने वाले आईफोन के मुकाबले काफी ज्यादा पतला भी है। इस फोन के जरिये एप्पल ने पहली बार बिजनेस फोन के दीवानों को भी लुभाने की कोशिश की है। इसलिए तो इसमें बिजनेस से जुड़े कई सारे फीचर्स हैं, लेकिन उनमें सबसे खास है पुश ईमेल। जी हां, अब आप 24 घंटे दुनिया से जुड़े रह सकते हैं।जैसे ही कोई ईमेल भेजगा तो वह उसे आप अपने आईफोन 3 जी के जरिये भी पढ़ सकेंगे। अगर आप रास्ता भटक गए हैं, तो आपका फोन आपको राह दिखलाएगा। यह मुमकिन हो पाएगा, फोन के इनबिल्ट जीपीएस और गूगल मैप्स की मदद से। इसकी एक सबसे बड़ी खूबी है, मल्टीटास्किंग। आम फोनों में या तो आप बात कर सकते हैं या फिर डेटा ट्रांसफर। लेकिन आईफोन 3जी में आप बात करने के साथ-साथ डेटा भी ट्रांसफर कर पाएंगे। साथ ही, आप चाहें तो मैप्स का इस्तेमाल भी अपने दोस्तों के साथ बातें करते हुए बड़े मजे के साथ कर सकते हैं। यह सब मुमकिन हो पाया है, इसके नए सॉफ्टवेयर की वजह से। इसमें एप्पल ने इस्तेमाल किया है अपना नया आईफोन 2.0 सॉफ्टवेयर। इसकी वजह ये फोन काफी जबरदस्त बन गया है। ऊपर से, इसमें एक अनोखा फीचर है पैरेंटल कंट्रोल का। इस फीचर्स की वजह से आप अनचाहे वेबसाइटों को ब्लॉक कर सकते हैं। फिर चाहे आपके दोस्त या फिर आपके बच्चे जितनी चाहे कोशिश कर लें, लेकिन वो उन अनचाहे वेबसाइटों को आपके फोन पर सर्फ नहीं कर पाएंगे। इसमें आपको मिलेगा एक अनोखा फीचर, जिसे नाम दिया गया है एप्पस्टोर का। इसके जरिये आप गेम्स, बिजनेस, स्पोटर्स और स्वास्थ्य से जुड़ी हुई कई सेवाओं का इस्तेमाल कर सकते हैं।हालांकि, इसके लिए आपको कुछ पैसे खर्च करने पड़ेंगे। यह फोन 8 और 16 जीबी की मेमोरी के साथ उपलब्ध होगा। इसलिए इसमें आपके पास गाने कम पड़ जाएगें, लेकिन मेमोरी कम नहीं पड़ेगी। साथ ही, इसमें मौजूद आईपॉड की आवाज भी काफी जबरदस्त है। सबसे मजे की बात यह है कि यह फोन पुराने आईफोन के मुकाबले दाम में आधा है, जबकि इसकी खूबियां उससे दोगुनी हैं।
तस्वीर का दूसरा पहलू
इसमें कोई शक नहीं है कि आईफोन का यह नया वर्जन काफी जबरदस्त है। लेकिन यह बात भी सच है कि एप्पल कंपनी ने अपनी गलतियों से पूरी तरह से सीख नहीं ली है। इसलिए तो ऐसी कई खामियां जो पुराने आईफोन में थीं, आपको आईफोन 3जी में भी मिल जाएंगी। मिसाल के तौर पर एफएम रेडियो को ही ले लीजिए। एप्पल ने अपने नए वर्जन में भी एफएम रेडियो की सुविधा नहीं दी है। साथ ही, यह एक लॉक्ड फोन है। मतलब, अगर आप इस फोन को एयरटेल से खरीदते हैं, तो इसमें किसी और सेलफोन कंपनी का सिम काम नहीं कर पाएगा। इसे अनलॉक करने के वास्ते आपको मोटी रकम खर्च करनी पड़ सकती है। वैसे, यह फोन अनलॉक हो भी जाएगा, इसकी भी गारंटी नहीं है। इस फोन को लॉन्च हुए एक हफ्ता बीत चुका है, लेकिन अब केवल ब्राजील की एक टीम ही अनलॉक कर पाई है। ऊपर से, दुनिया के कई हिस्सों से इसमें सिग्नल की दिक्कत आने की शिकायत आ रही है। इससे भी बड़ी बात यह है कि अभी तक अपने मुल्क में 3जी मोबाइल सर्विस का आगमन नहीं हुआ है। इस मुद्दे पर टेलीकॉम कंपनियों और सरकार के बीच ठनी हुई है। बार-बार 3जी लाइसेंस देने की तारीख आगे बढ़ाई जा रही है। ऐसे में आईफोन का यह नया अवतार भारत में कितना कामयाब हो पाएगा, यह देखने की बात है। ऊपर से इसमें कहने को तो दो मेगापिक्सल का कैमरा तो लगा दिया गया है, लेकिन उस कैमरे की क्वालिटी दो मेगापिक्सल के बराबर नहीं है। साथ ही, उसमें फ्लैश नहीं है।ऊपर से, इस कैमरे से आप वीडियो भी रिकॉर्ड नहीं कर पाएंगे। कहने को तो यह एक मल्टीमीडिया फोन है, लेकिन इसमें मेमोरी कार्ड के लिए कोई स्लॉट नहीं है। साथ ही, इसमें आप कोई ईमेल भी सर्च नहीं कर सकते। मतलब आपको किसी ईमेल की तलाश है, तो आपको शुरू से लेकर आखिर तक अपने इनबॉक्स को खंगालना पड़ेगा। लेकिन सबसे बड़ी खामी है, इस फोन का काफी महंगा होना। आप भले ही केवल नौ-दस हजार रुपये चुकाकर इसे घर ला सकते हैं, लेकिन इसके बाद आपको हर महीने इसके लिए मोटी फीस चुकानी पड़ेगी। विदेशों में तो ऐसा ही होता है। पूरी उम्मीद है कि अपने मुल्क में आईफोन 3जी को उतारने वाली कंपनियां, एयरटेल और वोडाफोन भी इसी मॉडल को अपनाएंगी।
दीवानी है दुनिया
एप्पल की इस नए फोन की तो दुनिया दीवानी है। अभी इसे लॉन्च हुए केवल एक हफ्ते हुए हैं, लेकिन अब तक 10 लाख से ज्यादा आईफोन 3जी फोन बिक चुके हैं। विश्लेषकों के मुताबिक यह अपने-आप में एक रिकॉर्ड है। उनका कहना है कि माना हफ्ते भर में एक करोड़ फोन बेच लेती है। लेकिन जरा उसके मॉडल्स की तादाद भी देखिए।नोकिया, मोटोरोला, सैमसंग और एलजी के मॉडलों की तादाद सैकड़ों में है। इसलिए उनकी बिक्री भी ज्यादा है। लेकिन आईफोन तो एप्पल का इकलौता मोबाइल फोन है। इसके अपने हाथों में जल्द से जल्द से थामने के लिए अमेरिका, यूरोप और एशिया में बहुत सारे लोगों ने कई-कई रातें सड़क पर गुजारी। भारत में भी अब लोगों को इसे खरीदने के लिए बस कुछ दिनों का ही इंतजार करना पड़ेगा। वोडाफोन और एयरटेल ने अक्टूबर से इसकी बिक्री शुरू करने का इरादा जताया है।
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Thursday, July 17, 2008
बद से बदतर होती देश की आर्थिक हालत और धूमिल पड़ती सुधार की संभावनाएं
अभी 6 महीने पहले तक भारतीय अर्थव्यवस्था चमक रही थी। अचानक हालात बदल गए। अर्थव्यवस्था मंदी की ओर जा रही है। महंगाई दर 12 प्रतिशत के करीब है।
औद्योगिक मंदी चल रही है। राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है। शेयर बाजार आए दिन निम्नतम स्तर के नए कीर्तिमान बना रहा है। बड़े व्यवसायियों, छोटे कारोबारियों, निवेशकों और उपभोक्ताओं में हताशा है।
ऐसे में राजनीतिक अस्थिरता ने हताशा और बढ़ा दी है। वाम दलों के समर्थन वापस लेने के बाद यह सवाल उठ रहा है कि क्या सुधारों का नया दौर फिर शुरू होगा, जैसा कि 1991 में आए आर्थिक दिवालियेपन के संकट के बाद सुधारों का दौर शुरू किया गया था?
वर्तमान स्थिति
अगर औद्योगिक वृध्दि दर पर गौर करें जो न केवल शेयर बाजार बल्कि रोजगार पर असर डालता है, तो मई 2008 में औद्योगिक वृध्दि दर 3.8 प्रतिशत पर पहुंच गई है, जो मई 2007 में करीब 10 प्रतिशत थी। ऐसा ही कुछ हाल शेयर बाजार का है। 21,000 के आंकड़े छूने के बाद सेंसेक्स 12,000 के आसपास घूम रहा है।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें पिछले एक साल में दोगुनी से ज्यादा हो चुकी हैं, उर्वरकों का भी वही हाल है, लेकिन घरेलू बाजार में सब्सिडी देकर सरकार उसकी कीमतें करीब स्थिर बनाए हुए है। रुपये का लगातार अवमूल्यन हो रहा है। पेट्रोलियम, उर्वरक बॉन्ड, कर्जमाफी के गैर बजटीय खर्च से बजट घाटा जीडीपी के 10 प्रतिशत पर पहुंचने का अनुमान लगाया जा रहा है।
घाटा करीब उस स्तर पर पहुंच रहा है, जो 1991 में था। ऐसे में अर्थशास्त्री एक बार फिर सुधार के कदम उठाए जाने की जरूरत महसूस कर रहे हैं। प्रमुख अर्थशास्त्री सुबीर गोकर्ण ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखे एक लेख में कहा था कि सरकार को निश्चित रूप से सब्सिडी खत्म करने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
क्या है लटका
केंद्र में वामपंथियों के विरोध के चलते तमाम विधेयक लटके पड़े हैं, जिन्हें आर्थिक सुधारों के लिए जरूरी समझा जा रहा है। पेंशन फंड रेगुलेटरी ऐंड एथॉरिटी बिल पिछले 3 साल से लंबित है। इस बिल के पास होने के बाद से पेंशन फंड का प्रयोग पूंजी बाजार में किया जा सकता था। इसमें पेंशनर के एक एकाउंट का प्रावधान था, जिसके माध्यम से वह अपनी इच्छा के मुताबिक फंड मैनेजर का चुनाव कर सकता था।
स्टेट बैंक आफ इंडिया अमेंडमेंट बिल जिसमें सरकार की हिस्सेदारी 55 प्रतिशत से घटाकर 51 प्रतिशत किए जाने की बात कही गई है, जिसके लागू होने से विदेशी निवेश को अनुमति मिल जाएगी। इसके साथ ही बैंकिंग रिफार्म बिल 2005 में संसद में पेश किया गया। इसमें निवेशकों को मत देने के अधिकार की बात थी, लेकिन वामपंथियों ने इस प्रावधान का कड़ा विरोध किया।
इंश्योरेंस रिफार्म बिल में विदेशी हिस्सेदारी 26 प्रतिशत से बढ़ाकर 49 प्रतिशत किए जाने का प्रावधान है। फॉरेन एजूकेशन प्रोवाइडर बिल तो वामपंथियों के विरोध के चलते पेश ही नहीं हो सका। इसके अलावा कांग्रेस सरकार सुधार के अगले चरण में टेलीकॉम और इंश्योरेंस में विदेशी हिस्सेदारी बढ़ाने, फारवर्ड कांट्रैक्ट (रेगुलेशन) अमेंडमेंट बिल और सीड बिल भी ला सकती है। इन पर वामपंथियों की नाराजगी है। पिछले साल संसद में असंगठित क्षेत्र सामाजिक सुरक्षा विधेयक पेश किया गया। इसका विरोध वामपंथी ट्रेड यूनियनों सीआईटीयू और एआईटीयूसी ने किया।
मजबूरियां अब भी हैं
अब सबकी निगाहें 22 जुलाई के संसद के सत्र पर टिक गई हैं। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि लंबित विधेयकों को स्वीकृति मिलने के बाद अर्थव्यवस्था की स्थितियां बदलेंगी और सकारात्मक माहौल बनेगा, लेकिन सरकार की प्राथमिकताएं क्या हैं? अभी तो सत्तासीन सरकार की प्राथमिकता एकमात्र यही है कि सरकार को बचाया जाए।
अगर सरकार बच जाती है तो अगली प्राथमिकता निश्चित रूप से मई 2008 में होने वाले कुछ राज्यों और लोक सभा के चुनाव ही होंगे। चुनावी मौसम को देखते हुए सरकार किसी पचड़े में नहीं पड़ना चाहेगी। हालांकि सरकार के संकटमोचक नजर आ रहे समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह का कहना है, 'अभी तक तो हम आर्थिक मामलों में कमोवेश वामपंथियों के रास्ते पर ही चल रहे थे, लेकिन सरकार बचाने के बाद हम विभिन्न मुद्दों पर फिर से विचार करेंगे। हालांकि उन्होंने कहा कि रिटेल सेक्टर का निश्चित रूप से विरोध किया जाएगा।'
अब आर्थिक सुधारों पर विपक्ष और सहयोगी दल कितना सहयोग देते हैं, यह भविष्य के गर्भ में है। एक शायर के शब्दों में इतना ही कहा जा सकता है-
हरेक से सुना नया फसाना हमने,
देखा दुनिया में एक जमाना हमने।
अव्वल ये था कि वाकफियत पे था नाज,
आखिर ये खुला कि कुछ न जाना हमने॥
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Sunday, July 13, 2008
बिहार में भी मजदूरों की बहार
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सत्येन्द्र प्रताप सिंह /
कभी दूसरे राज्यों को मजदूर मुहैया कराने वाले बिहार में भी अब मजदूरों की किल्लत हो गई है।
इसकी वजह से मौसमी फसलों में काम करने वाले मजदूरों की मजदूरी में एक साल के दौरान 40-60 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो चुकी है। इससे स्थानीय किसानों को संकट का सामना करना पड़ रहा है।चौंकिए नहीं! यह हकीकत है। अन्य विकल्प मिलने के बाद अब बिहार के अप्रशिक्षित मजदूर भी खेतों में काम नहीं करना चाहते।
बिहार के विभिन्न इलाकों में कई परियोजनाओं के तहत सरकारी काम हो रहे हैं। सरकार ने निर्देश दिए हैं कि मजदूरों को राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत काम दिया जाए। बिहार से सटे पूर्वी उत्तर प्रदेश में तो मजदूरों की चोरी हो रही है। चंदौली जिले के चकिया तहसील स्थित बरौड़ा गांव के रहने वाले प्रवीण सिंह बताते हैं, 'अभी हम लोग नौगढ़ से ट्राली पर मजदूर लेकर आ रहे थे। रास्ते में एक कस्बे में ड्राइवर चाय पीने लगा। उसी दौरान कु छ लोग आए और उन्होंने 10 रुपये अधिक मजदूरी देने को कहा और मजदूरों को साथ ले गए।'
बक्सर जिले के राजपुर गांव में चावल मिल चलाने वाले चंद्र प्रकाश 'मुकुंद' ने बताया, 'पिछले छह महीने से मजदूरों की किल्लत है। पहले प्रतिदिन 50 से 60 रुपये और दोपहर का भोजन दिए जाने पर मजदूर मिल जाते थे, लेकिन अब मजदूरी बढ़कर दोपहर के भोजन के साथ 80 से 100 रुपये प्रतिदिन हो गई है।'
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक प्रो. अरुण जोशी ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया, 'ताजा आंकड़ों के मुताबिक, एक हेक्टेयर (2.5 एकड़) जमीन में धान की फसल तैयार करने में 18-20 हजार रुपये का खर्च आता है। इसमें 55-65 प्रतिशत मजदूरी शामिल होती है। इसके बाद अगर कोई आपदा नहीं आई तो मोटा धान करीब 60 क्विंटल और महीन धान 45-50 क्विंटल तैयार होता है।' ऐसे में जब काम के अन्य अवसर मिल जाएं तो मजदूरी में विभिन्न इलाकों के हिसाब से 30 प्रतिशत से लेकर 70 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हो गई है। इसके अलावा डीजल, खाद और बीज के खर्च में भी 20 प्रतिशत तक का इजाफा हुआ है। प्रो. अरुण जोशी कहते हैं, 'अब हालत यह हो गई है कि कोई खेती नहीं करना चाहता। एक तो गांव में कोई सुविधा नहीं होती। साथ ही कृषि पर आने वाले खर्च में खेत का किराया नहीं शामिल होता, जैसा कि अन्य व्यवसायों में जोड़ा जाता है। पैदावार अधिक होने पर सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलना भी मुश्किल हो जाता है।'
खेत में मजदूरों की कमी को देखते हुए सरकार ने अब तक कोई कदम नहीं उठाया है। स्थानीय किसानों का कहना है कि सरकार को खेती के काम शुरू होने पर सरकारी काम रोक देना चाहिए, क्योंकि वैसे भी बरसात की वजह से उसमें खासी दिक्कत आती है। बिहार के एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने कहा कि इस तरह का संकट बढ़ना स्वाभाविक है। लोगों को काम मिल रहा है, ऐसे में किसान उनसे अपनी शर्तों पर काम नहीं करा सकते।
दिल्ली में तैनात बिहार सरकार के स्थानिक आयुक्त चंद्र किशोर मिश्र ने बताया कि अब यह कोशिश की जा रही है कि ज्यादा से ज्यादा मजदूरों को प्रशिक्षण दिया जाए। तकनीकी संस्थान जैसे औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान (आईटीआई) खोले जा रहे हैं और चल रहे शिक्षण संस्थानों को चाक-चौबंद किया जा रहा है। रिटेल क्षेत्र में प्रशिक्षण के लिए निजी क्षेत्रों से बातचीत चल रही है। सरकार का मानना है कि प्रशिक्षित श्रमिक विकास के क्षेत्र में ज्यादा योगदान करते हैं।
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Thursday, July 3, 2008
महंगाई की मार, किराये में बढ़ोतरी : बिखर रहे सपने
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अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें आज 142 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच गई हैं। बढ़ती कीमतों की मार उड्डयन क्षेत्र पर पड़ रही हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इस उद्योग की रीढ़ टूट रही है।
भारतीय कंपनियां तो बेहाल हैं ही, एयर फ्रांस, कैथे पैसिफिक , सिंगापुर एयरलाइंस, क्वांटाज, एमिरेट्स और यहां तक कि ब्रिटिश एयरवेज भी दिवालिया होने के कगार पर पहुंच रही हैं। ऐसे में सस्ती उड़ानें ख्वाब बनती जा रही हैं।
हवाई ईंधन का प्रभाव
अगर भारत की बात करें तो पिछले छह महीने में हवाई ईंधन (एटीएफ) की कीमतें दोगुनी हो गई हैं। साथ ही भारत में विभिन्न करों के चलते अन्य देशों की तुलना में एटीएफ की कीमतें 60 प्रतिशत ज्यादा हैं। उदाहरण के लिए अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में एटीएफ 100 रुपये है तो घरेलू सेवा प्रदाताओं को इसके 165 रुपये और भारत में ईंधन लेने वाले अंतरराष्ट्रीय सेवा प्रदाताओं को 135 रुपये देने पड़ते हैं। भारतीय विमानन उद्योग में एटीएफ की कुल खपत 20 लाख किलोलीटर है। भारत में अप्रैल तक एक टिकट पर ईंधन सरचार्ज 1650 रुपये था, जो अब 2250 रुपये से 2950 रुपये हो गया है।
घरेलू सेवा प्रदाताओं का कहना है कि अगर अंतरराष्ट्रीय दरों पर ही घरेलू बाजार में एटीएफ मिलने लगे तो इससे उन्हें सालाना 5000 से 5500 करोड़ रुपये का फायदा होगा, जो चालू वित्त वर्ष में हुए 8,000-10000 रुपये के कुल घाटे का करीब आधा है। हालत यह है कि सभी विमानन कंपनियां घाटे में चली गई हैं। जेट एयरवेज को 2007-08 की चौथी तिमाही में 221 करोड़ रुपये का घाटा हुआ, जबकि पिछले साल इसी तिमाही में कं पनी को 88 करोड़ का फायदा हुआ था।
स्पाइस जेट को 2008 में समाप्त वित्त वर्ष में 133.5 करोड़ रुपये का घाटा हुआ है। कंपनी का प्रतिदिन का घाटा 50 से 75 लाख रुपये हो गया है। कंपनी के परिचालन खर्च में 87 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। स्पाइस जेट के कुल खर्च में एटीएफ का योगदान 45 प्रतिशत है।
कंपनियों के बचाव के तरीके
स्पाइस जेट ने जयपुर की उड़ानें रद्द कर दी हैं और अपनी उड़ानों की संख्या 117 से घटाकर 97 कर दी हैं। इसी तरह से किंगफिशर एयरलाइंस ने 17 और डेक्कन एयरलाइंस ने 20 उड़ानें खत्म की हैं। एयर इंडिया ने मुंबई-चेन्नई-मुंबई मार्ग पर उड़ानें कम की हैं और वह अंतरराष्ट्रीय उड़ानों में भी कटौती की योजना बना रही है।
गो एयर के प्रबंध निदेशक जो वाडिया ने कहा है कि हम कंपनी का आकार घटा रहे हैं। उड़ानों की संख्या में कटौती की गई है, कुछ मार्गों पर परिचालन बंद कर दिया गया है। इसके साथ ही जेट एयरवेज, किंगफिशर एयरलाइंस और एयर इंडिया ने ट्रैवल एजेंटों को दिए जाने वाले कमीशन में 5 प्रतिशत की कमी करने की घोषणा की है।
मार गई महंगाई
ऐसा नहीं है कि कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी ही विमानन कंपनियों को मार रही है। बढ़ती महंगाई के चलते हवाई यात्रा करने वाले लोगों की संख्या में भी कमी आई है। एयरपोर्ट अथारिटी आफ इंडिया के आंकड़ों के मुताबिक गोवा, पटना, तिरुवनंतपुरम, श्रीनगर- यहां तक कि जम्मू, उदयपुर और जोधपुर जैसे पर्यटन स्थलों पर जाने वाले यात्रियों की संख्या में कमी आई है। पिछले 4 साल से हवाई यात्रा करने वालों की संख्या में 30-40 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो रही थी, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो यह बढ़ोतरी एक अंक तक सिमट गई है।
बेंगलुरु और हैदराबाद में ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट बने और 35 नान मेट्रो शहरों में एयरपोर्ट के विस्तार और नवीकरण की योजना बन रही थी, अब वह भी धराशायी होती नजर आ रही है। कंपनियों ने विस्तार योजनाएं रोक दी हैं। महंगाई इस कदर बढ़ी है कि दाल-चावल का जुगाड़ करने में ही आम लोगों के पसीने छूट रहे हैं। बढ़ता किराया हवाई उड़ान का आनंद लेने का सपना सजोने वालों को हकीकत से दूर ले जा रहा है। बिजनेस क्लास में यात्रा करने वाले इकनॉमी क्लास में यात्रा करने लगे हैं। गालिब के शब्दों में कहें तो-
निकलना खुल्द से आदम का सुनते आए थे लेकिन,
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले।
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Tuesday, July 1, 2008
रोजगार गारंटी योजना में बलि का बकरा बनते लोग
उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के दूधी ब्लाक में राजखेड़ा पंचायत की अध्यक्ष सोनमती देवी इस समय जेल में हैं। उनकी तरह ही देश भर में तमाम निरक्षर महिलाएं अध्यक्ष के रूप में काम कर रही हैं।
दरअसल वे कठपुतली की तरह काम करती हैं और उनके परिवार के पुरुष सदस्य पंचायत का कामकाज देखते हैं। सोनमती देवी को राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में घोटाले का दोषी पाया गया है। इस योजना में नियमों के मुताबिक गांव के गरीबों को 100 दिन के रोजगार की गारंटी दी जाती है।
जब इस साल जनवरी महीने में उनके खिलाफ प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज की गई तो दूधी ब्लॉक के सभी 50 पंचायत अध्यक्ष सोनमती देवी के पीछे खड़े हो गए। उन्होंने इस रोजगार गारंटी योजना को कार्यान्वित करने से इनकार कर दिया। सच कहें तो उन सभी को इस बात का खतरा था कि रोजगार गारंटी योजना लागू करने में मानकों का पालन न करने के लिए सभी को जेल जाना पड़ सकता है।
उनका आरोप था कि उन पर 30 प्रतिशत धनराशि प्रखंड विकास अधिकारी (बीडीओ) और उनके सहायकों को देने के लिए मजबूर किया जाता है, तभी योजना के तहत मिलने वाला धन मिल पाता है। जाहिर है कि ऐसे में धन के गबन का आरोप लग सकता है। ऑडिट भी बीडीओ कार्यालय द्वारा किया जाता है। पंचायत जितना भी भुगतान करती है, उस पर सवाल खड़े किए जा सकते हैं। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि बीडीओ द्वारा भेजे गए इंजीनियर क्या निष्कर्ष निकालते हैं। सोनमती देवी के पति अंबिका प्रसाद का कहना है कि उनकी पत्नी निर्दोष है और उन्होंने अधिकारियों को रिश्वत नहीं दी, इसलिए उन्हें फंसाया गया है।
इसके पीछे सच्चाई जो भी हो, लेकिन एक असहाय महिला अब जेल की सलाखों में है। रोजगार गारंटी योजना को लागू करने में बीडीओ की अहम भूमिका होती है, लेकिन फिर भी वह महिला योजना की भेंट चढ़ गई। वहीं बीडीओ और उसके सहयोगी इस मामले से पूरी तरह अलग रहे और उन पर कोई आरोप तक नहीं लगा। सोनमती देवी की गिरफ्तारी के एक सप्ताह बाद दूधी ब्लाक में एक आदेश आया कि अब मजदूरी के रूप में दिए जाने वाले धन का स्थानांतरण सीधे ग्राम प्रधान के खाते में किया जाए।
हालांकि गिरफ्तारी से इसका कोई संबंध नहीं था, लेकिन इस आदेश से समस्या के एक अंश का ही हल हो पाएगा। मानकों का पालन किए जाने की जांच करने में सरकारी कर्मचारियों की भूमिका अहम है और मजदूरी के भुगतान के मामले की जांच किए जाने के अधिकार को लेकर अभी भी वे मजबूत स्थिति में हैं। इस तरह से अगर देखें तो सोनमती देवी की गिरफ्तारी के बाद भी इस तरह से बलि का बकरा बनाए जाने वाले लोगों की संख्या में कोई कमी नहीं आने वाली है या इसका खात्मा नहीं होने जा रहा है।
जो भ्रष्ट लोगों पर उंगलियां उठाते हैं, वे भी सुरक्षित नहीं हैं। उड़ीसा के कोरापुट जिले के नारायणपटना ब्लाक की भी कहानी कुछ ऐसी ही है। इस ब्लाक के बोरीगिरि पंचायत के अध्यक्ष और आदिवासी नेता नारायण हरेका की पिछले 9 मई को हत्या कर दी गई। वह उड़ीसा आदिवासी मंच के ब्लॉक संयोजक थे। उन्होंने एक सर्वे किया था, जिसमें पाया गया कि रोजगार गारंटी योजना के तहत जारी किए गए रोजगार कार्ड में से 35 प्रतिशत का वितरण नहीं किया गया है।
पिछले साल उन्होंने इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया। इसका परिणाम यह हुआ कि विभिन्न इलाकों में 40 प्रतिशत से लेकर 90 प्रतिशत तक रोजगार कार्ड वितरित किए गए। उड़ीसा आदिवासी मंच के इस नेता ने संवाददाताओं से कहा कि आम लोगों को इस योजना के बारे में पूरी तरह से अंधेरे में रखा जाता है और ठेकेदार, रोजगार कार्ड का दुरुपयोग करके पैसा बनाते हैं। निश्चित रूप से इस विरोध प्रदर्शन से उनके हितों को नुकसान पहुंचा। अभी हाल ही में इस योजना में शहीद होने वालों में कामेश्वर यादव का भी नाम जुड़ गया है।
यादव झारखंड के गिरिडीह जिले के सीपीआई (एमएल) की ब्लॉक समिति के सदस्य थे, जिनकी लाश 7 जून को मिली। कामेश्वर, रोजगार गारंटी योजना में ठेकेदारों और बिचौलियों के भ्रष्ट तौर तरीकों के खिलाफ आवाज उठा रहे थे। साथ ही वह लाभार्थियों को भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों के खिलाफ लामबंद कर रहे थे। कामेश्वर की हत्या के बाद रोजगार गारंटी योजना पर काम कर रहे झारखंड के पलामू जिले के एक और कार्यकर्ता ललित मेहता की हत्या हुई। मेहता पहले सिविल इंजिनियर थे, जो बाद में स्वयंसेवी बन गए।
कांदड़ा के जंगलों में 14 मई को उनकी हत्या कर दी गई। उन्होंने सामाजिक जांच के माध्यम से छतरपुर ब्लॉक में चल रहे रोजगार गारंटी योजना में हुई अनियमितताओं को उजागर किया था। ये कुर्बानियां भ्रष्टाचार को दी गईं या निरक्षरता को? निरक्षर और गरीब लोगों के लिए रोजगार गारंटी योजना लागू की गई, जिनसे उन्हें दो वक्त की रोटी मिल सके। अब ऐसी हालत में इसका खयाल कौन रखेगा कि इस योजना को सही ढंग से लागू किया जा रहा है या नहीं।
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