सत्येन्द्र प्रताप सिंह /
कभी दूसरे राज्यों को मजदूर मुहैया कराने वाले बिहार में भी अब मजदूरों की किल्लत हो गई है।
इसकी वजह से मौसमी फसलों में काम करने वाले मजदूरों की मजदूरी में एक साल के दौरान 40-60 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो चुकी है। इससे स्थानीय किसानों को संकट का सामना करना पड़ रहा है।चौंकिए नहीं! यह हकीकत है। अन्य विकल्प मिलने के बाद अब बिहार के अप्रशिक्षित मजदूर भी खेतों में काम नहीं करना चाहते।
बिहार के विभिन्न इलाकों में कई परियोजनाओं के तहत सरकारी काम हो रहे हैं। सरकार ने निर्देश दिए हैं कि मजदूरों को राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत काम दिया जाए। बिहार से सटे पूर्वी उत्तर प्रदेश में तो मजदूरों की चोरी हो रही है। चंदौली जिले के चकिया तहसील स्थित बरौड़ा गांव के रहने वाले प्रवीण सिंह बताते हैं, 'अभी हम लोग नौगढ़ से ट्राली पर मजदूर लेकर आ रहे थे। रास्ते में एक कस्बे में ड्राइवर चाय पीने लगा। उसी दौरान कु छ लोग आए और उन्होंने 10 रुपये अधिक मजदूरी देने को कहा और मजदूरों को साथ ले गए।'
बक्सर जिले के राजपुर गांव में चावल मिल चलाने वाले चंद्र प्रकाश 'मुकुंद' ने बताया, 'पिछले छह महीने से मजदूरों की किल्लत है। पहले प्रतिदिन 50 से 60 रुपये और दोपहर का भोजन दिए जाने पर मजदूर मिल जाते थे, लेकिन अब मजदूरी बढ़कर दोपहर के भोजन के साथ 80 से 100 रुपये प्रतिदिन हो गई है।'
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक प्रो. अरुण जोशी ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया, 'ताजा आंकड़ों के मुताबिक, एक हेक्टेयर (2.5 एकड़) जमीन में धान की फसल तैयार करने में 18-20 हजार रुपये का खर्च आता है। इसमें 55-65 प्रतिशत मजदूरी शामिल होती है। इसके बाद अगर कोई आपदा नहीं आई तो मोटा धान करीब 60 क्विंटल और महीन धान 45-50 क्विंटल तैयार होता है।' ऐसे में जब काम के अन्य अवसर मिल जाएं तो मजदूरी में विभिन्न इलाकों के हिसाब से 30 प्रतिशत से लेकर 70 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हो गई है। इसके अलावा डीजल, खाद और बीज के खर्च में भी 20 प्रतिशत तक का इजाफा हुआ है। प्रो. अरुण जोशी कहते हैं, 'अब हालत यह हो गई है कि कोई खेती नहीं करना चाहता। एक तो गांव में कोई सुविधा नहीं होती। साथ ही कृषि पर आने वाले खर्च में खेत का किराया नहीं शामिल होता, जैसा कि अन्य व्यवसायों में जोड़ा जाता है। पैदावार अधिक होने पर सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलना भी मुश्किल हो जाता है।'
खेत में मजदूरों की कमी को देखते हुए सरकार ने अब तक कोई कदम नहीं उठाया है। स्थानीय किसानों का कहना है कि सरकार को खेती के काम शुरू होने पर सरकारी काम रोक देना चाहिए, क्योंकि वैसे भी बरसात की वजह से उसमें खासी दिक्कत आती है। बिहार के एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने कहा कि इस तरह का संकट बढ़ना स्वाभाविक है। लोगों को काम मिल रहा है, ऐसे में किसान उनसे अपनी शर्तों पर काम नहीं करा सकते।
दिल्ली में तैनात बिहार सरकार के स्थानिक आयुक्त चंद्र किशोर मिश्र ने बताया कि अब यह कोशिश की जा रही है कि ज्यादा से ज्यादा मजदूरों को प्रशिक्षण दिया जाए। तकनीकी संस्थान जैसे औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान (आईटीआई) खोले जा रहे हैं और चल रहे शिक्षण संस्थानों को चाक-चौबंद किया जा रहा है। रिटेल क्षेत्र में प्रशिक्षण के लिए निजी क्षेत्रों से बातचीत चल रही है। सरकार का मानना है कि प्रशिक्षित श्रमिक विकास के क्षेत्र में ज्यादा योगदान करते हैं।
courtesy: bshindi.com
2 comments:
सत्येंद्र जी आपने बिहार का अच्छा खाका खींचा है। खासकर यहां पर मजदूरों की स्थिति लंबे समय से बहस का हिस्सा रहे हैं। यहां के मजदूरों की बदौलत ही देश के कई राज्यों ने उन्नत कृषि राज्य का दर्जा हासिल किया है। लेकिन अब आपके अनुसार यदि बिहार में ही यहां के लोगों के मजदूरी मिल रही है तो यह स्वागतयोग्य है। देखना यह है कि जिन मजदूरों की बदौलत अन्य राज्यों ने समृद्धि अर्जित की है, बिहार वैसा कर पाता है या नहीं। बिहार को भी देखना होगा कि जिन मजदूरों ने परदेश छोड़कर अपने राज्य में ही मजदूरी तलाशनी शुरू की है अनके साथ न्याय कर पाता है या नहीं। वैसे बिहार बदल रहा है, इसमें कोई शक नहीं पर देखना यह है कि यह कितना बदल रहा है और इसके बदलाव की दिशा क्या है। आपने अच्छा मुद्दा उठाया है। इस तरह के लेख की आपसे हम और उम्मीद करते हैं।
यथार्थ और सटीक चित्रण। साधुवाद।
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