Sunday, May 11, 2008

पढ़े फारसी, बेचे तेल!


श्यामल मजूमदार

स्मिता राजन (बदला हुआ नाम) ने मुंबई के किसी साधारण बिजनेस स्कूल से एमबीए की डिग्री हासिल की है।
जब उन्हें भारत के एक नामीगिरामी बैंक के मार्केटिंग डिपार्टमेंट से नौकरी का ऑफर आया, तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। शुरूआत करने के लिहाज से वेतन भी ठीकठाक था और साथ ही बेहतर करियर की संभावना भी नजर आ रही थी।
एक साल बाद स्मिता के पापा को पांच लाख के लोन का जुगाड़ करना पड़ा। यह राशि स्मिता के बैंक को अदा करना थी। दरअसअल बैंक के साथ स्मिता के करार के मुताबिक, अगर दो साल से पहले वह नौकरी छोड़ती है तो उसे पांच लाख रुपये बैंक को देने होंगे। हालांकि स्मिता के पापा का कहना है कि अपनी बेटी की प्रताड़ना को देखने के बजाय वह इससे भी ज्यादा लोन का भार सहना करना पसंद करते।
आइए अब स्मिता की आपबाती के बारे में जानते हैं। 24 साल की इस लड़की को दफ्तर में सुबह 9 बजे से रात 10 बजे तक गुजारना पड़ता था। यही नहीं खाता खुलवाने के लिए उन्हें लोगों को प्रेरित करने के लिए हर घर का दरवाजा खटखटाना पड़ता था। टार्गेट नहीं पूरा होने के मद्देनजर 3 महीने उनके वेतन में शामिल वैरिएबल की राशि में से 8500 रुपये काट लिए गए।
स्मिता के पिता के मुताबिक, इस काम के लिए एमबीए को बहाल करने की कोई जरूरत नहीं है। उनकी बेटी पूरी तरह टूट चुकी है और बैंक ने स्मिता का आत्मविश्वास खत्म कर दिया है। आलम यह है कि बैंक ने टेलर मशीनों की देखरेख के लिए भी एमबीए डिग्री प्राप्त लोगों की भर्ती कर रखी है।
इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि स्मिता इस मामले में अकेली नहीं है। भारत में रोजगार के अंबार का ढिंढोरा पीटे जाने के बीच कई ऐसे उदाहरण मौजूद हैं। इसी तरह देवाशीष भौमिक (बदला हुआ नाम) ने कोलकाता के किसी प्राइवेट संस्थान से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की है। वह किसी विंडमिल कंपनी में नौकरी करने नवी मुंबई पहुंचे। इस कंपनी का मुख्यालय यूरोप में है। इस कंपनी में भौमिक का जॉब प्रोफाइल सिक्युरिटी गार्ड से थोड़ा ही बेहतर था।
हालांकि वह खुशकिस्मत रहे और उन्हें चार महीने के भीतर दूसरी नौकरी मिल गई। उन्होंने बताया कि पिछली कंपनी के उनके बॉस ने उन्हें कंपनी के गोदामों में सिक्युरिटी सिस्टम पर प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार करने को कहा था। दरअसल कंपनी को आशंका थी कि उसके गोदामों में छिटपुट चोरी का सिलसिला काफी तेज है। इसके तहत इस इंजीनियरिंग ग्रैजुएट को गोदाम सिस्टम की गड़बड़ियों का पता लगाने के लिए सिक्युरिटी ऑफिस में बैठने का निर्देश दिया गया।
इस काम के दौरान भौमिक ने पाया कि लंच के दौरान जब सिक्युरिटी गार्ड खाना लाने के लिए कैंटीन जाता है, तो गोदाम की देखभाल करने वाला कोई नहीं होता। भौमिक की इस राय से प्रभावित हो होकर उनके बॉस ने उन्हें यह पता लगाने का निर्देश दिया कि ऐसा चाय या डिनर के दौरान हो रहा है या फिर सिक्युरिटी गार्ड्स हमेशा गेट को छोड़कर टॉयलेट जाते रहते हैं।
भौमिक ने अपने इस्तीफा पत्र में लिखा कि मैंने लोगों की चाय और टॉयलेट की आदतों पर गौर करने के लिए इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल नहीं की है। अब हम एक फर्स्ट क्लास से पास बी. कॉम. ग्रैजुएट की बात करते हैं। यह जनाब बीपीओ में बतौर सर्विस ऑफिसर काम करते हैं। उनका ऑफिस शाम 4 बजे से शुरू होता है और रात को 2 बजे डयूटी खत्म होती है।
अत्याधिक काम के बोझ और अनियमित रूटीन की वजह से अक्सर उन्हें स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से जूझना पड़ रहा है। सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि कंपनी ने उन्हें अमेरिकी एक्सेंट में अंग्रेजी बोलना सीखने के लिए जीभ के नीचे मार्बल रखकर अंग्रेजी बोलने का अभ्यास करने को कहा है। कंपनी में नौकरी छोड़कर जाने वालों की तादाद (30 से 40 फीसदी) काफी ज्यादा है।
इसके बावजूद कंपनी को इसकी कोई चिंता नहीं है, क्योंकि अंग्रेजी बोलने वाले ग्रैजुएट्स की भरमार होने के कारण उसे कभी भी कर्मचारियों की किल्लत का सामना नहीं करना पड़ता। 12 हजार रुपये प्रति महीना पर काम करने के लिए ऐसे ग्रैजुएट्स की कतार लगी होती है। फर्स्ट क्लास से पास करने वाले ग्रैजुएट्स और अपेक्षाकृत कम नामीगिरामी संस्थानों से इंजीनियरिंग या एमबीए की डिग्री लेने वालों से बात करने पर एक आम बात उभर कर सामने आती है।
वह यह कि कंपनियां इंसेंटिव का लालच देकर लोगों को ऐसा बिजनेस लक्ष्य देती हैं, जिन्हें हासिल करना मुमकिन नहीं होता। साथ ही जॉब प्रोफाइल भी ठीक नहीं होता। ऐसे वक्त में जब सभी लोग भारत में रोजगार के बढ़ते अवसरों की दुहाई दे रहे हैं, ये उदाहरण बताते हैं कि भारतीय कंपनियों की भर्ती का तरीका काफी बेतरतीब है और इस प्रक्रिया में योग्यता और जॉब प्रोफाइल का सामंजस्य बिल्कुल भी नजर नहीं आता।
इसके मद्देनजर लार्सन एंड टूब्रो के चेयरमैन ए. एम नायक ने आईटी कंपनियों पर नाराजगी जताते हुए कहा था कि यह सेक्टर इंजीनियरों को हाईजैक कर रहा है, जबकि उन्हें सिर्फ बी. कॉम. ग्रैजुएट्स की जरूरत है। जरूरत से ज्यादा योग्यता वाले लोगों की नियुक्ति के बारे में कंपनियों की दलील है कि जिस देश में हर दूसरा शख्स फर्स्ट क्लास ग्रैजुएट, इंजीनियर या एमबीए है, वहां इस तरह की घटनाओं को रोकना संभव नहीं है।
इसके अलावा दूसरे दर्जे के इन संस्थानों में पढ़ाई की क्वॉलिटी भी स्तरीय नहीं होती है और इस वजह से कंपनियों को इन लोगों को नए सिरे से प्रशिक्षित करना पड़ता है। एक कंपनी के एचआर मैनेजर के मुताबिक, ट्रेनिंग के बाद भी ऐसे लोग अपनी डिग्री से खुद को जोड़ने में सक्षम नहीं हो पाते और इस वजह से कंपनियों को इन लोगों को कोर्स से अलग जॉब प्रोफाइल मुहैया कराने के सिवा कोई चारा नहीं रहता।
उनकी इस बात में दम हो सकता है। अध्ययन बताते हैं कि भारत में चार में सिर्फ एक ग्रैजुएट के पास उचित रोजगार प्राप्त करने की योग्यता होती है। मतलब यह है कि जब तक शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार नहीं होता है, बाकी तीन लोगों को बैंकों में खाते खुलवाने के लिए लोगों को राजी करने, लोगों की चाय और टॉयलेट संबंधी आदतों की निगरानी करने और आधी रात में अपनी अमेरिकन एक्सेंट सुधारने जैसे कामों से खुद को संतुष्ट रखना पड़ेगा।


sआभार_ www.bshindi.com

Friday, May 9, 2008

30 साल का हुआ साइबर नटवरलाल


सत्यव्रत मिश्र


अभी हाल में साइबर स्पेस के एक बड़े नाम का 30वां जन्मदिन था। एक ऐसा नाम जिस सुन कई लोगों के पसीने छूट जाते हैं, तो कई लोगों का गुस्से सातवें आसमान को पार कर जाता है।
एक ऐसा कुख्यात नाम जो कई लोगों की जीवन भर की गाढ़ी कमाई लेकर चंपत हो चुका है। हुजूर, साइबर स्पेस के इस मिस्टर नटवरलाल को लोग-बाग को जानते हैं स्पैम के नाम से। जी हां, आपके और हमारे जीवन को मुहाल कर देने वाला स्पैम तीन मई को 30 साल का हो गया।
अपने 30 साल की इस जिंदगी में उसने जितना लोगों को हैरान और परेशान किया है, उतना तो किसी कंप्यूटर वाइरस ने भी आज तक नहीं किया है। जाहिर सी बात है इस बर्थडे के मौके पर आप केक खाने की इच्छा तो नहीं कर सकते।


क्या बला है यह?
स्पैम एक ही तरह के हजारों ईमेल मैसेजों को कहते हैं, जो हजारों लोगों को भेजे जाते हैं। इसके लिए उन लोगों से इस बात की सहमति भी नहीं ली जाती है कि वे लोग इन ईमेलों को रिसीव करना चाहते भी हैं या नहीं। स्पैम का दूसरा नाम है बल्क ईमेल या जंक ईमेल।
कानूनी जुबान में इसे कहते हैं अनसौलिसिटेड बल्क ईमेल्स (यूबीई)। इस हिसाब से किसी ईमेल को स्पैम करार देने के लिए यह जरूरी है कि वह भारी तादाद में भेजे गए हों और उन्हें प्राप्त करने के लिए लोगों ने सहमति नहीं दी हो।


कैसे हुई थी शुरुआत?
पहला स्पैम भेजा गया था तीन मई 1978 को। वह स्पैम भेजा गैरी थीयुरक ने अपरानेट के जरिये। अपरानेट को ही बाद में इंटरनेट के नाम से लोगों ने जाना। हालांकि, उस समय अमेरिका में इस सिस्टम का इस्तेमाल बस शुरू भर हुआ था। तब अपरानेट का इस्तेमाल केवल अमेरिकी सरकार की एजेंसियां, कंपनियां और बड़ी यूनिवर्सिटीज ही किया करती थीं।
इसी अपरानेट पर गैरी भाई साहब ने अपनी कंपनी डिजीटल इलेक्ट्रोनिक्स कॉरपोरेशन द्वारा विकसित किए गए एक नए सिस्टम का विज्ञापन डाल दिया। यह विज्ञापन उन्होंने 10 या 20 नहीं, बल्कि पूरे 350 लोगों को भेजा था। वैसे, तब भी जिन लोगों को यह मैसेज मिला था, उनमें से काफी ज्यादा लोगों ने इस मैसेज का कड़ा विरोध किया था। यानी तब से लेकर अब तक इसके प्रति लोगों का नजरिया ज्यादा नहीं बदला है।


स्पैम के प्रकार
स्पैम कई तरह के होते हैं। लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए स्पैमर तरह-तरह के तरीकों का सहारा लेते रहते हैं। इससे बचने का सबसे असरदार तरीका उनके बारे में जानकारी ही है। अलग-अलग तरह के स्पैमों की लिस्ट यह रही।


419 स्पैम : इसे नाइजीरियाई ईमेल स्कैम के नाम से भी जाना जाता है। यह लोगों से पैसे ठगने का सबसे कुख्यात तरीका है, इसी वजह से तो स्पैमर इसका इस्तेमाल भी धड़ल्ले से करते हैं। अक्सर इस तरह के स्पैम को भेजने वाला खुद नाइजीरिया, जॉर्जिया, उज्बेकिस्तान या ऐसे ही किसी अफ्रीकी, पूर्वी यूरोपीय या सोवियत संघ से अलग हुए किसी मुल्क का ऐसा उच्चाधिकारी बताता है।
स्पैमर अपने शिकार को यह कहकर फांसने की पूरी कोशिश करता है कि आपने एक लॉटरी में लाखों डॉलर की रकम जीती है और प्रोसेसिंग फी के नाम पर आपको एक 'छोटी-सी' रकम चुकानी पड़ेगी। अगर आपने उस ऑफर में रुचि दिखलाई तो वह आपको असली से दिखने वाले नकली कागजात भी भेज देगा। फिर जैसे ही अपने रकम चुकाई, वह इंसान आपके पैसों के साथ गायब हो जाएगा। इससे बचने का इकलौता तरीका यही है कि इस तरह के ईमेलों का जवाब ही नहीं दें।


फिशिंग : इसमें स्पैमर आपको एक ईमेल भेजता है, जिसमें आपको नीचे दिए हाइपरलिंक पर जाकर अपने बैंक अकाउंट नंबर, इंटरनेट पासवर्ड और अकाउंट से संबंधित दूसरी बातों को 'अपडेट', 'वेरीफाई' या 'कन्फर्म' करने के लिए कहा जाता है। जैसे ही आप ऐसा करते हैं, रातोंरात ही आपका बैंक अकाउंट की अच्छी-खासी तरीके से 'सफाई' हो जाती है। इकोई भी बैंक ईमेल के जरिये आपके अकाउंट इन्फॉर्मेशन को अपडेट करने के लिए नहीं कहता। इसलिए इस तरह के ईमेल्स का कतई भी जवाब नहीं दें।


वर्क एट होम स्पैम : इस तरह के स्पैम के सबसे ज्यादा शिकार होते हैं बेरोजगार नौजवान और शादीशुदा महिलाएं। इसमें स्पैमर लोगों से वादा करता है कम मेहनत और ज्यादा कर्माई का। उनसे यह भी कहा जाता है कि इसके लिए उन्हंा किसी दफ्तर आने की जरूरत नहीं, बल्कि यह काम तो वह घर बैठे बिठाए भी कर सकते हैं। हालांकि, इसमें यह नहीं बताया जाता कि काम खत्म होने के बाद तो स्पैमर यह कहाकर पैसे देने से भी इनकार कर देता है कि काम की क्वालिटी अच्छी नहीं थी।


वाइगरा स्पैम : आजकल तो इस तरह के स्पैम की खूब बारिस हो रही है। कई लोगों के इनबॉक्स तो सस्ते वाइगरा के ऑफर से भरे रहते हैं।


कैसे भेजे जाते हैं ये?
इसके लिए सबसे पहले जरूरत होती है ईमेल एड्रेसेज की। इन ईमेल एड्रेसेज को जुटाने की प्रक्रिया को ईमेल एड्रेस हार्वेस्टिंग के नाम से जाना जाता है। इसके लिए स्पैमर सबसे पहले संभावित ईमेल एड्रेसेज की एक पूरी सूची बना लेते हैं। अक्सर इसके लिए लोगों की सहमति नहीं ली जाती है।
ज्यादा से ज्यादा लोगों तक स्पैम को पहुंचने के लिए आज की तारीख में लाखों और कभी-कभी तो करोड़ों ईमेल एड्रेसेज की लिस्ट बनाई जाती है। फिर स्पैमर इन ईमेल्स को भेजने के लिए ईमेल अकाउंट खोलते हैं और फिर उसके जरिये स्पैम भेजते हैं। अब तो अपनी पहचान छुपाने के लिए स्पैमर प्रॉक्सी सर्वरों का भी सहारा लेने लगे हैं।


जीना किया दूभर
स्पैम्स की वजह से तो इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों का जीना दूभर हो गया है। हर दिन दुनिया भर में 100 अरब स्पैम भेजे जाते हैं। लेकिन डरावनी बात तो यह है कि स्पैम्स के फैलने की रफ्तार तेजी से फैल रही है। आंकड़ों की मानें तो इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों के इनबॉक्स में हर दिन आने वाले ईमेल्स में 80 से 90 फीसदी तो स्पैम होते हैं। इसकी वजह से अकेले अमेरिका को हर साल 21.58 अरब डॉलर का नुकसान झेलना पड़ता है।
पूरी दुनिया को पिछले साल इसकी वजह से 198 अरब डॉलर का नुकसान झेलना पड़ा था। आपको बता दें कि सबसे ज्यादा स्पैम भेजे जाते हैं अमेरिका से। अमेरिकी जांच एजेंसी एफबीआई की मानें तो साइबर स्पेस में होने वाले कुल गड़बड़ झाले में से 75 फीसदी की वजह यही स्पैम होते हैं।
वैसे, हमारा देश भी इससे खासा परेशान हैं। सरकार के मुताबिक भारत से जाने वाले ईमेल्स में से 76 फीसदी स्पैम होते हैं। इसलिए तो सरकार आईपीसी की धारा 40 को आईटी एक्ट में शामिल करने पर बात कर रही है।

साभारः बिज़नेस स्टैंडर्ड

Thursday, May 8, 2008

नए जमाने के मुताबिक होगा नया मूल्य सूचकांक


सत्येन्द्र प्रताप सिंह और कुमार नरोत्तम


थोक मूल्य सूचकांक से हर सप्ताह महंगाई में होने वाली बढ़ोतरी या कमी के आंकड़े मिलते हैं। वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय ये आंकड़े जारी करता है।
हालांकि मूल्यों के नमूने और इस सूचकांक में शामिल जिंसों से सामान्य अनुमान लगाया जाता है, लेकिन इससे सही आंकड़े नहीं मिल पाते। वर्तमान थोक मूल्य सूचकांक को लेकर ढेरों सवाल उठ रहे हैं। पहला मुद्दा यह है कि आधार वर्ष पुराना पड़ चुका है। दूसरा, इसमें शामिल किए गए जिंसों की संख्या कम है, साथ ही विनिर्मित क्षेत्र के उत्पादों में क ई परिवर्तन हुए हैं। वर्तमान बास्केट में शामिल कई जिंसों का महत्व घट गया है। इसके अलावा मूल्यों के ताजा आंकड़े सही समय पर नहीं पहुंचते, जिससे मुद्रास्फीति की सही सूची ही नहीं बन पाती।
थोक मूल्य सूचकांक को अद्यतन करने के लिए जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अभिजीत सेन की अध्यक्षता में कार्य समूह का गठन किया गया है। इसका प्रमुख काम वर्तमान थोक मूल्य सूचकांक, जिसका आधार वर्ष 1993-94=100 है, को पुनरीक्षित करना है।
वाणिज्य मंत्रालय के ऑफिस आफ इकनॉमिक एडवाइजर की इच्छा है कि यह कार्य समूह थोक मूल्य सूचकांक की पुनरीक्षित श्रृंखला पेश करे, जिससे मुद्रास्फीति के सही आंकड़े जानने के लिए बेहतर संकेतक मिल सके। साथ ही इस बारे में भी जानकारी हासिल हो सके कि अंतरराष्ट्रीय बाजार का भारतीय जिंसों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। इस कार्य समूह में चार उप समूह शामिल किए गए हैं।
विश्लेषणात्मक मुद्देविनिर्मित वस्तुओं के मामलेकृषि जिंस संगठित और असंगठित क्षेत्र
प्रो. अभिजीत सेन की अध्यक्षता वाले कार्य समूह से जुड़े सूत्रों का कहना है कि थोक मूल्य सूचकांक की तकनीकी रिपोर्ट बनकर तैयार हो गई है। इसे अंतिम रूप दिया जा रहा है। लेकिन संकट आंकड़ों को लेकर संकट अब भी बरकरार है। सेन रिपोर्ट में मुद्रास्फीति की साप्ताहिक के बदले मासिक रिपोर्ट जारी किए जाने की भी बात कही जा रही है। साथ ही स्पष्ट और समय के मुताबिक आंकड़े प्राप्त करना भी अहम मुद्दा बना हुआ है। बहरहाल इस साल के अंत तक रिपोर्ट आने की संभावना है।
एक्सिस बैंक के प्रमुख अर्थशास्त्री और वाइस प्रेसीडेंट सौगात भट्टाचार्य का कहना है कि पुराने थोक मूल्य सूचकांक में ढेरों खामिया है, जिसे दुरुस्त किए जाने की जरूरत है। उन्होंने कहा, ''कंपनियों के लिए परिवर्तित कीमतों के आंकड़े देना अनिवार्य नहीं किया गया है, जिससे समय पर आंकड़े नहीं मिल पाते। साथ ही कंज्यूमर डयूरेबल्स के तमाम आयटम को शामिल किए जाने की जरूरत है।
पेट्रोल की खपत भी आधार वर्ष की तुलना में बहुत ज्यादा बढ़ चुकी है, जिसका वेटेज बढ़ाया जाना चाहिए। साथ ही विभिन्न सामग्रियों की संख्या वर्तमान में 435 है, जिसे बढ़ाकर 1000 तक किए जाने की जरूरत है, जिससे महंगाई की सही स्थिति का अनुमान लगाया जा सके। ''

साथ ही औद्योगिक मूल्य सूचकांक, थोक मूल्य सूचकांक और जीडीपी के लिए एक ही आधार वर्ष बनाए जाने की बात चल रही है। इसे सांख्यिकी के जानकार बेहतर मान रहे हैं। हालांकि अभी इसकी राह बहुत कठिन लगती है।
भारत के मुख्य सांख्यिकीयविद् प्रणव सेन ने बताया कि वैसे तो राष्ट्रीय आय को निर्धारित करने के लिए 1999-2000 को भी अभी स्थिरता प्राप्त करना बाकी है। इसलिए 2004-05 को आधार वर्ष बनाने में अभी काफी समय लगेगा। एचडीएफसी के मुख्य अर्थशास्त्री अभीक बरुआ ने कहा कि कॉमन आधार वर्ष से आंकड़ों का विश्लेषण आसान हो जाएगा।


साभारः बिजनेस स्टैंडर्ड

Saturday, May 3, 2008

अब नेट को मिला वाईमैक्स का साथ



सत्यव्रत मिश्र


जब ब्रॉडबैंड आया था, तो उसे डायल अप कनेक्शन की मुश्किलों से मुक्तिदाता कहा गया था। कुछ हद तक यह बात सच भी थी।
ब्रॉडबैंड ने देश में कछुए की रफ्तार से चल रहे इंटरनेट को खरगोश की स्पीड दिला दी। अब इंटरनेट पर गाने सुनना और वीडियो देखना दूर की कौड़ी नहीं रह गई थी। लेकिन ऐसी बात नहीं थी कि ब्रॉडबैंड में कोई खामी नहीं थी। अक्सर ब्रॉडब्रैंड की तार टूट जाती है। दूरदराज के इलाके में तो यह पहुंच भी नहीं पाता।
साथ ही, यह काफी महंगा पड़ता था। इसलिए लोग-बाग अब इससे भी परेशान हो गए हैं। इन सभी प्रोबल्म्स से परेशान लोगों के लिए राहत का सबब बनकर आया है वाई-मैक्स। अपनी खूबियों की वजह से ही तो वाईमैक्स आज की तारीख में लोगों का फेवरिट बन चुका है।



क्या बला है यह?
वाई मैक्स यानी वर्ल्ड इंटरऑपरोबिलिटी फॉर माइक्रोवेब एक्सेस है नए जमाने की तकनीक। इसके जरिये आप बिना किसी तामझाम के फास्ट स्पीड इंटरनेट का लुत्फ उठा पाएंगे। वाई मैक्स नाम रखने का फैसला किया गया था 2001 में वाई मैक्स फोरम की बैठक में। इस संस्था का कहना है कि,'वाई मैक्स एक ऐसी उच्च गुणवत्ता वाली तकनीक है, जिसके जरिये वायरलेस ब्रॉडबैंड जमीन के आखिरी हिस्से तक पहुंच सकता है।'
विशेषज्ञों का कहना है कि इसके लिए आपको तारों के जंजाल की जरूरत नहीं पड़ती। वैसे, काम करने के अंदाज से यह तकनीक वाई-फाई से काफी जुदा तकनीक है। वाई मैक्स कई किलोमीटर के दायरे में फैले एक बड़े क्षेत्रफल में काम करती है। इसके लिए जरूरत पड़ती है लाइसेंस्ड स्पेक्ट्रम की।
दूसरी तरफ, वाईफाई केवल छोटी दूरी में ही यानी केवल कुछ मीटर के दायरे में काम करती है। इसके लिए किसी प्रकार के लाइसेंस की जरूरत नहीं पड़ती।
साथ ही, वाईमैक्स का इस्तेमाल इंटरनेट को एक्सेस करने के लिए जाता है, जबकि वाईफाई का इस्तेमाल अपने नेटवर्क को एक्सेस करने के लिए होता है।



कैसे काम करता है यह?
आसान शब्दों में कहें तो यह बडे ऌलाके में फैले वाई-फाई नेटवर्क की तरह ही है। लेकिन वाईमैक्स की स्पीड काफी तेज होती है और साथ ही इसकी कवरेज भी ज्यादा बड़े इलाके तक फैली होती है। इस सिस्टम के लिए जरूरत होती है वाईमैक्स टॉवर और वाईमैक्स रिसीवर की। वाईमैक्स टॉवर दिखने में बिल्कुल मोबाइल फोन टॉवर की तरह लगता है। लेकिन वह टॉवर तीन हजार वर्ग मील के इलाके को कवर कर सकता है।
दूसरी तरफ, वाईमैक्स रिसीवर एक सेटटॉप बॉक्स की तरह होता है। अब ये रिसीवर छोटी से कार्ड की शक्ल में भी आ गए हैं, जिसे लैपटॉप के साथ जोड़कर काम किया जाता है। इसके लिए आपको देनी पड़ती है फीस। वैसे, यह फीस ब्रॉडबैंड के इंस्टॉलेशन कॉस्ट से काफी कम होता है।
सबसे पहले वाईमैक्स टॉवर को तारों के सहारे इंटरनेट के साथ जोड़ा जाता है। फिर ये टॉवर सिग्नल ट्रांसमिट करते हैं। जिन्हें पकड़ते हैं आपके घर में लगा हुआ वाईमैक्स रिसीवर। आप कंप्यूटर को उस रिसीवर से जोड़कर मजे में इंटरनेट एक्सेस कर सकते हैं।



क्या हैं इसके फायदे?
साइबर स्पेस के धुरंधरों की मानें तो वाई-मैक्स इंटरनेट की दुनिया में वह चमत्कार कर सकती है, जो सेलफोन ने टेलीफोन की दुनिया में कर दिखाया था। इसका सबसे बड़ा फायदा जो इंटरनेट के धंधे से जुड़े लोग बाग बताते हैं वह यह है कि आप वाईमैक्स के जरिये कहीं से भी अपने लैपटॉप या पॉमटॉप से बड़ी आसानी के साथ इंटरनेट पर काम कर सकते हैं।
इसके लिए आपको तारों के जंजाल की जरूरत नहीं पड़ती। यानी अब आप गांवों और दूर-दराज के इलाकों से भी बड़ी आसानी से एक्सेस कर सकते हैं अपनी ईमेल। यानी ब्रॉडबैंड से अलग यह हर जगह मौजूद रह सकता है। साथ ही, ब्रॉडबैंड से काफी हद तक सस्ता भी है। इसमें डेटा ट्रांसफर की स्पीड भी काफी तेज होती है।इसी वजह से तो विदेशों में कई मोबाइल फोन कंपनियां इसका इस्तेमाल सेल फोन ऑपरेशंस में भी करना चाहती हैं।
मोबाइल फोन कंपनियों की इस तकनीक के प्रति पनपी मोहब्बत एक वजह यह भी है कि वाई मैक्स उपभोक्ताओं और कंपनियों, दोनों के लिए काफी सस्ती पड़ती है। साथ ही, व्यापारिक प्रतिष्ठानों में इसका इस्तेमाल केबल और डीएसएल के साथ-साथ एक इमरजेंसी लाइन की तरह किया जा सकता है।
इंडोनेशिया में सुनामी के दौरान इसने तो लोगों की जान भी बचाने में लोगों की काफी मदद की थी। इसी के जरिये मुसीबत में फंसे कई लोगों ने राहतकर्मियों से संपर्क साधा था। अमेरिका में आए कैटरिना तूफान के दौरान भी इसने कई लोगों की जिंदगियां बचाई थी।



इसमें भी हैं खामियां
वाईमैक्स के साथ एक आम गलतफहमी यह जुड़ी हुई है कि ये 50 किमी के दायरे में 70 मेगाबिट के स्पीड से काम कर सकता है। लेकिन हकीकत तो यही है कि यह दोनों में से कोई एक ही काम कर सकता है। या तो आप इसके 50 किमी के दायरे में इंटरनेट एक्सेस कर सकते हैं या फिर 70 मेगाबिट प्रति सेकंड की रफ्तार से नेट एक्सेस कर सकते हैं।
आप जितना ज्यादा इसके दायरे को बढ़ाते हैं, उतनी ही इसकी स्पीड कम हो जाती है। वैसे, मोबाइल वाईमैक्स के साथ सबसे बड़ी खामी यही है कि सिग्नल कम या ज्यादा होने के साथ-साथ इसमें इंटरनेट की स्पीड भी स्लो या फास्ट होती रहती है। सिग्नल कम जोर होने की सबसे बड़ी वजह कंक्रीट के जंगल। अक्सर जैसे मोबाइल फोन के साथ होता है कि घनी आबादी वाली जगहों पर सिग्नल कमजोर हो जाता है।
उसी तरह वाई मैक्स में भी घनी आबादी वाली जगहों पर सिग्नल कमजोर हो जाता है। दुनिया में वाईमैक्स सेवा मुहैया करवाने वाली कंपनियां अक्सर दावा तो करती है 10मेगाबिट्स प्रति सेकंड के स्पीड की, लेकिन हकीकत में वह दो से तीन मेगाबिट्स से ज्यादा की स्पीड लोगों को मुहैया ही नहीं करवा पाते। भारत जैसे देश में एक और बड़ी दिक्कत है स्पेक्ट्रम की।
देश में अभी हाल ही स्पेक्ट्रम बंटवारो को लेकर काफी हंगामा मचा था। अभी तक उस विवाद का हल नहीं हो पाया है, ऐसी हालत में वाईमैक्स के लिए स्पेक्ट्रम मिलने की उम्मीद काफी कम है।



दुनिया दीवानी
पूरे विश्व में इस वक्त वाईमैक्स की धूम मची हुई है। पूरे अमेरिका में इस लागू करने की तैयारी जोर शोर से चल रही है। वैसे, अभी तक वाईमैक्स का सबसे ज्यादा इस्तेमाल दो एशियाई देश ही कर रहे हैं। वो देश हैं, जापान और दक्षिण कोरिया। जापान में यह सेवा मुहैया करवा रही है केडीडीआई और दक्षिण कोरिया में कोरिया टेलीकॉम। वैसे, ये दोनों नेटवर्क भी पूरे देश में नहीं, बस कुछेक खास-खास इलाकों में ही मौजूद हैं। जापान में केडीडीआई उसे अगले साल से पूरे देश में लागू करेगी।



भारत में भी मची है धूम
अपने वतन में तो वाईमैक्स की खासी धूम मची हुई है। कई कंपनियां या तो वाईमैक्स सेवाएं लॉन्च कर चुकी हैं या फिर करने की जुगत में है। पिछले साल इसे चेन्नई में लॉन्च किया था सिफी ने। अब तो टाटा टेलीसर्विसेज ने अगले साल से इसे देश के 115 शहरों में लॉन्च करने की योजना बनाई है। यह अब तक किसी देश में वाईमैक्स का सबसे बड़ा नेटवर्क होगा।
हाल ही, अनिल अंबानी की रिलांयस कम्यु्निकेशन ने ब्रिटेन की एक वाईमैक्स कंपनी में 90 फीसदी हिस्सेदारी खरीदकर इस क्षेत्र में उतरने की मंशा के बारे में खुले तौर पर इजहार कर दिया है। वैसे, रिलायंस कम्युनिकेशन इस वक्त पुणे और बेंगलुरु में वाईमैक्स की सेवा दे रही है। वहीं, बीएसएनएल ने भी कुछ दिनों पहले इस इलाके में कूदने का इरादा जताया था। सूत्रों की मानें तो एमटीएनएल और भारती ने इस बारे में देखो और इंतजार करो की नीति अपना रखी है।


साभारः बिज़नेस स्टैंडर्ड

मौद्रिक नीति के साथ गूंजेंगे जो शब्द...



सत्येन्द्र प्रताप सिंह
भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति मंगलवार को आने वाली है। इसका सीधा असर बैंकों, आम आदमी और उद्योग जगत पर पड़ता है।
मौद्रिक नीति के तहत रिजर्व बैंक- मुद्रा की आपूर्ति, उसकी उपलब्धता, मुद्रा की कीमत या ब्याज दरें तय करता है। इसका सीधा प्रभाव महंगाई और आर्थिक विकास पर पड़ता है।
विशेषज्ञों की राय है कि महंगाई को नियंत्रित करने के लिए रिजर्व बैंक रेपो रेट में बढ़ोतरी कर सकता है, हालांकि कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि आर्थिक विकास की गति को बनाए रखने के लिए रिजर्व बैंक इसमें कोई बढ़ोतरी नहीं करेगा। मौद्रिक नीति का मुख्य उद्देश्य कीमतों को स्थिर रखना और देश के उत्पादक क्षेत्र को उचित मात्रा में धन मुहैया कराना है।


सीआरआर
कैश रिजर्व रेश्यो या नकद आरक्षित अनुपात बैंकों की जमा पूंजी का वह हिस्सा होता है, जिसे वह भारतीय रिजर्व बैंक के पास जमा करता है। अगर रिजर्व बैंक इसमें बढ़ोतरी करता है तो वाणिज्यिक बैंकों की उपलब्ध पूंजी कम होती है। रिजर्व बैंक उस स्थिति में सीआरआर में बढ़ोतरी करता है, जब बैकों में धन का प्रवाह ज्यादा हो जाता है।
इससे रिजर्व बैंक, बैंकों पर नियंत्रण करता है साथ ही इसके माध्यम से मौद्रिक तरलता पर भी नियंत्रण किया जाता है। मुद्रास्फीति पर इसका सीधा प्रभाव होता है। रिजर्व बैंक के पास सीआरआर के रूप में राशि जमा करना वाणिज्यिक बैंकों के लिए कानूनी रूप से अनिवार्य है।


ब्याज दर और मुद्रास्फीति
इस समय बैंकों के ब्याज दर और मुद्रास्फीति की चर्चा जोरों पर है। जब भी मुद्रास्फीति या महंगाई की दर बढ़ती है, तो रिजर्व बैंक सीआरआर, रेपो रेट में बढ़ोतरी करता है। इसे पूरा करने के लिए वाणिज्यिक बैंकों को ब्याज दरें बढ़ानी पड़ती हैं।


रेपो रेट
रिजर्व बैंक द्वारा वाणिज्यिक बैंकों को छोटी अवधि के लिए दिया जाने वाला कर्ज रेपो रेट कहलाता है। यदि रिजर्व बैंक रेपो रेट में बढ़ोतरी करता है तो इससे वाणिज्यिक बैंकों को अल्पकाल के लिए मिलने वाला कर्ज महंगा हो जाता है। इसकी भरपाई के लिए अमूमन वाणिज्यिक बैंक अपने विभिन्न कर्जों की दरों में बढ़ोतरी करते हैं। वर्तमान में रिजर्व बैंक ने रेपो रेट 7।75 प्रतिशत रखा है।


रिवर्स रेपो रेट
वाणिज्यिक बैंक जिस दर पर रिजर्व बैंक के पास कम अवधि के लिए अपना पैसा जमा करते हैं, उस दर को रिवर्स रेपो रेट कहा जाता है। वर्तमान में रिजर्व बैंक ने रिवर्स रेपो रेट 6।00 प्रतिशत रखा है।


बीपीएलआर
इसे बैंचमार्क प्राइम लेंडिग रेट कहा जाता है। हर वाणिज्यिक बैंक अपना बीपीएलआर तय करता है। उसी के आधार पर बैंकों के होम लोन, पर्सनल लोन समेत बैंकों द्वारा दिए जाने वाले दूसरे तरह के खुदरा कर्जों की दरों का निर्धारण होता है।


एसएलआर
बैंक अपने पास की सरकारी प्रतिभूतियों और कुछ दूसरी तरह की प्रतिभूतियों का एक खास हिस्सा रिजर्व बैंक के पास जमा रखते हैं। इस हिस्से को ही वैधानिक तरलता अनुपात यानी स्टैटयूटरी लिक्विडिटी रेश्यो कहा जाता है। रिजर्व बैंक के पास एसएलआर के रूप में राशि जमा करना बैंकों के लिए कानूनी रूप से अनिवार्य है। वर्तमान में रिजर्व बैंक ने एसएलआर 25 प्रतिशत रखा है।


बैंक रेट
भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा वाणिज्यिक बैंकों को जिस न्यूनतम दर पर कर्ज मुहैया कराया जाता है उसे बैंक रेट कहते हैं। इसे डिस्काउंट रेट भी कहा जाता है। यदि बैंक रेट में इजाफा होता है तो सामान्यतया वाणिज्यिक बैंक अपने कोषों की लागत को दुरुस्त रखने के लिए लेंडिग रेट में इजाफा करते हैं। इससे ब्याज दर बढ़ जाती है, जो ग्राहकों को देना होता है। वर्तमान में रिजर्व बैंक ने बैंक दर 6 प्रतिशत निर्धारित किया है।


साभारः बिज़नेस स्टैंडर्ड

Friday, May 2, 2008

सियासत की बिसात पर निजी आरक्षण का दांव



निजी क्षेत्र की नौकरियों में एससी-एसटी के लिए आरक्षण का मुद्दा राजनीतिक गलियारों में गर्मी पैदा कर सकता है। पर क्या उद्योग जगत आरक्षण के मामले में संजीदा है? पड़ताल कर रहे सीरज कुमार सिंह



केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी कोटे पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर के बाद निजी क्षेत्र की नौकरियों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (एससी एवं एसटी) को आरक्षण दिए जाने का मुद्दा एक दफा फिर से गर्मा सकता है।
ऐसे में दो सवाल ऐसे हैं जिन पर राजनीतिक-आर्थिक गलियारे में तेज बहस छिड़ सकती है। पहला, क्या अब राजनीतिक पार्टियों का अगला एजेंडा निजी क्षेत्र में आरक्षण है? दूसरा, क्या निजी क्षेत्र सही मायने में आरक्षण देने के मूड में है? लिहाजा इन दोनों सवालों की पड़ताल जरूरी है।
कई लोगों को लगता है कि इस बार का आम चुनाव महंगाई के मुद्दे पर लड़ा जाएगा। पर यह बात भी अहम है कि भारत जैसे देश का जनमानस अभी इतना परिपक्व नहीं हुआ है कि वह किसी आर्थिक मुद्दे को मुख्य चुनावी मुद्दे के रूप में स्वीकार करे। दिल्ली जैसे छोटे राज्य में प्याज की कीमतें भले सी सरकार गिरने की जमीन तैयार करती हों, पर राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा होना नामुमकिन-सा लगता है।
चुनाव में महंगाई भी एक मुद्दा हो सकती है, पर एक मात्र मुद्दा नहीं। ऐसे में राजनीतिक पार्टियां निजी क्षेत्र में आरक्षण के मुद्दे को भुनाने की पूरी कोशिश कर सकती हैं। दिलचस्प यह है कि यदि कोई एक पार्टी इसे अपना मुख्य चुनावी मुद्दा बनाती है, तो दूसरी पार्टियां इसका विरोध करने की हिमाकत नहीं कर सकतीं।
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने यूपी सरकार द्वारा आर्थिक मदद पाने वाले संस्थानों में एससीएसटी और आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों के लिए आरक्षण का ऐलान पहले ही कर दिया है। बहुत संभव है कि कांग्रेस पार्टी भी इस मुद्दे को हाथोंहाथ ले। कांग्रेस यह कह सकती है कि केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी को आरक्षण दिलाए जाने की मुहिम के बाद उसका अगला पड़ाव निजी नौकरियों में आरक्षण है।
सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री मीरा कुमार भी आरक्षण की लगातार हिमायत करती रही हैं। वह बार-बार कह चुकी हैं कि कॉरपोरेट जगत स्वैच्छिक आधार पर निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करे। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी उद्योग जगत से यह गुजारिश कर चुके हैं कि वह नौकरियों में वंचितों (खासतौर पर एससीएसटी) को ज्यादा से ज्यादा मौका देने के लिए एच्छिक रूप से कदम उठाए।
रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा समेत यूपीए के कई और घटक तो पहले से ऐसी मांग करते रहे हैं। इधर, बीजेपी भले ही आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाने का पुराना राग अलाप रही हो, पर इतना तो तय है कि यदि निजी क्षेत्र में एससीएसटी को आरक्षण दिए जाने का मुद्दा चुनावी बनता है, तो पार्टी चाहकर भी इसका विरोध नहीं कर पाएगी।
हो सकता है पार्टी को भी इसके सुर में सुर मिलाना पड़े, क्योंकि भारत में (जहां जातिगत आधार पर चुनाव लड़े जाते हैं और दलित वोट बैंक को नाराज करना खतरे से खाली नहीं है) मौजूदा स्थिति में ऐसा करना राजनीतिक लिहाज से सही नहीं माना जाएगा। अब दूसरा सवाल यह कि इस बारे में उद्योग जगत का क्या रुख है? अब तक ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है, जिससे पता चले कि मौजूदा निजी क्षेत्र की नौकरियों में एससीएसटी की संख्या कितनी है।
लिहाजा शुरुआत कहां से की जाए, इस विषय पर ही संशय है। हालांकि उद्योग जगत के नुमाइंदे प्रधानमंत्री को भरोसा दिला चुके हैं कि वे खुद निजी क्षेत्र में वंचितों को ज्यादा मौका दिलाए जाने के लिए एच्छिक रूप से कदम उठाएंगे।
देश के तीन बड़े उद्योग संगठन फिक्की, सीआईआई और एसोचैम प्रधानमंत्री को इस आशय का एक प्रस्ताव सुपुर्द कर चुके हैं कि निजी क्षेत्र में एससीएसटी उम्मीदवारों की मौजूदगी बढ़ाने की दिशा में निजी कंपनियां खुद से पहल करेंगी और इसके लिए किसी तरह का कानून बनाए जाने से बचा जाए। पर सचाई यह है कि उद्योग जगत ने अब तक ऐसा कुछ भी नहीं किया है, जिसे गौरतलब कहा जा सके।
उद्योग मंडल इस बात को लेकर एकमत नहीं है कि कंपनियों में एससीएसटी उम्मीदवारों की गिनती की जाए या नहीं।इंडस्ट्री चैंबर सीआईआई ने तो इस तरह की थोड़ी-बहुत कोशिशें की हैं, पर फिक्की का कहना है कि यदि कंपनियों में एससीएसटी की गिनती शुरू की गई, तो इससे कर्मचारियों में रोष बढ़ेगा। फिक्की के एक अधिकारी ने बताया - 'उद्योग मंडलों से इस तरह के डेटा जुटाए जाने की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए।
एनएसएसओ जैसी सरकारी संस्थाओं को इस तरह की जिम्मेदारी दी जानी चाहिए।' सीआईआई के एक अधिकारी ने बताया कि इंडस्ट्री चेंबर से जुड़ीं 150 कंपनियों ने अपना कर्मचारी डेटा बेस पेश किया है, जिसमें कर्मचारियों की सामाजिक स्थिति (जिसमें जाति का नाम भी शामिल है) का जिक्र है। सीआईआई से 7,000 कंपनियां संबध्द हैं और इनमें से महज 150 कंपनियों की ओर से उठाए गए कदमों से बहुत कुछ नहीं होने वाला।पर क्या सारा मामला एसटीएसटी उम्मीदवारों की गिनती तक ही सीमित है?
कंपनियों ने छोटे स्तर पर कुछ पहलें की हैं। मिसाल के तौर पर, एसोचैम ने 5 करोड़ रुपये की लागत से एक ट्रस्ट बनाया है जो वंचितों के स्किल डिवेलपमेंट, उच्च शिक्षा में वजीफे आदि पर काम कर रहा है। इसी तरह, फिक्की का मानना है कि सबसे पहले एसटीएसटी की शिक्षा और उन्हें रोजगार पाने लायक बनाए जाने पर जोर दिया जाना चाहिए।
इसके लिए इस उद्योग मंडल की ओर से देश में 110 ऐसे जिलों को चुना गया है, जहां एससीएसटी आबादी काफी ज्यादा है। इनमें से 27 जिलों में काम शुरू किया गया है। ज्यादा संजीदगी सीआईआई की ओर से देखने को मिली है, जिसने कई मोर्चों पर काम शुरू किया है। सीआईआई के एक अधिकारी ने बताया - 'हम एससीएसटी कैंडिडेट्स को ट्रेनिंग दे रहे हैं, ताकि वे नौकरी पाने लायक बन सकें।
पिछले साल हमारा लक्ष्य 10,000 लोगों को ट्रेनिंग देने का था, पर हमनें 22,000 कैंडिडेट्स को ट्रेनिंग दी।हमनें एससीएसटी कैंडिडेट्स के लिए 5,000 रुपये प्रति महीने की स्कॉलरशिप का भी प्रावधान किया है, ताकि प्रतिभावान उम्मीदवारों को उच्च शिक्षा में मदद मिल सके।' इसी तरह, एससीएसटी उम्मीदवारों में उद्यमशीलता विकसित किए जाने, कार्यस्थलों पर उनके साथ भेदभाव न किए जाने आदि के लिए भी सीआईआई की ओर से कोशिशें की गई हैं।
सीआईआई ने 'पॉजिटिव डिस्क्रिमिनेशन' का एक कॉन्सेप्ट पेश किया है, जिसके तहत कंपनियों से ताकीद की गई है कि वे ज्यादा से ज्यादा एससीएसटी उम्मीदवारों को नौकरियों पर रखें। पर उद्योग मंडलों की ओर से की जा रही ये कोशिशें नाकाफी हैं।
2001 की जनगणना के मुताबिक, देश में 16।6 करोड़ एससी और 8.4करोड़ एसटी हैं। इनमें से ज्यादातर बेरोजगार हैं या फिर उनका रोजगार वैसा नहीं है, जिसे अच्छा कहा जा सके। लिहाजा उद्योग संगठनों की इन कवायदों को ऊंट के मुंह में जीरा ही कहा जाएगा।


साभारः बिज़नेस स्टैंडर्ड

Thursday, May 1, 2008

फिशिंग से बचके रहना रे बाबा



सत्यव्रत मिश्र


स्विट्जरलैंड में रहने वाले डॉ। वेणुगोपाल अजंता को कुछ दिनों पहले एक ईमेल आया था। इसमें उनसे उस ईमेल दिए लिंक पर जाकर एचडीएफसी बैंक के अपने इंटरनेट आईडी और पासवर्ड को वेरीफाई करने के लिए कहा गया।
डॉ. अजंता ने जब उस लिंक पर क्लिक किया, तो उनकी बैंक की वेबसाइट से मिलती-जुलती एक साइट खुल गई। उन्हें सब कुछ ठीक-ठाक लगा, इसलिए उन्होंने बिना किसी शक के अपनी आईडी और पासवर्ड डाल दिया और भूल गए। लेकिन उनके होश उस वक्त फाख्ता हो गए, जब उनके अकाउंट से रातोंरात 14 लाख रुपये गायब हो गए।
भाई साहब यह कोई कहानी नहीं, बल्कि सच्ची घटना है। इस मामले में मुंबई पुलिस ने एक आदमी को गिरफ्तार किया है और तीन लोगों की तलाश में है। वैसे, डॉ। अजंता जैसे हजारों लोग साइबर स्पेस में हर रोज इस तरह की धोखाधड़ी के शिकार होते हैं। इस हाईटेक धोखाधडी क़ो कंप्यूटर की भाषा में 'फिशिंग' के नाम से जाना जाता है। इसकी वजह से तो पूरे साइबर स्पेस में कोहराम मचा हुआ है। खासतौर पर बैंकों और ई-शॉपिंग वेबसाइटों की तो इसने नींदें उड़ा रखी है।



क्या बला है 'फिशिंग'?
विशेषज्ञों का कहना है कि 'फिशिंग' में सबसे पहले कंप्यूटर हैकर अपने 'शिकार' के पास एक ईमेल भेजते हैं, जो दिखने में हूबहू बैंक के नोटिस की तरह लगता है। इस ईमेल में आपसे आपकी बैंक अकाउंट के बारे में अहम जानकारियां, जैसे बैंक अकाउंट नंबर, क्रेडिट कार्ड नंबर, इंटरनेट आईडी और पासवर्ड की मांग की जाती है।
कुछ ईमेलों में तो आपको एक लिंक भी रहता है, जिसका ऐड्रैस आपके बैंक के वेबसाइट की ऐड्रैस से मिलता-जुलता होगा। अगर जैसे ही लिंक पर क्लिक करेंगे तो आपके बैंक की वेबसाइट से मिलती-जुलती एक वेबसाइट आपके सामने होगी। इसमें आपको जो भी जानकारी डालेंगे, वो असल में आपका खाता खाली करने की जुगत में लगे इंटरनेट चोरों के पास पहुंच जाएगी। फिर वे जब चाहे और जितना चाहे आपके अकाउंट को खाली कर देंगे।
वैसे, यही इकलौता तरीका नहीं है, जिसके जरिये वह लोगों को बेवकूफ बनाते हैं। कई बार तो वह ईमेल में एक फोन नंबर देकर लोगों को अपना पिन नंबर वेरीफाई करते हैं। जब लोग-बाग उस नंबर पर फोन करते हैं, तो उनसे पिन नंबर डालने के लिए कहा जाता है। एक बार आपने अपना पिन नंबर डाल दिया तो फिर वे आपके अकाउंट को खाली करने के लिए करने में उसका बखूबी इस्तेमाल करते हैं।



कैसे हुई थी शुरुआत
इलेक्ट्रोनिक धोखेधड़ी या 'फिशिंग' की शुरुआत तो 1987 में हो गई थी। वैसे, पहली बार इलेक्ट्रोनिक धोखेधड़ी के लिए इस शब्द का इस्तेमाल किया था अमेरिका में हैकरों की एक मैगजीन में। 1990 के दशक के शुरुआती सालों में इसका इस्तेमाल होता था एओएल पर ईमेल अकाउंट बनाने के लिए।
उस समय ईमेल अकाउंट बनाने के लिए लोगों को पैसे चुकाने पड़ते थे। जब हैकरों ने यह देखा कि इस तरीके से लोगों को बेवकूफ बनाना काफी आसान होता है, तो उन्होंने इसका इस्तेमाल बैंकों से सीधे पैसे निकालने में भी शुरू कर दिया। अमेरिका में तो हर साल 'फिशिंग' की वजह से लोगों को करीब दो अरब डॉलर (8000 करोड़ रुपये) का चूना लगता है।
सिर्फ 2007 में अमेरिकी व्यस्कों के कम से कम 3।2 अरब डॉलर (12,480 करोड़ रुपये) हैकरों ने चुरा लिये। ब्रिटेन में भी इसका कहर खूब बरपा है। वहां 2005 में 'फीशिंग' ने 2.32 करोड़ पॉउन्ड (185.6 करोड़ रुपये) गायब कर लिये। अपने देश में भी इसका कहर खूब बरपा है।



हम भी हैं परेशान
हाल ही में, एंटी वायरस बनाने वाली इंटरनेट सिक्योरिटी फर्म, सिमेंटक ने एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसके मुताबिक भारत के लोग भी तेजी से 'फीशिंग' के शिकार बन रहे हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक 'फीशिंग' के सबसे ज्यादा शिकार होते हैं देश की वित्तीय राजधानी मुंबई के लोग-बाग। इस साल जितने भी 'फीशिंग वेबसाइट' सामने आए हैं, उसमें से 38 फीसदी मायानगरी से ही ताल्लुक रखते हैं।
दूसरे नंबर पर है दिल्ली, जहां कुल मिलाकर 29 फीसदी 'फीशिंग वेबसाइट' पकड़े गए हैं। वैसे, इस मामले में भोपाल, सूरत, पुणे और नोएडा भी इस मामले में ज्यादा पीछे नहीं हैं। इन शहरों से चलने वाले कई 'फीशिंग वेबसाइट' भी पकड़े गए हैं। इसी कंपनी की एक दूसरी रिपोर्ट की मानें तो सबसे ज्यादा 'फीशिंग' वेबसाइट वाले देशों की सूची में भारत का स्थान 14वां है।
सीआईआई के खुर्शीद डार का कहना है कि, 'पिछले साल तो अपने देश में कुल मिलाकर 392 फिशिंग के मामले सामने आए। इसमें से 24 फीसदी मामले में तो वित्तीय संस्थानों पर सीधा हमला किया गया था। हम इस बारे में एक मई से एक कार्यक्रम शुरू करने वाले हैं, जिसके तहत लोगों को फिशिंग के खतरों के बारे में बताया जाएगा।'



बैंक हैं चुस्त
भारत में इस बैंकों ने भी इस मामले में अपनी कमर कस ली है। आईसीआईसीआई बैंक का कहना है कि, 'हमने अपने उपभोक्ताओं को इस जंजाल से बचाने के लिए अपनी वेबसाइट पर सारी जानकारी डाल दी है। हमारा कोई अधिकारी कभी भी अपने उपभोक्ताओं को फोन करके उनसे उनके पर्सनल डिटेल नहीं मांगता। अगर हमारे उपभोक्ता ऐसे किसी ऐसी वेबसाइट के बारे में बताता है, तो हम तुरंत ही उन्हें ब्लॉक करवा देते हैं।
हमारा आईटी डिपार्टमेंट इस मामले में काफी चुस्त है।' वैसे, बैंक ने यह बताने से साफ इनकार कर दिया कि अब तक उनके कितने कस्टमर इसके शिकार हुए हैं। दूसरी तरफ, पंजाब नैशनल बैंक के जनरल मैनेजर (आईटी) आर. आई. एस. सिद्दू ने बताया कि, 'हमने अपनी वेबसाइट पर एक डू'ज एंड डोंट्स का कॉलम डाल रखा है। इसके जरिये हम अपने ग्राहकों को इस मामले में अप टू डेट रखते हैं।
साथ ही, हम उन्हें समय समय पर टिप्स भी देते रहते हैं, ताकि वे 'फिशिंग' के शिकार न बन पाएं।' वैसे, विशेषज्ञों का कहना है कि ज्यादातर बैंक तो इस मामले को काफी चुस्त रहते हैं। असल दिक्कत तो ग्राहकों की तरफ से होती है। उनके मुताबिक अब भी कई ग्राहक न्यूमतम सुरक्षा मानकों को भी नहीं अपनाते।



कैसे हो बचाव
इस बारे में विशेषज्ञों का केवल इतना ही कहना है कि सावधान रहें। सिद्दू ने बताया कि, 'इससे केवल सावधान रहकर और अपनी आंखें खोलकर ही लड़ा जा सकता है। हैकर हम लोगों से हमेशा एक कदम आगे की सोचते हैं, इसलिए लोगों को काफी सावधान रहने की जरूरत है।
सबसे बड़ी बात यह है कि देश का कोई भी वित्तीय संस्थान कभी भी लोगों से उनके पासवर्ड या पिन की मांग नहीं करता। इसलिए कभी भी ऐसे ईमेल का जवाब नहीं दें और उसके बारे में अपने बैंक को बताएं। कभी भी अपनी आईडी, पासवर्ड या पिन को कहीं लिखकर न रखें। कोशिश करें, उन्हें याद रखने की।'



साभारः बिज़नेस स्टैंडर्ड

प्रमुख जिंसों के आधार पर बनता है थोक मूल्य सूचकांक




सत्येन्द्र प्रताप सिंह और कुमार नरोत्तम


थोक मूल्य सूचकांक सरकार की नीतियों को प्रभावित करता है। पिछले कुछ महीनों से यह सूचकांक बता रहा था कि महंगाई दर बढ़ रही है।
सरकार पर दबाव बढ़ा, आयात और निर्यात नीतियां बदलीं। इसके साथ ही रिजर्व बैंक ने भी कड़े कदम उठाए। कैश रिजर्व रेश्यो बढ़ा दिया गया। यानी कि आपसे अब बैंक अधिक ब्याज लेंगे। बाजार में धन का प्रवाह कम होगा, लोगों की खरीद शक्ति कम होगी और परोक्ष रूप से महंगाई पर लगाम लगेगी।
इस समय प्रोफेसर एसआर हाशिम की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट के आधार पर तैयार किया गया थोक मूल्य सूचकांक लागू है, जिसका आधार वर्ष 1993-94 है। इस सूचकांक में कुल 435 वस्तुएं शामिल किए गए हैं, जिनके लिए कीमतों के नमूने देश के 1918 स्थानों से लिए जाते हैं।



उत्पादक मूल्य
उत्पादक मूल्य के तहत सभी प्रकार के करों और आवागमन के शुल्कों को शामिल किया जाता है। उत्पादक मूल्य के अंतर्गत उस राशि को शामिल किया जाता है जो किसी सामान या सेवा की किसी एक इकाई के लिए क्रेता, उत्पादक को भुगतान करता है।
इसमें विक्रेता के द्वारा भुगतान की जाने वाली वैट और अन्य करों को हटा दिया जाता है। इसमें उत्पादकों के द्वारा दी जाने वाली कोई भी आवागमन शुल्क को भी घटा दिया जाता है। हालांकि उत्पादक मूल्य के तहत खुदरा या थोक मूल्य को शामिल किया जाता है।



आधार वर्ष का विकल्प
आधार वर्ष के चयन का जाना माना तीन तरीका उपलब्ध है। पहला, एक सामान्य वर्ष यानी वह वर्ष जिसमें उत्पादन के स्तरों पर व्यापार और मूल्यों के संदर्भ में किसी तरह की कोई अनियमितता नही हुई हो। दूसरा, वह वर्ष जिसमें उत्पादन, मूल्य और अन्य गतिविधियों से जरूरी आंकड़े उपलब्ध हों।
तीसरा, राष्ट्रीय और राज्य स्तरों पर आंकड़े एकत्र करने का कोई ताजातरीन वर्ष। राष्ट्रीय सांख्यिकीय आयोग ने इस बात की अनुशंसा की है कि इस आधार वर्ष की समीझा पांच वर्ष में एक बार होनी चाहिए, दस वर्ष की अवधि के बाद इस समीझा का कोई महत्व नही है।



सामग्रियों, किस्मों, ग्रेड्स तथा बाजार का चयन
किसी आधार वर्ष के अंतर्गत ऐसी हर सामग्री जिसका लेनदेन काफी महत्वपूर्ण है, को इस सूचकांक की श्रेणी में शामिल किया जाना चाहिए। इस संबंध में एक बात महत्वपूर्ण है कि ये सामग्रियां अर्थव्यवस्था को काफी प्रभावित कर रही हो। मुक्त अर्थव्यवस्था में किसी किस्म या सामग्री की महत्ता इस बात को लेकर है कि कथित आधार वर्ष में उसका व्यापार मूल्य कितना अधिक रहा।
थोक स्तरों पर सामानों और सेवाओं का लेनदेन भी शामिल किया जाता है। थोक मूल्य सूचकांक के अंतर्गत मुख्यत: सामानों को ही शामिल किया जाता है और इसमें सेवाओं को उतनी महत्ता के साथ शामिल नही किया जाता है। अगर व्यापार कीमत के आंकड़े के लिए कोई एक स्रोत उपलब्ध नही हो तो इसमें शामिल किए गए कृषि और गैर-कृषि जिंसों की चयन प्रक्रिया में भिन्नता आ जाती है।



कृषि जिंसों का चयन
वैसे कृषि जिंसों के चयन के अंतर्गत नए प्रकार की सामग्रियों की संभावना बहुत कम दीखती है लेकिन फिर भी इस श्रेणी में अगर कोई सामग्री थोक मूल्य बाजार में तेजी से उभर कर सामने आती है तो इसे शामिल किया जा सकता है। अगर किसी सामग्री के महत्व में गिरावट आती है तो इसे अगली समीक्षा के अंतर्गत शामिल नही किया जा सकता है। वैसे इस श्रेणी में किसी सामग्री के शामिल या नही शामिल किए जाने का मुद्दा विभिन्न विभागों की स्वीकृति पर निर्भर करता है।
वर्तमान की थोक मूल्य सूचकांक श्रेणी की बात करें तो उनमें सामग्रियों की विशिष्टता और बाजार का निर्धारण राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड, मसाला बोर्ड, चाय बोर्ड, कॉफी बोर्ड, रबर बोर्ड , सिल्क बोर्ड, तंबाकू निदेशालय, भारतीय सूती निगम आदि करता है।



खदान सामग्री
किसी भी खदान सामग्री को शामिल किया जाए या नही इस संबंध में भारतीय खदान ब्यूरो के सुझावों को महत्व दिया जाता है। कोयला, कोक और आग्नेय चट्टानों की विशिष्टता के लिए कोयला विभाग से संपर्क स्थापित किया जाता है। इसी तरह अगर पेट्रोलियम और बिजली की सामग्री का चयन करना हो तो इसके लिए क्रमश: पेट्रोलियम और केंद्रीय बिजली प्राधिकरण से सुझाव लिए जाते हैं।



निर्मित उत्पाद
निर्मित उत्पादों के तहत सामग्रियों का चयन अन्य चयन की अपेक्षा सबसे ज्यादा मुश्किल भरा होता है। इस चयन प्रक्रिया में समय भी काफी लगता है। इसे हम अलग अलग श्रेणी में बांटकर समझ सकते हैं-



(क) संगठित निर्मित उत्पाद
फैक्ट्री समेत उद्योग जगत के वार्षिक सर्वे से उत्पादों के मूल्य के जो आंकड़े मिलते हैं उसी के आधार पर निर्मित उत्पादों के सूचकांक बनाए जाते हैं। इसके अंतर्गत सामग्रियों के चयन का एक मानक यह है कि निर्धारित आधार वर्ष में उस सामग्री की कट ऑफ कीमत क्या रही।
इस श्रेणी में सबसे ज्यादा मुश्किल टेक्सटाइल सामग्री को शामिल करते वक्त होती है। वैसे टेक्सटाइल सामग्री का चयन टेक्सटाइल आयुक्त के सुझाव पर निर्भर करता है। इस श्रेणी में कभी कभी ऐसे भी सामानों को शामिल नही किया जाता है जिसने कट ऑफ मूल्य की सीमा पार कर ली है।



(ख) असंगठित निर्मित उत्पाद
इस श्रेणी में हैंडलूम, रेशम उत्पाद, नारियल की जटाएं, खादी और ग्रामीण उद्योगों के उत्पाद शामिल किए जाते हैं। आधुनिक श्रेणी में छोटे उद्योगों के उत्पाद सहित पावर लूम को भी इसमें शामिल किया जाता है।


साभारः बिजनेस स्टैंडर्ड-हिंदी

Thursday, April 24, 2008

किस करवट बैठेगी महंगाई, देखता है मूल्य सूचकांक

सत्येन्द्र प्रताप सिंह और कुमार नरोत्तम


मूल्य सूचकांक वस्तुओं और सेवाओं की एक नियत श्रेणी और किसी खास समयांतराल में औसत मूल्य गतिशीलता का मापक या संकेतक होता है।
इस खास श्रेणी में आनेवाली उपभोक्ता, थोक या उत्पादक मूल्य आदि में हो रहे परिवर्तन के आधार पर इनके मूल्य सूचकांक का निर्धारण किया जाता है। मूल्य सूचकांक में आर्थिक, क्षेत्रीय या क्षेत्र विशिष्ट गतिविधियों के कारण परिवर्तन होता है।
आज भारत में उपभोक्ता और थोक स्तरों पर मूल्यों की गतिशीलता मापने के लिए अलग-अलग सूचकांक है। राष्ट्रीय स्तर पर मूल्य सूचकांकों की मुख्यत: चार श्रेणियां मौजूद है। ये हैं- औद्योगिक कर्मियों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई-आईडब्ल्यू), कृषि या ग्रामीण मजदूरों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई-एएल या आरएल), शहरी अकुशल कर्मियों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई- यूएनएमई)। ये सारे उपभोक्ता मूल्य सूचकांक हैं।
इसके अतिरिक्त जो चौथा मुख्य मूल्य सूचकांक है, वह है- थोक मूल्य सूचकांक।मूल्य सूचकांक द्वारा मुद्रास्फीति या महंगाई दर के आकलन का सीधा असर सरकार की नीतियों पर पड़ता है। उदाहरण के लिए अगर महंगाई दर बढ़ती है तो सरकार नियंत्रित जिंसों को- जैसे गेहूं, चावल आदि बाजार में उतार देती है, जिससे मांग और आपूर्ति संतुलित हो सके।
इसके अलावा भारतीय रिजर्व बैंक महंगाई बढ़ने पर ब्याज दरें बढ़ाता है, नकद आरक्षित अनुपात (सीआरआर) में बढ़ोतरी करता है, जिससे बाजार में धन के प्रवाह को कम किया जा सके। कुल मिलाकर परिस्थितियों के मुताबिक मांग और आपूर्ति के संतुलन को बरकरार रखने के लिए कदम उठाए जाते हैं।
थोक मूल्य सूचकांक
थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) संख्या अर्थव्यवस्था में थोक मूल्यों की गतिविधियों का मापक है। कुछ ऐसे भी राज्य हैं जिनके उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) और थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) अलग-अलग होते हैं।
राज्यों के द्वारा जब थोक मूल्य सूचकांक का निर्धारण किया जाता है तो उसमें राज्य स्तर पर हो रहे लेनदेन को शामिल किया जाता है। वर्तमान में जो डब्ल्यूपीआई हैं, वे हैं-असम (आधार वर्ष 1993-94), बिहार (1991-92), हरियाणा (1980-81), कर्नाटक (1981-82), पंजाब (1979-82), उत्तरप्रदेश (1970-71) और पश्चिम बंगाल (1980-81)।
इसमें ज्यादातर राज्यों के सूचकांकों में कृषि जिंस लेनदेन और हस्तांतरण को ही शामिल किया जाता है, जिनका कारोबार स्थानीय स्तर पर होता है।
थोक मूल्य सूचकांक की गणना का परिचय
एक बार अगर थोक मूल्य की संकल्पना को परिभाषित कर दिया जाए और आधार वर्ष का निर्धारण हो जाए तो उसके बाद सामग्रियों का निर्धारण, सामग्रियों के भार का आवंटन, श्रेणी या उप-श्रेणी स्तर आदि के जरिए इसे पूरा किया जाता है। इसके साथ ही आधार मूल्य एकत्र करना, वर्तमान मूल्य, सामग्री की विशिष्टता का निर्धारण, मूल्य आंकडा स्रोत और आंकडा संग्रह की प्रक्रिया का निष्पादन किया जाता है। इन चरणों के बारे में हम निम्नलिखित तरीके से विस्तार से चर्चा करेंगे-
थोक मूल्य सूचकांक की संकल्पना
थोक मूल्य सूचकांक को हर विभाग अलग-अलग तरीके से इस्तेमाल करता है। कृषि और गैर-कृषि जिंस कारोबार के लिए कोई एक तरह की परिभाषा नही है और इसलिए जमे हुए बाजार से भी हम इसके आंकड़े लेकर पूरी तरह से आश्वस्त नहीं हो सकते हैं।
कृषि जिंस
व्यावहारिक तौर पर देखें तो मुख्य तौर पर तीन तरह के थोक बाजार होते हैं- प्राथमिक, द्वितीयक और कृ षि क्षेत्रों में प्रयुक्त होने वाले टर्मिनल। इन सारे थोक बाजारों में मूल्य की गतिशीलता और मूल्य के स्तरों में परिवर्तनीयता होती है। टर्मिनल बाजार में मूल्य की गतिशीलता से ही खुदरा दामों का निर्धारण किया जाता है। इन सारे विकल्पों में कृषि जिंसों के थोक लेनदेन के आधार पर ही थोक मूल्य का निर्धारण किया जाता है लेकिन प्राथमिक बाजार को आधार बनाया जाता है।
कृषि मंत्रालय थोक मूल्य को इस तरह परिभाषित करता है- थोक मूल्य वह दर है जिसमें खरीदारी के लेनदेन, जिसका इस्तेमाल आगे की खरीद के लिए किया जाता है, प्रभावित हो । बहुत सारी थोक मूल्य सूचकांक संग्रह करने वाली एजेंसियां कृषि मंत्रालय की इस परिभाषा को आधार मानती है।
वैसे आकस्मिक दरों, करों और शुल्कों के संदर्भ में ये मानदंड बदलते रहते हैं। आंध्रप्रदेश में भारीय शुल्क, बैग की कीमत और बिक्री कर के आधार पर आकस्मिक शुल्क तय किए जाते हैं। गुजरात में थोक मूल्य के अंतर्गत ही पैकिंग शुल्क और करों को शामिल कर लिया जाता है। पंजाब और तमिलनाडु में आकस्मिक लागतों को थोक मूल्य सूचकांक के तौर पर शामिल किया जाता है। हरियाणा में कृषि जिंस कारोबार के अंतर्गत आढ़त, भार और लॉरी चार्ज आदि को सम्मिलित किया जाता है।
गैर-कृषि जिंस
गैर-कृषि जिंस के तहत निर्माण वस्तुएं आती हैं लेकिन इसके साथ एक दिक्कत यह है कि गैर-कृषि जिंस का कोई स्थापित स्रोत बाजार में उपलब्ध नही होता है। ऐसा भी देखा जाता है कि कभी-कभी थोक विक्रेता को इन गैर कृ षि जिंसों के बीच मार्जिन के लिए काफी अरसे तक इंतजार करना पड़ता है।

साभारः बिज़नेस स्टैंडर्ड

Wednesday, April 23, 2008

छोटा कितना दर्जा, बड़ा कितना दुख


मधुकर उपाध्याय

...औरतों के खिलाफ जुल्म का मसला कितना बड़ा है, मैं यह महसूस करके भौचक्की रह जाती हूं। हर उस औरत के मुकाबले, जो जुल्म के खिलाफ लड़ती है और बच निकलती है, कितनी औरतें रेत में दफन हो जाती हैं, बिना किसी कद्र और कीमत के, यहां तक कि कब्र के बिना भी। तकलीफ की इस दुनिया में मेरा दुख कितना छोटा है।...

पाकिस्तान की मुख्तारन माई का ये दुख दरअसल उतना छोटा नहीं है। बहुत बड़ा है। इसकी कई मिसालें इस्लामी देशों में फैली हुई मिलती हैं। एशिया से अफ्रीका तक। ऐसा शायद पहली बार हुआ है, जब इस्लामी देशों की औरतों की बात किताबों की शक्ल में लिख कर कही गई है। इनमें से कई किताबें औरतों की लिखी हुई हैं।
मुख्तारन माई की किताब ...इन द नेम ऑफ ऑनर... तकरीबन दो साल पहले आई थी। उसी के साथ सोमालिया की एक लड़की अयान हिरसी अली की किताब आई ...इनफिडेल... और उसके बाद खालिद हुसैनी की किताब ... थाउजेन्ड स्प्लैंडिड सन्स...। इस बीच दो किताबें और आईं। जॉर्डन की एक महिला नोरमा खोरी ने ...फोरबिडन लव... और इरान की अज़र नफ़ीसी ने ...रीडिंग लोलिता इन तेहरान... लिखी। एक और किताब नार्वे की आस्ने सेयरेस्ताद की थी, ...द बुकसेलर ऑफ काबुल...।
इन किताबों को एक धागा जोड़ता है- इस्लामी देशों में औरतों की स्थिति। इस पर पहले भी काफी कुछ लिखा गया है, लेकिन इन किताबों को एक साथ पढ़ना तस्वीर को बेहतर ढंग से सामने रखता है। शायद इसलिए भी कि इन्हें महिलाओं की स्थिति बयान करने के

मूल इरादे से नहीं लिखा गया। उनके सामने देश, समाज और दुनिया के समीकरण थे, जिसे उन लेखकों ने अपने ढंग से सामने रखा। महिलाएं पात्रों की तरह आईं और अंत तक आते-आते उनकी भूमिका महत्वपूर्ण हो गई। यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि इनमें से खालिद हुसैनी को छोड़कर बाकी सब लेखिकाएं हैं। महिलाओं की जटिल दुनिया तक उनकी पहुंच संभवतः इसीलिए आसान रही होगी।
अयान हिरसी अली का उपन्यास ... इनफिडेल... आत्मकथात्मक है। सोमालिया में उसके जन्म से लेकर अमेरिका जाने तक। किताब कई जगह इतनी तीखी है कि पढ़ते हुए झुंझलाहट होती है, गुस्सा आता है और सवाल उठता है कि जो जैसा है, वैसा क्यों है?

अयान का बचपन, जाहिर है, सोमालिया में गुजरा। पिता बहुत संपन्न नहीं थे लेकिन हालात बहुत खराब भी नहीं थी। इतना जरूर था कि अयान को इस्लामी जीवन जीने की तालीम मिली थी। सिर पर दुपट्टा, बदन पूरा ढ़का हुआ और सवाल करने पर एक अघोषित पाबंदी। अब्बा ने कनाडा के एक लड़के के साथ उसका निकाह तय कर दिया पर अयान को पूरी ज़िंदगी की गुलामी पसंद नहीं थी। किसी तरह वह सोमालिया से निकलकर हालैंड पहुंच गई। जान पर खतरा होने की गलतबयानी करके उसने शरणार्थी का दर्जा हासिल किया और उसके बाद उसने जिंदगी के नए अर्थ ढूंढ़े। सोमालिया की दूसरी महिलाओं की मदद के लिए डच भाषा सीखी और हॉलैंड की नागरिकता हासिल की। दुभाषिये की तरह सरकारी नौकरी की। एक राजनीतिक दल के नेता की शोध सचिव बनी। चुनाव लड़ी और संसद सदस्य बन गई। महिलाओं की स्थिति पर हिरसी के बयानों ने उसके इतने दुश्मन बना दिए कि उसे कड़ी सुरक्षा में रहने के अलावा कई बार दूसरे देशों में शरण लेनी पड़ी। अंततः शरणार्थी का दर्जा हासिल करने के समय बोला गया झूठ सामने आया और हिरसी की नागरिकता छीन ली गई। संसद सदस्यता भी चली गई, लेकिन तब तक उसे अमेरिका में काम मिल गया था। अयान के लिए सांसद बनने से ज्यादा महत्वपूर्ण इस्लाम में महिलाओं के अधिकार और उनकी स्थिति का मुद्दा था और नए काम में उसे यही करने का मौका मिल रहा था। ...इनफिडेल... में हिरसी अली ने अपनी बात बहुत बेबाकी औऱ ईमानदारी से रखी है। नतीजतन वह विवादों के घेरे में आ गई। कठिन स्थितियों, विपन्नता और रूढ़ मानसिकता से जूझने और कामयाब होने की इस अद्भुत आत्मकथा के कई हिस्से निश्चित रूप से विवादास्पद हैं, लेकिन शायद साफगोई की अपेक्षा करने वालों को वे उस तरह नहीं अखरेंगे।

आस्ने सेयरेस्ताद की ...द बुकसेलर ऑफ काबुल... भी आत्मकथात्मक है। पत्रकार की तरह काम करने वाली आस्ने रिपोर्टिंग के लिए काबुल पहुंची तो एक दुकान देखकर हैरान रह गईं। रूसी, तालिबानी, मुजाहिदीन और अमेरिकी हमलों से तबाह अफगानिस्तान की राजधानी में किताब की एक बड़ी दुकान। आस्ने को समझ में नहीं आया कि ऐसी ध्वस्त अर्थव्यवस्था, तनाव और लगातार बम धमाकों के बीच आखिर कौन किताब खरीदता और पढ़ता होगा।

उसने यह सवाल दुकान के मालिक मोहम्मद शाह रईस से पूछा। जवाब संतोषजनक नहीं लगा। फिर उसने रईस के सामने एक प्रस्ताव रखा कि वह चार महीने उसके परिवार के साथ रहना चाहती है। उसके घर में। रईस राजी हो गया। नॉर्वे लौटकर उसने अपनी किताब पूरी की। किताब में रईस का नाम बदलकर सुल्तान खान कर दिया लेकिन घटनाक्रम नहीं बदला।
पूरी किताब में सुल्तान खान एक पढ़े-लिखे अंग्रेजी बोलने वाले संपन्न अफगानी की तरह आता है, लेकिन घर की चहारदीवारी के भीतर उसका रूप बदला हुआ होता है। अपने परिवार, पत्नी और बेटियों के साथ वह अक्सर क्रूर होता है और कई बार आक्रामक भी। बहन घर में गुलाम की तरह रहती है। औरतों को टूटे फर्नीचर की तरह इधर-उधर फेंक दिया जाता है। किसी संमृद्ध अफगानी के घर के अंदर का ऐसा विवरण इससे पहले उपलब्ध नहीं था।

मैं काबुल के इंटरकांटिनेंटल होटल में रईस से मिला। उनकी एक दुकान होटल में भी है। जिक्र ...द बुकसेलर ऑफ काबुल... का आया तो रईस बिफर पड़े। कहा, ... आस्ने ने बहुत नाइंसाफी की है। सुल्तान खान मैं ही हूं। आस्ने की वजह से मैं पूरी दुनिया में बदनाम हो गया। उसने न सिर्फ मुझे, बल्कि मेरे मुल्क को भी बदनाम किया है। मैं उस पर मुकदमा करूंगा।... रईस से काफी देर बातचीत होती रही। उसी दौरान पता चला कि उन्होंने एक बार खुद किताब लिखकर उस किताब का जवाब देने के बारे में सोचा था। नॉर्वे के कई नाकामयाब चक्कर लगाने के बाद अब शायद उन्होंने अपनी किताब पूरी कर ली है।
अपने पहले उपन्यास ...काइट रनर... से चर्चा में आए खालिद हुसैनी की नई किताब ...थाउजेंड स्प्लेंडिड संस... की पृष्ठभूमि भी अफगानिस्तान ही है। पूरा बचपन काबुल और हेरात के आसपास बिताने वाले खालिद इस समय अमेरिका में रहते हैं। उनकी किताब एक तरह से अफगानिस्तान की पिछले तीस साल की कहानी है। सोवियत आक्रमण से लेकर तालिबान और उसके बाद तक। दो पीढ़ियों की यह कहानी लगभग जादुई सम्मोहन के साथ पाठक को बांधे रखती है, जिसमें तबाही, बर्बादी और दुखद घटनाक्रमों के बीच ज़िंदगी और खुशियां तलाश करते चरित्र हैं। यानी कि तकरीबन हर पन्ने पर इतिहास और ज़िंदगी साथ-साथ चलते हैं। किताब चार हिस्सों में बंटी हुई है। पहला हिस्सा एक महिला चरित्र मरियम, दूसरा और चौथा हिस्सा एक अन्य महिला चरित्र लैला पर है और तीसरा मरियम और लैला की साझा कहानी है।
पश्चिमी अफगानिस्तान में हेरात के एक गांव में मरियम अपनी मां के साथ रहती है। पिता ने दूसरी शादी कर ली है। अमीर है और हेरात में रहता है। वह मरियम से मिलने तक से इनकार कर देता है। बाद में मरियम की शादी काबुल के एक मोची रशीद से होती है। मरियम शादी करके काबुल आती है। उसी के घर की गली में लैला रहती है, एक ताजिक लड़की। उसका एक दोस्त है तारिक। उसके संबंध बहुत करीबी हैं, शारीरिक तक। कुछ दिन के बाद तारिक का परिवार काबुल से चला जाता है। लैला के मां-बाप काबुल छोड़ने को होते हैं कि एक बम धमाके में मारे जाते हैं। घायल लैला को रशीद बचाता है। अपने घर में रखता है और बाद में उससे शादी कर लेता है। इसलिए कि मरियम उसके बच्चे की मां नहीं बन सकती। मरियम के साथ उसका व्यवहार दिन-ब-दिन खराब और क्रूर होता जाता है। लैला मां बनती है, लेकिन वह जानती है कि पिता रशीद नहीं, तारिक है। एक दिन तारिक अचानक लौट आता है। बाद में रशीद को सच्चाई पता चलती है और वह लैला के साथ भी उसी तरह क्रूर हो जाता है। एक रोज जब वह लैला को जान से मारने पर आमादा होता है, मरियम बेलचे से रशीद की हत्या कर देती है। बाद में वह खुद को तालिबान को सौंप देती है और उसे फांसी हो जाती है। तारिक लैला को लेकर हेरात जाता है, जहां मरियम को दफनाया गया था। दोनों वहीं अपनी बेटी का नामकरण करते हैं- मरियम।
वह चाहे लैला और तारिक हों या सुल्तान खान की अनाम बीवी और बहन, या फिर अयान हिरसी अली- उनका दुख और समाज में उनका दर्जा नहीं बदलता। भौगोलिक परिवर्तनों से उसमें कोई फर्क नहीं आता। सोमालिया के रेगिस्तान से लेकर अफगान पहाड़ियों तक।

क्या समाज में वाकई नई सोच की जगह नहीं बची है? या फिर यथास्थितिवादी और कठमुल्ला इस कदर हावी हैं कि नई रोशनी वहां तक पहुंच नहीं पा रही।

Tuesday, April 22, 2008

क्रेजी क्रिकेट

क्रेजी क्रिकेट। जी हां। हर तरफ पागलपन का माहौल। मैदान पर। टीवी पर और गली-मुहल्लों में। आईपीएल का रोमांच सबके सर चढ़कर बोल रहा है। दनादन छक्के। झटपट गिरते विकेट। और हर रोमांचक लम्हों पर देशी गानों पर थिरकती विदेशी बालाएं। मौजा ही मौजा करती हुईं। लगता है हर तरफ मौज ही मौज है। उपर से क्रिकेट में बालीवुड का तड़का। और क्या चाहिए। क्रेजी होने के लिए। सभी कुछ तो मौजूद है यहां। लेकिन सब कुछ होने के बावजूद लगता है लगता कुछ नहीं है। वो है देशभक्ति का अहसास। अंतरराष्ट्रीय मैच के दौरान जब भारतीय धुरंधर दूसरे देश के बालरों की बखिया उधेड़ते हैं, तो वो अहसास ही कुछ अलग होता है। या जब ईंशात शर्मा जैसे बालर पोंटिग की गिल्लियां बिखेरते हैं, जो मन बाग-बाग हो उठता है। मन करता है इन फिरंगियों को मजा चखा दें। लेकिन आईपीएल में न जाने क्यों फर्क ही नहीं पड़ता। कोई भी जीते। कोई भी हारे। हमें क्या। हमें मजा चाहिए और वो हमें मिल रहा है। आईपीएल के मैच के दौरान कई बार ऐसे मौके आए, जब लगा कि शायद यह जज्बा लोगों से गायब हो गया है। मंगलवार को डेक्कन चार्जर्स के खिलाफ जब वीरू ने अर्धशतक ठोका। तो हैदराबाद के मैदान में मौजूद दर्शकों ने उनका अभिवादन नहीं किया। इस पर वीरू ने हाथ उठाकर कहा क्या हुआ दोस्तों मैं तुम्हारा वीरू। लेकिन मैदान में सन्नाटा छाया रहा। इसी वीरू ने जब दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ ३१९ रन की पारी खेली थी। तो देश क्या विदेश में भी भारतीय झूम उठे थे। और मैदान पर मौजूद दर्शकों की तो बात ही छोड़ दीजिए। सब के सब क्रेजी हुए पड़े थे। ऐसे में क्या यह मान लिया जाए कि आईपीएल हमारे क्रेजी दर्शकों में दीवार खड़ी कर रहा है। लोग देश को छोड़, प्रांतीय टीमों से जुड़ गए हैं। आईपीएल की टीमों के एडवरटिजमेंट से तो यही जाहिर होता है। जैसे एक डेंटिस्ट के यहां एक मरीज अपने दांत दिखाने आता है। इसी दौरान डाक्टर मरीज से पूछता है कि आप कौन सी टीम को सपोर्ट करते हैं। इस पर मरीज कहता है दिल्ली डेयरडेविल्स। डाक्टर नर्स की ओर देखता है। और कहता है इनके एक दांत नहीं। पांच दांत उखाड़ दो। इस पर मरीज घबरा जाता है, और डाक्टर रेपिस्ट जैसी हंसी के साथ कहता है। मैं मुंबई इंडियन। क्या पता कुछ दिनों बाद इस तरह की घटनाएं मैदान पर दिखाई दें। लोग अपनी टीम को लेकर इतने संवेदनशील हो उठे कि अपनी टीम के खिलाफ एक शब्द न सुन सकें। क्या पता डेक्कन चार्जर्स के प्रशंसक और नाइट राइडर्स के फैंस के बीच झगड़ा हो जाए और बात खून-खराबे तक पहुंच जाए। जैसा आमतौर पर पश्चिमी देशों में फुटबाल मैच के दौरान दिखाई देता है। मैनचेस्टर युनाइटेड के प्रशंसक या तो आर्सनल के फैंस को पीट देते हैं। या फिर आर्सनल के मैनचेस्टर युनाइटेड को।
मैं तो विदेश नहीं गया हूं, लेकिन मेरा दोस्त इंग्लैंड गया था। वहां जब वो कैब में बैठकर लिवरपूल जा रहा था। तो रास्ते में उसने कैब ड्राइवर से पूछा आप कौन सी टीम को सपोर्ट करते हैं। इस पर कैब ड्राइवर ने कहा लिवरपूल। इसके बाद ड्राइवर ने पूछा आप। मेरा दोस्त बोला। मैनचेस्टर युनाइटेड। इस पर कैब ड्राइवर पीछे मुड़ा और कहा सो यू आर माई राइवल। अगर तुमने अब कोई भी हरकत की तो मैं तुम्हारा वो हश्र करूंगा कि तुम जिंदगी भर याद रखोगे। इसके बाद मेरा दोस्त चुपचाप बैठ गया और कुछ नहीं बोला। क्या पता कुछ दिनों बाद यहां के लोगों में भी प्रांतीय टीमों के लेकर इसी तरह की दीवार खड़ी हो जाए। है भगवान पहले से जाति-धर्म की इतनी दीवारें हैं। अब और नहीं। दर्शकों के बीच अगर यह दीवार खड़ी हो गई तो क्या पता सचिन तेंदुलकर के छक्के पर मुंबई वाला ही ताली बजाए और दिल्ली वाला खामोश बैठा रहे। या मुंबई वाले के ज्यादा उछलने पर उसे दूसरे टीम के समर्थक पीट भी दें। अगर ऐसा हुआ तो वो दिन शायद इस खेल और उसकी आत्मा के लिए सबसे शर्मनाक दिन होगा।


भूपेंद्र सिंह

Saturday, February 23, 2008

अप्पू मुझसे रूठ गया


भूपेंद्र सिंह


मेरे बचपन का साथी पीछे छूट गया,
मेरा अप्पू मुझसे रूठ गया।
कभी उन झूलों पर बसती थी जिंदगी,
खिलखिलाता था बचपन,
लेकिन आज फैली है खामोशी,
छाया है नीरसपन,
मेरा अप्पू अपनी मौत नहीं है मरा,
बड़ों की ख्वाहिशों ने उसे मारा है,
लेकिन क्या करें
अब तो बस अप्पू की यादों का सहारा है।

अप्पू घर महज एक एम्युजमेंट पाकॆ नहीं था। बल्कि एक सपना था, उन बच्चों का जो इसके साथ बड़े हुए। इसके साथ जिए। इसके झूले पर झूलकर जिंदगी को जिया। ये उन बच्चों का भी सपना था, जो यहां झूलना चाहते थे। अपना बचपन जीता चाहते थे। लेकिन जैसा हमेशा से होता आया है। बड़ों के अरमानों के आगे बच्चों की ख्वाहिशों की बलि दी जाती रही है। वहीं यहां भी हुआ। कुछ वकीलों और जजों की लाइब्रेरी और बैठने की जगह के लिए बच्चों के बचपन का आशियाना उजाड़ दिया गया। निदा फाजली ने ठीक ही कहा है।

बच्चों के छोटे हाथों में चांद सितारे छूने दो,
चार किताबें पढ़कर ये भी हम जैसे हो जाएंगे।

वकील और जज भी चार किताबें पढ़कर ये भूल गए हैं, कि वो भी कभी बच्चे थे। बचपन में जब उनसे कोई उनका खिलौना छीनता होगा, तो वो भी रोते होंगे। अगर आज वो बच्चे होते, तब उन्हें पता चलता कि बचपन की क्या अहमियत होती है। खिलौनों के छीन लिए जाने पर कैसा लगता है। आज सब बड़े हो गए हैं, उन्हें खेलने के लिए खिलौनों और झूले नहीं चाहिए। उन्हें चाहिए ऐशो आराम। ये उनकी आज की जरूरतें थी। अगर आज उनसे उनका ये ऐशो आराम छीन लिया जाए, तो सभी किस तरह भड़केंगे। हम सभी जानते हैं।
मैं बचपन से दिल्ली में रहा हूं। अप्पू घर के झूलों में झूला हूं। इसलिए जानता हूं कि पुराने साथी का बिछड़ना कैसा लगता है। कोई आपके सामने ही आपके बचपन के आशियाने को उजाड़ दे, तो कैसा लगता है। मैं जानता हूं। सबकुछ देख रहा हूं, फिर भी कुछ नहीं करता। क्या करूं कानूनी दावपेंचों में उलझना नहीं चाहता। इसलिए खामोश हूं, क्योंकि चार किताबें पढ़कर मैं भी बड़ों जैसा हो गया हूं। आगे पीछे का सोचने लगा हूं। बड़ों जैसा हो गया हूं।

Friday, February 1, 2008

२५ प्रतिशत शेयर सार्वजनिक किए जाने का प्रस्ताव आम निवेशकों के हित में


सत्येन्द्र प्रताप सिंह
वित्त मंत्रालय एक प्रस्ताव लाया है। बाजार में शेयर लाने से पहले कंपनियों पर कम से कम एक चौथाई शेयर सार्वजनिक करने की शर्त तय की जाए। मंत्रालय का मानना है कि संस्थागत निवेशकों, कर्मचारियों औऱ प्रवासी भारतीयों को शेयर बेचकर सार्वजनिक शेयर की खानापूर्ति नहीं होनी चाहिए।
यह सही है कि कंपनियां बाजार में उतरने के पहले कृत्रिम बढ़त बनाने की कोशिश करती हैं, जिससे आम निवेशकों की भीड़ को खींचा जा सके। इस कोशिश में तमाम बड़ी कंपनियां सेक्टरवाइज शेयर भी उतार देती हैं, यानी एक ही कंपनी के दो शेयर। होता यह है कि कंपनी अपने एक सेक्टर से पूंजी निकालती है और दूसरे में डाल देती है। खुद, कर्मचारियों के माध्यम से या संस्थागत निवेशकों के जरिए। बाद में ओवर सब्सक्रिप्शन देखकर जनता दौड़ती है उस कंपनी का शेयर खरीदने। इस तरह से कंपनी के आईपीओ का जलवा कायम हो जाता है। बाद में वह कंपनी धीरे-धीरे अपना पैसा खींचती है। शेयर गिरता है और आम निवेशक की तबाही शुरू हो जाती है।
अगर वित्त मंत्रालय का यह प्रस्ताव अमल में आता है तो स्वाभाविक है कि कंपनियों का गड़बड़झाला सामने आ जाएगा और वे आम निवेशकों के सामने नंगे हो जाएंगे। इससे सीधा फायदा बाजार में सीधे निवेश करने वाले निवेशकों को होगा और बाजार की घट-बढ़ चाल भी समझ में आएगी। जब कंपनी का कोई सीधा लाभ होगा या उसकी प्रगति होगी तभी शेयर के दाम बढ़ेंगे और सटोरियों, आम लोगों से पैसा लेकर निवेश करने वाले संस्थागत निवेशकों द्वारा उत्पन्न कृत्रिम बढ़त बनाने का दौर भी कम होगा।

Thursday, January 31, 2008

दलालों को ही सट्टा लगाने दें, आप जब भी निवेश करें, आंख कान खुला रखें।

सत्येन्द्र प्रताप सिंह
बाजार के बड़े-बड़े खिलाड़ी भी वायदा बाजार की चाल समझने में गच्चा खा जाते हैं। शेयर बाजार में पैसा लगाना, उससे मुनाफा कमाने इच्छा आज हर उस भारतीय को है जो कुछ पैसे अपनी तनखाह से बचा लेता है। बाजार गिर रहा है, बाजार चढ़ रहा है। वह देखता है, सोचता है- लेकिन क्या तमाशा है उसे समझ में नहीं आता।
आईपीओ की बात करें तो रिलायंस जैसे ही बाजार में आया उसका शेयर बारह गुना ओवर सब्सक्राइब हुआ। वास्तविक धरातल पर कंपनियों के पास कुछ हो या न हो अगर बाजार में एक बार शाख बन गई या किसी तरीके से बनाने में कामयाब रहे तो रातोंरात अरबपति और खरबपति बनते देर नहीं लगती।
शेयर का दाम भी बंबई शेयर बाजार में बेतहाशा बढ़ता है। किस तरह बढ़ता है? पता नहीं। इसका कोई ठोस आधार नहीं है। इसीलिए तो इसे वायदा कारोबार कहते हैं। आम लोगों को लगता है कि कंपनी को लाभ हो रहा है इसलिए शेयर बढ़ रहा है, लेकिन हकीकत इससे अलग है। किसी कंपनी का शेयर जनवरी में ४० रुपये का है तो फरवरी में वह ६० रुपये का हो जाता है। हालांकि कंपनी जब अपना तिमाही मुनाफा पेश करती है तो महज १०-१५ प्रतिशत लाभ दिखाती है। स्वाभाविक है शेयर भहराएगा ही। कुछ कंपनियां तमाम प्रोजेक्ट दिखाकर कृत्रिम बढ़त को सालोंसाल बनाए रखती हैं। सपने दिखाती रहती हैं और जनता से पैसा खींचती रहती हैं। अब कंपनी की दूरगामी परियोजनाओं की सफलता पर निर्भर करता है कि वे बाजार में टिकी रहती हैं या सारा पैसा लेकर रफूचक्कर हो जाती हैं। यह भी संभव है कि कृतिमता कुछ इस तरह बनाई जाए कि एक कंपनी की ३०० परियोजनाएं हों और जिसमें सबसे ज्यादा निवेश हो जाए उसे बर्बाद बता दिया जाए। बाकी के शेयरों में खुद निवेश कर कृत्रिम बढ़त बनाए रखा जाए।
इन सभी तथ्यों से आम निवेशक को हमेशा सावधान रहने की जरूरत है।
भारतीय शेयर बाजार में वर्ष 1930 में बॉम्‍बे रिक्‍लेमेशन नामक कंपनी सूचीबद्ध थी जिसका भाव उस समय छह हजार रुपये प्रति शेयर बोला जा रहा था, जबकि लोगों का वेतन उस समय दस रुपए महीना होता था। कंपनी का दावा था कि वह समुद्र में से जमीन निकालेगी और मुंबई को विशाल से विशाल शहर में बदल देगी लेकिन हुआ क्‍या। कंपनी दिवालिया हो गई और लोगों को लगी बड़ी चोट। अब यह लगता है कि अनेक रियालिटी या कंसट्रक्‍शंस के नाम पर कुछ कंपनियां फिर से इतिहास दोहरा सकती हैं। आप खुद सोचिए कि ऐसा क्‍या हुआ कि रातों रात ये कंपनियां जो अपने आप को करोड़ों रुपए की स्‍वामी बता रही हैं, आम निवेशक को अपना मुनाफा बांटने आ गईं।
इसमें किसी भी तरह का फ्राड संभव है और ऐसा न हो कि बरबादी के बाद रोने पर आंसू भी न आए। हमेशा ठोस परियोजनाओं और ठोस कारोबार की ओर नजर रखें और लाभ के चक्कर में किसी एक कंपनी में बहुत ज्यादा निवेश न करें। इसी में भलाई है।

Monday, January 21, 2008

माया की हनक



सत्येन्द्र प्रताप
उत्तर प्रदेश की राजनीति पर बसपा की हाथी छाने के बाद कांग्रेस, सपा, भाजपा सहित प्रदेश में जनाधार रखने वाली सभी पार्टियों पर असर पड़ा है। बुंदेलखंड के मुद्दे पर राहुल ने माया को ललकारा वहीं मुलायम भी सारे दाव चल रहे हैं। हालत यहां तक पहुंच गई है कि प्रदेश में सपा-कांग्रेस में समझौते के आसार बनने लगे हैं।
उत्तर प्रदेश में समीकरण बदला है। पहले जहां अंबेडकर और जगजीवन राम जैसे बड़े नामों के साथ वहां का आम दलित जुड़ा था, वह मायावती की झोली में पहुंच गया। एक मजबूत जनाधार के बाद मायावती ने कांग्रेस के समीकरण को दोहराने की कोशिश की। कांग्रेस का फार्मूला ब्राह्मण-दलित-मुस्लिम गठजोड़ बना और सफल भी रहा। बदला है तो सिर्फ इतना कि पहले सत्ता कुलीन और उच्च वर्ग के हाथ में हुआ करती थी और अब दलित नेता मायावती के हाथ आ गई है।
स्वाभाविक है कि सत्ता से जु़ड़े रहने का लोभ रखने वालों ने मायावती का साथ दिया और मंडल कमंडल के साथ कांग्रेस भी धूल फांकने लगी। हाल के गुजरात चुनावों में माया का कोई जादू नहीं चला, लेकिन यूपी में पूर्ण बहुमत के मानसिक बढ़त ने इतना प्रभाव जरूर डाला कि तमाम सीटों पर कांग्रेस हार गई। यही किस्सा हिमाचल में भी दोहराया गया।
यूपी में हार का स्वाद चख चुके मुलायम को भी कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। कांग्रेस, मध्य प्रदेश और राजस्थान को लेकर चिंतित है कि कहीं मायावती ने आगामी चुनावों में इन राज्यों में ४ प्रतिशत वोटों की सेंधमारी की तो हालत पतली होना तय है। इसी के साथ कम्युनिष्टों की धमकी से भी कांग्रेस के माथे पर बल पड़ रहा है।
ऐसे हालत में ऊंट किस करवट बैठने जा रहा है, सबकी नज़र इसी पर है।

Thursday, December 27, 2007

भुट्टो की हत्या के बाद की तस्वीर(रावलपिंडी)


AQ372 - Rawalpindi, - PAKISTAN : A supporter of former premier Benazir Bhutto cries as he sits among dead bodies after the bomb blast, in Rawalpindi 27 December 2007. Benazir Bhutto died in a suicide blast in after an election rally. AFP PHOTO/AAMIR QURESHI
पाकिस्तान के रावलपिंडी में बेनजीर की रैली के दौरान आत्मघाती विस्फोट हुआ। यह दृष्य विस्फोट के बाद का है, जिसमें एक समर्थक बिखरी पड़ी लाशों के सामने रो रहा है। ( सौजन्य-फोटो-एएफपी)

फ्लैश॥फ्लैश... बेनजीर भुट्टो की हत्या।

पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री व पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की अध्यक्ष बेनजीर भुट्टो की हत्या। रैली में हुआ हमला।

फ्लैश॥फ्लैश... बेनजीर भुट्टो की हत्या।

पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री व पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की अध्यक्ष बेनजीर भुट्टो की हत्या। रैली में हुआ हमला।

Friday, December 21, 2007

अजब जीवट हैं... फिर बस गए

सत्येन्द्र प्रताप

दिल्ली की सरकार ने तो उन्हें उजाड़ दिया था। और कोई जगह नहीं मिली। चार दिन भी नहीं बीते हैं, मूर्तियां फिर से बनने लगीं। खुले आसमान के नीचे। पहले पालीथीन की छाजन थी। अब नहीं है। एक युवक बैठा हुआ सरस्वती की मूर्ति बना रहा था। उसे छोटे बच्चे घेरे हुए थे।
उसी कुनबे से एक ११-१२ साल की बच्ची निकली। साथ में उससे कम उम्र के बच्चे थे। एक छोटा सा हारमोनियम लिए हुए। बड़ी बच्ची के हाथ में खपड़ा था। उसे आकार देने में जुट गई। शायद संगीत उपकरण बनाना चाहती है, जिसे बजाकर बच्चे बसों में भीख मांगते हैं।
उसी समय डीटीसी की एक बस आई। उसमें हारमोनियम के साथ बच्ची चढ़ी। साथ में तीन-चार साल का बच्चा था। कुछ देर तक गीत के धुन निकालती रही। हारमोनियम के साथ उसके गले से भी मोटी सी आवाज निकली। दिल के अरमां आंसुओं में बह गए। वही स्टाइल, जिसमें भीख मांगी जाती है। हारमोनियम अच्छा बज रहा था। छोटे बच्चे ने भीख मांगना शुरु किया। शुरु से अंत तक पूरे बस में पैसा न मिला। एक आदमी ने उसे गुड़ का छोटा टुकड़ा दिया। चेहरे पर मुस्कान लिए वह लौटा। उसने हारमोनियम बजा रही लड़की को खुश होकर दिखाया, लेकिन उसके चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नही हुई। वह फिर से बजाने और गाने लगी। शायद उसे कुनबे के अन्य सदस्यों की भूख का भी एहसास था। बच्चा गुड़ का टुकड़ा लेकर बैठ गया औऱ खाने लगा। गीत के धुन खत्म हुए। और लड़की ने भीख मांगना शुरु किया। लोगों के पैर छूने और विभिन्न तरह के दयनीय चेहरे बनाने पर भी उसे एक पाई न मिली। शायद बस में यात्रा कर रहे लोगों को इस दृश्य की आदत सी पड़ गई है। आशय बदल चुके हैं। बच्चे की मुस्कराहट और अपनी हार के साथ वह बस से उतर गई। उसके दिल के अरमां, सचमुच आंसुओं में बह चुके थे।

Tuesday, December 18, 2007

मुंह से निवाला छीनती सरकार

सत्येन्द्र प्रताप
आदमी सभ्य हो रहा है। अच्छी बात है। आप ही जवाब दें। क्या हर कथित सभ्य को जिंदा रहने का हक है? मुंह में आवाज बची है क्या? इसी सभ्य आदमी से सवाल है। सरकार तो जवाब देने से रही।
पिछले तीन महीने से देख रहा था। नोयडा मोड़ बस स्टाप को। समसपुर जागीरगांव लिखा है उस स्टैंड पर। अक्षरधाम के दिव्य-भव्य मंदिर के पास। स्टैंड के ठीक पीछे मजदूरों के कुछ परिवार। रोज उन्हें प्लास्टर आफ पेरिस से भगवान या कुछ और बनाते देखता था। सबसे ज्यादा भगवान बनते थे, उसके बाद कुछ सुंदरियां वगैरह। खजुराहो शैली की।
दिल्ली सरकार ने उन्हें उजाड़ दिया। उन्होंने सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा कर रखा था। क्या था कब्जा समझ में नहीं आता। पंद्रह बीस छोटे छोटे बच्चे, नंग-धड़ंग घूमते हुए। पांच छह महिलाएं और उतने ही पुरुष और कुछ बुजुर्ग वहां रहते थे। पालीथीन की छाजन डाले हुए।
आज कुछ बदला-बदला था दृष्य था। वे दुखी नहीं थे। खुश तो वे कभी रहते ही नहीं थे। केवल सामान को सहेज रहे थे। पता नहीं कहां से कुछ महिलाएं खाना भी खा रहीं थी। हो सकता है उन्होंने भीख मांगी हो। पेट तो मानता नहीं कि अवैध कब्जा हटाया गया है तो उस दिन कम से कम भूख न लगे। ठंड भी नहीं मानी होगी, लेकिन रात भर खुले आसमान के नीचे सोने के बाद भी कोई मरा नहीं। एक बच्चा भी नहीं मरा।
दिन कुछ मेहरबान है। धूप निकल आई है। सब कुछ बिखरा पड़ा है। कुछ ध्वस्त भगवान भी इधर-उधर पड़े हैं। एक छोटा सा बच्चा कुछ ढूंढ रहा है। कूड़े के ढेर में। मलबे में।
अजीब सा लगा यह दृष्य।
मुझे तो समझ में नहीं आता कि अब ये क्या करें। कहां जाएं। ये भी नहीं पता है कि कहां से ये लोग आए थे। रहते थे और मैं आफिस जाने के लिए बस का इंतजार करता रोज उन्हें देखता था।
अब क्या करेंगे ये लोग...
१- ऐसी ही शक्ल नजर आती है रोज, जब रेड लाइट पर कारों का काफिला खड़ा होता है। कोई महिला गोद में छोटा बच्चा और हाथ में कटोरा लिए इस कार से उस कार के बगल भागती नजर आती है। कुछ दानियों के शीशे खुलते हैं तो कुछ कारें हरी बत्ती होते ही सन्न से निकल जाती हैं।
२- ये लोग मर जाएं। सामूहिक रूप से आत्महत्या कर लें। लेकिन जीवट देश है यह। यहां ऐसी घटनाएं नहीं होतीं।
३- गलियों और बसों में चोरियां करें, पाकेट मारें या लोगों को लूटकर अपने पेट की आग बुझा लें।
४- हथियार उठा लें... नक्सली बन जाएं... आतंकवादी बन जाएं... किसी की हत्या करने का ठेका लेकर अपना पेट भरें या अपने अधिकार और निवाला छीनने के वालों को मार डालें।

प्लास्टर आफ पेरिस की मूर्तियां बनाने वाले इन कलाकारों का भी मन होगा कि अपने मेहनत से दो रोटी कमाएं। ऐसी इच्छा नहीं होती तो इन्हें पहले भी मेहनत नहीं करना चाहिए था। बहुत दिनों से अवैध निर्माण हटाने की बात चल रही थी। रेल लाइनों के किनारे छह मंजिला इमारतें बनी हैं। सब अवैध हैं। छोटे बिल्डरों ने बनाई। उन्हें गिराने की बात चल रही थी। बिल्डिंगे आखिर बनने ही क्यों दी गईं? सवाल तो यही था। हालांकि इनमें रहने वाले मजदूर थोड़े चालाक हो गए हैं और वे वोटर बन गए हैं। सरकार मजबूर हो गई। उन अवैध बिल्डिंगों को बख्श दिया गया। लेकिन निशाने पर आए वे गरीब, जो मेहनतकश हैं। अपने हुनर और मेहनत से रोटी कमाना चाहते हैं। संगठित नहीं हैं। संगठित होने का समय ही नहीं है। दिन रात महिलाएं पुरुष और बच्चे मूर्तियां बनाने और बेचने में ही गुजार देते हैं। पेट है कि भरता ही नहीं।

Saturday, December 15, 2007

अब मजदूरों पर गोली चलना भी खबर नहीं होती


सत्येन्द्र प्रताप

नोएडा में गोली चली। फैक्ट्री के गार्ड ने चलाई। उत्तेजित मजदूरों ने घुसकर तोड़फोड़ की। पुलिस आई, विरोध करने वालों की तोड़ाई की और सुरक्षा कड़ी कर दी गई। न कोई बहस न चर्चा। नामी गिरामी अखबारों ने एक कालम की खबर दी और कर्तव्यों की इतिश्री।

अखबार और चैनलों में खबर तभी होती है, जब मजदूरों पर गोली चले और दहाई में मौतें हों। ओबी वैन की रेंज में अगर कोई बच्चा गड्ढे में गिर जाए तो खबर। तात्कालिक समस्या है। खबर चलेगी- उसका असर होगा। गड्ढा पाट दिया जाएगा।

मजदूर जब अपना हक मांगता है तो लाला उसे लात मार देता है। अगर वो संगठित होता है तो लाला की सुरक्षा में लगी पुलिस की पिटाई पड़ती है। न्यूज बैल्यू भी तो नहीं है। अगर ये समस्या उठाई जाए तो उसका कोई हल तो निकलना नहीं है। बेरोजगारी तो दूर नहीं होनी है। क्या फायदा। मरने दो। मर जाएंगे, गरीबों की संख्या घट जाएगी। उतने ही गरीब बचेंगे जो लाला की चाकरी करके आराम से रोजी-रोटी चला लें। ज्यादा टिपिर-टिपिर करेंगे तो पीटने के लिए खाकी वर्दी है ही। अगर खाकी वालों का भी जमीर जाग गया तो निजी सुरक्षाबल रखने की कूबत तो है ही। उनसे पिटवा देंगे। तो कोई मतलब नहीं है ज्यादा टें-टें करने का।

Wednesday, December 12, 2007

58 वर्षीय वृद्धा ने जुड़वां बच्चों को जन्म दिया

विग्यान भी क्या कमाल करता है। कभी विश्वास न होने वाली घटना हो जाती है। ऐसा ही हुआ हरियाणा में । जिंद जिले के बुरैन गांव की ५८ साल की चमेली देवी पहली ऐसी महिला बन गई हैं, जिन्होंने वृद्धावस्था में जुड़वां बच्चों को जन्म दिया है। कृतिम गर्भाधान के जरिए ७५ साल के कपूर सिंह की पत्नी ने एक लड़का और एक लड़की को जन्म दिया।
बच्चे की चाह में कपूर ने चमेली से दूसरा ब्याह रचाया था। उनके ब्याह को ४४ साल हो गए हैं। आपरेशन करने वाले डा. अनुराग विश्नोई का कहना है कि यह पेंचीदा मामला था। हमने उच्च रक्तचाप के चलते काफी एहतियात बरता। चमेली देवी ने आईवीएफ-- इनवीट्रो फर्टिलाइजेशन के जरिए गर्भधारण किया था। चिकित्सकों के मुताबिक बच्चा जच्चा दोनो स्वस्थ हैं।
आप भी शुभकामनाएं दें।

यह मनुष्य था, इतने पर भी नहीं मरा था



सत्येन्द्र प्रताप
कवि त्रिलोचन. पिछले पंद्रह साल से कोई जानता भी न था कि कहां हैं. अचानक खबर मिली कि नहीं रहे. सोमवार, १० दिसंबर २००७. निगमबोध घाट पर मिले. मेरे जैसे आम आदमी से.
देश की आजादी के दौर को देखा था उन्होंने. लोगों को जीते हुए। एकमात्र कवि. जिसको देखा, कलम चलाने की इच्छा हुई तो उसी के मन, उसी की आत्मा में घुस गए। मानो त्रिलोचन आपबीती सुना रहे हैं. पिछले साल उनकी एक रचना भी प्रकाशित हुई. लेकिन गुमनामी के अंधेरे में ही रहे त्रिलोचन। अपने आखिरी दशक में.
उनकी तीन कविताएं...

भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल
जिसको समझे था है तो है यह फौलादी.
ठेस-सी लगी मुझे, क्योंकि यह मन था आदी
नहीं, झेल जाता श्रद्धा की चोट अचंचल,
नहीं संभाल सका अपने को। जाकर पूछा,
'भिक्षा से क्या मिलता है.' 'जीवन.' क्या इसको
अच्छा आप समझते हैं. दुनिया में जिसको
अच्छा नहीं समझते हैं करते हैं, छूछा
पेट काम तो नहीं करेगा. 'मुझे आपसे
ऐसी आशा न थी.' आप ही कहें, क्या करूं,
खाली पेट भरूं, कुछ काम करूं कि चुप मरूं,
क्या अच्छा है. जीवन जीवन है प्रताप से,
स्वाभिमान ज्योतिष्क लोचनों में उतरा था,
यह मनुष्य था, इतने पर भी नहीं मरा था.

त्रिलोचन ने किसी से कहा नहीं। सब कुछ कहते ही गए. आम लोगों को भी बताते गए और भीख मांगकर जीने वालों को नसीहत देने वालों के सामने यक्ष प्रश्न खड़ा कर दिया.

दूसरी कविता
वही त्रिलोचन है, वह-जिस के तन पर गंदे
कपड़े हैं। कपड़े भी कैसे- फटे लटे हैं
यह भी फैशन है, फैशन से कटे कटे हैं.
कौन कह सकेगा इसका जीवन चंदे
पर अवलंबित है. चलना तो देखो इसका-
उठा हुआ सिर, चौड़ी छाती, लम्बी बाहें,
सधे कदमस तेजी, वे टेढ़ी मेढ़ी राहें
मानो डर से सिकुड़ रही हैं, किस का किस का
ध्यान इस समय खींच रहा है. कौन बताए,
क्या हलचल है इस के रुंघे रुंधाए जी में
कभी नहीं देखा है इसको चलते धीमे.
धुन का पक्का है, जो चेते वही चिताए.
जीवन इसका जो कुछ है पथ पर बिखरा है,
तप तप कर ही भट्ठी में सोना निखरा है.
कवि त्रिलोचन कहीं निराश नहीं है. हर दशक के उन लोगों को ही उन्होंने अपनी लेखनी से सम्मान दिया जो विकास और प्रगति की पहली सीढ़ी भी नहीं चढ़ पाया. संघर्ष करता रहा.
तीसरी कविता
बिस्तरा है न चारपाई है,
जिन्दगी खूब हमने पाई है.
कल अंधेरे में जिसने सर काटा,
नाम मत लो हमारा भाई है.
ठोकरें दर-ब-दर की थीं, हम थे,
कम नहीं हमने मुंह की खाई है.
कब तलक तीर वे नहीं छूते,
अब इसी बात पर लड़ाई है.
आदमी जी रहा है मरने को
सबसे ऊपर यही सचाई है.
कच्चे ही हो अभी अभी त्रिलोचन तुम
धुन कहां वह संभल के आई है.

Sunday, December 9, 2007

दिल की नीलामी



यह दिल नीलाम होगा...
कीमत चालीस हजार डॉलर।
कीमती है ना।
वैसे तो बाजार में कितने दिल नीलाम होते हैं।
हर रोज.. हर घंटे...
पैसे की बलि वेदी पर चढ़ते हैं।
नीलामी के लिए यह दिल भी है
लेकिन अच्छे काम के लिए...
असली नहीं
चित्रकार की कल्पना है केवल।
समाज की सच्चाइयां दिखाती
नीलाम होगा।
टूटेगा नहीं।
पैसे मिलेंगे...
वह राहत पहुंचाएंगे..
उन दिलों को..
जो टूट चुके हैं एड्स की चपेट में आकर।
इसकी नीलामी होगी।
सोथवे आक्शन सेंटर पर
ब्रिटेन में नहीं, न्यूयार्क में।
आम दिन नहीं...
खास दिन।
दिल को धड़काने वाले दिन।
चौदह फरवरी के दिन।

चुनावी रंग में कहां कुछ याद रहा हमें



ओम कबीर

गुजरात के चुनावी रंग पूरे देश में छिटक गए हैं। हर तरफ चरचा है। कुरसी की। ऊंट किस करवट बैठेगा। सब इसी में मशगूल हैं। इस बीच कुछ महत्वपूणॆ मुद्दों पर पेंट पुत गया है। चुनावी पेंट। नंदीग्राम और तसलीमा आउट आफ फोकस हो चुके हैं। बाजार का यही अथॆशास्त्र। हम बाजार युग में जी रहे हैं। इससे यह भी पता चलता है। लेकिन मैं इस मुद्दे को उठा रहा हूं। न्याय करने की दृष्टि से। तसलीमा बड़ा मुद्दा था। नंदीग्राम से भी। तेजी से उभरा। जनआंदोलन की शक्ल अख्तियार कर लिया। राजनीति उबलने लगी। लोग सिर के ऊपर आसमान उठाने लगे। शांत हुआ तो कहीं खो गया। इतना चुपके से। पता भी न चला। तसलीमा कहां हैं यह मीडिया के लिए भी आउट आफ कांटेक्स्ट की बात है। तसलीमा से झगड़ा लोगों का उनकी किताब की चंद पंक्तियों को लेकर था। तथाकथित ईश निंदा का। किताब की चंद पंक्तियों ने नंदीग्राम की अमानवीयता को मात दे दी। आंदोलन के स्तर पर। हजारों बेघर लोगों का मुद्दा चंद पंक्तियों से छोटा दिखने लगा। हत्या, लूट, बलात्कार से भी बड़ी थीं ये पंक्तियां। नंदीग्राम भी मुद्दा बना लेकिन जनआंदोलन नहीं। तसलीमा की तरह। सियासी मुद्दा भी बना। लेकिन लाभदायक नहीं रहा। नेताओं का भी मोहभंग हो गया। बहुत जल्द। जैसे तसलीमा चढ़ीं और उतरीं। क्या हम नंदीग्राम को तसलीमा की तरह ही बड़ा मुद्दा नहीं बना सकते थे। तसलीमा सियासी मुद्दा थी। नंदीग्राम राजनीतिक जंग। जंग में हर चीज जायज होती है। पर हर चीज जायज भी नहीं होती। नंदीग्राम को प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं।

Thursday, December 6, 2007

गंगा तू चली कहां


मानॊ तॊ मैं हूं मां गंगा न मानॊ तॊ बहता पानी ा यह सब आस्था पर है ा न जाने कितनी शदियॊं से जीवित और मत पाणियॊं का उद्धार कर रही हैा वॊ जब स्वग से पथ्वी पर अवतरित हुई तॊ उनके साथ ३३ कॊटी देवता भी देवपयाग आये ा लॊगॊं के पाप धॊते -धॊते मैली हॊ गयीा उसमें जसे डाला गया उसे मां ने बिना कुछ कहे अपने में समाहित कर लियाा काश मां अपने में भष्टाचार कॊ भी समा लेती तॊ आज समाज कितना अच्छा हॊता ा पुतर भले ही कुपतर बन जाए पर मां कभी कुमाता नहीं बनती ा वॊ अपने बच्चॊं की बस खुश देखना चाहती हैा हर गम सहती है लेकिन कुछ कहती नहींा वॊ तॊ उसके लायक बचचे ही उसे उसके नालायक बच्चॊं से उसकी र‌शा करते हैंा
गंगा मां ने भी कभी किसी से कुछ नहीं कहाा मां गंगा की सफाई पर करॊड़ॊं रुपये खरच हॊ गये हैं पर नतीजा शिफर ा अदालत कॊ कहना पड़ा बस करॊ अब गंगा के नाम पर कितना तर करॊगे अपने आप कॊ ा मां गंगा जब परवतॊं में अपने घर ऋषिकेश कॊ छॊड़कर मैदानी इलाकॊं में आती है तॊ उसके पहाडवासी बच्चे भी उसे पहचान नहीं पाते ा उनका कहना है कि हमारी मां तॊ अत्याधिक सुंदर है जॊ अपने बच्चॊं की प्यास बुझाती है उसका जल निमरल है ा लेकिन इसका जल तॊ गंदगी से पटा पड़ा हैा इसके किनारे रहने वाले तॊ पानी कॊ उबाल कर पीते हैा

जी करता है जग जीत लूं


सत्येन्द्र
अगर स्वतंत्रता असीमित हो तो नंगई बढ़ जाती है। स्वतंत्रता के साथ संयम भी उतना ही जरूरी है। एक तरफ ईरान में रात को बुर्का चेक करने के लिए महिला पुलिस निकलती है, तो पश्चिमी देशों में खुलेपन की कोई सीमा नहीं बचती। रुस में चुनाव हुए। प्रो क्रेमलिन ग्रुप नासी ने भी खुशी का इजहार किया। खुशी का आलम यह था कि मास्को के रेड स्क्वायर में रैली के दौरान बिकिनी पहनकर दौड़ लगाने लगी। हाल के पार्लियामेंट्री चुनावों में रूस के राष्ट्रपति ब्लादीमीर पुतिन की यूनाइटेड रूस पार्टी ने जीत हासिल की है। यूनाइटेड रूस ६४.१ प्रतिशत मत हासिल किए हैं।

Wednesday, December 5, 2007

गड्ढा

विवेक ध्यानी

भले ही आज इस मासूम पर कॊई ध्यान नहीं दे रहा हॊा बच्चे तॊ अपनी ही दुनिया में मस्त रहते हैं वॊ इस जहान के भ़ष्टाचार से दूर हैं ा लेकिन समाज में भ़ष्टाचार अपनी जड़े गहरी जमा चुका हैा चारॊ तरफ भ़ष्टाचार हावी है ा भ़‍ष्ट चारी ये भी हर जगह भ़ष्टाचार करता है ा बड़े तॊ संभल कर चले जाते हैं गिरता तॊ बच्चा है ा जॊ भविष्य है ा लेकिन भविष्य की किसे चिंता है सब वतॆमान में जी रहे हैं ा अपने कॊ प्रजातंत्र का चॊथा सतंभ कहने वाला मीडिया भी तभी जागता है जब कॊई प़िंस गढ्ढे में गिरता है तॊ उन्हें २४ घंटे के लिए ख़बर मिल जाती हैा सारा देश उस समय गढ्ढॊं कॊ कॊसता है ा फिर चाहे आम आदमी हॊ या फिर सीएम हर कॊई दुआ सलामती मांगता है ा अंगेजी की कहावत है पिवेंशन इज बैटर देन क्यॊर अथात वक्त रहते ऎसे गढ्ढॊं कॊ ढक दिया जाए तॊ कल का भविष्य कभी ऎसे गढ्ढॊं में नहीं गिरेगाा

अशोक बन गए हैं बुद्धदेव

कलिंग में तबाही मचाने के बाद जिस तरह अशोक ने माफी मांग ली थी। ठीक उसी तरह बुद्धदेव भी झुक गए हैं। उन्होंने नंदीग्राम के मामले में माफी मांग ली है। उन्होंने कहा है मैं शांति चाहता हूं। नंदीग्राम को तबाह करने के बाद बुद्धदेव ने पहली बार अपनी गलती स्वीकार की है। चलो वामपंथियों में से किसी ने तो अपनी गलती स्वीकार की। कई तो अभी भी पता नहीं कौन से कोने में छिपे बैठे हैं। कंलिंग में खूनखराबा मचाने के बाद अशोक का ह्दय परिवतॆन हो गया था। उन्होंने बौद्ध धमॆ अपना लिया था। तो क्या बुद्धदेव भी बदल गए हैं। क्या वो भी अब खूनखराबे का रास्ता छोड़कर शांति के पथ पर चलना चाहते हैं। क्या वो भी अहिंसा का रास्ता अपना लेंगे। खैर देखते हैं कि बुद्धदेव कितने दिनों तक अपने का‍‍डर को काबू में रख पाते हैं।

कुछ बदला है? जातिवाद? ब्राहमणवाद? -- पता नहीं

सत्येन्द्र

कुछ भी नहीं बदला है। हालात जस के तस हैं। जातिवाद भी उसी तरह है। पहले कुछ लोग करते थे, अब लगभग सभी करते हैं। गरीब हर जगह मारा जाता है। अपना हक मांगने वालों को नंगा किया जाता है। आरक्षण से रोजगार में कोई परिवतॆन नहीं आया है। अरे इस समय जितनी नौकरियां हैं, सभी अगर अनुसूचित जाति को दे दिया जाए तो भी वे बेरोजगार रह जाएंगे। आरक्षण लागू तो हो गया लेकिन लागू होने के बाद सभी संस्थान तो निजी हाथों में बिक चुके हैं। शिक्षा बिका, सार्वजनिक संस्थान बिके, बिजली विभाग भी आधा बिक गया है। जहां भी सरकारी आरक्षण लागू होता था, सब तो खत्म कर दिया गया है। तो कहां और किसका हक मारा जा रहा है? हां, बदलाव आया है। कुलबुलाहट बढ़ी है। सत्ता में दलितों की भागीदारी बढ़ी है। जब मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू की गई थी। उसके पहले तो कोई जातिवाद खत्म करने की बात शायद ही उठाता था। अब बिहार में सत्ता गई, यूपी में गई धीरे-धीरे दायरा बढ़ ही रहा है। तो स्वाभाविक है कि विकास की बात तो होगी ही। अब जाति के नाम पर वोट मांगना नाजायज होगा ही। विकास की बात की जाएगी। इस समय भी जातीय आधार पर स्थितियों का आंकलन करें तो कुछ खास नहीं बदला है। अभी तो यह दांडी वाले रास्ते पर भी नहीं बदला है, जहां ६१ साल के गांधी ७८ साल पहले, जातीय आधार पर भेदभाव खत्म करने की अपील कर आए थे। मधुकर जी ने भी दांडी मार्च किया। उसी रास्ते पर जिस पर गांधी चले थे। किताब लिखी- धुंधले पदचिन्ह। कुछ भी तो नहीं बदलाव नजर आता है। हां.. इतना फर्क जरूर पड़ा है। गांधी के बाद से लोग आवाज उठाने लगे हैं। चुपचाप नहीं सहते। कुछ अपना गांव-घर छोड़कर बाहर आते हैं। किसी तरह, जाति वगैरह छिपाते। प्राइवेट और सरकारी सेक्टर में काम करते हैं। ब्लागिंग भी करते हैं और सवर्णों सा अवर्णों को गरियाते हैं।स्थितियां तो जस की तस हैं, लेकिन पन्द्रह साल की उथल-पुथल ने लोगों को सोचने पर मजबूर जरूर किया है, लोगों में कुलबुलाहट जरूर है।

केसर के फूल


कश्मीर की वादियां इस समय पाकिस्तानी घुसपैठ के लिए जानी जाती हैं। लेकिन उसकी असली पहचान है केसर। कश्मीर का केसर पूरी दुनिया में भेजा जाता है। खेतों में केसर के फूल उग आए हैं। किसान उसे सहेज रहे हैं। वे चाहते हैं कि उसकी खुशबू दुनिया भर में फैल जाए।

मुझे दूध पिला दो ना, बड़ी भूख लगी है.


Tuesday, December 4, 2007

अब क्या है जिसकी परदादारी


ओम कबीर
हर चेहरे से परदा गिर जाता है। कुछ का देर, तो कुछ का सबेर। लोग तो कह रहे थे कि तसलीमा मामले को उछालकर नंदीग्राम मामले पर परदा डाला जा रहा है। अब क्या बचा है, जिसकी परदादारी है। लोगों से अब क्या छुपा है। जो है सबके सामने है। अब ढोंग रचने से भी क्या फायदा। हर रंग उभर कर साफ नजर आ रहा है। कल तक जो गुजरात दंगे जैसे मुद्दे पर हिंदूवादियों की खिंचाई कर रहे थे, वही अब मुंह छिपाने के लिए परदे की ओट ढूंढ रहे हैं। गुजरात तो सबके सामने था। खुला खेल। नंदीग्राम में तो सब कुछ छिपकर हुआ। परदे के पीछे से हमला। उन्हें लगता था कि यह परदा हमेशा उनके चेहरे रहेगा। वो परदा भी गिर गया। अपने को बुद्धिजीवी कहने वाले शरमशार हैं। तसलीमा को शरण देने की कीमत मांगी गई है। वो भी सभ्य समाज को शरमशार कर देने वाली। अपनी लेखनी को कुंद करने की कीमत। सभ्य कहलाने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी पहले अपने को वामपंथी कहलाना गवॆ समझते थे। अब शरमशार हैं। समझ में नहीं आता तसलीमा झुकी हैं या राजनीति का सिर नीचा हुआ है। वामपंथियों का सिर तो पहले ही झुका हुआ था। सांप्रदायिकता के खिलाफ नारा बुलंद करने वाले उसके तलवे तले दबे जा रहे हैं। वामपंथी अपने को आम आदमी से ऊपर समझते थे। अब शरम को भी पीछे छोड़ चुके हैं। इस मामले में उन्हें परदे की भी जरूरत नहीं। नंगापन भा रहा है। वो तो पहले भी अपनी बुराई नहीं सुनते थे, अब गालियों से उन्हें डर लगने लगा है। वामपंथी कहलाने से अब वे शरमाने भी लगे हैं। अभी बहुत से परदे गिरने बाकी हैं। तब तक, जब तक कि एक भी शरीर बचा है।

Monday, December 3, 2007

कुछ टूटा है, जिसका दूर तक असर है




ओम कबीर
कुछ टूटता है तो उसका असर होना लाजमी है। वक्त के साथ टूटता है तो ददॆ के साथ दाग भी छोड़ जाता हैं। पिछले दिनों नंदीग्राम ने बहुत कुछ टूटा। ददॆ के साथ। दूर तक असर भी छोड़ गया। वक्त पर कुछ निशान छोड़ गया। पिछले दिनों पश्चिम बंगाल के राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी नंदीग्राम के दौरे पर गए। वहां उनकी चप्पल टूट गई। उनकी चप्पल का मरम्मत करता मोची और बगल में बैठ कर अपनी चप्पल ठीक करवाते गांधी की तस्वीर देश के लगभग सभी अखबारों में छपी। पूरे देश ने उसे देखा। नहीं देखा तो उसके पीछे का ददॆ। जो बहुत पहले ही अपने निशान उस तस्वीर के पीछे छोड़ गया था। उस ददॆ की गूंज बहुत लंबे समय तक सुनाई देगी। चप्पलें तो फिर भी ठीक हो सकती हैं। मरम्मत हो सकती हैं। पर उस ददॆ का क्या। जो उनके ऊपर एक निशान छोड़ गया है। क्या उसके लिए भी कोई मोची मिलेगा। क्या धागों और सुईयों से उस जख्म को भरा जा सकता है। फिर उस मरहम को हम कहां से लाएंगे। जो वक्त को ददॆ को भर दे। उस निशान को हमेशा के लिए मिटा दे। और कह दे जो हुआ वह महज एक हादसा था। और हम उसे भुला दें।

Sunday, December 2, 2007

देर से आंख खुलने का सियापा है क्या...



अखिलेश
इतनी हाय तौबा काहे मचाये हो बबुआ, माकपा को नहीं जानते थे का, ई त बहुते पहिले एक्सपोज़ हो चुकी है.....याद नहीं आ रहा है का... अच्छा त याद दिला देते हैं....कानू सान्याल और चारु मजूमदार को याद करो बाबू....नक्स आन्दोलन याद करो. ....बबुआ याद करो, इन्हीं तथाकथित वामपंथियों ने किस तरह नयी व्यवस्था का सपना देखने वालो से उनकी आँखे छीनने कि कोशिश कि थी.....अब काहे का सियापा ....लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि हाथ में दारु और लिंग के पास कट्टा खोंस कर हिदू धर्म की रक्षा करने निकले लोंगो को वामपंथियो को गरियाने दिया जाये.......

चिलम का मजा ही कुछ और है



वाह दादा, क्या बात है। इस बुढ़उती में भी इतना लंबा कश। हो भी क्यों न। राजनीतिक रैली में जो भाग लेने आए हैं। लगता है, चाचा नेहरू और गांधी बाबा की याद अभी भी ताजा है।