Friday, April 10, 2015

जमीन की लूट में हाशिये पर आदिवासी

सत्येन्द्र
केंद्र सरकार ने भूमि अधिग्रहण विधेयक पेश किया है। इसे वह किसान हितैषी भी बता रही है। इस पर विपक्ष राजी नहीं है। उसका कहना है कि विधेयक किसान विरोधी है। दिलचस्प है कि हाशिये पर रहे आदिवासियों की चर्चा कहीं नहीं हो रही है। न तो सरकार इन आदिवासियों की बात कर रही है और न ही विपक्ष। वहीं असल लड़ाई आदिवासियों की है, जिनसे जमीन लेकर खनन किया जाना है। कोयला, लौह अयस्क व अन्य प्राकृतिक खनिजों के लिए आदिवासी क्षेत्रों की जमीनों की जरूरत सरकार व उद्योग जगत को है।
दरअसल असली लड़ाई आदिवासियों की जमीन छीनने को लेकर ही है। खेती वाली भूमि के अधिग्रहण की जरूरत कम है। जहां अधिग्रहण होता भी है, शहरी इलाकों के नजदीक के किसानों को मुआवजा दे दिया जाता है। लेकिन इस अधिनियम में आदिवासियों की स्थिति क्या है, यह सवाल बहुत महत्त्वपूर्ण है। खासकर ऐसी स्थिति में सवाल और भी महत्त्वपूर्ण है, जब छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड से लेकर देश का एक बड़ा हिस्सा कथित लाल गलियारे में तब्दील हो चुका है। कथित नक्सलियों और भारत सरकार के सैन्य बलों के बीच खूनी संघर्ष हो रहे हैं।
खुद को किसान हितैषी बताने वाली केंद्र सरकार ने विश्वबैंक से कहा है कि वह बैंक द्वारा वित्त पोषित परियोजनाओं से विस्थापित होने वाले आदिवासियों से पूर्व सहमति लेने, उन्हें स्वतंत्र रूप से राय देने और परियोजना के बारे में उनको पूरी जानकारी दिए जाने संबंधी अनिवार्यता को लेकर 'सहज' नहीं है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार की ओर से बैंक को दी गई यह प्रस्तुतीकरण ऐसे समय में आई है, जब सरकार आदिवासियों के परंपरागत वन क्षेत्र को उद्योगों को सौंपे जाने को लेकर आदिवासियों से सहमति लिए जाने की जरूरत खत्म करने पर काम कर रही है।
इसके पीछे राजग सरकार ने विश्व बैंक के सामने तर्क दिया है कि भारत के घरेलू कानून और नियम हैं, जो आदिवासियों के हितों की रक्षा करते हैं, जिसमें 'कुछ मामलों में' सहमति लेने का अधिकार भी शामिल है। साथ ही बैंक अपनी शर्तें रखने के बजाय घरेलू कानून पर भी गौर कर सकता है। लेकिन अगर घरेलू स्थिति देखें तो राजग सरकार तमाम कार्यकारी आदेश पारित कर रही है, जिससे ज्यादातर मामलों में आदिवासियों को अपनी वनभूमि की रक्षा करने के लिए वीटो पावर से वंचित होना पड़ेगा। वर्तमान में वन अधिकार अधिनियम के तहत जब उद्योगों को या विकास परियोजनाओं के लिए आदिवासियों की परंपरागत वन भूमि लेनी होती है तो सरकार को ग्राम सभाओं से अनुमति लेनी होती है। जून 2014 से सरकार इन प्रावधानों को नरम करने पर काम कर रही है। हालांकि आदिवासी मामलों का मंत्रालय इसका पुरजोर विरोध कर रहा है।
सरकार ने जो मौजूदा भूमि अध्यादेश पेश किया है उसमें आदिवासियों की गैर वन्य भूमि के मामले में सहमति की जरूरत सिर्फ खंड 5 और 6 क्षेत्रों तक सीमित है और इसका विस्तार देश के सभी आदिवासी भूमि तक नहीं है। सरकार यह बदलाव इन दावों के साथ कर रही है कि अंग्रेजों का बनाया गया कानून शोषण युक्त है। वह बूढ़ा हो चुका है। उसमें बदलाव की जरूरत है, जिससे भारत विकास के पथ पर चल सके। आखिर इन तर्कों की हकीकत क्या है, जिन्हें तथ्यों के आधार पर परखना होगा। आदिवासियों ने जमीन पर कब्जे को लेकर अंग्रेजों से मोर्चा लिया है। यूं कहें कि आम राजे महराजों की सरकारें तो अंग्रेजों से अपना राजपाठ गंवाती गईं, लेकिन आदिवासियों ने कुछ इस कदर मोर्चा संभाला कि अंग्रेज हुकूमत को वन क्षेत्र और भारत के खनिज संसाधन करीब करीब छोड़ने पड़े। उन्हें आदिवासी विद्रोहियों से जगह जगह समझौते करने पड़े। उनकी सहमति के बगैर वन्य क्षेत्र में प्रवेश कानूनन निषेध हो गया। उस समय जब बंगाल विधान परिषद में चर्चा हुई, उसमें न केवल आदिवासियों, बल्कि किसानों के हितों की भी व्यापक चर्चा हुई, जिसके बाद 1894 का भूमि कानून आया था। उस कानून की मजबूती ही कहेंगे कि स्वतंत्रता के बाद भी उस कानून में बहुत मामूली फेरबदल किए जा सके, वर्ना कानून की स्थिति यथावत है।
केंद्र सरकार भूमि अधिग्रहण विधेयक पर अड़ी है। कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार भी आदिवासी इलाकों में जमीन अधिग्रहण को लेकर अड़ी थी। लाल गलियारे की तमाम परियोजनाएं ठहर सी गईं। सरकार के लिए उन क्षेत्रों में घुसना मुश्किल हो गया। लेकिन मौजूदा सरकार इस कदर विधेयक को लेकर प्रतिबद्ध है कि उसे संविधान की धज्जियां उड़ाने में भी कोई गुरेज नहीं है। संविधान में प्रावधान है कि संसद के दोनों सदन चल रहे हों, उस समय अध्यादेश नहीं लाया जा सकता। 5 अप्रैल को भूमि अध्यादेश की अवधि खत्म हो रही थी, और राज्यसभा में विधेयक पारित नहीं हुआ था। संसद के दोनों सदन भी चल रहे थे। ऐसे में सरकार अध्यादेश नहीं ला सकती थी। इस बाधा को हटाने के लिए सरकार ने राज्यसभा का सत्रावसान कर दिया, जिससे फिर से अध्यादेश लाया जा सके। यह खुले तौर पर संविधान की धज्जियां उड़ाने जैसा है, क्योंकि संविधान की मंशा यह थी कि अध्यादेश केवल आपात स्थिति में लाया जाए, अन्यथा संसद में चर्चा के बाद ही कानून बनाया जाना चाहिए।
आखिरकार केंद्र सरकार अध्यादेश ले आई। यह समझना मुश्किल है कि अध्यादेश क्यों लाया गया है। इसमें वह 6 बदलाव भी शामिल किए गए हैं, जो केंद्र सरकार ने लोकसभा में भूमि अधिग्रहण विधेयक पेश करते समय किए थे। इसमें आदिवासियों का कोई जिक्र नहीं है। कुछ लुभावने मसलों पर रंगरोगन कर दिया गया है, जिन पर विपक्षी दल सरकार को घेर रहे थे।
सरकार का एक तर्क यह भी है कि भूमि अधिग्रहण न हो पाने के कारण तमाम बुनियादी ढांचा परियोजनाएं ठप पड़ी हैं, क्योंकि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के जनवरी 2014 में लाए गए भूमि अधिग्रहण कानून के चलते अधिग्रहण में दिक्कतें हो रही हैं। हालांकि उद्योग जगत के सर्वे की ही बात करें तो स्थिति कुछ और ही बयान कर रही है। आंकड़े बताते हैं कि भूमि अधिग्रहण न होने की वजह से बहुत मामूली परियोजनाएं फंसी हैं, जबकि ज्यादातर परियोजनाएं भूमि अधिग्रहण से इतर दिक्कतों, जैसे पर्यावरण की मंजूरी न मिलने, वैश्विक मंदी के चलते धन न मिलने आदि जैसी वजहों से फंसी हैं।
भारत सरकार खुद तो आदिवासियों के अधिकार छीनने पर तुली ही है, विदेश से उद्योग को मिलने वाली फंडिंग के मामले में भी वह आदिवासियों की उपेक्षा करने को तैयार है। वह विश्व बैंक की शर्तों में भी फेरबदल चाहती है। एमनेस्टी इंडिया की बिजनेस और मानवाधिकार शोधकर्ता अरुणा चंद्रशेखर कहती हैं, 'इससे यह पता चलता है कि सरकार अपने नागरिकोंं की बात सुनने को भी इच्छुक नहीं है। यह चिंता का विषय है कि सरकार फैसले से आदिवासियों की जमीन और उनके संसाधनों पर असर पड़ रहा है और ऐसे मामले में सरकार उनसे सहमति नहीं लेना चाहती।'
अपने ही नागरियों के एक तबके के प्रति सरकार का यह रुख काफी खतरनाक है। विकास के नाम पर सरकार यह कर रही है। दिलचस्प है कि सरकार के इस फैसले से सिर्फ और सिर्फ उन आदिवासियों पर असर पड़ने जा रहा है जो इस समय वन्य क्षेत्रों में रहते हैं। स्वतंत्रता के बाद किसान जो जमीन जोतता था, वह उसके नाम कर दी गई। उसे उस जमीन को बेचने, खरीदने का हक मिल गया। वह राजा, अंग्रेज सरकार या जमींदार को लगान देने की बजाय अपनी चुनी सरकार को लगान देने लगा। वहीं स्वतंत्रता के बाद भी वन क्षेत्र में रहने वाले लोगों के नाम वे वन नहीं किए गए। अंग्रेजों ने उन्हें कुछ हक दिए थे कि वन से जब उन्हें हटाया जाए तो उनसे सहमति ली जाए। तमाम वन कानून उन्हें त्रस्त करते रहते हैं और प्रशासन उन्हें वनोत्पाद लेने से भी रोकते हैं। अब सरकार की मंशा कहीं और ज्यादा खतरनाक हो रही है।

Monday, March 9, 2015

सामाजिक न्याय की मछलियां

(बदलते राजनीतिक माहौल और भाजपा के सत्ता में आने के बाद सभी प्रमुख दलों के कोमा में पहुंच जाने के बाद दिलीप मंडल का यह लेख एक नई दिशा देता है। इसमें सेक्युलरिज्म और सामाजिक न्याय की ताकत की व्याख्या की गई है। जनसत्ता में प्रकाशित लेख)
दिलीप मंडल
मछलियां पानी में होती हैं, तो वे जिंदा रहती हैं और उनमें काफी ताकत होती है। लेकिन वही मछलियां जब पानी के बाहर होती हैं तो छटपटा कर दम तोड़ देती हैं। ‘जनता परिवार’ की कुछ पार्टियों ने हाल में एका की जो कवायद की है, उसमें सेक्युलरवाद को मूल विचार के तौर पर पेश किया जा रहा है। यह इन पार्टियों का पानी से बाहर आना या पानी से बाहर बने रहना है। सेक्युलरिज्म का खोखला नारा इन पार्टियों के लिए मारक साबित हो सकता है।
सेक्युलरिज्म इन पार्टियों का केंद्रीय विचार नहीं है। ये पार्टियां या तो सामाजिक न्याय के अपने केंद्रीय विचार को भूल चुकी हैं, या फिर अपने पुराने स्वरूप में लौट पाना इनके लिए असहज हो गया है। ये पार्टियां सेक्युलरिज्म के नाम पर एकजुट होने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन वे भूल रही हैं कि सेक्युलरिज्म के मैदान में भाजपा उन्हें और कांग्रेस और माकपा जैसे दलों को लगातार पटक रही है। भाजपा ने सेक्युलरिज्म का राजनीतिक अनुवाद ‘मुसलिम तुष्टीकरण’ के रूप में किया है और इस अनुवाद को हिंदू मतदाताओं ने खारिज नहीं किया है। अगर भाजपा के हिंदू बहुसंख्यकवाद से अन्य पार्टियों का अल्पसंख्यक सेक्युलरवाद टकराएगा, तो इस मुकाबले में जीतने वाले का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
सेक्युलरिज्म को दरअसल कभी राजनीतिक नारा होना ही नहीं चाहिए था। यूरोपीय सामाजिक लोकतंत्र की शब्दावली से आए इस शब्द का भारत आते-आते अर्थ भी बदल चुका है। बल्कि अर्थ का अनर्थ हो चुका है। यह शब्द यूरोप में चर्च और राजकाज की शक्तियों के संघर्ष के दौरान चलन में आया था। इसका अर्थ है कि राजकाज में धर्म (यूरोपीय अर्थ में चर्च) का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। चर्च और राजनीति के संघर्ष में आखिरकार राजनीति की जीत हुई और चर्च ने अपने कदम पीछे खींच लिए। चर्च की दादागीरी के खिलाफ आधुनिक शासन व्यवस्था की ऐतिहासिक जीत के बाद से ही सेक्युलरिज्म शब्द दुनिया भर में लोकप्रिय हुआ।
लेकिन भारत का सेक्युलरवाद राजकाज और धर्म का अलग होना नहीं है। भारत में इस शब्द का अनुवाद सर्वधर्म-समभाव की शक्ल में हुआ। यानी राज्य या शासन हर धर्म को बराबर नजर से देखेगा और बराबर महत्त्व देगा। लगभग अस्सी फीसद हिंदू आबादी वाले देश में सर्वधर्म-समभाव के नारे का हिंदू वर्चस्व में तब्दील हो जाना स्वाभाविक ही था। आजादी के बाद कांग्रेस के शासन में भी हिंदू प्रतीकों और मान्यताओं को राजकाज में मान्यता मिली। सरकारी कामकाज की शुरुआत और उद्घाटन से लेकर लोकार्पण तक में नारियल फोड़ने, सरस्वती वंदना करने, राष्ट्रपतियों के द्वारा मंदिरों को दान देने से लेकर सरकार द्वारा मंदिरों के पुनरुद्धार कराने तक की पूरी शृंखला है, जो यह बताती है कि राजकाज में हिंदुत्व के हस्तक्षेप की शुरुआत भाजपा ने नहीं की है। यहां तक कि माकपा ने भी पश्चिम बंगाल में अपने तीन दशक से अधिक लंबे शासन में बेहद हिंदू तरीके से राजकाज चलाया और दुर्गापूजा समितियों में कम्युनिस्ट हिस्सेदारी के माध्यम से सांस्कृतिक हस्तक्षेप किया।
हिंदू तुष्टीकरण की शक्ल में भारतीय सेक्युलरवाद का जो प्रयोग कांग्रेस ने लंबे समय तक किया, उसी को भाजपा आगे बढ़ा रही है। भाजपा की शब्दावली में अपेक्षया तीखापन जरूर है, लेकिन इसे भारतीय सेक्युलरवाद का ही थोड़ा चटक रंग माना जा सकता है। कांग्रेस हिंदू वर्चस्ववाद पर अमल कर रही थी और भाजपा भी प्रकारांतर से इसी काम को कर रही है। सेक्युलर हिंदू वर्चस्ववाद के प्रयोग के ये दो मॉडल हैं। इसमें से कांग्रेसी मॉडल की खासियत यह है कि उसने जो शब्दावली और नारे गढ़े हैं, वे मुसलमानों को आहत नहीं करते और इस वजह से उसे मुसलमानों का समर्थन मिलता रहा। हिंदू तुष्टीकरण के साथ कांग्रेस मुसलमानों को दंगों का भय दिखाती रही और सुरक्षा प्रदान करने के नाम पर उनके वोट भी लेती रही। हालांकि उसका यह खेल 1990, और खासकर नरसिंह राव के शासनकाल में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार में पूरी तरह टूट गया, जहां सामाजिक न्याय की राजनीतिक शक्तियों ने मुसलमानों को गोलबंद कर लिया।
इसके बाद से कांग्रेस को लोकसभा में कभी अपने दम पर बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस अब भी हिंदू वर्चस्ववाद और मुसलमानों की गोलबंदी को एक साथ साधने की कोशिश में आड़ा-तिरछा चल रही है और उसे संतुलन का रास्ता मिल नहीं रहा है। भाजपा इस मायने में कांग्रेस से अलग है कि उसके बहुसंख्यक वर्चस्ववादी मॉडल में मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं है। इसलिए मुसलमान वोट खोने का उसे भय भी नहीं है। जाहिर है, भाजपा को सेक्युलरवाद के नारे से कोई भय नहीं लगता। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार तक भाजपा ने फिर भी एक झीना-सा आवरण ओढ़ रखा था, जिसकी वजह से उसका सांप्रदायिक चेहरा धुंधला दिखता था। उस समय लालकृष्ण आडवाणी के बजाय वाजपेयी का प्रधानमंत्री बनना, जॉर्ज फर्नांडीज का राजग का मुखिया होना, विवादास्पद मुद््दों से दूरी बनाए रखना आदि राजनीतिक और रणनीतिक मजबूरी थी। सोलहवीं लोकसभा में 281 सीटों पर बैठी भाजपा की अब ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। इन सीटों की जीत के लिए भाजपा को अल्पसंख्यक वोटों का मोहताज नहीं होना पड़ा।
भाजपा ने सोलहवीं लोकसभा के नतीजों से साबित किया है कि सिर्फ हिंदू वोट के एक हिस्से के बूते इस देश में बहुमत की सरकार बन सकती है। इसने पूरी अल्पसंख्यक राजनीति को सिर के बल खड़ा कर दिया है। साथ ही इसने सेक्युलरिज्म के नारे का दम भी निकाल दिया है। सेक्युलरिज्म के नाम पर भाजपा-विरोध की एक बड़ी सीमा यह भी है कि भाजपा को लेकर 1992 के बाद सामने आया सेक्युलरिज्म का ‘मत छुओ वाद’ बहुत ‘सेलेक्टिव’ है। भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टियों और लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव को छोड़ दें तो सभी दलों और नेताओं ने किसी न किसी दौर में भाजपा के नेतृत्व में चलना स्वीकार किया है। नीतीश कुमार और शरद यादव कुछ महीने पहले तक भाजपा के साथ राजग में सहजता से मौजूद थे। ओमप्रकाश चौटाला भी भाजपा के साथ राजनीति कर चुके हैं। इसलिए भाजपा-विरोध एक राजनीतिक नारा तो है, लेकिन इसे सेक्युलरवाद का वैचारिक मुलम्मा नहीं चढ़ाया जा सकता।
ऐसे में भाजपा की काट, अल्पसंख्यक वोट और तथाकथित सेक्युलरवाद में देखने वालों के हाथ निराशा के अलावा कुछ भी लगने वाला नहीं है। सारा अल्पसंख्यक वोट एकजुट होकर भी बहुसंख्यक वोट के एक हिस्से से हल्का पड़ सकता है। जाहिर है, भाजपा-विरोध की राजनीति को सफल होने के लिए सेक्युलरवाद से परे किसी और राजनीतिक व्याकरण और समीकरण की जरूरत है। भारत का हिंदू, अगर हिंदू मतदाता बन कर वोट करता है और भाजपा अगर इन मतदाताओं की प्रतिनिधि पार्टी है, तो भाजपा-शासन के लंबे समय तक चलने की संभावना या आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।
अल्पसंख्यक वोट भाजपा को हराने में कारगर हो सकता है, बशर्ते हिंदू मतदाताओं का एक हिस्सा अन्य पार्टियों से जुड़े। यानी हिंदू मतों के विभाजन के बिना उन राज्यों में गैर-भाजपा राजनीति का कोई भविष्य नहीं है, जहां हिंदू आबादी बहुसंख्यक है। क्या भारतीय राजनीति के किसी पिछले या पुराने मॉडल में गैर-भाजपा राजनीति के सूत्र मिल सकते हैं? इसके लिए हमें 1990 के दौर में जाना होगा। भाजपा के वर्तमान उभार की तरह का ही एक भारी जन-उभार उस दौर में राम जन्मभूमि आंदोलन के पक्ष में हुआ था। ऐसा लग रहा था मानो भाजपा ने राजसूय यज्ञ का घोड़ा छोड़ दिया हो, जो लगातार सूबा-दर-सूबा फतह करता जा रहा हो। लेकिन वह दौर भारतीय राजनीति में सामाजिक न्याय की नई पहल के तौर पर भी जाना जाता है।
राममनोहर लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार और कई अन्य राज्यों में ओबीसी नेतृत्व को मजबूत कर रही थी। केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी आरक्षण लागू किए जाने से भी नई सामाजिक शक्तियों का विस्फोट हो रहा था। यह सारा घटनाक्रम हिंदुओं को सिर्फ हिंदू होकर वोट करने में बाधक साबित हो रहा था।
सन 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद भाजपा-शासित चार राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया गया और जब 1993 में वहां दोबारा चुनाव हुए तो भाजपा उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और हिमाचल प्रदेश का चुनाव हार गई और राजस्थान में कांग्रेस से मामूली बढ़त हासिल कर किसी तरह वहां की सरकार बचा पाई।
लेकिन सामाजिक न्याय की राजनीति कालांतर में कमजोर पड़ती चली गई। जमात की राजनीति खास जातियों की राजनीति और बाद में चुने हुए परिवारों की राजनीति बन गई। वंचित जातियों के बीच तरक्की, समृद्धि और शक्तिशाली होने की उम्मीद जगा कर, सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दल कुछ और ही करने लगे। इस बीच भाजपा ने नरेंद्र मोदी की शक्ल में एक ओबीसी चेहरा सामने लाकर सामाजिक न्याय की कमजोर पड़ी चुकी राजनीति की रही-सही जान भी निकाल दी।
अब सवाल उठता है कि क्या आने वाले विधानसभा चुनावों और अगले लोकसभा चुनाव के लिए गैर-भाजपा दलों के पास कोई रणनीति है? भाजपा अपनी गलतियों से हार जाएगी, यह सोच कर राजनीति नहीं हो सकती। क्योंकि यह बिल्कुल मुमकिन है कि भाजपा ऐसी कोई गलती न करे, या हो सकता है कि अपनी राजनीति को और मजबूत कर ले। मौजूदा समय में गैर-भाजपा खेमे में ऐसी कोई राजनीति होती नजर नहीं आती।
कांग्रेस और बाकी विपक्षी दलों ने विपक्ष का स्थान खाली-सा छोड़ दिया है। भाजपा का थोड़ा-बहुत वैचारिक विपक्ष, भाजपा के मूल संगठन आरएसएस के एक हिस्से से आ रहा है।
विकल्पहीनता की ऐसी स्थिति में भाजपा-विरोधी पार्टियां सामाजिक न्याय की राजनीति में अपनी कामयाबी के सूत्र तलाश सकती हैं। वैसे भी कोई हिंदू, सिर्फ हिंदू नहीं होता। उसकी कोई न कोई जाति-बिरादरी भी होती है। उसकी यह पहचान हिंदू होने की पहचान से कहीं ज्यादा टिकाऊ है, क्योंकि धर्म बदलने से या घर वापसी से भी उसकी यह पहचान नहीं मिटती। शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण का कोटा सख्ती से लागू करने, आरक्षण का प्रतिशत बढ़ा कर तमिलनाडु की तरह उनहत्तर फीसद पर ले जाने, जातिवार जनगणना करा कर सामाजिक न्याय के नारे को विकास-कार्यक्रमों से जोड़ने, भूमि सुधार करने और सबके लिए समान शिक्षा जैसे अधूरे कार्यभार को अपने हाथ में लेकर गैर-भाजपा राजनीति फिर से अपना खोया इकबाल वापस हासिल कर सकती है। भाजपा को इन राजनीतिक कार्यक्रमों के आधार पर घेरना मुमकिन है। ऐसा होते ही भाजपा अपना मूल सवर्ण अभिजन हिंदू वोट बचाए रखने और वंचित जातियों को जोड़ने के दोहरे एजेंडे के द्वंद्व में घिर जाएगी।
वर्तमान समय में, सेक्युलर बनाम गैर-सेक्युलर की राजनीति भाजपा की राजनीति है। हिंदू आबादी को हिंदू मतदाता बनाने के लिए भाजपा को इसकी जरूरत है। गैर-भाजपावाद के सूत्र सेक्युलरिज्म में नहीं हैं। गैर-भाजपावाद के सूत्र, हो सकता है सामाजिक न्याय की राजनीति में हों। कभी सामाजिक न्याय की राजनीति से अपनी छाप छोड़ने वाली पार्टियों और नेताओं को अपनी राजनीति में वापस लौटना चाहिए। मछलियां पानी में लौट कर ही जिंदा रह सकती हैं। सेक्युलरिज्म की सूखी धरती उनके प्राण हर लेगी।

Wednesday, April 9, 2014


बिहार में 'राम' भरोसे भाजपा
सत्येन्द्र प्रताप सिंह
सोशल इंजीनियरिंग वाले बिहार में भारतीय जनता पार्टी को पसीने छूट रहे हैं। पार्टी ने राज्य में उच्च जाति के उन मतदाताओं के बीच अच्छी पैठ बना ली है, जो लोग लालू प्रसाद के लंबे शासनकाल से दुखी थे और सत्ता के करीब आने के लिए लालायित थे। लेकिन नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड से अलग होते ही भाजपा का नशा काफूर हो गया। अब उसे दलितों और पिछड़ों को लुभाने के लिए राम विलास पासवान और राम कृपाल यादव जैसे नेताओं की शरण में जाना पड़ रहा है, जो राज्य के सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले के मुखौटे के रूप में जाने जाते हैं। भाजपा शायद यह साबित करना चाहती है कि वह पिछड़ों-दलितों के खिलाफ नहीं है। भले ही पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने जानबूझकर या अनजाने में अपनी पहली ही रैली में संदेश देने की कोशिश की थी कि बिहार का 'सवर्ण काल' वापस आएगा।
हालांकि मंडल आयोग आने के साथ ही भाजपा ने भांप लिया था कि उसका हिंदुत्व या मुस्लिम विरोधी कार्ड नहीं चलने वाला है। यही वजह है कि उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, गुजरात में पिछड़े वर्ग के नेता आजमाए गए। यहां तक कि दक्षिण का द्वार भी पिछड़े वर्ग के नेताओं के जरिये ही खुला। वहीं कांग्रेस मंडल आंदोलन को समय पर नहीं भांप पाई और लगातार पिछड़ती गई। 'इंडियाज साइलेंट रिवॉल्यूशनÓ नामक पुस्तक में क्रिस्टोफे जैफ्रेलॉट ने राजनीति की बदलती अवधारणा का जिक्र करते हुए कहते हैं कि अब हर दल की मजबूरी बन गई है कि वह समाज के उन तबकों से जुड़े लोगों को स्थान दे, जिन्हें लंबे समय सत्ता से वंचित रखा गया। हिंदी पट्टी में कांग्रेस की नाकामी को उन्होंने इसी रूप में देखा है कि कांग्रेस इस बदलाव को समझने में नाकाम रही।
भाजपा बिहार में पिछड़े और दलित तबके के नेताओं को वह मुकाम नहीं दे पाई, जो उसे चुनावी नैया पार करा सकें। शायद इसकी वजह यह थी कि लालू प्रसाद कार्यकाल में लंबे समय से सत्ता पर काबिज रहे जिस तबके को सत्ता से दूर किया गया था, भाजपा उस वर्ग पर एकाधिकार चाहती थी। पार्टी इसमें सफल भी हुई। लेकिन पिछड़े और दलित तबके के जिन नेताओं को पार्टी ने विकसित करने की कोशिश की, वे पार्टी में दलित प्रकोष्ठ तक ही सिमटे रहे। पिछड़े वर्ग के चेहरे के रूप में नरेंद्र मोदी को पेश कर भाजपा देश भर में इस तबके के लोगोंं का मत खींचना चाहती है, लेकिन बिहार में उसे खासी दिक्कत आ रही है।
इस दिक्कत की बड़ी वजह यह है कि बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में सत्ता में वंचित तबके की हिस्सेदारी बढ़ी है। न केवल राज्य स्तर के नेतृत्व में चेहरे बदल गए हैं, बल्कि ग्राम प्रधान और जिला स्तर के नेताओं में भी इस तबके का अच्छा खासा दबदबा है। ऐसी स्थिति में इन दो बड़े राज्यों में सिर्फ मोदी का मुखौटा दलितों व पिछड़ों को लुभाने में सफल होगा, इसे लेकर भाजपा आश्वस्त नहीं है और वह सोशल इंजीनियरिंग के आंदोलन से जुड़े चेहरों को पार्टी से जोडऩा चाहती है।
हालांकि यह कहना अभी भी कठिन है कि खुद के टिकट या अपने बच्चों को राजनीति में स्थापित करने की आस लेकर भाजपा से जुडऩे वाले सोशल इंजीनियरिंग के बूढ़े हो चुके चेहरे भाजपा से मतदाताओं को जोडऩे में कितना सफल होंगे।

शेयर बाजार में लुटते लोग


सत्येन्द्र प्रताप सिंह
सामान्यतया यह माना जाता है कि शेयर बाजार किसी कंपनी की प्रगति, उसकी बैलेंस शीट, उसकी भविष्य की संभावनाओं के आधार पर काम करता है। हालांकि यह एक आदर्श धारणा है। हकीकत यह है कि इनसाइटर ट्रेडिंग, सूचनाओं के लीकेज और बड़े निवेशकों द्वारा किसी कंपनी के शेयर में जानबूझकर अनावश्यक तेजी लाने और जब जनता के पैसे से उस शेयर के दाम बढ़ जाएं तो अचानक पैसे खींचकर शेयर गिरा देने के मुताबिक कंपनियों के शेयरों के भाव घटते बढ़ते हैं।
इसी का एक उदाहरण हाल ही में सन फार्मा और रैनबैक्सी के सौदों में देखने को मिला। दोनों कंपनियों के बीच हुए सौदे के महज कुछ दिन पहले रैनबैक्सी के शेयरों की भारी खरीद फरोख्त हुई। दिलचस्प यह रहा कि पिछले हफ्ते रैनबैक्सी के शेयर मंगलवार को 370 रुपये पर थे, जो शुक्रवार तक बढ़कर 459 रुपये प्रति शेयर पर पहुंच गए। दिलचस्प है कि रैनबैक्सी के शेयर उसी दाम के करीब आकर रुक गए, जिस मूल्य पर सौदे की घोषणा की गई। साफ दिखता है कि रैनबैक्सी के विलय सौदे के मूल्यांकन की जानकारी बाजार को पहले से थी, जिसके चलते ऐसा संभव हो सका।
इस कारोबारी बेइमानी के बारे में सेबी जांच कर रहा है। लेकिन.... परिणाम के बारे में क्या कहा जा सकता है..... इनसाइडर ट्रेडिंग, भेदिया कारोबार, भारी खरीद के जरिये शेयर बाजार में आम निवेशकोंं को ठगने का बहुत तगड़ा कारोबार नजर आता है।
विलय सौदे पर सेबी की नजर
समी मोडक और सचिन मामबटा / मुंबई April 08, 2014
दिग्गज दवा कंपनी सन फार्मास्युटिकल्स और रैनबैक्सी लैबोरेटरीज के विलय सौदे की पूंजी बाजार नियामक भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) प्रारंभिक जांच कर सकती है। दरअसल सेबी 4 अरब डॉलर के इस सौदे में इस बात की पड़ताल कर सकती है कि कहीं इसमें भेदिया कारोबार के नियमों का तो उल्लंघन नहीं हुआ है। सन-रैनबैक्सी सौदे की घोषणा से कुछ दिनों पहले ही रैनबैक्सी के शेयरों की खासी खरीद-फरोख्त के बाद सेबी इस दिशा में कदम उठाने की तैयारी कर रहा है।
सेबी से जुड़े एक सूत्र ने बताया, 'शेयरों की खरीद-फरोख्त में आई तेजी इस बात की ओर इशारा करती है कि कुछ निश्चित इकाइयों को इस सौदे के बारे में अंदरुनी जानकारी रही हो। अगर इस बारे में कोई प्रमाण मिलते हैं तो कार्रवाई की जाएगी।' सन फार्मा द्वारा रैनबैक्सी के अधिग्रहण की घोषणा से पहले तीन कारोबारी सत्रों में रैनबैक्सी का शेयर करीब 24 फीसदी तक चढ़ गया था। सन ने रद्द सौदा शेयरों के जरिये करने की घोषणा की है। बीते हफ्ते मंगलवार को रैनबैक्सी का शेयर 370.70 रुपये पर बंद हुआ था जो शुक्रवार तक बढ़कर 459.55 रुपये पर पहुंच गया जबकि इस सौदे की घोषणा सोमवार को की गई।
सूत्रों के मुताबिक सेबी, सन फार्मा, रैनबैक्सी और इस सौदे से जुड़े अन्य मध्यस्थतों को पत्र लिखकर इस बारे में इस बात की जानकारी मांग सकता है कि इस सौदे के बारे में किन-किन लोगों/इकाइयों को जानकारी थी। रैनबैक्सी के शेयरों में सौदे की घोषणा से पहले तेजी तो आई लेकिन शेयर भाव उस स्तर के करीब थम गया जिस मूल्य पर सौदे की घोषणा की गई। इससे संकेत मिलता है कि बाजार को इस सौदे के मूल्यांकन की जानकारी हो सकती है। विलय सौदे के तहत रैनबैक्सी के प्रति शेयर का मूल्य 457 रुपये हो सकता है। इस बारे में जानकारी के लिए सेबी के प्रवक्ता को ईमेल भेजा गया लेकिन फिलहाल उनका जवाब नहीं आया है।
इस बीच, प्रोक्सी सलाहकार फर्मों ने कहा कि सेबी को इस मामले में भेदिया कारोबार से जुड़ी सभी संभावनाओं को देखना चाहिए। इनगवर्न रिसर्च सर्विसेज के प्रबंध निदेशक श्रीराम सुब्रमणयन ने कहा, 'सेबी उन ब्रोकरों की जांच कर सकता है जहां बड़ी मात्रा में शेयरों की खरीद हुई है। अगर इस बारे में कोई शिकायत दर्ज नहीं होती है तब भी सेबी स्वत: संज्ञान लेते हुए इसकी जांच कर सकता है।' कॉर्पोरेट गवर्नेंस फर्म स्टेकहोल्डर इम्पावरमेंट सर्विसेज के प्रबंध निदेशक जे एन गुप्ता ने कहा कि अगर इसमें किसी तरह की अनियमितता रही है तो इसकी जांच की जानी चाहिए।
रद्द होगी सिल्वरस्ट्रीट की रैनबैक्सी में शेयरधारिता
विलय के समय सन फार्मा समूह की कंपनी सिल्वरस्ट्रीट डेवलपरर्स की रैनबैक्सी में शेयरधारिता को रद्द कर दी जाएगी। ब्लूमबर्ग के आंकड़ों के मुताबिक सिल्वरस्ट्रीट ने मार्च तिमाही के दौरान रैनबैक्सी में करीब 60 लाख शेयर खरीदे हैं, जिनका मूल्य करीब 270 करोड़ रुपये है। यह खरीद औसतन 375 रुपये शेयर भाव पर की गई है। हालांकि सन फार्मा ने कहा कि यह सौदा भेदिया कारोबार के दायरे में नहीं आएगा क्योंकि विलय के बाद इन शेयरों को रद्द कर दिया जाएगा और इसके बार नई इकाई के शेयर सिल्वरस्ट्रीट को जारी नहीं किए जाएंगे।
सीसीआई भी कर सकता है सौदे की जांच
अग्रणी दवा कंपनियों सन फार्मा और रैनबैक्सी के एकीकरण को भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग की कड़ी जांच का सामना करना पड़ सकता है। आधिकारिक सूत्रों और कॉरपोरेट वकीलों के मुताबिक, सन में रैनबैक्सी के प्रस्तावित विलय के लिए विस्तृत जांच की दरकार होगी। सौदे में जटिल क्षेत्र भी शामिल हैं, जो प्रतिस्पर्धा पर असर डाल सकते हैं। प्रस्तावित सौदे की कीमत 4 अरब डॉलर है, जिसमें रैनबैक्सी के 80 करोड़ डॉलर का कर्ज सन फार्मा के खाते में हस्तांतरण शामिल है।
के के शर्मा लॉ ऑफिसेस के चेयरमैन और सीसीआई के पूर्व महानिदेशक के के शर्मा ने कहा, इस सौदे की निश्चित तौर पर सीसीआई की तरफ से विस्तृत जांच की दरकार होगी क्योंकि यह दो अग्रणी दवा कंपनियों के एक साथ आने का मामला है, जो पहले एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करती रही हैं। लॉ फर्म विभिन्न कंपनियों को प्रतिस्पर्धा के मसले पर रणनीतिक परामर्श मुहैया कराती है। सीसीआई एक निश्चित सीमा से ऊपर वाले विलय व अधिग्रहण सौदों पर नजर रखता है।
सौजन्य- http://hindi.business-standard.com/storypage.php?autono=84813

Monday, January 6, 2014

जो ये नहीं समझते कि फासीवाद क्या है, उनके लिए


अंजनी कुमार ने अपनी रिपोर्ट में दिल्ली में हुए दो विरोध प्रदर्शनों का आकलन किया है.
यह महाराष्ट्र का धुले नहीं है। फैजाबाद और बरेली नहीं है। यह बस्तर नहीं है। नंदीग्राम और लालगढ़ नहीं है। यह सलवा जुडुम नहीं है, हरमद वाहिनी नहीं है, गुजरात का मोदी का हत्यारा अभियान नहीं है। यह दिल्ली है। लेकिन 1984 नहीं है। यह दिल्ली विश्वविद्यालय है और जंतर-मंतर का 100 मीटर का ‘लोकतांत्रिक’ गलियारा है। 9 जनवरी 2013 को अफजल गुरु की फांसी का विरोध कर जनवादी लोगों को पुलिस, इंटेलीजेंस, आरएसएस अपने पूरे घिरोह के साथ जंतर मंतर पर हमला करने में लगा रहा। आएएसएस बाकायदा टेंट लगाकर लाडडस्पीकर से जोर जोर से अफजल गुरु की फांसी का विरोध करने वालों को मारने पीटने का आदेश और संचालन कर रहा था। कोई कश्मीरी युवा दिख जाए या कोई नारा लगा दे, इन पुलिस और आरएसएस के गुंडों से पहले मीडिया अपना कैमरा लिए उस तरफ दौड़ जाता। और फिर मार पिटाई के दृश्य का फिल्मांकन शुरू हो जाता। कोई भी विरोध का स्वर उठता पुलिस उसे घसीटते हुए अपने गुंडों के में ले जाकर छोड़ जाती और मार पिटाई का दौर शुरू हो जाता। ये गुंडे खुलेआम डंडा लिए घूम रहे थे, मार रहे थे, बदतमीजियां कर रहे थे और पुलिस इनके साथ साथ घूमते हुए अफजल गुरु को फांसी देने वालों की खिलाफत करने वालों के प्रतिरोध को तोड़ रही थी। लगभग तीन घंटे चली इस घटना में विरोध करने वाले 22 लोगों को डीटेन किया गया। लगभग 4.30 बजे की शाम को जंतर मंतर पर 40 लोगों ने अफजल गुरु की फांसी के विरोध में नारा लगाया और पहले से तय ‘जनता पर युद्ध विरोधी मंच’ के कार्यक्रम के अनुसार गांधी शांति प्रतिष्ठान के लिए गए। वहां पहुंचने के पहले पुलिस की भारी संख्या, दर्जनों गाड़ियां और वाटर कैनन के साथ उपस्थित थी। कार्यक्रम खत्म होने तक वे इसी तरह बने रहे।
6 जनवरी 2013 को खालसा कालेज से लेकर श्री राम कालेज ऑफ कॉमर्स के गेट तक नरेंद्र मोदी के समर्थकों की भारी भीड़ है। वे स्वागत के लिए खड़े हैं। पुलिस नरेंद्र मोदी और इन समर्थकों की सुरक्षा में मुस्तैद है। दिल्ली विश्वविद्यालय के आट्र्स फैकल्टी के श्री राम कालेज ऑफ कॉमर्स की तरफ वाले गेट पर नरेंद्र मोदी की मुखालिफत करने वाले छात्रों की भीड़ है। उन्हें पुलिस के दो बैरियर, वाटर कैनन और आंसूगैस, लाठी और बंदूक के साथ तैनात हैं। बैरियर पर नरेंद्र मोदी विरोधी छात्र, संगठन, अध्यापकों के हुजूम के पीछे की तरफ से पुलिस की विशाल फौज खड़ी है। अचानक विरोध करने वाले छात्रों के बीच एबीवीपी और छद्म नाम वाले बैनरों के साथ आरएसएस पुलिस के सहयोग से घुसती है। यह एक दृश्य है। पुलिस बैरियर के इस तरफ और उस तरफ दोनों ही ओर पुलिस की सुरक्षा व सहयोग से आरएसएस और गुडा तत्वों का हमला शुरु होता है। पुलिस लाठी चार्ज करती है। नरेंद्र विरोधी छात्रों को न केवल पुलिस साथ उनके बुलाए गुंडे भी मारते हैं। पुलिस विरोधी छात्रों को गिरफ्तार करना शुरू करती है। फिर यह काम रुक जाता है। इस दौरान पुलिस ने पांच अध्यापकों को मार कर घायल कर चुकी है। एक छात्र को गंभीर हालत में अस्पताल ले जाया जाता है। एक बेहोश हो जाता है। अध्यापक, छात्र अपनी एकता को बनाए रखते हुए अपना विरोध जारी रखा। गुंडा तत्वों से निपटा। पुलिस उन्हें सुरक्षित कर एक कोने में खड़ा किए रही। एक बार फिर लाठी चार्ज हुआ। पुलिस ने छात्रों को गिरफ्तार किया। कई छात्रों को मारा। इस बीच आरएसएस और पुलिस के गुंडे पुलिस की गाड़ी पर खड़े होकर नरेंद्र मोदी का झंडा लहरा रहे थे। रॉड और डंडे लहरा रहे थे। गालियां बक रहे थे और मौका मिलने पर मार पिटाई के लिए आगे आ रहे थे। पुलिस की अभूतपूर्व सुरक्षा में आरएसएस और उनके गुंडों का यह खेल रात के दस बजे तक चलता रहा। विरोध कर रहे छात्रों और संगठनों डीएसयू, आइसा, एसएफआई, एसआईओ, सीएफआई और अध्यापकों ने अपनी मोर्चेबंदी जारी रखी। और पुलिस और गुंडा तत्वों के खिलाफ मामला दर्ज कराया। उसके दूसरे दिन पता चला कि पुलिस ने छात्रों और अध्यापकों पर केस दर्ज कर दिया है। पुलिस के अनुसार इन्होंने सुरक्षा के लिए ‘खतरा उत्पन्न’ किया। इस दौरान एक भी आरएसएस या गुंडा तत्वों की गिरफ्तारी नहीं की गई। उन्हें अंत तक सुरक्षित रखा गया।
6 जनवरी को नरेंद्र मोदी का भाषण हुआ। और उसके अगले दिन भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने उसे प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। दिल्ली विश्वविद्यालय को लांचिंग पैड बनाया गया। छात्र यूनियन के नाम से नरेंद्र मोदी को बुलाने की रस्म अदा की गई। छात्रों और अध्यापकों को इस बात की भनक कार्यक्रम घोषित होने के दो दिन पहले लगी। सवाल उठा कि किसने बुलाया। एक ठोस बात आई: अरुण जेतली ने। अरुण जेतली श्री राम कॉलेज ऑफ कामर्स के गवर्निंग बॉडी के सदस्य हैं। जाहिरा तौर पर इसमें वह लोग काफी संख्या में हैं जिन्हें मोदी के आने से कोई दिक्कत नहीं है। यह कॉलेज इसी गवर्निंग बॉडी से चलता है। छात्र और अध्यापक का इस कॉलेज में क्या हैसियत बनती है। यह दुकान है जहां शिक्षा का कारोबार चल रहा है। यही स्थिति दिल्ली विश्वविद्यालय की है। छात्र अध्यापक पाठ्यक्रम, शिक्षा पद्धति, फीस, कैंटीन और यहां तक की पुलिस व वीसी की कथित सुरक्षा व्यवस्था को लेकर आंदोलन करें, धरना दें, ...कोई फर्क नहीं पड़ रहा। यह दिल्ली है और यहां के हालात ऐसे ही बदल रहे हैं। यह लैंड ग्रैबिंग नहीं है। यह एजुकेशन ग्रैबिंग है। यह विशाल मकान जिसमें शिक्षा का कारोबार चल रहा है, उस पर कब्जा का अभियान है। और इसके लिए नरेंद्र मोदी के शब्दों में अच्छे ब्रांड वाले फैक्ल्टी व कॉलेज को ‘विशेष पैकेज’ दिया जाएगा। इस काम को निपटाने वालों को ऊंचा पद और पैसा दिया जाएगा। इस भाषण पर खाये अघाए घरों से आने वाले छात्र तालियां पीट रहे थे। यह शिक्षा का नया तंत्र है जो आम घरों से आए छात्रों को खदेड़कर बाहर कर रहा है। इस तंत्र में इस बात की फिक्र ही नहीं है कि 20 रुपए पर जिंदगी बसर करने वाले परिवारों के बच्चे पढ़ने के लिए कहां जाएंगे? कर्ज में डूबते मध्यवर्ग का विशाल हिस्सा अपने बच्चों को लेकर कहां जाएगा? दलित, आदिवासी, मुसलमानों के बच्चे किन स्कूलों में पढ़ेंगे? ये सवाल इस तंत्र के लिए वैसे ही हैं जैसे इस देश की सरकारों के लिए महिलाओं की सुरक्षा का सवाल। ये खदेड़ते रहेंगे और देश की इज्जत का छौंक बघारेंगे।
दिल्ली की इन दोनों घटनाओं को अंजाम देने वाली केंद्र और राज्य दोनों ही कांग्रेस की सरकार है। दिल्ली विश्वविद्यालय का कुलपति और कुलाधिपति दोनों ही कांग्रेस की विचारधारा के माने जाते हैं। बरेली, प्रतापगढ़ और फैजाबाद में पुलिस की देखरेख में आरएसएस के गुंडों द्वारा मुस्लिम परिवारों को मारा जाना, उनके घरों और दुकानों को जलाना भाजपा सरकार के नेतृत्व में नहीं सपा की मुलायम-अखिलेश यादव की सरकार कर रही है। और इसके खिलाफ बसपा, कांग्रेस को बोलने की मशक्कत भी नहीं करनी पड़ी। सड़क पर उतर कर विरोध करने की बात ही कुछ और है। धुले और फैजाबाद से लेकर दिल्ली तक घटनाओं के इस बढ़ते सिलसिले को चिदंबरम के इस बयान के मद्देनजर देखने से की जरूरत है: आर्थिक वृद्धि राष्ट्रीय सुरक्षा का केंद्रीय मसला है।’ यह ठीक उसी दिन का बयान है जिस दिन नरेंद्र मोदी श्री राम कालेज ऑफ कॉमर्स के छात्रों और उपस्थित चंद अध्यापकों और बुलाए गए अतिथियों को संबोधित कर रहा था। यूरोपीय यूनियन और अमेरीका ने मोदी के लिए रास्ता साफ करना शुरु कर दिया है। साम्राज्यवादियों की लूट का केंद्र बने भारत में फासीवादी तंत्र को आगे ले जाने का निर्णय सरकारी तंत्र, लंपट तत्व, हुक्मरान पार्टियों और हिंदुत्व के ब्राह्मणवादी बहुमत के साथ लागू होना शुरु हो गया है। अपने पड़ोसी देश पर कब्जा करने की आकांक्षा, कश्मीर को विवादग्रस्त बनाए रखने के साथ साथ फौज पर कब्जा बनाए रखने की नीति, साम्राज्यवादी देशों के साथ जिसमें रूस भी शामिल है, के साथ फौजी गठजोड़ और मोदी बनाम राहुल का खेल देश को किस तरफ ले जाएगा, का उत्तर बहुत साफ है। दुनिया की आर्थिक वृद्धि की गिरावट अमेरीका और यूरोपीय यूनियन के गिरेबान को पकड़ा हुआ है। भारत में यह सारे निवेश और सट्टेबाजी के बावजूद 5 से 6 प्रतिशत से ऊपर तैयार नहीं है। ऐसे में ‘विकास’ और ‘आर्थिक वृद्धि’ को राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़कर देखना और कुछ नहीं बल्कि फासीवाद के आमफहम परिभाषाओं के तहत ही उसका आगमन है।
आभार : http://hashiya.blogspot.in/2013/02/blog-post_14.html

Thursday, August 29, 2013

गरीब लोग हैं भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए संकट!

सत्येन्द्र प्रताप सिंह
भारत की अर्थव्यवस्था संकट में है। शेयर बाजार लहूलुहान है। रुपया गिरकर न्यूनतम स्तर पर है। कहा जा रहा है कि सरकार की सभी कोशिशें नाकाफी साबित हो रही हैं। अब यहां तक कयास लगने लगे हैं कि क्या केंद्र सरकार आर्थिक आपातकाल घोषित करेगी!
भारत की अर्थव्यवस्था की मौजूदा दुर्दशा की नींव 1998 के संकट के दौरान ही पड़ गई थी, जब केंद्र सरकार ने अमेरिकी मंदी के दौरान आए संकट से निपटने के लिए धन प्रवाह बढ़ाया। इसके असर से चालू खाता घाटा और राजकोषीय घाटा बढ़ गया। कर्जमाफी सहित तमाम उपायों से लोगों के पास पैसे आए और बाजार चल पड़ा। उस समय सरकार ने स्थिति संभाल ली।
धन के प्रवाह और लोगों की क्रय शक्ति बढऩे से जब महंगाई दर बेकाबू होने लगी तो सरकार ने लगातार नीतिगत दरों में बढ़ोतरी कर धन का प्रवाह रोकने की कोशिश की। परिणामस्वरूप कर्ज महंगा हुआ। इसका असर सीधे सीधे कारोबार पर पड़ा और उद्योग की रफ्तार मंद पड़ गई।
वित्त मंत्री पी चिदंबरम के संसद में दिए गए बयान से लगता है कि वह इस बात से खासे दुखी हैं कि 2009 से 2011 के बीच में सरकार ने इस संकट को रोकने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए। उस समय मौजूदा राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी वित्त मंत्री थे। मौजूदा अर्थव्यवस्था कहती थी कि उन्हें सार्वजनिक उपक्रमों को बेचकर धन जुटाना चाहिए था, जिसे चालू खाता घाटा कम होता, लेकिन मुखर्जी के कार्यकाल में ऐसा नहीं हुआ। शायद यही बात मौजूदा वित्त मंत्री को कचोट रही है।
वहीं प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के पास भी कोई अलग आर्थिक नीति नहीं है। उसका कहना है कि सरकार में साहस नहीं है। शायद उन अर्थों में कि उसे साहस दिखाकर अलग विनिवेश मंत्रालय बनाकर सार्वजनिक संपत्तियां ज्यादा से ज्यादा निजी हाथ सौंपनी चाहिए, जिससे ज्यादा से ज्यादा धन आए। बाजार में विश्वास बहाल हो। विदेशी संस्थागत निवेशक आएं और भारत में निवेश कर कमाई करें।
आइए सरकार की प्रमुख समस्याओं पर बात करते हैं। वित्त मंत्री कहते हैं कि 10 सूत्री कार्यक्रम लागू करने पर अर्थव्यवस्था गति पकड़ लेगी...
1- विनिर्माण क्षेत्र को दुरुस्त किया जाए
2-निर्यात को प्रोत्साहन
3-निवेश को बढ़ावा
4-राजकोषीय और चालू खाता घाटे को दुरुस्त करना
5-पीएसयू का पूंजीगत व्यय बढ़ाना
6-सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का पुनर्पूंजीकरण (उन्हें धन देना)
7-कोयले की आपूर्ति के मसले को हल करना
8-लौह अयस्क आयात प्रतिबंध से निपटना
9-पर्यावरण मंजूरी संबंधी समस्या
10-भूमि अधिग्रहण की दिक्कतें दूर की जाएं
इसमें ऊपर के चार सुझाव तो सैद्धांतिक हैं। पीएसयू का पूंजीगत व्यय बढ़ाने से ज्यादा सरकार का जोर उनके विनिवेश पर है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को और अधिक धन देने के उपाय करने से सीधा आशय नीतिगत दर दुरुस्त करना है, जिससे बैंकों के पास ज्यादा धन आए।
हाल के दिनों में खनन को लेकर न्यायालय ने अति सक्रियता दिखाई है। इसका परिणाम हुआ है कि कोयले और लौह अयस्क का खनन रुक सा गया है। लौह अयस्क राजस्व का बड़ा साधन होने के साथ साथ कमाई का जरिया भी है। साथ ही कोयले की आपूर्ति में ठहराव के चलते बिजली परियोजनाएं रुकी पड़ी हैं। अब सरकार के पास धन जुटाने का सिर्फ और सिर्फ एक तरीका है... अधिक से अधिक बिक्री। चाहे वह प्राकृतिक संसाधनों की बिक्री हो, या सार्वजनिक उपक्रमों की।
भूमि अधिग्रहण संबंधी दिक्कतों ने भी सरकार को काफी परेशान किया है। एक तरफ तो भूमि अधिग्रहण विधेयक लाकर किसानों को बेहतर संरक्षण देने की बात हो रही है, वहीं उद्योग जगत को सस्ती जमीन देने का भी दबाव है, जिससे विदेशी निवेशक आकर्षित हो सकें। उड़ीसा में पोस्को के मामले को ही लें। जमीन अधिग्रहण में आ रहे संकट की वजह से परियोजना में देरी हो रही है। इसमें न्यायालय ने खासा अड़ंगा डाल रखा है। न्यायालय के आदेश के बाद स्थानीय लोगों की बैठक कर जमीन अधिग्रहण पर चर्चा हुई तो लोगों ने भूमि अधिग्रहण को सिरे से खारिज कर दिया। यहां तक कि हर पंचायत की बैठक में इसे खारिज किया गया। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि सरकार सार्वजनिक संपत्तियों को अधिकाधिक निजी हाथों में सौंपकर धन कैसे जुटाए?
लहूलुहान बाजार और अर्थव्यवस्था के संकट के बीच प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी को एक ही उपाय दिखता है कि मौजूदा सरकार हट जाए। इसके अलावा उसके पास कोई सुझाव नहीं है कि जनपक्षधरता और कारोबार के बीच संतुलन कैसे स्थापित किया जाए। कांग्रेस की मौजूदा सरकार इसी उहापोह में फंसी है। एक तरफ मौजूदा वित्त मंत्री 60 प्रतिशत आबादी को भुलाकर कारोबार मजबूत करने के पक्ष में हैं, वहीं कांग्रेस में एक बड़ा तबका खाद्य सुरक्षा विधेयक जैसी घाटेदार योजना के जरिये आम लोगों तक भी कुछ पहुंचाने की कवायद में है। भारतीय जनता पार्टी के सामने आम जनता तक कुछ पहुंचाने का संकट नहीं है।
पिछले 3 महीने के दौरान रुपये और शेयरबाजार के लहूलुहान होने के पीछे विदेशी संस्थागत निवेशकों की भूमिका प्रमुख मानी जा रही है। 2008 के बाद पहली बार 3 महीने लगातार एफआईआई ने बिकवाली की है। पिछले 3 महीने में निफ्टी 12 फीसदी गिरा है। क्यूई3 वापस होने का डर, कमजोर रुपया और चालू खाता घाटे का डर बाजार पर हावी है। एफआईआई भारतीय बाजार से दूर हो रहे हैं इसके पीछे कई कारण हैं। अमेरिकी बॉन्ड में बेहतर रिटर्न, अमेरिका, यूरोप, जापान की अर्थव्यवस्था सुधरने और कमजोर रुपये ने एफआईआई का भरोसा तोड़ा है। ऊंचे चालू खाता घाटे से रेटिंग घटने का डर छा गया है और खाद्य सुरक्षा विधेयक से वित्तीय घाटे की चिंता बढ़ गई है। एफआईआई ने जून में 9319 करोड़ रुपये, जुलाई में 7120 करोड़ रुपये और अगस्त में अब तक 3,749 करोड़ रुपये की बिकवाली कर ली है।
लेकिन क्या 20,000 करोड़ रुपये की बिकवाली ही इस गिरावट की एकमात्र वजह है? शायद रुपये की इतनी अधिक बदहाली इसलिए भी हो रही है कि पैसे वाले लोग अपने धन को विदेशी मुद्रा खासकर डॉलर में सुरक्षित कर रहे हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था की घरेलू मांग नहीं बढ़ रही है। इसके चलते उनका विश्वास डिगा है। सरकार अमीर लोगोंं के प्रोत्साहन में ही अर्थव्यवस्था की भलाई देखती है, यह भी एक वजह है, जिससे आर्थिक दुर्दशा हो रही है। माना जा रहा है कि कर रियायतों के रूप में सरकार उन्हें हर साल 5 लाख करोड़ रुपये से अधिक के प्रोत्साहन दे रही है। बाजार से भरोसा उठने के बाद अब धनवान अपने धन को स्वर्ण, विदेशी मुद्रा और अचल संपत्तियों में सुरक्षित कर रहे हैं। मौजूदा खुली अर्थव्यवस्था कहती है कि 10 प्रतिशत लोगों को अमीर बनाया जाए और उन्हें ही सारी सुविधाएं दी जाएं। बाकी लोगों को इन अमीरों के पैसे में से छनकर कुछ मिल जाएगा। निश्चित रूप से मौजूदा कांग्रेस सरकार इसमें विफल रही है और वह जनपक्षधरता और पूंजी पक्षधरता के बीच फंसी हुई है। इन दोनों के बीच संतुलन बिठाने की नाकामी अब संकट के रूप में नजर आ रही है।

Thursday, June 20, 2013

इतना आसान नहीं विकास बनाम विनाश का मुद्दा


सत्येन्द्र प्रताप सिंह
पहाड़ पर बढती आबादी। सुविधाएं बढाने का दबाव। हर आपदा के बाद मसला उठता है प्रकृति के साथ खिलवाड़ का!
तो क्या लोगों को केले के पत्ते लपेटकर जंगल में घूमने के लिए छोड़ दिया जाए! अभी उत्तराखंड में पनबिजली परियोजनाओं पर रोक का विरोध हो रहा था, सरकार ने कहा कि ढील दी जाएगी। आफत आई तो फिर मसला उठा कि अनियंत्रित विकास हो गया!
कोसी में बाढ़ आई थी तब भी यह मसला उठा था कि तटबंध बनाकर नदी को रोकना गलत है। लोगों को नदी की चाल के साथ जीने दिया जाए। कोसी में बारिश के दिनों 30 % सिल्ट आती है और नई नदी होने के कारण उसकी चाल इतनी खराब है कि तटबंध न होता तो हर साल एकाध किलोमीटर खिसक जाती! तो क्या वहां सडक, अस्पताल, स्कूल न बनाए जाएँ और लोगों को हर साल बाढ़ में डूबने उतराने दिया जाए! उत्तराखंड हिमाचल में भूस्खलन, बाढ़, और बिहार की बाढ़ की मुख्य वजह हिमालय पहाड़ का नया होना भी माना जाता है, जिसके चलते नदियों में सिल्ट आता है और ज़रा सी तेज बारिश पर पत्थर सरकने लगते है।
इस बीच हम पूर्वोत्तर राज्यों में ब्रह्मपुत्र नदी से हर साल होने वाली तबाही, भूस्खलन से होने वाली मौतों पर कान देना भी पसंद नहीं करते। शायद इसकी वजह ये है कि उधर के लोगों की चाइनिज की तरह शक्ल ओ सूरत है। हम उन्हें भारतीयके रूप में स्वीकार नहीं करते।दिल्ली में उन्हें चिंकी-चिंका कहते हैं। सेक्स सिम्बल के रूप में वहा की लडकियों को भूखी नजर से देखते हैं!
विकास बनाम विनाश का मुद्दा इतना आसान नहीं है, जितना इसका सरलीकरण किया जाता है।

Friday, April 5, 2013

आप कब शादी करेंगे...

सत्येन्द्र प्रताप सिंह
आप कब शादी करेंगे...
इस सवाल पर साक्षात्कार की किसी किताब में हॉलीवुड के किसी फिल्मी सितारे के साक्षात्कार का एक अंश याद आया। एक बड़े अखबार (वाशिंगटन पोस्ट या न्यूयार्क टाइम्स) एक बड़े पत्रकार ने ६ महीने के अथक प्रयास के बाद फिल्मी सितारे के साथ साक्षात्कार के लिए अवसर पाया। वह भी ४५ मिनट की कार यात्रा के दौरान। पत्रकार महोदय ने किसी महिला का नाम लिया और कहा कि उसके साथ आपके अफेयर के बारे में चर्चा सुन रहा हूं।
फिल्मी सितारे ने करीब शहर से २५ किलोमीटर दूर उस पत्रकार को गाड़ी से उतार दिया। उसके पहले उसने भला बुरा भी कहा कि पूरी दुनिया मुझे फिल्म जगत की समझ के बारे में जानती है और तुम अफेयर के बारे में जानकारी चाह रहे हो?
बहरहाल... भारत में यह आम है। अमिताभ से लेकर ऐश्वर्य राय और राहुल गांधी तक इस तरह के सवाल झेलते हैं। देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखे जा रहे राहुल गांधी से यह सवाल पूछा जाना तो निहायत गैर जरूरी लगता है कि वे किससे शादी करेंगे। किस महिला के साथ राहुल यौन संबंध बनाएंगे, अगर शादी हुई तो कितना समय बीवी के साथ बिताएंगे, पेट में दर्द होने पर वे कौन सी गोली खाते हैं। दिन में कितनी बार पाखाना जाते हैं। सुबह के नाश्ते में क्या खाते हैं, इस तरह के सवाल राजनेता से पूछने का कोई खास मतलब समझ में नहीं आता।
फिक्की के कार्यक्रम में राहुल ने एक बार फिर ऐसे सवालों पर गुस्सा जताया कि आप शादी कब करेंगे, आप प्रधानमंत्री कब बनेंगे। शायद उन्हें भी लगता होगा कि किस तरह की मानसिकता भारत में विकसित हुई है। लोग ऐसे मसलों पर ज्यादा चिंतित रहते हैं, जिसका उनकी जिंदगी से कोई लेना देना नहीं है।
राहुल गांधी लंबे समय से राजनीति में हैं। देश के विभिन्न इलाकों का दौरा कर रहे हैं। सिर्फ किताबी और लोगों की सुनी सुनाई ही नहीं, बल्कि वे हकीकत के भारत को समझने की कोशिश में लगे हैं। ऐसे में उनसे वैश्विक पटल में भारत की परिकल्पना, देश के विकास का खाका, आगामी २० साल में भारत का विजन, युवकों की स्थिति, बढ़ती जनसंख्या आदि मसले हैं। इसके अलावा देश के विभिन्न इलाकों के लंबे दौरे, कार्यकर्ताओं से मुलाकातों, आम लोगों की प्रतिक्रिया का राहुल पर क्या असर पड़ा है, पहले उनकी क्या सोच थी, अब उनके अंदर क्या क्या बदलाव आए हैं आदि आदि... ऐसे हजार सवालों की सूची बन सकती है, जो राहुल गांधी के लिए नहीं बल्कि भारत के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। ये सवाल पूछे ही जाने चाहिए और बहुत बेरहमी से पूछे जाने चाहिए।
हें हें हें हें पत्रकारिता में इस तरह के सवाल पूछने कठिन तो हैं, लेकिन शायद राहुल गांधी भी निश्चित रूप से अनुभव करते होंगे कि ये सवाल जरूरी हैं, जो उनसे पूछे जाने चाहिए।

Friday, September 21, 2012

Ban on India Inc acquiring SC, ST land


New Delhi: In a significant ruling, the Supreme Court today said that the land belonging to scheduled castes (SCs) or tribes (STs) cannot be bought by non-dalits, including companies as such transactions are unconstitutional. A bench of justices K S Radhakrishnan and Dipak Misra gave the verdict on an appeal by the Rajasthan government against the state high court's order holding such a sale to be valid in law. The high court had passed its order on an appeal by a firm, Aanjaney Organic Herbal Pvt Ltd, against the refusal by the state authorities to recognise or grant mutation to the purchase of a plot by the company from a person belonging to scheduled caste. "The Act is a beneficial legislation which takes special care to protect the interest of the members of Schedule Caste and Schedule Tribe. "Section 42 (SC, ST Act) provides some general restrictions on sale, gift and bequest of the interest of Scheduled Caste and Scheduled Tribe, in the whole or part of their holding. "The reason for such general restrictions is not only to safeguard the interest of the members of Scheduled Caste and Scheduled Tribe, but also to see that they are not being exploited by the members of non-Scheduled Caste and Scheduled Tribe. "We find Section 42(b) of the Act has to be read along with the constitutional provisions and, if so read, the expression `who is not a member of the Scheduled Caste or Scheduled Tribe would mean a person other than those who has been included in the public notification as per Articles 341 and 342 of the Constitution," said Justice Radhakrishnan, writing the judgement for the bench. That property was purchased on September 26, 2005 through a registered sale deed for a consideration of Rs 60,000. The high court had held that such a transfer was valid as the company being a `juristic person' does not have a caste and, therefore, any transfer made by a Scheduled Caste person would not be hit by Section 42(b) of the Act. "If the contention of the company is accepted, it can purchase land from Scheduled Caste / Scheduled Tribe and then sell it to a non-Scheduled Caste and Schedule Tribe, a situation the legislature wanted to avoid. "A thing which cannot be done directly can not be done indirectly by over-reaching the statutory restriction. "We are, therefore, of the view that the reasoning of the high court that the respondent being a juristic person, the sale effected by a member of Scheduled Caste to a juristic person, which does not have a caste, is not hit by Section 42 of the Act, is untenable and gives a wrong interpretation to the above mentioned provision," the apex court said. source :http://www.financialexpress.com/news/ban-on-india-inc-acquiring-sc-st-land/1005539/3

Friday, August 10, 2012

उत्पादों के दाम बढ़ाकर आंदोलन का खर्च वसूल सकते हैं रामदेव


रामदेव छोटे कारोबारी हैं। विज्ञापन देने के बजाय वह सुर्खियां बटोरकर लोगों की नजर में रहते हैं। इसी बहाने अपने उत्पाद का प्रचार भी कर लेते हैं। बिल्कुल वैसे, जैसे कचहरी में तमाशा दिखाने वाला मदारी चूरन बेचकर चला जाता है। ज्यादा संभव है कि इस आंदोलन पर आए खर्च की भरपाई बाबा अपने 285
उत्पादों के दाम बढ़ाकर करें। एक पड़ताल...
सत्येन्द्र प्रताप सिंह
बाबा रामदेव ३ दिन के अनशन पर बैठे हैं। इस बार उनका धरने पर बैठने से पहले भी टोन डाउन था, अभी भी है। बैठने के पहले ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि सिर्फ तीन दिन अनशन चलेगा। अगर सरकार नहीं मानती तो आगे की रणनीति तय की जाएगी।
बाबा रामदेव के साथ इस बार ठीक-ठाक भीड़ है। भीड़ पहले भी थी, जब उन्हें अनशन छोड़कर भागना पडा था। उनके भीड़ की गणित दूसरी है। श्रद्धा औऱ कारोबार की छौंक। यूं तो वैसे भी यहां हजारों की संख्या में बाबा हैं और एक एक बाबा के लाखों चेले हैं, जो एक आह्वान पर जहां कहा जाए, जुटने को तैयार हो जाते हैं। लेकिन बाबा कभी पंगा नहीं लेते, सरकारें भी उनसे पंगा नहीं लेती हैं। आपसी सहमति है... सरकारें बाबाओं को खुलकर चरने देती है और बाबा लोग भी अपनी ताकत का जोश नहीं दिखाते।
दरअसल नए बाबा दलित ही साबित हुए हैं। पुराने मठाधीशों के उत्तराधिकारी तो मौज में रहते हैं, लेकिन किसी नए बाबा की बाबागीरी बहुत ज्यादा नहीं चल पाती। हालांकि यह दावे के साथ यह कहना सही नहीं होगा। इस बीच तमाम कथावाचक, छूकर इलाज करने वाले हुए, लेकिन परंपरागत या कहें कि पीढ़ी दर पीढ़ी वाली बाबागीरी व्यापक पैमाने पर विकसित करने में वह ज्यादा सफल नहीं हुए हैं।
बाबा रामदेव ने बाबागीरी का अलग कांसेप्ट दिया। बिल्कुल नया कांसेप्ट। हालांकि बाबागीरी भी एक कारोबार है, जिसमें किसी अदृश्य सत्ता का भय दिखाकर वसूली की जाती है। परेशान लोग औऱ डरते हैं और पैसे देकर आते हैं। मंदिरों में विभिन्न तरह की पूजा के पैकेज चलते हैं। इस कारोबार की तुलना में बिल्कुल अलग कारोबार है बाबा रामदेव का। जैसे एक उद्योगपति अपने उत्पाद तैयार करता है और बेचता है, वही काम बाबा रामदेव भी करते हैं। हालांकि यह कांसेप्ट किसी का भय दिखाकर वसूली की तुलना में मुझे बेहतर लगता है।
कारोबारी मॉडल
आइए बात करते हैं बाबा के कारोबारी मॉडल पर। बाबा ने योग, वाक्पटुता आदि के माध्यम से ठीक ठाक नाम कमाया। उन्होंने आयुर्वेद पर जोर देना शुरू किया। इस बीच बाबा ने दिव्य योग फार्मेसी भी खोल ली। इस उद्योग में उन्होंने हर कारोबारी मानक का ध्यान रखा है। बेहतरीन चिकित्सक, शोधकर्ता औऱ प्रोडक्ट बना रहे लोग। कारोबार जैसे जैसे जोर पकड़ता गया, बाबा ने इसका विस्तारकिया। मांग के मुताबिक आपूर्ति की। इस समय बाबा के दिव्य फार्मेसी के 285 उत्पाद हैं।
यही नहीं, बाबा पूरे कारोबारी कांसेप्ट मानते हैं। उन्होंने इलाजों का पैकेज भी दे रखा है। कुल ३२ भयंकर या कहें लाइलाज मानी जाने वाली बीमारियों का उपचार वह पैकेज के माध्यम से करते हैं। इसमें लीवर सिरोसिस से लेकर कैंसर तक के इलाज का ठेका शामिल है। हालांकि ऐसी कोई दावेदारी नहीं की गई है कि इस इलाज से बीमारी ठीक होगी। वह तो किसी भी चिकित्सा पद्धति में नहीं की जाती। लेकिन बाबा समय समय पर अपने योग शिविर के भाषणों में दावे भी करते रहते हैं। हर एक इलाज के लिए अलग-अलग पैकेज है।
विज्ञापन का तरीका
बाबा ने इस साम्राज्य के लिए किसी विज्ञापन का सहारा नहीं लिया। बस, अपने भाषणों में योग सिखाने के लिए जुटी भीड़ को वह अपनी विभिन्न दवाइयों की विशेषताएं बता देते हैं। इसके चलते उनका लाखों का विज्ञापन का खर्च बच जाता है। विज्ञापन का यह खर्च तब तक बचता रहेगा, जब तक बाबा चर्चा में रहेंगे। सुर्खियों में उनकी बने रहने की इच्छा के पीछे एक बड़ी वजह यह भी है। हां, पिछली बार केंद्र सरकार से बनते बनते बात बिगड़ गई थी, यह अलग मसला है।
बाबा एक बार फिर अपने कारोबार के प्रचार में निकले हैं। लोग उनकी बात सुन रहे हैं। इलाज में विश्वसनीयता बहुत मायने रखती है। अगर उसमें देशभक्ति और बेहतर व्यक्ति होने की छौंक लग जाए तो कोई मान ही नहीं सकता कि यह महज कारोबार का मामला है। इसमें प्राचीन ज्ञान विज्ञान से लेकर देशभक्ति और सरकार विरोधी गुस्सा को एख साथ भुनाने का मौका है।
अनशन में भीड़ की वजह
बाबा के अनशन में भीड़ जुटने की कई वजहें हैं। पहले.., योग के नाम पर उनके शिविर में दस पांच हजार तो यूं ही आ जाते हैं। दूसरे... बाबा के कारोबार का पूरा नेटवर्क है। उत्तर भारत के हर शहर में इनके उत्पादों की दुकानें हैं। हर जिले में इनके स्टाकिस्ट हैं। अगर गौर से देखें तो बाबा के स्टाकिस्टों ने इस आंदोलन में अहम भूमिका निभाई है। जहां पर इनके स्टाकिस्ट की दुकान या घर है, उस मोहल्ले में विरोध प्रदर्शन शिविर लग गए हैं। बूढ़ी महिलाएं, बूढे पुरुष, बच्चे वहां जमा हो रहे हैं... जिनके लिए बाबा के स्टाकिस्टों ने बेहतरीन प्रबंध कर रखा है। कारोबारी इस पर अच्छा निवेश कर रहे हैं। हालांकि यह खबर नहीं है कि स्टाकिस्टों को कोई निर्देश दिया गया है, लेकिन वह अपने जिलों से वाहनों आदि की पूरी व्यवस्था में लगे हैं। साथ ही रामलीला मैदान में भी भरपूर प्रबंध है, रहने और खाने का।
कारोबारी पूंजी
बाबा का कारोबार विभिन्न ट्रस्टों के माध्यम से चलता है। इसमें ४ विभिन्न ट्रस्ट शामिल हैं। पिछले साल जून महीने में बाबा की घोषणा के मुताबिक उनका कुल कारोबारी साम्राज्य १,१०० करोड़ रुपये के आसपास है। बाबा ने अपने कारोबार का ब्योरा अपनी वेबसाइट पर भी डाल रखा है औऱ उनका कहना है कि कारोबार में पूरी पारदर्शिता बरती जाती है। चार्टर्ड एकाउंटेंट अनिल अशोक एंड एसोसिएट्स ने उनके सभी ट्रस्टों की आडिट की है।
आयुर्वेद का कारोबार
देश में किसी भी जटिल इलाज के लिए शायद ही आयुर्वेद का सहारा लिया जाता हो, लेकिन कारोबार इतना तो है ही कि डाबर, वैद्यनाथ जैसी बड़ी कंपनियों से लेकर गली कूचे तक में आयुर्वेदिक दवाएं बनती हैं। लेकिन आज के कारोबार के हिसाब से देखें तो आयुर्वेद के मामले में रामदेव सभी कंपनियों को टक्कर देते नजर आ रहे हैं।
कहीं जेब पर न भारी पड़े आंदोलन?
स्वाभाविक है कि रामदेव ने जो कमाया है, उसी में से खर्च कर रहे हैं। बाबा रामदेव का कारोबार पूरी तरह से विश्वास पर ही चलता है। आज उनके पूरे स्टॉकिस्ट से लेकर खुदरा दुकानदार तक इस आंदोलन में निवेश कर रहे हैं। अब रामदेव के उत्पादों के ग्राहकों को देखना होगा कि आंदोलन पर आए खर्च की भरपाई उनकी जेब से कैसे की जाती है। बाबा रामदेव का आंदोलन खत्म होने के बाद पूरी संभावना है कि उनके उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी हो। हालांकि पूरा मामला इलाज से न जुड़ा होकर श्रद्धा की छौंक भी है, इसलिए यह भी संभव है कि उनके शिष्य या कहें ग्राहक, यह भी तर्क दें कि अच्छे काज के लिए पैसे खर्च किए, थोड़े दाम बढ़ाकर वसूली कर रहे हैं तो उसमें बुरा क्या है?

Thursday, August 2, 2012

बिजली के ग्रिड फेल, सरकार पास!


सत्येन्द्र प्रताप सिंह और भीम कुमार सिंह
भारत में बिजली की मांग लगातार बढ़ रही है। उत्पादन कम होने औऱ मांग ज्यादा होने की वजह से बिजली संकट है। हालांकि सरकारी आंकडों के मुताबिक आज भी तीस करोड़ भारतीयों को बिजली नसीब नहीं है। शहरीकरण, औद्योगीकरण, बिजली से चलने वाले सामानों की निर्भरता आदि तमाम कारण हैं, जिससे बिजली की मांग लगातार बढ़ रही है। हाल ही में ग्रिड फेल होने से बीस से ज्यादा राज्यों में हाहाकार रहा। तमाम अनछुए पक्ष हैं, जो बिजली के इस संकट के पीछे बड़ी वजह हैं। बिजली मंत्री सुशील कुमार शिंदे को ग्रिड संकट के साथ ही गृहमंत्री बना दिया गया। संभवतया वह सरकार की मंशा और जरूरतों के मुताबिक ही काम कर रहे थे, जिसकी वजह से पदोन्नति जरूरी थी।
आइए पहले आंकड़ों पर नजर डालते हैं... भारत में केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और निजी कंपनियां बिजली का उत्पादन करती हैं। कुल उत्पादन में राज्य सरकारों (स्टेट सेक्टर) की उत्पादन क्षमता 86,275.40 मेगावाट केंद्र सरकार की उत्पादन क्षमता 62,073.63 मेगावाट औऱ निजी क्षेत्र की उत्पादन क्षमता 56,991.23 मेगावाट है। इन तीनों का उत्पादन प्रतिशत क्रमशः 42.01, 30.22 और 27.75 है। कुल मिलाकर भारत की उत्पादन क्षमता 2,05,340.26 मेगावाट है। अभी केंद्र औऱ राज्य सरकार व उनके प्रतिष्ठान ही ज्यादा बिजली उत्पादन कर रहे हैं।
बढ़ रही है उत्पादन में निजी क्षेत्र की भूमिका यह आंकडे़ यूं ही स्थिर रहने वाले नहीं हैं। बिजली उत्पादन में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी भी ठीक उसी तरह बढ़ रही है, जैसे अन्य क्षेत्रों में। इस क्षेत्र में भी देश की बड़ी बड़ी कंपनियां उतर चुकी हैं। राज्य सरकारों के साथ विभिन्न मॉडलों पर बिजली उत्पादन के लिए समझौते हो रहे हैं। यह हर राज्य में इतनी तेजी से हो रहा है कि आने वाले कुछ साल में निजी क्षेत्र सारी परियोजनाएं स्थापित होने के बाद इनकी हिस्सेदारी बिजली उत्पादन करने वाली सरकारी कंपनियों से ज्यादा हो जाएगी।
निश्चित रूप से बिजली कंपनियां मुनाफा कमाने के लिए उतर रही हैं। इनको सारी सुविधाएं सरकारें ही मुहैया कराती हैं। कर्ज की काउंटर गारंटी हो, बिजली की खरीद हो, या जमीन उपलब्ध कराने का मामला। बस अभी समस्या यह है कि नियंत्रित औऱ सब्सिडी वाला क्षेत्र होने की वजह से कंपनियां अपने मुताबिक, यानी मांग और आपूर्ति के आधार पर प्राइस सर्चिंग की सुविधा नहीं पा रही हैं।
बाजारीकरण की शुरुआत
विद्युत अधिनियम २००३ पेश किए जाने के बाद बिजली बाजार के हवाले होनी शुरू हुई थी। अधिनियम की धारा ४२ में खुले बाजार में बिजली की खरीद फरोख्त की अनुमति दे दी गई। केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग से लाइसेंस हासिल करने के बाद ऐसा करना संभव बनाया गया। मामला बाजार में आया तो प्राइस डिस्कवरी भी मांग औऱ आपूर्ति के आधार पर हुई। कीमतें बहुत ज्यादा निकलीं। भारत में वितरण प्रणाली पर सरकारी नियंत्रण बहुत ज्यादा है। २७ जून २००८ को इंडियन एनर्जी एक्सचेंज का उदय हुआ। खुले बाजार में बिजली की खरीद फरोख्त शुरू हुई। राजनीतिक औऱ अन्य मजबूरियों के चलते राज्य सरकारों को खुले बाजार से बिजली खरीदना मजबूरी है। कभी कभी तो हालत यह होती है कि बिजली के दाम १५ रुपये प्रति यूनिट से ज्यादा पर पहुंच जाते हैं और निश्चित रूप से राज्य सरकारों के ऊपर इसका बोझ पड़ता है।
मुनाफे के लिए इंतजाम
ऐसा भी नहीं है कि सरकार ने निजी उत्पादन कंपनियों को लावारिस छोड़ रखा है। इस समय राज्य की बिजली वितरण कंपनियां भयंकर घाटे में हैं। राज्यों के बिजली बोर्डों पर बकाया 1.5 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया है। इसके पुनर्गठन के लिए केंद्र सरकार राज्यों पर दबाव बनाने में जुटी है। चुनावी गणित को देखते हुए सरकारों ने इन्हें बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ा है, यह सही है। किसानों से लेकर कारोबारियों तक को सस्ती बिजली मुहैया कराई जा रही है। लेकिन इसकी भरपाई या इसका संतुलन बनाने की कोई खास मुहिम नहीं है। असल खेल निजी क्षेत्र का ही चल है। बिजली उत्पादकों को कुछ बिजली खुले बाजार के माध्यम से बेचने को छूट मिली है। उद्योगपति भी सरकार की सस्ती बिजली पर ही निर्भर हैं, और किसान, घरेलू उपभोग करने वाले अन्य लोग भी। लेकिन निजी क्षेत्र की बिजली के अगर खरीदार न मिलेंगे तो निजीकरण का खेल बिगड़ना तय है। अब राज्यों पर दबाव बढ़ाया जा रहा है कि अगर वह अपने लोगों को बिजली देना चाहते हैं तो महंगी बिजली खरीदें।
कोयले का खेल और सरकार का पैंतरा
देश की ज्यादातर बिजली कंपनियां ईंधन के लिए कोयले पर निर्भर हैं, जिसकी आपूर्ति मुख्य रूप से कोल इंडिया करती है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान जितनी तेजी से ताप विद्युत संयंत्र लगाए गए हैं, उसी तेजी से देश में कोयले का उत्पादन नहीं बढ़ा है। जाहिर है, कोयले की मांग और आपूर्ति में काफी अंतर आ गया है। ऐसी स्थिति में कोल इंडिया बिजली कंपनियों को उनकी जरूरत के हिसाब से कोयले की पर्याप्त आपूर्ति नहीं कर पा रही है, लिहाजा कंपनियों को कोयले का आयात करना पड़ता है जो बहुत महंगा सौदा है। जो कंपनियां ऐसा नहीं कर पातीं वे पूरी क्षमता पर उत्पादन नहीं करतीं।
इसी चलते इन कंपनियों ने तगड़ी खेमेबाजी की और कोयले की नियमित एवं पर्याप्त आपुर्ति सुनिश्चित कराने के लिए सरकार पर दबाव बनाया। अब चूंकि देश में कोयला उपलब्ध कराने वाली सबसे बड़ी कंपनी कोल इंडिया है, इस चलते इस दबाव का सबसे ज्यादा असर उसी पर हुआ क्योंकि वह सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई है। प्रधानमंत्री कार्यालय ने कोल इंडिया से कहा कि वह अनिवार्य रूप से बिजली कंपनियों को उनकी जरूरत की कम-से-कम 80 फीसदी की कोयले की आपूर्ति करे। लेकिन कंपनी के निदेशक मंडल ने ऐसा भरोसा दिलाने में आनाकानी की। कंपनी की दलील थी कि कोयले की मांग जिस तरीके से बढ़ रही है, उसी हिसाब से उत्पादन नहीं बढ़ रहा है क्योंकि नये खदानों की मंजूरी बहुत मुश्किल से मिलती है।
दूसरी ओर सरकार पर बिजली कंपनियों का दबाव बदस्तूर बना रहा। वे सरकार को यह समझाने में सफल रहीं कि उनके लिए कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित नहीं किए जाने की स्थिति में इस क्षेत्र में नया निवेश बाधित होगा और मौजूदा संयंत्रों से भी पूरी क्षमता पर उत्पादन नहीं हो सकेगा, जबकि देश में बिजली की मांग बढ़ती ही जा रही है।
दरअसल, यह मामला थोड़ा पेचीदा है। कोल इंडिया इस क्षेत्र की कंपनियों को उनकी जरूरत के 65 फीसदी कोयले की आपूर्ति करने में सक्षम है। ऐसे में उन्हें 15 फीसदी कोयले का आयात करना पड़ेगा, जिसकी लागत ज्यादा बैठेगी। जाहिर है, ऐसा करने पर उनके मुनाफे पर असर होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि बिजली कंपनियों को देश में मांग और आपूर्ति में संतुलन की चिंता कम है और मुनाफा घटने की आशंका ज्यादा। उनके लिए यह परेशान होने की यह वाजिब वजह हो सकती है।
लेकिन इस मसले पर सरकार ने जितनी गंभीरता दिखाई, उसकी वजह समझ में नहीं आती। सरकार ने जब देखा कि कोल इंडिया का निदेशक मंडल कोयले की 80 फीसदी आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए तैयार नहीं होगी, तो उसने एक ऐतिहासिक कदम उठाया। उसने राष्ट्रपति की ओर से आदेश जारी करवाकर कोल इंडिया को निर्देश दिलवाया कि वह बिजली कंपनियों के साथ ईंधन आपूर्ति करार (एफएसए) करके उनके लिए 80 फीसदी कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित करे और यदि कंपनी ऐसा करने में विफल रहती है तो उसे जुर्मान देना पड़ेगा। सीधी सी बात है कि कोल इंडिया बिजली कंपनियों को इस पैमाने पर कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित करने में सक्षम नहीं है। उसकी क्षमता महज 65 फीसदी आपूर्ति सुनिश्चित करने की है। ऐसे में उसे अतिरिक्त 15 फीसदी कोयला आयात करना पड़ेगा क्योंकि फिलहाल उसके उत्पादन में इस कदर बढ़ोतरी की गुंजाइश नहीं है। इस स्थिति में निश्चित रूप से कोल इंडिया के मुनाफे पर तगड़ी मार पड़ेगी और इसका लाभ बिजली कंपनियों को मिलेगा।
कुछ यूं ध्वस्त होता है ग्रिड
आइए एक उदाहरण लेते हैं। मान लीजिए कि दिल्ली से लखनऊ का रेल भाड़ा 250 रुपये है। रेल विभाग आधी सीटें तत्काल कोटा में कर के उनके दाम 750 रुपये कर देता है। आपको लखनऊ यात्रा करनी है और दलाल या किसी अन्य माध्यम से आपको वह टिकट 500 रुपये में मिल जाए तो स्वाभाविक रूप से आप 750 रुपये का टिकट नहीं खरीदेंगे। भले ही यह थोड़ा बहुत गैर कानूनी हो. अगर रेल विभाग की 750 रुपये टिकट वाली सीटें खाली रह जाती हैं, तो वह दबाव बनाएगा कि 500 रुपये वाले अवैध टिकटों की बिक्री बंद कराई जाए, जिससे उसके 750 रुपये वाले टिकट बिक सकें।
जो हाल उस लखनऊ के यात्री का है, वही हाल राज्यों का है। खुले बाजार में बिकने वाली बिजली की मात्रा बढ़ाई जा रही है। राज्य की खस्ताहाल बिजली कंपनियों को महंगी बिजली खरीदनी पड़ती है। बिजली कटौती पर जनआंदोलन होने, विरोध प्रदर्शन होने की वजह से राज्यों पर दबाव होता है कि वह कटौती में कमी लाएं। ऐसे में खस्ताहाल बिजली कंपनियां अपने कोटे से ज्यादा बिजली ग्रिडों से खींचती हैं। हालांकि ग्रिड कोड भी बनाए गए हैं और अधिक बिजली खींचने पर जुर्माने के प्रावधान भी हैं। लेकिन राज्य सरकारों को यह सस्ता पड़ता है कि ग्रिड से ज्यादा बिजली खींच ली जाए और जुर्माना भर दिया जाए। जुर्माने के साथ भी यह बिजली खुले बाजार से बिजली खरीदने की तुलना में सस्ती पड़ती है। यही वजह है कि जब मांग चरम पर होती है तो ग्रिड ध्वस्त होने की घटनाएं होती हैं।
ऐसा नहीं है कि खुले बाजार में बिजली की बिक्री अब कम होने वाली है। जैसे जैसे बिजली उत्पादन में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ेगी, इसकी मात्रा भी बढ़ेगी। खुले बाजार में बिजली की बिक्री ज्यादा होने पर खरीदार की जरूरत होगी। खरीदार भी ऐसे हों, जो हो-हल्ला न करें। चुपचाप खरीदें। यह तभी संभव है, जब वितरण प्रणाली पर सरकारों का नियंत्रण खत्म हो और कारोबारियों की इच्छा के मुताबिक बिजली दरें हों। उनके निवेश पर उन्हें मनचाहा मुनाफा हो। लेकिन अभी ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है। राजनीतिक बाध्यताओं के चलते बिजली पर सरकार का नियंत्रण बरकरार है। साथ ही यह आम लोगों की जरूरत बन गई है। अगर सीधे इसे निजी क्षेत्र के हाथों सौंपा जाता है तो तीखे विरोध की संभावना बनती है। ऐसे में उत्पादन का निजीकरण, वितरण प्रणाली का निजीकरण फिर कंपनियों को दाम तय करने की छूट। यह सिलसिला लगातार चल रहा है।
सरकार की मंशा की जीत
सरकार की मंशा स्पष्ट है। बिजली का भी निजीकरण हो और कंपनियां उससे भी मुनाफा काटें। आम लोगों की निर्भरता इस पर बहुत ज्यादा बढ़ ही गई है। मजबूरी है कि लोग बिजली खऱीदेंगे, बाजार में मांग उसकी कीमत तय कर देगा। बिजली के ग्रिड फेल होने पर सरकार की अकर्मण्यता, मंत्री की विफलता आदि के चलते सरकार औऱ मंत्री को जनाक्रोश का सामना करना पड़ा। राज्य सरकारों पर भी आरोप लगे। साथ ही उपभोक्ता इसके लिए भी मानसिक रूप से तैयार हुए हैं कि निजी क्षेत्र को बिजली दिए जाने पर ही व्यवस्था सुधरेगी, सरकार, मंत्री, सरकारी कर्मचारी सब चोर हैं। स्वाभाविक रूप से बिजली मंत्री की जीत हुई है। सरकार ने उन्हें इसके लिए पुरस्कृत भी कर दिया है
(इसमे दिए गए आंकड़े सरकारी हैं, विश्लेषण औऱ विचार लेखक के हैं)

Wednesday, August 1, 2012

बिजली के ग्रिड फेल, सरकार पास!


सत्येन्द्र प्रताप सिंह और भीम कुमार सिंह
भारत में बिजली की मांग लगातार बढ़ रही है। उत्पादन कम होने औऱ मांग ज्यादा होने की वजह से बिजली संकट है। हालांकि सरकारी आंकडों के मुताबिक आज भी तीस करोड़ भारतीयों को बिजली नसीब नहीं है। शहरीकरण, औद्योगीकरण, बिजली से चलने वाले सामानों की निर्भरता आदि तमाम कारण हैं, जिससे बिजली की मांग लगातार बढ़ रही है। हाल ही में ग्रिड फेल होने से बीस से ज्यादा राज्यों में हाहाकार रहा। तमाम अनछुए पक्ष हैं, जो बिजली के इस संकट के पीछे बड़ी वजह हैं। बिजली मंत्री सुशील कुमार शिंदे को ग्रिड संकट के साथ ही गृहमंत्री बना दिया गया। संभवतया वह सरकार की मंशा और जरूरतों के मुताबिक ही काम कर रहे थे, जिसकी वजह से पदोन्नति जरूरी थी।
आइए पहले आंकड़ों पर नजर डालते हैं... भारत में केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और निजी कंपनियां बिजली का उत्पादन करती हैं। कुल उत्पादन में राज्य सरकारों (स्टेट सेक्टर) की उत्पादन क्षमता 86,275.40 मेगावाट केंद्र सरकार की उत्पादन क्षमता 62,073.63 मेगावाट औऱ निजी क्षेत्र की उत्पादन क्षमता 56,991.23 मेगावाट है। इन तीनों का उत्पादन प्रतिशत क्रमशः 42.01, 30.22 और 27.75 है। कुल मिलाकर भारत की उत्पादन क्षमता 2,05,340.26 मेगावाट है। अभी केंद्र औऱ राज्य सरकार व उनके प्रतिष्ठान ही ज्यादा बिजली उत्पादन कर रहे हैं।
बढ़ रही है उत्पादन में निजी क्षेत्र की भूमिका यह आंकडे़ यूं ही स्थिर रहने वाले नहीं हैं। बिजली उत्पादन में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी भी ठीक उसी तरह बढ़ रही है, जैसे अन्य क्षेत्रों में। इस क्षेत्र में भी देश की बड़ी बड़ी कंपनियां उतर चुकी हैं। राज्य सरकारों के साथ विभिन्न मॉडलों पर बिजली उत्पादन के लिए समझौते हो रहे हैं। यह हर राज्य में इतनी तेजी से हो रहा है कि आने वाले कुछ साल में निजी क्षेत्र सारी परियोजनाएं स्थापित होने के बाद इनकी हिस्सेदारी बिजली उत्पादन करने वाली सरकारी कंपनियों से ज्यादा हो जाएगी।
निश्चित रूप से बिजली कंपनियां मुनाफा कमाने के लिए उतर रही हैं। इनको सारी सुविधाएं सरकारें ही मुहैया कराती हैं। कर्ज की काउंटर गारंटी हो, बिजली की खरीद हो, या जमीन उपलब्ध कराने का मामला। बस अभी समस्या यह है कि नियंत्रित औऱ सब्सिडी वाला क्षेत्र होने की वजह से कंपनियां अपने मुताबिक, यानी मांग और आपूर्ति के आधार पर प्राइस सर्चिंग की सुविधा नहीं पा रही हैं।
बाजारीकरण की शुरुआत
विद्युत अधिनियम २००३ पेश किए जाने के बाद बिजली बाजार के हवाले होनी शुरू हुई थी। अधिनियम की धारा ४२ में खुले बाजार में बिजली की खरीद फरोख्त की अनुमति दे दी गई। केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग से लाइसेंस हासिल करने के बाद ऐसा करना संभव बनाया गया। मामला बाजार में आया तो प्राइस डिस्कवरी भी मांग औऱ आपूर्ति के आधार पर हुई। कीमतें बहुत ज्यादा निकलीं। भारत में वितरण प्रणाली पर सरकारी नियंत्रण बहुत ज्यादा है। २७ जून २००८ को इंडियन एनर्जी एक्सचेंज का उदय हुआ। खुले बाजार में बिजली की खरीद फरोख्त शुरू हुई। राजनीतिक औऱ अन्य मजबूरियों के चलते राज्य सरकारों को खुले बाजार से बिजली खरीदना मजबूरी है। कभी कभी तो हालत यह होती है कि बिजली के दाम १५ रुपये प्रति यूनिट से ज्यादा पर पहुंच जाते हैं और निश्चित रूप से राज्य सरकारों के ऊपर इसका बोझ पड़ता है।
मुनाफे के लिए इंतजाम
ऐसा भी नहीं है कि सरकार ने निजी उत्पादन कंपनियों को लावारिस छोड़ रखा है। इस समय राज्य की बिजली वितरण कंपनियां भयंकर घाटे में हैं। राज्यों के बिजली बोर्डों पर बकाया 1.5 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया है। इसके पुनर्गठन के लिए केंद्र सरकार राज्यों पर दबाव बनाने में जुटी है। चुनावी गणित को देखते हुए सरकारों ने इन्हें बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ा है, यह सही है। किसानों से लेकर कारोबारियों तक को सस्ती बिजली मुहैया कराई जा रही है। लेकिन इसकी भरपाई या इसका संतुलन बनाने की कोई खास मुहिम नहीं है। असल खेल निजी क्षेत्र का ही चल है। बिजली उत्पादकों को कुछ बिजली खुले बाजार के माध्यम से बेचने को छूट मिली है। उद्योगपति भी सरकार की सस्ती बिजली पर ही निर्भर हैं, और किसान, घरेलू उपभोग करने वाले अन्य लोग भी। लेकिन निजी क्षेत्र की बिजली के अगर खरीदार न मिलेंगे तो निजीकरण का खेल बिगड़ना तय है। अब राज्यों पर दबाव बढ़ाया जा रहा है कि अगर वह अपने लोगों को बिजली देना चाहते हैं तो महंगी बिजली खरीदें।
कोयले का खेल और सरकार का पैंतरा
देश की ज्यादातर बिजली कंपनियां ईंधन के लिए कोयले पर निर्भर हैं, जिसकी आपूर्ति मुख्य रूप से कोल इंडिया करती है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान जितनी तेजी से ताप विद्युत संयंत्र लगाए गए हैं, उसी तेजी से देश में कोयले का उत्पादन नहीं बढ़ा है। जाहिर है, कोयले की मांग और आपूर्ति में काफी अंतर आ गया है। ऐसी स्थिति में कोल इंडिया बिजली कंपनियों को उनकी जरूरत के हिसाब से कोयले की पर्याप्त आपूर्ति नहीं कर पा रही है, लिहाजा कंपनियों को कोयले का आयात करना पड़ता है जो बहुत महंगा सौदा है। जो कंपनियां ऐसा नहीं कर पातीं वे पूरी क्षमता पर उत्पादन नहीं करतीं।
इसी चलते इन कंपनियों ने तगड़ी खेमेबाजी की और कोयले की नियमित एवं पर्याप्त आपुर्ति सुनिश्चित कराने के लिए सरकार पर दबाव बनाया। अब चूंकि देश में कोयला उपलब्ध कराने वाली सबसे बड़ी कंपनी कोल इंडिया है, इस चलते इस दबाव का सबसे ज्यादा असर उसी पर हुआ क्योंकि वह सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई है। प्रधानमंत्री कार्यालय ने कोल इंडिया से कहा कि वह अनिवार्य रूप से बिजली कंपनियों को उनकी जरूरत की कम-से-कम 80 फीसदी की कोयले की आपूर्ति करे। लेकिन कंपनी के निदेशक मंडल ने ऐसा भरोसा दिलाने में आनाकानी की। कंपनी की दलील थी कि कोयले की मांग जिस तरीके से बढ़ रही है, उसी हिसाब से उत्पादन नहीं बढ़ रहा है क्योंकि नये खदानों की मंजूरी बहुत मुश्किल से मिलती है।
दूसरी ओर सरकार पर बिजली कंपनियों का दबाव बदस्तूर बना रहा। वे सरकार को यह समझाने में सफल रहीं कि उनके लिए कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित नहीं किए जाने की स्थिति में इस क्षेत्र में नया निवेश बाधित होगा और मौजूदा संयंत्रों से भी पूरी क्षमता पर उत्पादन नहीं हो सकेगा, जबकि देश में बिजली की मांग बढ़ती ही जा रही है।
दरअसल, यह मामला थोड़ा पेचीदा है। कोल इंडिया इस क्षेत्र की कंपनियों को उनकी जरूरत के 65 फीसदी कोयले की आपूर्ति करने में सक्षम है। ऐसे में उन्हें 15 फीसदी कोयले का आयात करना पड़ेगा, जिसकी लागत ज्यादा बैठेगी। जाहिर है, ऐसा करने पर उनके मुनाफे पर असर होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि बिजली कंपनियों को देश में मांग और आपूर्ति में संतुलन की चिंता कम है और मुनाफा घटने की आशंका ज्यादा। उनके लिए यह परेशान होने की यह वाजिब वजह हो सकती है।
लेकिन इस मसले पर सरकार ने जितनी गंभीरता दिखाई, उसकी वजह समझ में नहीं आती। सरकार ने जब देखा कि कोल इंडिया का निदेशक मंडल कोयले की 80 फीसदी आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए तैयार नहीं होगी, तो उसने एक ऐतिहासिक कदम उठाया। उसने राष्ट्रपति की ओर से आदेश जारी करवाकर कोल इंडिया को निर्देश दिलवाया कि वह बिजली कंपनियों के साथ ईंधन आपूर्ति करार (एफएसए) करके उनके लिए 80 फीसदी कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित करे और यदि कंपनी ऐसा करने में विफल रहती है तो उसे जुर्मान देना पड़ेगा। सीधी सी बात है कि कोल इंडिया बिजली कंपनियों को इस पैमाने पर कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित करने में सक्षम नहीं है। उसकी क्षमता महज 65 फीसदी आपूर्ति सुनिश्चित करने की है। ऐसे में उसे अतिरिक्त 15 फीसदी कोयला आयात करना पड़ेगा क्योंकि फिलहाल उसके उत्पादन में इस कदर बढ़ोतरी की गुंजाइश नहीं है। इस स्थिति में निश्चित रूप से कोल इंडिया के मुनाफे पर तगड़ी मार पड़ेगी और इसका लाभ बिजली कंपनियों को मिलेगा।
कुछ यूं ध्वस्त होता है ग्रिड
आइए एक उदाहरण लेते हैं। मान लीजिए कि दिल्ली से लखनऊ का रेल भाड़ा 250 रुपये है। रेल विभाग आधी सीटें तत्काल कोटा में कर के उनके दाम 750 रुपये कर देता है। आपको लखनऊ यात्रा करनी है और दलाल या किसी अन्य माध्यम से आपको वह टिकट 500 रुपये में मिल जाए तो स्वाभाविक रूप से आप 750 रुपये का टिकट नहीं खरीदेंगे। भले ही यह थोड़ा बहुत गैर कानूनी हो. अगर रेल विभाग की 750 रुपये टिकट वाली सीटें खाली रह जाती हैं, तो वह दबाव बनाएगा कि 500 रुपये वाले अवैध टिकटों की बिक्री बंद कराई जाए, जिससे उसके 750 रुपये वाले टिकट बिक सकें।
जो हाल उस लखनऊ के यात्री का है, वही हाल राज्यों का है। खुले बाजार में बिकने वाली बिजली की मात्रा बढ़ाई जा रही है। राज्य की खस्ताहाल बिजली कंपनियों को महंगी बिजली खरीदनी पड़ती है। बिजली कटौती पर जनआंदोलन होने, विरोध प्रदर्शन होने की वजह से राज्यों पर दबाव होता है कि वह कटौती में कमी लाएं। ऐसे में खस्ताहाल बिजली कंपनियां अपने कोटे से ज्यादा बिजली ग्रिडों से खींचती हैं। हालांकि ग्रिड कोड भी बनाए गए हैं और अधिक बिजली खींचने पर जुर्माने के प्रावधान भी हैं। लेकिन राज्य सरकारों को यह सस्ता पड़ता है कि ग्रिड से ज्यादा बिजली खींच ली जाए और जुर्माना भर दिया जाए। जुर्माने के साथ भी यह बिजली खुले बाजार से बिजली खरीदने की तुलना में सस्ती पड़ती है। यही वजह है कि जब मांग चरम पर होती है तो ग्रिड ध्वस्त होने की घटनाएं होती हैं।
ऐसा नहीं है कि खुले बाजार में बिजली की बिक्री अब कम होने वाली है। जैसे जैसे बिजली उत्पादन में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ेगी, इसकी मात्रा भी बढ़ेगी। खुले बाजार में बिजली की बिक्री ज्यादा होने पर खरीदार की जरूरत होगी। खरीदार भी ऐसे हों, जो हो-हल्ला न करें। चुपचाप खरीदें। यह तभी संभव है, जब वितरण प्रणाली पर सरकारों का नियंत्रण खत्म हो और कारोबारियों की इच्छा के मुताबिक बिजली दरें हों। उनके निवेश पर उन्हें मनचाहा मुनाफा हो। लेकिन अभी ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है। राजनीतिक बाध्यताओं के चलते बिजली पर सरकार का नियंत्रण बरकरार है। साथ ही यह आम लोगों की जरूरत बन गई है। अगर सीधे इसे निजी क्षेत्र के हाथों सौंपा जाता है तो तीखे विरोध की संभावना बनती है। ऐसे में उत्पादन का निजीकरण, वितरण प्रणाली का निजीकरण फिर कंपनियों को दाम तय करने की छूट। यह सिलसिला लगातार चल रहा है।
सरकार की मंशा की जीत
सरकार की मंशा स्पष्ट है। बिजली का भी निजीकरण हो और कंपनियां उससे भी मुनाफा काटें। आम लोगों की निर्भरता इस पर बहुत ज्यादा बढ़ ही गई है। मजबूरी है कि लोग बिजली खऱीदेंगे, बाजार में मांग उसकी कीमत तय कर देगा। बिजली के ग्रिड फेल होने पर सरकार की अकर्मण्यता, मंत्री की विफलता आदि के चलते सरकार औऱ मंत्री को जनाक्रोश का सामना करना पड़ा। राज्य सरकारों पर भी आरोप लगे। साथ ही उपभोक्ता इसके लिए भी मानसिक रूप से तैयार हुए हैं कि निजी क्षेत्र को बिजली दिए जाने पर ही व्यवस्था सुधरेगी, सरकार, मंत्री, सरकारी कर्मचारी सब चोर हैं। स्वाभाविक रूप से बिजली मंत्री की जीत हुई है। सरकार ने उन्हें इसके लिए पुरस्कृत भी कर दिया है
(इसमे दिए गए आंकड़े सरकारी हैं, विश्लेषण औऱ विचार लेखक के हैं)

Monday, July 23, 2012

बस आंकड़े बनकर रह गई है किसानों की जिंदगी


पी. साईनाथ का 3 जुलाई के द हिंदू में प्रकाशित नया लेख. मनीष शांडिल्य का अनुवाद.
प्रमुख तथ्य
* 1995 से अब तक कुल 2,70,940 किसानों ने आत्महत्या की है.
* महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा किसान आत्महत्या करते है.
* आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या लगातार बढ़ रही है और कृषक आबादी घट रही है.
* इस समस्या से सबसे बुरी तरह प्रभावित पांच राज्य महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश हैं.
* उपरोक्त पांच राज्यों में सुखाड़ की आशंका के कारण अगले साल सामने आने वाले आंकड़े और भयावह हो सकते हैं.
* छत्तीसगढ़ सरकार के दावे के अनुसार राज्य में किसी भी किसान ने 2011 में आत्महत्या नहीं की है. जबकि 2010 में राज्य में 1126 किसानों ने आत्महत्या की थी.
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार 2011 में कम से कम 14,027 किसानों ने आत्महत्या की है. इस तरह 1995 के बाद से आत्महत्या करने वाले किसानों की कुल संख्या 2,70,940 हो चुकी है. महाराष्ट्र में एक बार फिर आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या में बढ़ोतरी दर्ज की गयी है. महाराष्ट्र में 2010 के मुकाबले 2011 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 3141 से बढ़कर 3337 हो गई. (2009 में यह संख्या 2872 थी). बीते एक साल से राज्य स्तर पर आंकड़ों के साथ की जा रही भारी छेड़छाड़ के बावजूद यह भयावह आंकड़ा सामने आया है. आंकड़ों को कम कर बताने के लिए ‘किसान’ शब्द को फिर से परिभाषित भी किया गया. साथ ही सरकारों और प्रमुख बीज कंपनियों द्वारा मीडिया और अन्य मंचों पर महंगे अभियान भी चलाये गये थे जिसमें यह प्रचार किया गया कि उनके प्रयासों से हालात बहुत बेहतर हुए हैं. महाराष्ट्र एक दशक से भी अधिक समय से एक ऐसा राज्य बना हुआ है जहां सबसे ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है.
महाराष्ट्र में 1995 के बाद आत्महत्या करने वाले किसानों की कुल संख्या 54,000 का आंकड़ा छूने को है. इनमें से 33,752 किसानों ने 2003 के बाद आत्महत्या की है यानी इन नौ सालों में हर साल 3,750 किसानों ने आत्महत्या की. साथ ही महाराष्ट्र में 1995-2002 के बीच 20,066 किसानों ने आत्महत्या की थी यानी इन आठ सालों के दौरान हर साल 2,508 किसानों ने आत्महत्या की. उल्लेखनीय तथ्य यह है कि किसानों की आत्महत्या में भी वृद्धि हो रही है और देश भर में उनकी संख्या भी घट रही है. महाराष्ट्र में यह समस्या शहरीकरण के कारण और भी भयावह हो जाती है. गौरतलब है कि महाराष्ट्र देश का वह राज्य है जहां सबसे तेज गति से शहरीकरण हो रहा है. ‘बढ़ती आत्महत्या-सिकुड़ती जनसंख्या’ का समीकरण यह बताता है कि कृषक समुदाय पर दबाव बहुत बढ़ गया है. कुछ ही महीने बाद 2011 की जनगणना के आधार पर किसानों के जो आंकड़े प्राप्त होंगे उससे एक ज्यादा स्पष्ट तस्वीर सामने आयेगी. प्रति एक लाख किसानों में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या के आधार पर आत्महत्या करने वाले किसानों का अनुपात निकाला जाता है. वर्तमान में राष्ट्रीय और राज्यवार, दोनों स्तरों पर यह अनुपात 2001 की पुरानी जनगणना पर ही आधारित है.
सबसे बुरी तरह प्रभावित पांच राज्यों का हाल
2011 के आत्महत्याओं का आंकड़ा बताता है कि छत्तीसगढ़ में किसी किसान ने आत्महत्या नहीं की है. इस कारण यह आंकड़ा संदिग्ध हो जाता है. किसी राज्य में किसान का आत्महत्या नहीं करना एक अच्छी खबर होनी चाहिए थी. लेकिन छत्तीसगढ़ में पिछले पांच वर्षों में 7,777 किसानों ने आत्महत्या की थी जिनमें 2010 में आत्महत्या करने वाले 1,126 किसान शामिल है. यह राज्य कई वर्षों से इन त्रासद मौतों से बहुत बुरी तरह प्रभावित राज्यों में से एक रहा है. किसानों की आत्महत्या की समस्या से सबसे बुरी तरह प्रभावित पांच राज्यों (महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश) के आंकड़े 2011 में हुई कुल किसान आत्महत्याओं के 64 प्रतिशत के आसपास है. छत्तीसगढ़ के ‘शून्य’ के बावजूद 2010 के मुकाबले स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है. 2010 में इन पांच राज्यों की प्रतिशत हिस्सेदारी 66 प्रतिशत के करीब थी.
ऐसा हो सकता है कि छत्तीसगढ़ के आंकड़े सही समय पर एनसीआरबी को प्राप्त नहीं हुए हों. या इसका एक मतलब यह हो सकता है कि राज्य में किसानों की आत्महत्या संबंधी आंकड़ों में देर से छेड़छाड़ शुरू हुई हो. दूसरे राज्यों में यह खेल कई सालों से चल रहा है. महाराष्ट्र में प्रधानमंत्री की विदर्भ यात्रा के बाद 2007 से ऐसा किया जा रहा है. केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार 2008 के बाद से संसद में किसानों से संबंधित एनसीआरबी के खौफनाक आंकड़ों को सामने रखने से परहेज कर रहे हैं. (लेकिन केंद्र सरकार अन्य सभी श्रेणियों के लिए एनसीआरबी को उद्धृत करती है). अब तो राज्य सरकारें भी एनसीआरबी को भेजे जाने वाले आंकड़ों में बड़े पैमाने पर हेरा-फेरी करने लगी हैं.
ऐसे में जबकि उपरोक्त पांच राज्यों पर सुखाड़ के काले बादल मंडरा रहे हैं, अगले साल सामने आने वाले आंकड़ों की भयावहता चिंता की लकीरों को और गहरा कर देती हैं. महाराष्ट्र में विदर्भ और मराठवाड़ा क्षेत्रों में हालात तो पहले से ही काफी बुरे हैं. (यह स्थिति अधिकारियों को आंकड़ों में ज्यादा हेरा-फेरी करने के लिए उकसाती है). यदि पिछले पांच वर्षों के छत्तीसगढ़ के वार्षिक औसत के आधार पर आकलन किया जाए तो राष्ट्रीय स्तर पर 2011 में आत्महत्या करने वाले किसानों की कुल संख्या 15,582 और उपरोक्त पांच राज्यों की कुल प्रतिशत हिस्सेदारी 68 प्रतिशत (10,524) के करीब हो जायेगी, जो अब तक की सबसे ऊंची प्रतिशत भागीदारी होगी. जब 1995 में पहली बार एनसीआरबी ने किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों को अलग से सारणीबद्ध किया था, तब आत्महत्या करने वाले 56.04 फीसदी किसान उपरोक्त पांच राज्यों के थे.
2011 में पांच राज्यों में 2010 की तुलना में किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों में 50 से अधिक की वृद्धि दर्ज हुई है. इन राज्यों में शामिल हैं: गुजरात (55), हरियाणा (87), मध्य प्रदेश (89), तमिलनाडु (82). अकेले महाराष्ट्र में 2010 की तुलना में 2011 में 196 की वृद्धि देखी गई है. साथ ही नौ राज्यों में किसानों की आत्महत्या की संख्या में 50 से अधिक की कमी भी दर्ज की गई है. 2011 में 2010 के मुकाबले कर्नाटक में 485, आंध्र प्रदेश में 319 और पश्चिम बंगाल में 186 की गिरावट दर्ज की गई है. लेकिन ये सभी राज्य छत्तीसगढ़ से ‘पीछे’ हैं जहां राज्य सरकार के दावे के अनुसार 2011 में किसी भी किसान ने आत्महत्या नहीं की है. गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ में 2010 में 1126 किसानों ने आत्महत्या की थी.

Tuesday, June 19, 2012

वाम-दक्षिण के बीच फंसा बीमार ग्रीस


सत्येन्द्र प्रताप सिंह
ग्रीस बीमार है। खुली बाजार व्यवस्था के समर्थक उसका इलाज करने को तैयार हैं। दक्षिणपंथी राजनीतिक दल न्यू डेमोक्रेसी के सत्ता के करीब पहुंचने मात्र से ऐसी खबरें आने लगीं कि दुनिया को राहत मिल गई। उम्मीद बनी कि अगर न्यू डेमोक्रेसी के नेता एंटोनिस समरास सरकार बनाते हैं तो वह बेलआउट पैकेज स्वीकार कर लेंगे और चल रही आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाएंगे।
आइए ग्रीस के हाल फिलहाल की राजनीतिक यात्रा पर नजर डाल लें। सेना का शासन धराशायी होने के बाद1975 में हुए जनमत संग्रह में ग्रीस के लोगों ने राजशाही को अस्वीकार कर दिया। एंड्रियास पापांद्राऊ की पानहेलेनिक सोसलिस्ट मूवमेंट (पासोक) और कारामानलिस की दक्षिणपंथी न्यू डेमोक्रेसी ने वहां की राजनीति पर कब्जा जमा लिया। ग्रीस पर करीब 4 दशक से इन्हीं दलों का शासन है। लेकिन आर्थिक संकट बढ़ने के साथ ही जन अधिकारों से सरोकार रखने वाले दलों गोल्डन डान और सिरिजा ने मतों पर अपना कब्जा बढ़ाना शुरू किया (इन दलों को क्रमशः माओवादी और ट्राटस्कियन भी कहा जाता है)।
पिछले 6 मई को हुए आम चुनाव में ग्रीस में खंडित जनादेश मिला। कोई सरकार न बनने की वजह से पिछले रविवार को फिर चुनाव कराए गए। चुनाव के पहले आशंका जताई गई कि अगर सिरिजा चुनाव जीत जाती है तो आर्थिक सुधारों को खतरा है। भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने चेताया कि ग्रीस संकट की वजह से डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर हुआ है। अगर बेलआउट समर्थक दक्षिणपंथी दल न्यू डेमोक्रेसी की जीत नहीं हुई तो इसका असर भारत पर भी पड़ेगा। इसी तरह प्रतिक्रिया जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल और फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांसुआ ओलैंड ने भी दी थी।
बहरहाल न्यू डेमोक्रेसी की जीत से वैश्विक पूंजीवादी जगत उत्साह से लबरेज है। सभी मिलकर ग्रीस की अर्थव्यवस्था बचाने को तत्पर भी हैं। ग्रीस चाहता है कि उसे बेलआउट पैकेज के बदले लादी जा रही शर्तों में कुछ ढील मिल जाए। तत्काल प्रतिक्रिया देते हुए आईएमएफ की एक प्रवक्ता कोनी लोत्ज ने कहा कि वित्तीय बेल आउट पाने वाले देशों के लिए थोड़े बहुत तालमेल अस्वाभाविक नहीं हैं। उन्होंने कहा, “यह आर्थिक कार्यक्रम स्थायी नहीं हैं।” हालांकि जर्मनी की चांसलर मार्केल ने कोई जोरदार उत्साह नहीं दिखाया है। उन्होंने कहा है, “यह बहुत ही स्पष्ट है कि पिछले समय में सुधार संबंधी किए गए समझौते सही कदम थे और उन्हें आगे भी लागू किया जाना चाहिए।”
इस राहत पैकेज के बदले लादी जा रही शर्तों पर भी गौर करना जरूरी है। इसमें सरकारी नौकरियों में तत्काल 15,000 की कटौती और 2015 तक डेढ़ लाख सरकारी नौकरियां घटाने का लक्ष्य रखा गया है। साथ ही हर कर्मचारी के वेतन में 22 प्रतिशत की कटौती के साथ 2012 तक पेंशन में 30 करोड़ यूरो की कटौती करना है। सरकारी खर्च में कटौती के साथ निजी क्षेत्र को बढ़ावा देना भी शर्त में शामिल किया गया है।
ग्रीस की संसद में कुल 300 सीटें हैं। इस चुनाव में न्यू डेमोक्रेसी को 129 सीटें मिली हैं। पार्टी का दावा है कि वह इस बार सरकार बना लेगी। वहीं पसोक को 33 सीटें मिली हैं। वामपंथी दल सिरिजा को 71 सीटें, गोल्डन डान को 18, केकेई को 12, डेमोक्रेटिक लेफ्ट को 17 व इंडिपेंडेंट ग्रीक को 20 सीटें मिली हैं। ऐसे में पूंजीवाद की चपेट में आया डूबता ग्रीस अभी भी अनिश्चितता के भंवर में है। बेलआउट पैकेज ने अगर उल्टा असर दिखाया, ज्यादा पैसे आने से महंगाई दर बढ़ी और विकास दर नीचे गई तो फिर उसे कर्ज लौटाने के संकट से जूझना होगा। ऐसे में यह कहना बहुत मुश्किल है कि ग्रीस यूरो जोन में बना रह सकेगा या नहीं। साथ ही यह भी कहना मुश्किल है कि अल्पमत की सरकार कितने दिन तक खिंचेगी और दुर्दशाग्रस्त ग्रीक कब तक दक्षिणपंथी दलों पर भरोसा कायम रख सकेंगे।

Tuesday, May 15, 2012

मायावती और शाहखर्ची


मायावती की शाहखर्ची को लेकर समय-समय पर लोगों को मिर्गी के दौरे पड़ते रहते हैं। खर्च और लोग भी करते हं, लेकिन मामला दलित का हो तो उसे पचा पाना मुश्किल होता है। कॉरपोरेट जगत की एक भव्य पार्टी पर जितना खर्च किया जाता है वह रकम मायावती के घर की साज-सज्जा से संबंधित पूरे बजट के लिए पर्याप्त होगी। कारोबारी जगत को निकट से समझने वाले सोमशेखर सुंदरेशन ने बहुत बेहतरीन ढंग से इस मामले की पड़ताल की है- सत्येन्द्र)
सोमशेखर सुंदरेशन
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहते हुए मायावती के घर पर हुए खर्च की खबरें पिछले सप्ताह सभी राष्टï्रीय अखबारों के पहले पृष्ठï पर थीं। अचानक देश के मध्य वर्ग की अंतरात्मा जाग उठी और सभी लोग व्याकुल हो उठे, खास तौर पर कॉरपोरेट क्षेत्र के कर्मचारी। वे यह बात नहीं पचा पा रहे थे कि किसी दलित की विलासितापूर्ण जीवनशैली पर सार्वजनिक धन की इस तरह बरबादी की गई।
मायावती की खर्च करने की प्रवृत्ति ने पिछले साल भी जबरदस्त सुर्खियां बटोरी थीं। विकीलिक्स ने एक देशी राजनयिक से बातचीत पर आधारित यह रोचक खबर वेबसाइट पर डाली कि किस तरह केवल मायावती के बेशकीमती जूते लाने के लिए लखनऊ से एक खाली विमान मुंबई के लिए रवाना हुआ था। पूर्व मुख्यमंत्री ने इस रिपोर्ट का खंडन किया था। फिर भी, यदि निरपेक्ष नजरिया रखें और सुनी-सुनाई बातों पर गौर न करें तो मायावती एक विशिष्टï श्रेणी की हस्तियों में शुमार होंगी, न केवल राजनीतिक दुनिया में, बल्कि कॉरपोरेट जगत में भी। जिन लोगों को राज्य का शासन चलाने के लिए चुना जाता है, उन पर ऐसे लोगों की तुलना में ज्यादा ध्यान दिया जाता है जो सूचीबद्घ कंपनियों का प्रशासन संभालने के लिए चयनित होते हैं।
केवल लोक प्रशासन राज्य का मामला नहीं होता, बल्कि शेयर बाजारों में सूचीबद्घ कंपनियों का प्रशासन भी ऐसा ही मसला होता है, जिसमें सार्वजनिक धन लगा होता है। इस तरह कॉरपोरेट प्रशासन भी समान रूप से लोक शासन का हिस्सा हुआ। यदि करदाताओं के खर्चों पर विलासितापूर्ण जीवनशैली उचित नहीं है तो सार्वजनिक शेयरधारकों और जमाकर्ताओं के खर्च पर भी ऐसी जीवनशैली को सही नहीं ठहराया जा सकता। यहां मुद्दा केवल जीवनशैली का नहीं है। बल्कि यह उन लोगों से संबंधित मसला भी है जो शानदार जीवनशैली बनाए रखने के लिए बिलों की रकम बढ़ाते जाते हैं।
इस तरह के विषय पर चर्चा आगे बढ़ाएं तो कॉरपोरेट जगत में भी मायावती जैसे उदाहरण भरे पड़े हैं। कुछ उदाहरण तो ऐसे भी मिल जाएंगे, जिनके मुकाबले मायावती बेहतर नजर आएंगी। आपने सुना होगा कि एक सूचीबद्घ कंपनी के अध्यक्ष ऐसे हैं, जिनके लिए कारखाने के नजदीक उगने वाले एक विशेष फल लाने के वास्ते कॉरपोरेट हवाई जहाज उड़ान भरता है। ऐसी कई कहानियां प्रचलित हैं जो उन कॉरपोरेट जेट विमानों से संबंधित हैं जो स्थानीय बाजारों में उपलब्ध विशेष सूखे फलों के वास्ते दूसरे देशों के लिए उड़ान भरते हैं क्योंकि प्रवर्तक की पत्नी को वह बहुत पसंद है।
आपने ऐसी सूचीबद्घ कंपनियों के बारे में भी सुना होगा, जो दर्जी से समय पर सूट मंगवाने के लिए आईआईएम में शिक्षा प्राप्त महंगे रंगरूट रखते हैं। ऐसे मामलों की भी कमी नहीं हैं, जहां अध्यक्ष के लिए वीजा और पासपोर्ट का इंतजाम करने के लिए ट्रैवल एजेंटों, दूतावासों के कर्मचारियों और पासपोर्ट अधिकारियों पर समय और धन की बेशुमार बरबादी की जाती है। यह लागत भी अंतत: सार्वजनिक शेयरधारकों को ही उठानी पड़ता है। लेकिन, वरिष्ठï कॉरपोरेट नौकरशाहों (आईएएस अधिकारियों के समकक्ष) का कहना है कि केवल वही नहीं, बल्कि दूसरे लोग भी धन की बरबादी करते हैं क्योंकि खामियां तो पूरी व्यवस्था में हैं। यह कहना आसान है और संभवत: सुविधाजनक भी, लेकिन दोनों मामलों में बारीक अंतर है। कई लोग इस राय से सहमत होंगे कि निजी क्षेत्र के होने के नाते सूचीबद्घ कंपनियां वैध तरीके से अधिकारियों पर ज्यादा खर्च कर सकती हैं। फिर भी, सार्वजनिक धन का इस्तेमाल करने का मसला हमेशा प्रशासन से जुड़ा हुआ रहेगा, चाहे बात कॉरपोरेट प्रशासन की हो या फिर राज्य शासन की।
यह कहना समान रूप से उचित है कि उच्च और निम्न वर्गों के बीच संघर्ष चलता रहता है। लेकिन, इसके साथ-साथ यह भी उतना ही सही है कि भारत निश्चित रूप से इस मामले में काफी पिछड़ा हुआ है। अधिकारों को लागू करने के मामले में 183 देशों की फेहरिस्त में हम 182वें पायदान पर हैं। यह सूची विश्व बैंक और अंतरराष्टï्रीय वित्त निगम ने संयुक्त रूप से प्रकाशित की है। यदि क्षतिपूर्ति से संबंधि किसी मुकदमे की पहली सुनवाई में 20 वर्षों का लंबा समय लग जाता है तो ऐसे में हैरानी नहीं होनी चाहिए कि किसी सूचीबद्घ कंपनी द्वारा फिल्मी सितारों और राजनीतिक हस्तियों के निजी दौरों के लिए कॉरपोरेट जेट का इंतजाम करने में होने वाले खर्च पर सवाल उठाने में कोई सक्षम नहीं होगा।
बहरहाल मूल मसले पर आते हैं। दिलचस्प है कि कॉरपोरेट जगत की एक भव्य पार्टी पर जितना खर्च किया जाता है वह रकम मायावती के घर की साज-सज्जा से संबंधित पूरे बजट के लिए पर्याप्त होगी। वरिष्ठï कॉरपोरेट हस्तियों का जन्मदिन मनाने के लिए ऐसी ही भव्य दावतें दी जाती हैं। वरिष्ठï मीडिया पेशेवर इस तरह की दावतों को बड़ी बेपरवाही से कवर करते हैं, जबकि मायावती की ओर से दी जाने वाली पार्टियों की रिपोर्टिंग बारीकी से की जाती है। इसी तरह मीडिया में कंपनियों के मुख्य कार्याधिकारियों के वेतन-भत्तों और विनम्रता का बखान करते समय एक तरह का संतुलन रखा जाता है, लेकिन मायावती जैसी हस्तियों के मामले में इसकी कमी देखी जाती है।
यह मायावती की अनुचित शैली का बचाव करने की कोशिश नहीं है, बल्कि केवल यह याद दिलाने के लिए है कि पत्थर वही फेंक सकता है जिसने पाप न किए हों।
लेखक जेएसए, एडवोकेट्स ऐंड सॉलिसिटर्स के पार्टनर हैं और यह उनकी निजी राय है

Monday, May 14, 2012

कंपनियां यूं कराती हैं खबरों का प्रबंधन!

अभी तक सुनते थे कि आदिवासी ही बहुराष्ट्रीय कंपनियोंं की साजिश का शिकार हो रहे हैं, लेकिन किसान भी इनकी जद में हैं। जिस समय बीटी काटन पर बहस चल रही थी, देश के एक अग्रणी अंग्रेजी अखबार ने 2008 में किसानों के बीटी काटन से मालामाल होने की खबर छापी। पूरे पेज की उस खबर को 2011 में उस समय विज्ञापन के रूप में दिया गया, जब बीज विधेयक संसद में पेश नहीं हो सका। जाने माने पत्रकार पी साईनाथ ने इस खबर और विज्ञापन की खबर ली। झूठे आंकड़ों की कहानी लेकर आए और साजिशों का पर्दाफाश किया। पेश है खबर...
पी साईनाथ
करीब साढ़े तीन साल पहले जीन संवर्धित (जेनेटिकली मोडीफॉयड) बीजों के इस्तेमाल पर तगड़ी बहस छिड़ी हुई थी। यह मसला भारत के कोने-कोने में चर्चा में था। ठीक उसी समय एक समाचार ने इस तकनीक की सफलता के चमकदार असर पर खबर पेश की। टाइम्स ऑफ इंडिया ने 31 अक्टूबर 2008 के अंक में लिखा... "यहां पर आत्महत्या की कोई घटना नहीं हुई है। खेती बाड़ी से लोग अमीर हो रहे हैं। कपास के परंपरागत बीजों को छोड़कर बोलगार्ड या बीटी कॉटन अपनाने से पिछले 3-4 साल के दौरान यहां के गांवों (भांबराजा और अंटारागांव) में सामाजिक और आर्थिक क्रांति आई है।"
इसमें एक दिलचस्प पहलू और है। यही किस्सा इसी अखबार में अभी 9 महीने पहले शब्दशः एक बार फिर छपा। (28 अगस्त, 2011)। यह भी नहीं ध्यान रखा गया कि हो सकता है कि अब किसान कुछ अलग कहानी बयान कर रहे हों।
इस साल मार्च महीने में कृषि पर बनी संसद की स्थायी समिति ने इलाके का दौरा किया। भांबराजा गांव के गुस्साए किसानों की भीड़ में से आई आवाज ने समिति के सदस्यों को चौंका दिया। “हमारे गांव में आत्महत्या की 14 घटनाएं हुई हैं।” “इसमें ज्यादातर आत्महत्याएं बीटी के आने के बाद हुईं।” द हिंदू ने 2003 से 2009 के बीच आत्महत्या की 9 घटनाओं की पुष्टि की। यहां के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने 5 औऱ घटनाएं गिनाईं। यह सभी घटनाएं 2002 के बाद की हैं, जब लोगों ने बीटी कॉटन को अपनाया था. उसके बाद टाइम्स आफ इंडिया ने किसानों के संपन्नता की कहानी लिखी थी। गांव वालों ने हतप्रभ सांसदों से कहा, “महोदय, ढेर सारी जमीनें खाली पड़ी हैं। तमाम लोगों का किसानी से भरोसा उठ गया है।” कुछ लोगों ने तो सोयाबीन की खेती अपना ली है, “कम से कम उसमें नुकसान की संभावना इतनी ज्यादा नहीं रहती”।
म्हाइको-मॉनसेंटो बायोटेक के बीटी कॉटन की खेती के “आदर्श गांव” से सैकड़ों किसान विस्थापित हो चुके हैं, जिसमें ज्यादा जमीन वाले किसान भी शामिल हैं। पिछले साल सितंबर महीने में हमारी पहली यात्रा के दौरान भांबराजा गांव के रामदास भोंड्रे ने भविष्यवाणी की थी, “अभी और ज्यादा लोग गांव छोड़ेंगे, क्योंकि किसानी मर रही है।”
मोनसेंटो के बीटी कॉटन का स्तुतिगान 2008 में उस समय पूरे पृष्ठ पर आया था. सरकार अगस्त 2011 में बॉयोटेक रेगुलेटरी अथॉरिटी आफ इंडिया (बीआऱएआई) विधेयक संसद में पेश करने में सफल नहीं हुई थी। विधेयक पेश न किए जा सकने की घटना महत्त्वपूर्ण थी, क्योंकि इससे कृषि बायोटेक उद्योग को भविष्य में मिलने वाला मुनाफा प्रभावित हुआ था। उसके बाद ही इसके लिए गोलबंदी शुरू हो गई। 28 अगस्त 2011 को पूरे पेज की कहानी “ Reaping Gold through Bt Cotton” टाइम्स आफ इंडिया में आई। उसके बाद कंपनी की ओर से अखबारों में विज्ञापन आने लगे। ऐसा ही लगातार 29, 30, 31 अगस्त और 1 व 3 सितंबर को हुआ। बहरहाल यह विधेयक संसद में पेश नहीं हो सका। न तो मॉनसून सत्र में न ही शीतकालीन सत्र में, जबकि दोनों सत्रों में इसे सूची में रखा गया था। अन्य मसलों पर संसद में हंगामा होता रहा। कुछ लोगों ने इसके बदले मुनाफा कमाया, बीटी कॉटन के माध्यम से नहीं तो अखबारी कागज के माध्यम से।
कृषि पर बनी संसद की स्थायी समिति पर इन विज्ञापनों का कोई असर नहीं हुआ। समिति ने पहले भी जीन संवर्धित फसलों को अनुमति दिए जाने के मसले को देखा था। किसानों की आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं की खबरों और विदर्भ के तनाव से परेशान समिति के सदस्यों ने इस इलाके का दौरा करने का मन बनाया। समिति में विभिन्न दलों के सदस्य शामिल थे।
भांबराजा गांव ने निश्चित रूप से इस समिति के अध्यक्ष और दिग्गज सांसद बासुदेव आचार्य का ध्यान खींचा था। आखिर ध्यान आकर्षित भी क्यों न करता, यह गांव तो म्हाइको मॉनसेंटो के करिश्मे से मालामाल हुआ गांव था! अन्य गांव मारेगांव-सोनेबर्डी था। लेकिन सांसदों को तब झटका लगा, जब इसमें से किसी गांव के लोग मालामाल नहीं नजर आए। करिश्मे का आभामंडल टूट चुका था। यहां के लोगों में फैली निराशा और तनाव सरकार की असफलता की कहानी बयां कर रहे थे।
यह मसला (और जैसा कि टाइम्स आफ इंडिया अपनी खबरों में दावा भी करता है) एक बार फिर जिंदा हुआ है, क्योंकि 2012 में बीटी कॉटन को 10 साल होने जा रहे हैं। पिछले साल 28 अगस्त को “Reaping Gold through Bt Cotton” नाम से आई कहानी को “ए कंज्यूमर कनेक्ट इनीशिएटिव” के रूप में पेश किया गया। अगर दूसरे शब्दों में कहें तो यह विज्ञापन था। पूरे पेज की इस खबर में पेशेवर पत्रकारों के नाम से खबरें और टाइम्स आफ इंडिया के फोटो थे। सबसे विरोधाभासी यह है कि जो खबर विज्ञापन में बदल चुकी थी, वह शब्दश टाइम्स आफ इंडिया के नागपुर संस्करण में 31 अक्टूबर 2008 को छप चुकी थी। आलोचकों ने इस दोहराव को हास्यास्पद बताया था। 28 अगस्त 2011 को छपी खबर इसी खबर के फिर से छप जाने के दोहराव जैसा लगा। लेकिन इसमें खास अंतर था। 2008 में छपी खबर को विज्ञापन के रूप में नहीं दिखाया गया था। दोनों संस्करणों में छपी खबर में एक समानता भी ध्यान देने योग्य है। उनमें लिखा गया था, “यवतमाल दौरे की व्यवस्था म्हाइको मोनसेंटो बायोटेक ने की थी।”
कंपनी ने 2008 में छपे फीचर को पूरे पेज के न्यूज रिपोर्ट के रूप में पेश किया, जिसे टाइम्स आफ इंडिया ने किया था. पिछले सप्ताह म्हाइको मोनसेंटो बायोटेक इंडिया के प्रवक्ता ने द हिंदू से बातचीत में कहा, “2008 का कवरेज मीडिया के दौरे का परिणाम था, जिसे संपादकीय विवेक के साथ लिखा गया था। हमने सिर्फ आने जाने की व्यवस्था की थी।” “2011 में जो रिपोर्ट छपी, वह 2008 की रिपोर्ट ही थी, जिसमें कोई संपादन नहीं किया गया और इसे मार्केटिंग फीचर के रूप में छापा गया।” 2008 में “पूरे पेज की न्यूज रिपोर्ट” नागपुर संस्करण में आई थी। 2011 का “मार्केटिंग फीचर”, िजसे आप स्पेशल रिपोर्ट के हिस्से में क्लिक करके देख सकते हैं, कई संस्कऱणों में दिखा। लेकिन यह नागपुर में नहीं छपा, जिसके चलते निश्चित रूप से विस्मय पैदा होता है।
इस तरह से एक पूरा पेज तीन साल के भीतर दो बार दिखा। पहली बार खबर के रूप में और दूसरी बार विज्ञापन के रूप में। पहली बार इसे समाचार पत्र के स्टाफ रिपोर्टर और फोटोग्राफर के माध्यम से पेश किया गया। दूसरी बार विज्ञापन विभाग ने इसे पेश किया। पहली बार इस खबर के लिए यात्रा की व्यवस्था म्हाइको मोनसेंटो ने की। दूसरी बार म्हाइको मोनसेंटो ने इसके लिए विज्ञापन की व्यवस्था की। पहली बार यह हादसे के रूप में सामने आया और दूसरी बार एक तमाशे के रूप में।
कंपनी के प्रवक्ता इस मामले में उच्च स्तर के पारदर्शिता का दावा करते हैं। हमने कहा कि यह प्रकाशन 31 अक्टूबर 2008 में छपी खबर का रीप्रिंट है है। लेकिन प्रवक्ता ने ई मेल से भेजे गए अपने जवाब में इस विज्ञापन के समय के बारे में द हिंदू के सवालों पर चुप्पी साध ली। कंपनी ने कहा, “2011 हमने बीटी बीज को लेकर जन जागरूकता अभियान चलाया था, जो सीमित अवधि के लिए था। इसका उद्देश्य था कि लोगों को कृषि के क्षेत्र में बायोटेक्नोलाजी के महत्त्व की जानकारी मिल सके।” द हिंदू ने यह सवाल पूछा था कि जब संसद में बीआरएआई विधेयक पेश होना था, उसी समय यह अभियान क्यों चलाया गया, लेकिन इसका कोई जवाब नहीं मिला।
लेकिन मामला इससे भी आगे का है। गांव के लोगों का कहना है कि बीटी के जादू पर लिखी गई टाइम्स आफ इंडिया की खबर में भांबराजा या अंतरगांव की जो फोटो लगी थी, वह उस गांव की थी ही नहीं। गांव के किसान बबनराव गवांडे कहते हैं, “ इस फोटो में लोगों को देखकर यह लगता है कि फोटो भांबराजा की नहीं है। ”
काल्पनिक करिश्मा
टाइम्स आफ इंडिया की खबर में एक चैंपियन शिक्षित किसान नंदू राउत को पात्र बनाया गया है, जो एलआईसी एजेंट भी है। इसकी कमाई बीटी के करिश्मे की वजह से बढ़ी बताई गई है। पिछले साल सितंबर महीने में नंदू राउत ने मुझसे कहा था, “मैंने इसके पहले साल करीब 2 लाख रुपये कमाए थे।” उसने कहा, “इसमें से करीब 1.6 लाख रुपये पॉलिसी की बिक्री से आए थे।” संक्षेप में कहें तो उसने एलआईसी पॉलिसी के माध्यम से खेती से हुई कमाई की तुलना में करीब 4 गुना ज्यादा कमाया। नंदू के पास साढ़े सात एकड़ जमीन है और उसके परिवार में 4 सदस्य हैं।
लेकिन टाइम्स आफ इंडिया की खबर में कहा गया है कीटनाशकों के खर्च बच जाने की वजह से उसे प्रति एकड़ 20,000 रुपये अतिरिक्त कमाई हुई। वह 4 एकड़ में खेती करता है, इस तरह से उसे 80,000 रुपये का अतिरिक्त मुनाफा हुआ।
इससे अलग भांबराजा गांव के किसान गुस्से से कहते हैं, “हमें एक किसान दिखा दो, जिसका प्रति एकड़ कुल मुनाफा भी 20,000 रुपये हो।” पूरे गांव में किए गए सर्वे, जिस पर राउत ने भी हस्ताक्षर किए हैं, उनकी कमाई की अलग कहानी कहता है। सर्वे की यह प्रति द हिंदू के पास भी है।
भांबराजा और मारेगांव के किसानों को बीटी के करिश्मे से हुए फायदे की कहानी को केंद्रीय कृषि मंत्रालय के आंकड़े भी झुठलाते हैं। 19 दिसंबर 2011 को शरद पवार ने संसद में कहा, “विदर्भ में करीब 1.2 क्विंटल प्रति हेक्टेयर काटन लिंट का उत्पादन होता है।” इतने कम उत्पादन का आंकड़ा चौंकाने वाला है। इस आंकड़े का दोगुना भी कम होगा। किसान अपनी फसल को कच्चे कपास के रूप में बेचते हैं। 100 किलो कच्ची कपास में 35 किलो लिंट निकलती है और 65 किलो कपास बीज होता है। पवार के दिए गए आंकड़े कहते हैं कि 3.5 क्विंटल कच्चे कपास का उत्पादन प्रति हेक्टेयर होता है। पवार का कहना है कि किसानों को अधिकतम 4,200 रुपये प्रति क्विंटल मिल रहे हैं। इस तरह से वह मानते हैं कि किसानों को करीब उतना ही मिल रहा है, जितना कि उनका उत्पादन लागत होता है, जिसकी वजह से ऐसी गंभीर समस्या पैदा हुई है। अगर पवार के आंक़डे सही हैं तो नंदू रावत की कमाई 5,900 रुपये प्रति एकड़ से ज्यादा नहीं हो सकती। अगर इसमें से 1.5 पैकेट बीज के करीब 1,400 रुपये व अन्य उत्पादन लागत निकाल दें तो उसके पास करीब कुछ भी नहीं बचता। जबकि टाइम्स आफ इंडिया के मुताबिक इसकी कमाई 20,000 रुपये प्रति एकड़ से ज्यादा है।
कमाई के इस असाधारण दावे के बारे में पूछे जाने पर म्हाइको मोनसेंटो के प्रवक्ता ने कहा, “हम एमएमबी इंडिया के सहकर्मियों के बयानों के साथ हैं, जैसा कि खबर में प्रकाशित किया गया है।”
दिलचस्प है कि पूरे पेज की इस खबर में एक पैराग्राफ का एक बयान है, जिसमें 20,000 रुपये प्रति एकड़ से ज्यादा कमाई या किसी अन्य आंकड़े का कोई जिक्र नहीं है। इसमें महज इतना कहा गया है कि बीटी की वजह से कपास की खेती करने वाले उत्पादकों की आमदनी बढ़ी है और बीटी का रकबा भी बढ़ा है। इसमें प्रति एकड़ पैदावार के बारे में नहीं बताया गया है। इसमें दो गांवों में किसी के भी आत्महत्या न करने के बारे में भी कुछ नहीं कहा गया है। इस तरह से कंपनी बड़ी सावधानी से टाइम्स आफ इंडिया के दावों से खुद को अलग करती है, लेकिन इसका इस्तेमाल बड़ी चालाकी से मार्केटिंग फीचर के रूप में करती है।
इन दावों के बारे में एमएमबी के प्रवक्ता का कहना है, “यह जानकारी पत्रकारों ने किसानों से सीधे बातचीत और किसानों के व्यक्तिगत अनुभवों से जुटाई है। पत्रकार गांव में गए थे, उन्होंने किसानों से बातचीत करके रिपोर्ट तैयार की औऱ उसमें किसानों के बयान भी दिए।”
खबर के बाद विज्ञापन बन चुके एक पेज के दावों के मुताबिक नंदू रावत की बोलगार्ड-2 की प्रति एक़ड़ उत्पादकता 20 क्विंटल होनी चाहिए, जो कृषि मंत्री शरद पवार के बताए 1.4 क्विंटल औसत की तुलना में 14 गुना ज्यादा है.
पवार का मानना है कि विदर्भ इलाके में बारिश के पानी पर निर्भरता की वजह से पैदावार कम होती है, क्योंकि कपास की दो से तीन बार सिंचाई की जरूरत होती है। हालांकि वह इस सवाल पर खामोश हो जाते हैं कि महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी व कांग्रेस की सरकार है, ऐसे में एक सूखे इलाके में बीटी काटन को क्यों बढ़ावा दिया जा रहा है। अगर हम टाइम्स आफ इंडिया की मानें तो नंदू नकदी की ढेर पर बैठा है, लेकिन कृषि मंत्री की बात पर यकीन करें तो वह मुश्किल से अपनी जान बचा रहा है।
म्हाइको मोनसेंटो बायोटेक के 2011 के ठीक इसी सप्ताह में दिल्ली के एक अखबार में छपे विज्ञापन पर विवाद हुआ था। एक विज्ञापन पर एडवर्टाइजिंग स्टैंडर्ड काउंसिल आफ इंडिया (एएससीआई) के पास शिकायत पहुंची, जिसमें भारतीय किसानों को भारी मुनाफे का दावा किया गया था। एएससीआई ने पाया कि विज्ञापन में किए गए दावे पुष्ट नहीं हैं। एमएमबी के प्रवक्ता ने कहा कि कंपनी ने एएससीआई की ओर से उठाए गए मसलों को संज्ञान में लिया और उसके मुताबिक विज्ञापन में बदलाव किया गया।
हम स्थायी समिति के सांसदों के साथ जब मार्च में गांव के दौरे से लौट रहे थे तो एक बार फिर नंदू से मिले। उसने कहा, “आज की तारीख में फिलहाल मैं यही सलाह दूंगा कि यहां बीटी काटन का इस्तेमाल न करें, क्योंकि यह असिंचित इलाका है। अब हालात बहुत खराब हो गए हैं।” उसने सांसदों के साथ बैठक में एक भी सवाल नहीं उठाए और हा कि वह इतनी देर से आए हैं कि कुछ कर नहीं सकते।
टाइम्स आफ इंडिया की एक खबर में एक किसान मंगू चव्हाण अपने बयान में कहता है, “हम अब महाजनों के चंगुल से दूर हैं। अब किसी को उनकी जरूरत नहीं होती।” यह अंतरगांव के किसान का बयान है, जहां बीटी काटन के चलते लोगों की अमीरी दिखाई गई है। लेकिन भांबराजा के 365 किसान परिवारों और अंतरगांव के 150 परिवारों पर किए गए अध्ययन के आंकड़े कुछ और ही बयां करते हैं। यह अध्ययन विदर्भ जन आंदोलन समिति ने किए हैं। समिति के प्रमुख किशोर तिवारी कहते हैं, “बैंक खाते रखने वाले ज्यादातर किसान डिफाल्टर हो चुके हैं औऱ 60 प्रतिशत किसान साहूकारों के कर्ज तले दबे हैं।”
महाराष्ट्र सरकार ने पूरी कोशिश की कि सांसदों को “आदर्श गांव” भांबराजा और मारेगांव न जाने दिया जाए। बहरहाल, समिति के अध्यक्ष बासुदेव आचार्य और उनके सहयोगी वहां जाने को तत्पर थे। सांसदों के दौरे से प्रोत्साहित गांव वाले खुलकर बोले। महाराष्ट्र में 1995 से 2010 के बीच 50,000 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक यह सबसे खराब स्थिति है। विदर्भ में लंबे समय से इस तरह की मौतें हो रही हैं। अब किसान भी नीतिगत मसलों पर आवाज उठाने लगे हैं, जिसकी वजह से गांवों में तनाव बढ़ा है।
किसी भी किसान ने यह नहीं कहा कि आत्महत्या की घटनाओं या संकट की वजह केवल बीटी काटन है। लेकिन गांववाले इसके करिश्मे के तमाम दावों की हवा निकालते हैं। उनकी कुछ प्रतिक्रियाएं तो सांसदों के लिए खबर की तरह आईं, न कि भुगतान की गई खबर या मार्केटिंग फीचर के रूप में।