Thursday, July 24, 2008

कभी सूरज है बालों पर, कभी शामें हैं चेहरे पर...


सत्येन्द्र प्रताप सिंह



भारत में नव उदारवाद की नीति को लागू हुए करीब 17 साल होने जा रहे हैं। इसे राजनीतिक आंदोलन के रूप में लिया जा सकता है, जो 1970 में आई वैश्विक मंदी के बाद दुनिया के तमाम देशों में लागू किया गया था।

भारत में नव उदारवाद के दूसरे चरण में- क्षेत्र के आधार पर परमाणु ऊर्जा में निजीकरण, रक्षा के क्षेत्र में निजीकरण और बैंकिंग क्षेत्र को खोलने की कवायद चल रही है। नव उदारवाद के दौरान भारत में जीडीपी और विकास दर में बढ़ोतरी भी दर्ज की गई है और यह पहले की तुलना में अधिक रही है। अब केंद्र की मनमोहन सरकार ने विश्वास मत हासिल कर लिया है।

4 साल 2 महीने तक वामपंथियों के समर्थन में बहुत से बंधन लगे और तमाम विधेयक रुके रहे, जिन्हें केंद्र सरकार आर्थिक सुधारों के लिए जरूरी समझती थी। नव उदारवाद के समर्थक रहे वर्तमान प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री एक बार फिर अपने रंग में हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित्तमंत्री पी. चिदंबरम और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया की तिकड़ी एक बार फिर नव उदारवाद के दूसरे चरण को शुरू करने के लिए बेताब हैं।

भारतीय कम्युनिस्ट पाटी की साप्ताहिक पत्रिका पीपुल्स डेमोक्रेसी में कहा गया है कि, 'इसका प्रभाव यह रहा है कि भारत में डॉलर के हिसाब से करीब 40 अरबपति बने हैं वहीं आम लोगों का जीवन स्तर बिगड़ा है। जहां 1973-74 में 56.4 प्रतिशत लोगों को 2200 कैलोरी से कम पौष्टिकता वाला भोजन मिलता था, 1993-94 में यह बढ़कर 58.5 प्रतिशत और 2004-05 में 64.5 प्रतिशत पहुंच गया।' मतलब साफ है। जहां आईटी, दूरसंचार, सेवा क्षेत्र में विकास हुआ वहीं संतुलन में कमी आई और कृषि क्षेत्र में विकास नहीं के बराबर हुआ। गरीबी, भुखमरी और कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या बढ़ गई।

वैसे तो 1991 में केंद्र में सत्तासीन हुई कांग्रेस के वित्तमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकरण की ठोस बुनियाद रखी थी। बाजार को खोले जाने की व्यापक कोशिश उसी समय हुई। उसके बाद आई सरकारें कमोबेश उसी राह पर चलती रहीं, जिस पर मनमोहन सिंह ने चलना सिखाया था। अपनी दूसरी पारी में जब मनमोहन प्रधानमंत्री बने तो नव उदारवाद को रंग देने की सरकार की इच्छा तो नजर आई लेकिन वामपंथियों के बाहरी समर्थन ने उनका हाथ रोक रखा था।

हालांकि इसके पहले भी उदारीकरण की चोरी-छुपे कोशिशें की गई थीं। इंदिरा गांधी ने 1980 में सत्ता संभालने के बाद औद्योगिक लाइसेंसिंग और बड़े उद्योगों पर लगे बंधनों को कम किया। वर्ष 1984 में राजीव गांधी ने औद्योगिक गैर नियमन, विनिमय दरों में छूट और आयात नियंत्रणों को आंशिक रूप से हटाए जाने संबंधी कुछ कदम उठाए। लेकिन ये 1991 में उठाए गए कदमों की तुलना में मामूली ही थे। नव उदारवाद के बाद भारत में दो प्रमुख बदलाव नजर आते हैं। पहला- विकास दर में बढ़ोतरी और दूसरा- वित्तीय घाटे में तेजी से कमी।

सरकार के विश्वास मत हासिल करने के बाद स्वाभाविक है कि अब पुराने पड़े तमाम एजेंडों को लागू करने की कोशिशें फिर से शुरू होंगी। इसमें बैंकिंग विधेयक, पेंशन विधेयक, लेबर रिफार्म विधेयक, बीमा क्षेत्र में विदेशी पूंजी बढ़ाए जाने का मसला सहित तमाम मुद्दे फिर से जिंदा होंगे, जो वामपंथियों के विरोध के चलते ठंडे बस्ते में डाल दिए गए थे। इसके अलावा अमेरिका से परमाणु समझौते के बाद बिजली उत्पादन के लिए भारी भरकम निवेश की जरूरत होगी, उसके लिए भी सरकार की कोशिश होगी कि निजी क्षेत्र आगे आएं। इसके अलावा सैन्य क्षेत्र में भी सरकार निजी क्षेत्र का मुंह देख रही है।

इस सिध्दांत के तहत बुनियादी जरूरतों के क्षेत्र में भी सरकार की हिस्सेदारी कम किए जाने की बात की जाती है- चाहे वह सड़क निर्माण, शिक्षा या पेय जल जैसी जीवन की मूलभूत जरूरतों से संबंधित मामला ही क्यों हो। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि आर्थिक उदारीकरण के बाद भारत और चीन जैसे विकासशील देशों को लाभ हुआ है। यहां के जीवन स्तर में सुधार आया है, लेकिन वैश्विक मंदी को देखते हुए पश्चिमी देशों में यह सवाल उठने लगे हैं कि क्या खुली बाजार व्यवस्था को समेटने की जरूरत है?

मार्गन स्टैनली का मानना है कि वैश्विक मंदी अब अंतिम दौर में है। अगर यह भविष्यवाणी सही साबित होती है तो यह संभावनाएं भी प्रबल हो जाएंगी कि आर्थिक सुधार की गति को तेज करने का असर तेजी से हो और गिरती विकास दर और बढ़ती महंगाई पर काबू पाया जा सके। सरकार भी कुछ वैसा ही रंग बदलते नजर रही है, जैसा पाकिस्तान की शायर शाहिदा हसन कहती हैं-
कभी सूरज है बालों पर, कभी शामें हैं चेहरे पर
सफर करते हुए रंगत बदलती जा रही हूं मैं।

courtesy_ bshindi.com

1 comment:

Udan Tashtari said...

आभार इस आलेख के लिए.