Thursday, July 31, 2008

...रस्ते बड़े कठिन हैं चलना संभल-संभल के

सत्येन्द्र प्रताप सिंह



'हमें यह नहीं सोचना है कि दुनिया हम पर कितना प्रभाव डालती है, हमें यह देखना है कि हम दुनिया पर कितना प्रभाव डालते हैं।'

विश्वास प्रस्ताव के दौरान संसद में कांग्रेस नेता राहुल गांधी का यह बयान देश के बढ़ते आत्मविश्वास को प्रदर्शित करता है। भारत अमेरिका परमाणु करार का सकारात्मक पहलू यह है कि परमाणु परीक्षणों के बाद अलग-थलग पड़ा भारत अन्य देशों से नागरिक उपयोग के लिए परमाणु के क्षेत्र में सहयोग पा सकेगा।

वहीं इस करार के आलोचकों का कहना है कि समझौते के बाद हमारी स्वतंत्रता नहीं रहेगी और हम अमेरिका की निगरानी में रहेंगे।

परमाणु करार की जरूरत

पोखरण में हुए परमाणु परीक्षणों के बाद अमेरिका और कई अन्य देश भारत के खिलाफ हो गए थे। कई देशों ने भारत के खिलाफ परमाणु प्रतिबंध तक लगा दिया। भारत को बड़े पैमाने पर परमाणु ऊर्जा विकसित करने के लिए परमाणु संयंत्रों हेतु यूरेनियम उपलब्ध नहीं है। हालत यह है कि परमाणु रिएक्टरों को बंद करने की नौबत आ गई। भारत को अंतरराष्ट्रीय बाजार की ओर देखना ही था।

करार के रास्ते

भारत और अमेरिका के बीच 18 जुलाई 2005 को समझौता हुआ। इसमें शर्त रखी गई कि भारत को जिन रिएक्टरों और प्रतिष्ठानों को अपने सैनिक कार्यक्रम से अलग रखना है, उनके लिए वह अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) के स्थायी सुरक्षा मानदंडों के लिए राजी हो। यह होने पर अमेरिका अपने प्रतिबंध हटा लेगा।

02 मार्च 2006 को दिल्ली में भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश के बीच हुई बातचीत के बाद विवादास्पद नाभिकीय समझौते पर सहमति बन गई। इस समझौते में भारत ने अपने कुल 22 नाभिकीय संयंत्रों में से 14 को नागरिक उपयोग का घोषित किया और इसे निगरानी के लिए खोल दिया। 3 अगस्त 2007 को नाभिकीय 123 समझौते के प्रारूप को दोनों देशों में एक साथ जारी किया गया। वामपंथियों ने 18 जून 2008 को कहा कि वे भारत सरकार के सेफगार्ड पैक्ट पर दस्तखत करने के खिलाफ हैं।

समर्थकों का तर्क

भारत सरकार का कहना है कि ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए परमाणु ऊर्जा की सख्त जरूरत है। अब तक भारत ने 17 परमाणु रिएक्टर बना रखे हैं, जिनमें सबसे बड़े रिएक्टर से 540 मेगावाट बिजली बन सकती है। परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष डॉ. अनिल काकोडकर का कहा है कि यदि 2012 और 2020 के बीच भारत 40 हजार मेगावाट के रिएक्टर आयात कर सका तो भारत में परमाणु बिजली की कमी दूर हो जाएगी।

करार से बेकरारी

करार का विरोधी तर्क देते हैं कि परमाणु बिजली विकास भारत अपने दम पर कर रहा है और भविष्य में भी करता रहेगा। इससे ऊर्जा सुरक्षा का कोई लेना देना नहीं है। पूरा समझौता कयासों पर आधारित है। विरोध करने वालों का तर्क है कि परमाणु बिजली महंगी है। डील के बाद अगर हम 40 रिएक्टर आयात करते हैं तो इसके लिए 100 अरब डॉलर का खर्च कहां से आएगा।

पड़ोसी का दर्द

मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु करार पर पाकिस्तान ने ऐतराज जताया है। पाकिस्तान को डर है कि करार हो जाने के बाद भारत, परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में सशक्त बन जाएगा और इससे उसके हथियारों के बढ़ने की आशंका भी है। उसने करीब 60 देशों को पत्र भेजा, जिसमें परमाणु करार पर भारत के बढ़ते कदम को रोकने की गुजारिश की गई है।

3 मार्च 2006 को नई दिल्ली पुराना किला से दिए गए अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश के भाषण में कहा गया कि 'अब दुनिया बदल चुकी है और विभाजित दुनिया में जो भारत-अमेरिका के बीच संबंध थे उस समय की हालत से अब बहुत परिवर्तन आ चुका है। दोनों देशों का आधार, लोकतंत्र है और 21वीं सदी में हम एक दूसरे के सबसे बड़े सहयोगी साबित हो सकते हैं।' भारत में उदारीकरण की नीति को लागू होने पर इसके विरोधियों ने कहा था कि विदेशी कंपनियां, हमारी घरेलू बहुराष्ट्रीय कंपनियों तक को निगल जाएंगी। लेकिन अब तो हालत बिल्कुल उटल है।

करार के सकारात्मक पहलू को देखें तो इसके बाद भारत, परमाणु उत्पादों के वैश्विक बाजार में उतरेगा। यह भी हो सकता है कि मानव संसाधन और अपनी सस्ती तकनीक की बदौलत भविष्य में वह सबसे बड़ा न्यूक्लियर सप्लायर बनकर उभरे। बहरहाल परमाणु करार के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही पहलू हैं और देश को इस मामले में बहुत संभलकर चलना होगा। शकील बदायूंनी के शब्दों में कहें तो-
देखो कदम तुम्हारा हरगिज न डगमगाए,
रस्ते बड़े कठिन हैं, चलना संभल-संभल के।


courtesy: bshindi.com

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