अपने ही नागरियों के एक तबके के प्रति सरकार का यह रुख काफी खतरनाक है। विकास के नाम पर सरकार यह कर रही है। दिलचस्प है कि सरकार के इस फैसले से सिर्फ और सिर्फ उन आदिवासियों पर असर पड़ने जा रहा है जो इस समय वन्य क्षेत्रों में रहते हैं। स्वतंत्रता के बाद किसान जो जमीन जोतता था, वह उसके नाम कर दी गई। उसे उस जमीन को बेचने, खरीदने का हक मिल गया। वह राजा, अंग्रेज सरकार या जमींदार को लगान देने की बजाय अपनी चुनी सरकार को लगान देने लगा। वहीं स्वतंत्रता के बाद भी वन क्षेत्र में रहने वाले लोगों के नाम वे वन नहीं किए गए। अंग्रेजों ने उन्हें कुछ हक दिए थे कि वन से जब उन्हें हटाया जाए तो उनसे सहमति ली जाए। तमाम वन कानून उन्हें त्रस्त करते रहते हैं और प्रशासन उन्हें वनोत्पाद लेने से भी रोकते हैं। अब सरकार की मंशा कहीं और ज्यादा खतरनाक हो रही है।
सबकी अपनी अपनी सोच है, विचारों के इन्हीं प्रवाह में जीवन चलता रहता है ... अविरल धारा की तरह...
Friday, April 10, 2015
जमीन की लूट में हाशिये पर आदिवासी
सत्येन्द्र
केंद्र सरकार ने भूमि अधिग्रहण विधेयक पेश किया है। इसे वह किसान हितैषी भी बता रही है। इस पर विपक्ष राजी नहीं है। उसका कहना है कि विधेयक किसान विरोधी है। दिलचस्प है कि हाशिये पर रहे आदिवासियों की चर्चा कहीं नहीं हो रही है। न तो सरकार इन आदिवासियों की बात कर रही है और न ही विपक्ष। वहीं असल लड़ाई आदिवासियों की है, जिनसे जमीन लेकर खनन किया जाना है। कोयला, लौह अयस्क व अन्य प्राकृतिक खनिजों के लिए आदिवासी क्षेत्रों की जमीनों की जरूरत सरकार व उद्योग जगत को है।
दरअसल असली लड़ाई आदिवासियों की जमीन छीनने को लेकर ही है। खेती वाली भूमि के अधिग्रहण की जरूरत कम है। जहां अधिग्रहण होता भी है, शहरी इलाकों के नजदीक के किसानों को मुआवजा दे दिया जाता है। लेकिन इस अधिनियम में आदिवासियों की स्थिति क्या है, यह सवाल बहुत महत्त्वपूर्ण है। खासकर ऐसी स्थिति में सवाल और भी महत्त्वपूर्ण है, जब छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड से लेकर देश का एक बड़ा हिस्सा कथित लाल गलियारे में तब्दील हो चुका है। कथित नक्सलियों और भारत सरकार के सैन्य बलों के बीच खूनी संघर्ष हो रहे हैं।
खुद को किसान हितैषी बताने वाली केंद्र सरकार ने विश्वबैंक से कहा है कि वह बैंक द्वारा वित्त पोषित परियोजनाओं से विस्थापित होने वाले आदिवासियों से पूर्व सहमति लेने, उन्हें स्वतंत्र रूप से राय देने और परियोजना के बारे में उनको पूरी जानकारी दिए जाने संबंधी अनिवार्यता को लेकर 'सहज' नहीं है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार की ओर से बैंक को दी गई यह प्रस्तुतीकरण ऐसे समय में आई है, जब सरकार आदिवासियों के परंपरागत वन क्षेत्र को उद्योगों को सौंपे जाने को लेकर आदिवासियों से सहमति लिए जाने की जरूरत खत्म करने पर काम कर रही है।
इसके पीछे राजग सरकार ने विश्व बैंक के सामने तर्क दिया है कि भारत के घरेलू कानून और नियम हैं, जो आदिवासियों के हितों की रक्षा करते हैं, जिसमें 'कुछ मामलों में' सहमति लेने का अधिकार भी शामिल है। साथ ही बैंक अपनी शर्तें रखने के बजाय घरेलू कानून पर भी गौर कर सकता है। लेकिन अगर घरेलू स्थिति देखें तो राजग सरकार तमाम कार्यकारी आदेश पारित कर रही है, जिससे ज्यादातर मामलों में आदिवासियों को अपनी वनभूमि की रक्षा करने के लिए वीटो पावर से वंचित होना पड़ेगा। वर्तमान में वन अधिकार अधिनियम के तहत जब उद्योगों को या विकास परियोजनाओं के लिए आदिवासियों की परंपरागत वन भूमि लेनी होती है तो सरकार को ग्राम सभाओं से अनुमति लेनी होती है। जून 2014 से सरकार इन प्रावधानों को नरम करने पर काम कर रही है। हालांकि आदिवासी मामलों का मंत्रालय इसका पुरजोर विरोध कर रहा है।
सरकार ने जो मौजूदा भूमि अध्यादेश पेश किया है उसमें आदिवासियों की गैर वन्य भूमि के मामले में सहमति की जरूरत सिर्फ खंड 5 और 6 क्षेत्रों तक सीमित है और इसका विस्तार देश के सभी आदिवासी भूमि तक नहीं है। सरकार यह बदलाव इन दावों के साथ कर रही है कि अंग्रेजों का बनाया गया कानून शोषण युक्त है। वह बूढ़ा हो चुका है। उसमें बदलाव की जरूरत है, जिससे भारत विकास के पथ पर चल सके। आखिर इन तर्कों की हकीकत क्या है, जिन्हें तथ्यों के आधार पर परखना होगा। आदिवासियों ने जमीन पर कब्जे को लेकर अंग्रेजों से मोर्चा लिया है। यूं कहें कि आम राजे महराजों की सरकारें तो अंग्रेजों से अपना राजपाठ गंवाती गईं, लेकिन आदिवासियों ने कुछ इस कदर मोर्चा संभाला कि अंग्रेज हुकूमत को वन क्षेत्र और भारत के खनिज संसाधन करीब करीब छोड़ने पड़े। उन्हें आदिवासी विद्रोहियों से जगह जगह समझौते करने पड़े। उनकी सहमति के बगैर वन्य क्षेत्र में प्रवेश कानूनन निषेध हो गया। उस समय जब बंगाल विधान परिषद में चर्चा हुई, उसमें न केवल आदिवासियों, बल्कि किसानों के हितों की भी व्यापक चर्चा हुई, जिसके बाद 1894 का भूमि कानून आया था। उस कानून की मजबूती ही कहेंगे कि स्वतंत्रता के बाद भी उस कानून में बहुत मामूली फेरबदल किए जा सके, वर्ना कानून की स्थिति यथावत है।
केंद्र सरकार भूमि अधिग्रहण विधेयक पर अड़ी है। कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार भी आदिवासी इलाकों में जमीन अधिग्रहण को लेकर अड़ी थी। लाल गलियारे की तमाम परियोजनाएं ठहर सी गईं। सरकार के लिए उन क्षेत्रों में घुसना मुश्किल हो गया। लेकिन मौजूदा सरकार इस कदर विधेयक को लेकर प्रतिबद्ध है कि उसे संविधान की धज्जियां उड़ाने में भी कोई गुरेज नहीं है। संविधान में प्रावधान है कि संसद के दोनों सदन चल रहे हों, उस समय अध्यादेश नहीं लाया जा सकता। 5 अप्रैल को भूमि अध्यादेश की अवधि खत्म हो रही थी, और राज्यसभा में विधेयक पारित नहीं हुआ था। संसद के दोनों सदन भी चल रहे थे। ऐसे में सरकार अध्यादेश नहीं ला सकती थी। इस बाधा को हटाने के लिए सरकार ने राज्यसभा का सत्रावसान कर दिया, जिससे फिर से अध्यादेश लाया जा सके। यह खुले तौर पर संविधान की धज्जियां उड़ाने जैसा है, क्योंकि संविधान की मंशा यह थी कि अध्यादेश केवल आपात स्थिति में लाया जाए, अन्यथा संसद में चर्चा के बाद ही कानून बनाया जाना चाहिए।
आखिरकार केंद्र सरकार अध्यादेश ले आई। यह समझना मुश्किल है कि अध्यादेश क्यों लाया गया है। इसमें वह 6 बदलाव भी शामिल किए गए हैं, जो केंद्र सरकार ने लोकसभा में भूमि अधिग्रहण विधेयक पेश करते समय किए थे। इसमें आदिवासियों का कोई जिक्र नहीं है। कुछ लुभावने मसलों पर रंगरोगन कर दिया गया है, जिन पर विपक्षी दल सरकार को घेर रहे थे।
सरकार का एक तर्क यह भी है कि भूमि अधिग्रहण न हो पाने के कारण तमाम बुनियादी ढांचा परियोजनाएं ठप पड़ी हैं, क्योंकि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के जनवरी 2014 में लाए गए भूमि अधिग्रहण कानून के चलते अधिग्रहण में दिक्कतें हो रही हैं। हालांकि उद्योग जगत के सर्वे की ही बात करें तो स्थिति कुछ और ही बयान कर रही है। आंकड़े बताते हैं कि भूमि अधिग्रहण न होने की वजह से बहुत मामूली परियोजनाएं फंसी हैं, जबकि ज्यादातर परियोजनाएं भूमि अधिग्रहण से इतर दिक्कतों, जैसे पर्यावरण की मंजूरी न मिलने, वैश्विक मंदी के चलते धन न मिलने आदि जैसी वजहों से फंसी हैं।
भारत सरकार खुद तो आदिवासियों के अधिकार छीनने पर तुली ही है, विदेश से उद्योग को मिलने वाली फंडिंग के मामले में भी वह आदिवासियों की उपेक्षा करने को तैयार है। वह विश्व बैंक की शर्तों में भी फेरबदल चाहती है। एमनेस्टी इंडिया की बिजनेस और मानवाधिकार शोधकर्ता अरुणा चंद्रशेखर कहती हैं, 'इससे यह पता चलता है कि सरकार अपने नागरिकोंं की बात सुनने को भी इच्छुक नहीं है। यह चिंता का विषय है कि सरकार फैसले से आदिवासियों की जमीन और उनके संसाधनों पर असर पड़ रहा है और ऐसे मामले में सरकार उनसे सहमति नहीं लेना चाहती।'
Monday, March 9, 2015
सामाजिक न्याय की मछलियां
(बदलते राजनीतिक माहौल और भाजपा के सत्ता में आने के बाद सभी प्रमुख दलों के कोमा में पहुंच जाने के बाद दिलीप मंडल का यह लेख एक नई दिशा देता है। इसमें सेक्युलरिज्म और सामाजिक न्याय की ताकत की व्याख्या की गई है। जनसत्ता में प्रकाशित लेख)
दिलीप मंडल
मछलियां पानी में होती हैं, तो वे जिंदा रहती हैं और उनमें काफी ताकत होती है। लेकिन वही मछलियां जब पानी के बाहर होती हैं तो छटपटा कर दम तोड़ देती हैं। ‘जनता परिवार’ की कुछ पार्टियों ने हाल में एका की जो कवायद की है, उसमें सेक्युलरवाद को मूल विचार के तौर पर पेश किया जा रहा है। यह इन पार्टियों का पानी से बाहर आना या पानी से बाहर बने रहना है। सेक्युलरिज्म का खोखला नारा इन पार्टियों के लिए मारक साबित हो सकता है।
सेक्युलरिज्म इन पार्टियों का केंद्रीय विचार नहीं है। ये पार्टियां या तो सामाजिक न्याय के अपने केंद्रीय विचार को भूल चुकी हैं, या फिर अपने पुराने स्वरूप में लौट पाना इनके लिए असहज हो गया है। ये पार्टियां सेक्युलरिज्म के नाम पर एकजुट होने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन वे भूल रही हैं कि सेक्युलरिज्म के मैदान में भाजपा उन्हें और कांग्रेस और माकपा जैसे दलों को लगातार पटक रही है। भाजपा ने सेक्युलरिज्म का राजनीतिक अनुवाद ‘मुसलिम तुष्टीकरण’ के रूप में किया है और इस अनुवाद को हिंदू मतदाताओं ने खारिज नहीं किया है। अगर भाजपा के हिंदू बहुसंख्यकवाद से अन्य पार्टियों का अल्पसंख्यक सेक्युलरवाद टकराएगा, तो इस मुकाबले में जीतने वाले का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
सेक्युलरिज्म को दरअसल कभी राजनीतिक नारा होना ही नहीं चाहिए था। यूरोपीय सामाजिक लोकतंत्र की शब्दावली से आए इस शब्द का भारत आते-आते अर्थ भी बदल चुका है। बल्कि अर्थ का अनर्थ हो चुका है। यह शब्द यूरोप में चर्च और राजकाज की शक्तियों के संघर्ष के दौरान चलन में आया था। इसका अर्थ है कि राजकाज में धर्म (यूरोपीय अर्थ में चर्च) का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। चर्च और राजनीति के संघर्ष में आखिरकार राजनीति की जीत हुई और चर्च ने अपने कदम पीछे खींच लिए। चर्च की दादागीरी के खिलाफ आधुनिक शासन व्यवस्था की ऐतिहासिक जीत के बाद से ही सेक्युलरिज्म शब्द दुनिया भर में लोकप्रिय हुआ।
लेकिन भारत का सेक्युलरवाद राजकाज और धर्म का अलग होना नहीं है। भारत में इस शब्द का अनुवाद सर्वधर्म-समभाव की शक्ल में हुआ। यानी राज्य या शासन हर धर्म को बराबर नजर से देखेगा और बराबर महत्त्व देगा। लगभग अस्सी फीसद हिंदू आबादी वाले देश में सर्वधर्म-समभाव के नारे का हिंदू वर्चस्व में तब्दील हो जाना स्वाभाविक ही था। आजादी के बाद कांग्रेस के शासन में भी हिंदू प्रतीकों और मान्यताओं को राजकाज में मान्यता मिली। सरकारी कामकाज की शुरुआत और उद्घाटन से लेकर लोकार्पण तक में नारियल फोड़ने, सरस्वती वंदना करने, राष्ट्रपतियों के द्वारा मंदिरों को दान देने से लेकर सरकार द्वारा मंदिरों के पुनरुद्धार कराने तक की पूरी शृंखला है, जो यह बताती है कि राजकाज में हिंदुत्व के हस्तक्षेप की शुरुआत भाजपा ने नहीं की है। यहां तक कि माकपा ने भी पश्चिम बंगाल में अपने तीन दशक से अधिक लंबे शासन में बेहद हिंदू तरीके से राजकाज चलाया और दुर्गापूजा समितियों में कम्युनिस्ट हिस्सेदारी के माध्यम से सांस्कृतिक हस्तक्षेप किया।
हिंदू तुष्टीकरण की शक्ल में भारतीय सेक्युलरवाद का जो प्रयोग कांग्रेस ने लंबे समय तक किया, उसी को भाजपा आगे बढ़ा रही है। भाजपा की शब्दावली में अपेक्षया तीखापन जरूर है, लेकिन इसे भारतीय सेक्युलरवाद का ही थोड़ा चटक रंग माना जा सकता है। कांग्रेस हिंदू वर्चस्ववाद पर अमल कर रही थी और भाजपा भी प्रकारांतर से इसी काम को कर रही है। सेक्युलर हिंदू वर्चस्ववाद के प्रयोग के ये दो मॉडल हैं। इसमें से कांग्रेसी मॉडल की खासियत यह है कि उसने जो शब्दावली और नारे गढ़े हैं, वे मुसलमानों को आहत नहीं करते और इस वजह से उसे मुसलमानों का समर्थन मिलता रहा। हिंदू तुष्टीकरण के साथ कांग्रेस मुसलमानों को दंगों का भय दिखाती रही और सुरक्षा प्रदान करने के नाम पर उनके वोट भी लेती रही। हालांकि उसका यह खेल 1990, और खासकर नरसिंह राव के शासनकाल में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार में पूरी तरह टूट गया, जहां सामाजिक न्याय की राजनीतिक शक्तियों ने मुसलमानों को गोलबंद कर लिया।
इसके बाद से कांग्रेस को लोकसभा में कभी अपने दम पर बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस अब भी हिंदू वर्चस्ववाद और मुसलमानों की गोलबंदी को एक साथ साधने की कोशिश में आड़ा-तिरछा चल रही है और उसे संतुलन का रास्ता मिल नहीं रहा है। भाजपा इस मायने में कांग्रेस से अलग है कि उसके बहुसंख्यक वर्चस्ववादी मॉडल में मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं है। इसलिए मुसलमान वोट खोने का उसे भय भी नहीं है। जाहिर है, भाजपा को सेक्युलरवाद के नारे से कोई भय नहीं लगता। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार तक भाजपा ने फिर भी एक झीना-सा आवरण ओढ़ रखा था, जिसकी वजह से उसका सांप्रदायिक चेहरा धुंधला दिखता था। उस समय लालकृष्ण आडवाणी के बजाय वाजपेयी का प्रधानमंत्री बनना, जॉर्ज फर्नांडीज का राजग का मुखिया होना, विवादास्पद मुद््दों से दूरी बनाए रखना आदि राजनीतिक और रणनीतिक मजबूरी थी। सोलहवीं लोकसभा में 281 सीटों पर बैठी भाजपा की अब ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। इन सीटों की जीत के लिए भाजपा को अल्पसंख्यक वोटों का मोहताज नहीं होना पड़ा।
भाजपा ने सोलहवीं लोकसभा के नतीजों से साबित किया है कि सिर्फ हिंदू वोट के एक हिस्से के बूते इस देश में बहुमत की सरकार बन सकती है। इसने पूरी अल्पसंख्यक राजनीति को सिर के बल खड़ा कर दिया है। साथ ही इसने सेक्युलरिज्म के नारे का दम भी निकाल दिया है। सेक्युलरिज्म के नाम पर भाजपा-विरोध की एक बड़ी सीमा यह भी है कि भाजपा को लेकर 1992 के बाद सामने आया सेक्युलरिज्म का ‘मत छुओ वाद’ बहुत ‘सेलेक्टिव’ है। भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टियों और लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव को छोड़ दें तो सभी दलों और नेताओं ने किसी न किसी दौर में भाजपा के नेतृत्व में चलना स्वीकार किया है। नीतीश कुमार और शरद यादव कुछ महीने पहले तक भाजपा के साथ राजग में सहजता से मौजूद थे। ओमप्रकाश चौटाला भी भाजपा के साथ राजनीति कर चुके हैं। इसलिए भाजपा-विरोध एक राजनीतिक नारा तो है, लेकिन इसे सेक्युलरवाद का वैचारिक मुलम्मा नहीं चढ़ाया जा सकता।
ऐसे में भाजपा की काट, अल्पसंख्यक वोट और तथाकथित सेक्युलरवाद में देखने वालों के हाथ निराशा के अलावा कुछ भी लगने वाला नहीं है। सारा अल्पसंख्यक वोट एकजुट होकर भी बहुसंख्यक वोट के एक हिस्से से हल्का पड़ सकता है। जाहिर है, भाजपा-विरोध की राजनीति को सफल होने के लिए सेक्युलरवाद से परे किसी और राजनीतिक व्याकरण और समीकरण की जरूरत है। भारत का हिंदू, अगर हिंदू मतदाता बन कर वोट करता है और भाजपा अगर इन मतदाताओं की प्रतिनिधि पार्टी है, तो भाजपा-शासन के लंबे समय तक चलने की संभावना या आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।
अल्पसंख्यक वोट भाजपा को हराने में कारगर हो सकता है, बशर्ते हिंदू मतदाताओं का एक हिस्सा अन्य पार्टियों से जुड़े। यानी हिंदू मतों के विभाजन के बिना उन राज्यों में गैर-भाजपा राजनीति का कोई भविष्य नहीं है, जहां हिंदू आबादी बहुसंख्यक है। क्या भारतीय राजनीति के किसी पिछले या पुराने मॉडल में गैर-भाजपा राजनीति के सूत्र मिल सकते हैं? इसके लिए हमें 1990 के दौर में जाना होगा। भाजपा के वर्तमान उभार की तरह का ही एक भारी जन-उभार उस दौर में राम जन्मभूमि आंदोलन के पक्ष में हुआ था। ऐसा लग रहा था मानो भाजपा ने राजसूय यज्ञ का घोड़ा छोड़ दिया हो, जो लगातार सूबा-दर-सूबा फतह करता जा रहा हो। लेकिन वह दौर भारतीय राजनीति में सामाजिक न्याय की नई पहल के तौर पर भी जाना जाता है।
राममनोहर लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार और कई अन्य राज्यों में ओबीसी नेतृत्व को मजबूत कर रही थी। केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी आरक्षण लागू किए जाने से भी नई सामाजिक शक्तियों का विस्फोट हो रहा था। यह सारा घटनाक्रम हिंदुओं को सिर्फ हिंदू होकर वोट करने में बाधक साबित हो रहा था।
सन 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद भाजपा-शासित चार राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया गया और जब 1993 में वहां दोबारा चुनाव हुए तो भाजपा उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और हिमाचल प्रदेश का चुनाव हार गई और राजस्थान में कांग्रेस से मामूली बढ़त हासिल कर किसी तरह वहां की सरकार बचा पाई।
लेकिन सामाजिक न्याय की राजनीति कालांतर में कमजोर पड़ती चली गई। जमात की राजनीति खास जातियों की राजनीति और बाद में चुने हुए परिवारों की राजनीति बन गई। वंचित जातियों के बीच तरक्की, समृद्धि और शक्तिशाली होने की उम्मीद जगा कर, सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दल कुछ और ही करने लगे। इस बीच भाजपा ने नरेंद्र मोदी की शक्ल में एक ओबीसी चेहरा सामने लाकर सामाजिक न्याय की कमजोर पड़ी चुकी राजनीति की रही-सही जान भी निकाल दी।
अब सवाल उठता है कि क्या आने वाले विधानसभा चुनावों और अगले लोकसभा चुनाव के लिए गैर-भाजपा दलों के पास कोई रणनीति है? भाजपा अपनी गलतियों से हार जाएगी, यह सोच कर राजनीति नहीं हो सकती। क्योंकि यह बिल्कुल मुमकिन है कि भाजपा ऐसी कोई गलती न करे, या हो सकता है कि अपनी राजनीति को और मजबूत कर ले। मौजूदा समय में गैर-भाजपा खेमे में ऐसी कोई राजनीति होती नजर नहीं आती।
कांग्रेस और बाकी विपक्षी दलों ने विपक्ष का स्थान खाली-सा छोड़ दिया है। भाजपा का थोड़ा-बहुत वैचारिक विपक्ष, भाजपा के मूल संगठन आरएसएस के एक हिस्से से आ रहा है।
विकल्पहीनता की ऐसी स्थिति में भाजपा-विरोधी पार्टियां सामाजिक न्याय की राजनीति में अपनी कामयाबी के सूत्र तलाश सकती हैं। वैसे भी कोई हिंदू, सिर्फ हिंदू नहीं होता। उसकी कोई न कोई जाति-बिरादरी भी होती है। उसकी यह पहचान हिंदू होने की पहचान से कहीं ज्यादा टिकाऊ है, क्योंकि धर्म बदलने से या घर वापसी से भी उसकी यह पहचान नहीं मिटती। शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण का कोटा सख्ती से लागू करने, आरक्षण का प्रतिशत बढ़ा कर तमिलनाडु की तरह उनहत्तर फीसद पर ले जाने, जातिवार जनगणना करा कर सामाजिक न्याय के नारे को विकास-कार्यक्रमों से जोड़ने, भूमि सुधार करने और सबके लिए समान शिक्षा जैसे अधूरे कार्यभार को अपने हाथ में लेकर गैर-भाजपा राजनीति फिर से अपना खोया इकबाल वापस हासिल कर सकती है। भाजपा को इन राजनीतिक कार्यक्रमों के आधार पर घेरना मुमकिन है। ऐसा होते ही भाजपा अपना मूल सवर्ण अभिजन हिंदू वोट बचाए रखने और वंचित जातियों को जोड़ने के दोहरे एजेंडे के द्वंद्व में घिर जाएगी।
वर्तमान समय में, सेक्युलर बनाम गैर-सेक्युलर की राजनीति भाजपा की राजनीति है। हिंदू आबादी को हिंदू मतदाता बनाने के लिए भाजपा को इसकी जरूरत है। गैर-भाजपावाद के सूत्र सेक्युलरिज्म में नहीं हैं। गैर-भाजपावाद के सूत्र, हो सकता है सामाजिक न्याय की राजनीति में हों। कभी सामाजिक न्याय की राजनीति से अपनी छाप छोड़ने वाली पार्टियों और नेताओं को अपनी राजनीति में वापस लौटना चाहिए। मछलियां पानी में लौट कर ही जिंदा रह सकती हैं। सेक्युलरिज्म की सूखी धरती उनके प्राण हर लेगी।
Wednesday, April 9, 2014
शेयर बाजार में लुटते लोग
Monday, January 6, 2014
जो ये नहीं समझते कि फासीवाद क्या है, उनके लिए
Thursday, August 29, 2013
गरीब लोग हैं भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए संकट!
सत्येन्द्र प्रताप सिंह
भारत की अर्थव्यवस्था संकट में है। शेयर बाजार लहूलुहान है। रुपया गिरकर न्यूनतम स्तर पर है। कहा जा रहा है कि सरकार की सभी कोशिशें नाकाफी साबित हो रही हैं। अब यहां तक कयास लगने लगे हैं कि क्या केंद्र सरकार आर्थिक आपातकाल घोषित करेगी!
भारत की अर्थव्यवस्था की मौजूदा दुर्दशा की नींव 1998 के संकट के दौरान ही पड़ गई थी, जब केंद्र सरकार ने अमेरिकी मंदी के दौरान आए संकट से निपटने के लिए धन प्रवाह बढ़ाया। इसके असर से चालू खाता घाटा और राजकोषीय घाटा बढ़ गया। कर्जमाफी सहित तमाम उपायों से लोगों के पास पैसे आए और बाजार चल पड़ा। उस समय सरकार ने स्थिति संभाल ली।
धन के प्रवाह और लोगों की क्रय शक्ति बढऩे से जब महंगाई दर बेकाबू होने लगी तो सरकार ने लगातार नीतिगत दरों में बढ़ोतरी कर धन का प्रवाह रोकने की कोशिश की। परिणामस्वरूप कर्ज महंगा हुआ। इसका असर सीधे सीधे कारोबार पर पड़ा और उद्योग की रफ्तार मंद पड़ गई।
वित्त मंत्री पी चिदंबरम के संसद में दिए गए बयान से लगता है कि वह इस बात से खासे दुखी हैं कि 2009 से 2011 के बीच में सरकार ने इस संकट को रोकने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए। उस समय मौजूदा राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी वित्त मंत्री थे। मौजूदा अर्थव्यवस्था कहती थी कि उन्हें सार्वजनिक उपक्रमों को बेचकर धन जुटाना चाहिए था, जिसे चालू खाता घाटा कम होता, लेकिन मुखर्जी के कार्यकाल में ऐसा नहीं हुआ। शायद यही बात मौजूदा वित्त मंत्री को कचोट रही है।
वहीं प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के पास भी कोई अलग आर्थिक नीति नहीं है। उसका कहना है कि सरकार में साहस नहीं है। शायद उन अर्थों में कि उसे साहस दिखाकर अलग विनिवेश मंत्रालय बनाकर सार्वजनिक संपत्तियां ज्यादा से ज्यादा निजी हाथ सौंपनी चाहिए, जिससे ज्यादा से ज्यादा धन आए। बाजार में विश्वास बहाल हो। विदेशी संस्थागत निवेशक आएं और भारत में निवेश कर कमाई करें।
आइए सरकार की प्रमुख समस्याओं पर बात करते हैं। वित्त मंत्री कहते हैं कि 10 सूत्री कार्यक्रम लागू करने पर अर्थव्यवस्था गति पकड़ लेगी...
1- विनिर्माण क्षेत्र को दुरुस्त किया जाए
2-निर्यात को प्रोत्साहन
3-निवेश को बढ़ावा
4-राजकोषीय और चालू खाता घाटे को दुरुस्त करना
5-पीएसयू का पूंजीगत व्यय बढ़ाना
6-सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का पुनर्पूंजीकरण (उन्हें धन देना)
7-कोयले की आपूर्ति के मसले को हल करना
8-लौह अयस्क आयात प्रतिबंध से निपटना
9-पर्यावरण मंजूरी संबंधी समस्या
10-भूमि अधिग्रहण की दिक्कतें दूर की जाएं
इसमें ऊपर के चार सुझाव तो सैद्धांतिक हैं। पीएसयू का पूंजीगत व्यय बढ़ाने से ज्यादा सरकार का जोर उनके विनिवेश पर है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को और अधिक धन देने के उपाय करने से सीधा आशय नीतिगत दर दुरुस्त करना है, जिससे बैंकों के पास ज्यादा धन आए।
हाल के दिनों में खनन को लेकर न्यायालय ने अति सक्रियता दिखाई है। इसका परिणाम हुआ है कि कोयले और लौह अयस्क का खनन रुक सा गया है। लौह अयस्क राजस्व का बड़ा साधन होने के साथ साथ कमाई का जरिया भी है। साथ ही कोयले की आपूर्ति में ठहराव के चलते बिजली परियोजनाएं रुकी पड़ी हैं। अब सरकार के पास धन जुटाने का सिर्फ और सिर्फ एक तरीका है... अधिक से अधिक बिक्री। चाहे वह प्राकृतिक संसाधनों की बिक्री हो, या सार्वजनिक उपक्रमों की।
भूमि अधिग्रहण संबंधी दिक्कतों ने भी सरकार को काफी परेशान किया है। एक तरफ तो भूमि अधिग्रहण विधेयक लाकर किसानों को बेहतर संरक्षण देने की बात हो रही है, वहीं उद्योग जगत को सस्ती जमीन देने का भी दबाव है, जिससे विदेशी निवेशक आकर्षित हो सकें। उड़ीसा में पोस्को के मामले को ही लें। जमीन अधिग्रहण में आ रहे संकट की वजह से परियोजना में देरी हो रही है। इसमें न्यायालय ने खासा अड़ंगा डाल रखा है। न्यायालय के आदेश के बाद स्थानीय लोगों की बैठक कर जमीन अधिग्रहण पर चर्चा हुई तो लोगों ने भूमि अधिग्रहण को सिरे से खारिज कर दिया। यहां तक कि हर पंचायत की बैठक में इसे खारिज किया गया। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि सरकार सार्वजनिक संपत्तियों को अधिकाधिक निजी हाथों में सौंपकर धन कैसे जुटाए?
लहूलुहान बाजार और अर्थव्यवस्था के संकट के बीच प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी को एक ही उपाय दिखता है कि मौजूदा सरकार हट जाए। इसके अलावा उसके पास कोई सुझाव नहीं है कि जनपक्षधरता और कारोबार के बीच संतुलन कैसे स्थापित किया जाए। कांग्रेस की मौजूदा सरकार इसी उहापोह में फंसी है। एक तरफ मौजूदा वित्त मंत्री 60 प्रतिशत आबादी को भुलाकर कारोबार मजबूत करने के पक्ष में हैं, वहीं कांग्रेस में एक बड़ा तबका खाद्य सुरक्षा विधेयक जैसी घाटेदार योजना के जरिये आम लोगों तक भी कुछ पहुंचाने की कवायद में है।
भारतीय जनता पार्टी के सामने आम जनता तक कुछ पहुंचाने का संकट नहीं है।
पिछले 3 महीने के दौरान रुपये और शेयरबाजार के लहूलुहान होने के पीछे विदेशी संस्थागत निवेशकों की भूमिका प्रमुख मानी जा रही है। 2008 के बाद पहली बार 3 महीने लगातार एफआईआई ने बिकवाली की है। पिछले 3 महीने में निफ्टी 12 फीसदी गिरा है। क्यूई3 वापस होने का डर, कमजोर रुपया और चालू खाता घाटे का डर बाजार पर हावी है। एफआईआई भारतीय बाजार से दूर हो रहे हैं इसके पीछे कई कारण हैं। अमेरिकी बॉन्ड में बेहतर रिटर्न, अमेरिका, यूरोप, जापान की अर्थव्यवस्था सुधरने और कमजोर रुपये ने एफआईआई का भरोसा तोड़ा है। ऊंचे चालू खाता घाटे से रेटिंग घटने का डर छा गया है और खाद्य सुरक्षा विधेयक से वित्तीय घाटे की चिंता बढ़ गई है। एफआईआई ने जून में 9319 करोड़ रुपये, जुलाई में 7120 करोड़ रुपये और अगस्त में अब तक 3,749 करोड़ रुपये की बिकवाली कर ली है।
लेकिन क्या 20,000 करोड़ रुपये की बिकवाली ही इस गिरावट की एकमात्र वजह है? शायद रुपये की इतनी अधिक बदहाली इसलिए भी हो रही है कि पैसे वाले लोग अपने धन को विदेशी मुद्रा खासकर डॉलर में सुरक्षित कर रहे हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था की घरेलू मांग नहीं बढ़ रही है। इसके चलते उनका विश्वास डिगा है। सरकार अमीर लोगोंं के प्रोत्साहन में ही अर्थव्यवस्था की भलाई देखती है, यह भी एक वजह है, जिससे आर्थिक दुर्दशा हो रही है। माना जा रहा है कि कर रियायतों के रूप में सरकार उन्हें हर साल 5 लाख करोड़ रुपये से अधिक के प्रोत्साहन दे रही है। बाजार से भरोसा उठने के बाद अब धनवान अपने धन को स्वर्ण, विदेशी मुद्रा और अचल संपत्तियों में सुरक्षित कर रहे हैं।
मौजूदा खुली अर्थव्यवस्था कहती है कि 10 प्रतिशत लोगों को अमीर बनाया जाए और उन्हें ही सारी सुविधाएं दी जाएं। बाकी लोगों को इन अमीरों के पैसे में से छनकर कुछ मिल जाएगा। निश्चित रूप से मौजूदा कांग्रेस सरकार इसमें विफल रही है और वह जनपक्षधरता और पूंजी पक्षधरता के बीच फंसी हुई है। इन दोनों के बीच संतुलन बिठाने की नाकामी अब संकट के रूप में नजर आ रही है।
Thursday, June 20, 2013
इतना आसान नहीं विकास बनाम विनाश का मुद्दा
Friday, April 5, 2013
आप कब शादी करेंगे...
सत्येन्द्र प्रताप सिंह
आप कब शादी करेंगे... इस सवाल पर साक्षात्कार की किसी किताब में हॉलीवुड के किसी फिल्मी सितारे के साक्षात्कार का एक अंश याद आया। एक बड़े अखबार (वाशिंगटन पोस्ट या न्यूयार्क टाइम्स) एक बड़े पत्रकार ने ६ महीने के अथक प्रयास के बाद फिल्मी सितारे के साथ साक्षात्कार के लिए अवसर पाया। वह भी ४५ मिनट की कार यात्रा के दौरान। पत्रकार महोदय ने किसी महिला का नाम लिया और कहा कि उसके साथ आपके अफेयर के बारे में चर्चा सुन रहा हूं।
फिल्मी सितारे ने करीब शहर से २५ किलोमीटर दूर उस पत्रकार को गाड़ी से उतार दिया। उसके पहले उसने भला बुरा भी कहा कि पूरी दुनिया मुझे फिल्म जगत की समझ के बारे में जानती है और तुम अफेयर के बारे में जानकारी चाह रहे हो?
बहरहाल... भारत में यह आम है। अमिताभ से लेकर ऐश्वर्य राय और राहुल गांधी तक इस तरह के सवाल झेलते हैं।
देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखे जा रहे राहुल गांधी से यह सवाल पूछा जाना तो निहायत गैर जरूरी लगता है कि वे किससे शादी करेंगे। किस महिला के साथ राहुल यौन संबंध बनाएंगे, अगर शादी हुई तो कितना समय बीवी के साथ बिताएंगे, पेट में दर्द होने पर वे कौन सी गोली खाते हैं। दिन में कितनी बार पाखाना जाते हैं। सुबह के नाश्ते में क्या खाते हैं, इस तरह के सवाल राजनेता से पूछने का कोई खास मतलब समझ में नहीं आता।
फिक्की के कार्यक्रम में राहुल ने एक बार फिर ऐसे सवालों पर गुस्सा जताया कि आप शादी कब करेंगे, आप प्रधानमंत्री कब बनेंगे। शायद उन्हें भी लगता होगा कि किस तरह की मानसिकता भारत में विकसित हुई है। लोग ऐसे मसलों पर ज्यादा चिंतित रहते हैं, जिसका उनकी जिंदगी से कोई लेना देना नहीं है।
राहुल गांधी लंबे समय से राजनीति में हैं। देश के विभिन्न इलाकों का दौरा कर रहे हैं। सिर्फ किताबी और लोगों की सुनी सुनाई ही नहीं, बल्कि वे हकीकत के भारत को समझने की कोशिश में लगे हैं। ऐसे में उनसे वैश्विक पटल में भारत की परिकल्पना, देश के विकास का खाका, आगामी २० साल में भारत का विजन, युवकों की स्थिति, बढ़ती जनसंख्या आदि मसले हैं। इसके अलावा देश के विभिन्न इलाकों के लंबे दौरे, कार्यकर्ताओं से मुलाकातों, आम लोगों की प्रतिक्रिया का राहुल पर क्या असर पड़ा है, पहले उनकी क्या सोच थी, अब उनके अंदर क्या क्या बदलाव आए हैं आदि आदि... ऐसे हजार सवालों की सूची बन सकती है, जो राहुल गांधी के लिए नहीं बल्कि भारत के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। ये सवाल पूछे ही जाने चाहिए और बहुत बेरहमी से पूछे जाने चाहिए।
हें हें हें हें पत्रकारिता में इस तरह के सवाल पूछने कठिन तो हैं, लेकिन शायद राहुल गांधी भी निश्चित रूप से अनुभव करते होंगे कि ये सवाल जरूरी हैं, जो उनसे पूछे जाने चाहिए।
Friday, September 21, 2012
Ban on India Inc acquiring SC, ST land
Friday, August 10, 2012
उत्पादों के दाम बढ़ाकर आंदोलन का खर्च वसूल सकते हैं रामदेव
रामदेव छोटे कारोबारी हैं। विज्ञापन देने के बजाय वह सुर्खियां बटोरकर लोगों की नजर में रहते हैं। इसी बहाने अपने उत्पाद का प्रचार भी कर लेते हैं। बिल्कुल वैसे, जैसे कचहरी में तमाशा दिखाने वाला मदारी चूरन बेचकर चला जाता है। ज्यादा संभव है कि इस आंदोलन पर आए खर्च की भरपाई बाबा अपने 285 उत्पादों के दाम बढ़ाकर करें। एक पड़ताल...सत्येन्द्र प्रताप सिंह बाबा रामदेव ३ दिन के अनशन पर बैठे हैं। इस बार उनका धरने पर बैठने से पहले भी टोन डाउन था, अभी भी है। बैठने के पहले ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि सिर्फ तीन दिन अनशन चलेगा। अगर सरकार नहीं मानती तो आगे की रणनीति तय की जाएगी। बाबा रामदेव के साथ इस बार ठीक-ठाक भीड़ है। भीड़ पहले भी थी, जब उन्हें अनशन छोड़कर भागना पडा था। उनके भीड़ की गणित दूसरी है। श्रद्धा औऱ कारोबार की छौंक। यूं तो वैसे भी यहां हजारों की संख्या में बाबा हैं और एक एक बाबा के लाखों चेले हैं, जो एक आह्वान पर जहां कहा जाए, जुटने को तैयार हो जाते हैं। लेकिन बाबा कभी पंगा नहीं लेते, सरकारें भी उनसे पंगा नहीं लेती हैं। आपसी सहमति है... सरकारें बाबाओं को खुलकर चरने देती है और बाबा लोग भी अपनी ताकत का जोश नहीं दिखाते। दरअसल नए बाबा दलित ही साबित हुए हैं। पुराने मठाधीशों के उत्तराधिकारी तो मौज में रहते हैं, लेकिन किसी नए बाबा की बाबागीरी बहुत ज्यादा नहीं चल पाती। हालांकि यह दावे के साथ यह कहना सही नहीं होगा। इस बीच तमाम कथावाचक, छूकर इलाज करने वाले हुए, लेकिन परंपरागत या कहें कि पीढ़ी दर पीढ़ी वाली बाबागीरी व्यापक पैमाने पर विकसित करने में वह ज्यादा सफल नहीं हुए हैं। बाबा रामदेव ने बाबागीरी का अलग कांसेप्ट दिया। बिल्कुल नया कांसेप्ट। हालांकि बाबागीरी भी एक कारोबार है, जिसमें किसी अदृश्य सत्ता का भय दिखाकर वसूली की जाती है। परेशान लोग औऱ डरते हैं और पैसे देकर आते हैं। मंदिरों में विभिन्न तरह की पूजा के पैकेज चलते हैं। इस कारोबार की तुलना में बिल्कुल अलग कारोबार है बाबा रामदेव का। जैसे एक उद्योगपति अपने उत्पाद तैयार करता है और बेचता है, वही काम बाबा रामदेव भी करते हैं। हालांकि यह कांसेप्ट किसी का भय दिखाकर वसूली की तुलना में मुझे बेहतर लगता है। कारोबारी मॉडल आइए बात करते हैं बाबा के कारोबारी मॉडल पर। बाबा ने योग, वाक्पटुता आदि के माध्यम से ठीक ठाक नाम कमाया। उन्होंने आयुर्वेद पर जोर देना शुरू किया। इस बीच बाबा ने दिव्य योग फार्मेसी भी खोल ली। इस उद्योग में उन्होंने हर कारोबारी मानक का ध्यान रखा है। बेहतरीन चिकित्सक, शोधकर्ता औऱ प्रोडक्ट बना रहे लोग। कारोबार जैसे जैसे जोर पकड़ता गया, बाबा ने इसका विस्तारकिया। मांग के मुताबिक आपूर्ति की। इस समय बाबा के दिव्य फार्मेसी के 285 उत्पाद हैं। यही नहीं, बाबा पूरे कारोबारी कांसेप्ट मानते हैं। उन्होंने इलाजों का पैकेज भी दे रखा है। कुल ३२ भयंकर या कहें लाइलाज मानी जाने वाली बीमारियों का उपचार वह पैकेज के माध्यम से करते हैं। इसमें लीवर सिरोसिस से लेकर कैंसर तक के इलाज का ठेका शामिल है। हालांकि ऐसी कोई दावेदारी नहीं की गई है कि इस इलाज से बीमारी ठीक होगी। वह तो किसी भी चिकित्सा पद्धति में नहीं की जाती। लेकिन बाबा समय समय पर अपने योग शिविर के भाषणों में दावे भी करते रहते हैं। हर एक इलाज के लिए अलग-अलग पैकेज है। विज्ञापन का तरीका बाबा ने इस साम्राज्य के लिए किसी विज्ञापन का सहारा नहीं लिया। बस, अपने भाषणों में योग सिखाने के लिए जुटी भीड़ को वह अपनी विभिन्न दवाइयों की विशेषताएं बता देते हैं। इसके चलते उनका लाखों का विज्ञापन का खर्च बच जाता है। विज्ञापन का यह खर्च तब तक बचता रहेगा, जब तक बाबा चर्चा में रहेंगे। सुर्खियों में उनकी बने रहने की इच्छा के पीछे एक बड़ी वजह यह भी है। हां, पिछली बार केंद्र सरकार से बनते बनते बात बिगड़ गई थी, यह अलग मसला है। बाबा एक बार फिर अपने कारोबार के प्रचार में निकले हैं। लोग उनकी बात सुन रहे हैं। इलाज में विश्वसनीयता बहुत मायने रखती है। अगर उसमें देशभक्ति और बेहतर व्यक्ति होने की छौंक लग जाए तो कोई मान ही नहीं सकता कि यह महज कारोबार का मामला है। इसमें प्राचीन ज्ञान विज्ञान से लेकर देशभक्ति और सरकार विरोधी गुस्सा को एख साथ भुनाने का मौका है। अनशन में भीड़ की वजह बाबा के अनशन में भीड़ जुटने की कई वजहें हैं। पहले.., योग के नाम पर उनके शिविर में दस पांच हजार तो यूं ही आ जाते हैं। दूसरे... बाबा के कारोबार का पूरा नेटवर्क है। उत्तर भारत के हर शहर में इनके उत्पादों की दुकानें हैं। हर जिले में इनके स्टाकिस्ट हैं। अगर गौर से देखें तो बाबा के स्टाकिस्टों ने इस आंदोलन में अहम भूमिका निभाई है। जहां पर इनके स्टाकिस्ट की दुकान या घर है, उस मोहल्ले में विरोध प्रदर्शन शिविर लग गए हैं। बूढ़ी महिलाएं, बूढे पुरुष, बच्चे वहां जमा हो रहे हैं... जिनके लिए बाबा के स्टाकिस्टों ने बेहतरीन प्रबंध कर रखा है। कारोबारी इस पर अच्छा निवेश कर रहे हैं। हालांकि यह खबर नहीं है कि स्टाकिस्टों को कोई निर्देश दिया गया है, लेकिन वह अपने जिलों से वाहनों आदि की पूरी व्यवस्था में लगे हैं। साथ ही रामलीला मैदान में भी भरपूर प्रबंध है, रहने और खाने का। कारोबारी पूंजी बाबा का कारोबार विभिन्न ट्रस्टों के माध्यम से चलता है। इसमें ४ विभिन्न ट्रस्ट शामिल हैं। पिछले साल जून महीने में बाबा की घोषणा के मुताबिक उनका कुल कारोबारी साम्राज्य १,१०० करोड़ रुपये के आसपास है। बाबा ने अपने कारोबार का ब्योरा अपनी वेबसाइट पर भी डाल रखा है औऱ उनका कहना है कि कारोबार में पूरी पारदर्शिता बरती जाती है। चार्टर्ड एकाउंटेंट अनिल अशोक एंड एसोसिएट्स ने उनके सभी ट्रस्टों की आडिट की है। आयुर्वेद का कारोबार देश में किसी भी जटिल इलाज के लिए शायद ही आयुर्वेद का सहारा लिया जाता हो, लेकिन कारोबार इतना तो है ही कि डाबर, वैद्यनाथ जैसी बड़ी कंपनियों से लेकर गली कूचे तक में आयुर्वेदिक दवाएं बनती हैं। लेकिन आज के कारोबार के हिसाब से देखें तो आयुर्वेद के मामले में रामदेव सभी कंपनियों को टक्कर देते नजर आ रहे हैं। कहीं जेब पर न भारी पड़े आंदोलन? स्वाभाविक है कि रामदेव ने जो कमाया है, उसी में से खर्च कर रहे हैं। बाबा रामदेव का कारोबार पूरी तरह से विश्वास पर ही चलता है। आज उनके पूरे स्टॉकिस्ट से लेकर खुदरा दुकानदार तक इस आंदोलन में निवेश कर रहे हैं। अब रामदेव के उत्पादों के ग्राहकों को देखना होगा कि आंदोलन पर आए खर्च की भरपाई उनकी जेब से कैसे की जाती है। बाबा रामदेव का आंदोलन खत्म होने के बाद पूरी संभावना है कि उनके उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी हो। हालांकि पूरा मामला इलाज से न जुड़ा होकर श्रद्धा की छौंक भी है, इसलिए यह भी संभव है कि उनके शिष्य या कहें ग्राहक, यह भी तर्क दें कि अच्छे काज के लिए पैसे खर्च किए, थोड़े दाम बढ़ाकर वसूली कर रहे हैं तो उसमें बुरा क्या है?
Thursday, August 2, 2012
बिजली के ग्रिड फेल, सरकार पास!
Wednesday, August 1, 2012
बिजली के ग्रिड फेल, सरकार पास!
Monday, July 23, 2012
बस आंकड़े बनकर रह गई है किसानों की जिंदगी
Tuesday, June 19, 2012
वाम-दक्षिण के बीच फंसा बीमार ग्रीस
सत्येन्द्र प्रताप सिंह
ग्रीस बीमार है। खुली बाजार व्यवस्था के समर्थक उसका इलाज करने को तैयार हैं। दक्षिणपंथी राजनीतिक दल न्यू डेमोक्रेसी के सत्ता के करीब पहुंचने मात्र से ऐसी खबरें आने लगीं कि दुनिया को राहत मिल गई। उम्मीद बनी कि अगर न्यू डेमोक्रेसी के नेता एंटोनिस समरास सरकार बनाते हैं तो वह बेलआउट पैकेज स्वीकार कर लेंगे और चल रही आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाएंगे।
आइए ग्रीस के हाल फिलहाल की राजनीतिक यात्रा पर नजर डाल लें। सेना का शासन धराशायी होने के बाद1975 में हुए जनमत संग्रह में ग्रीस के लोगों ने राजशाही को अस्वीकार कर दिया। एंड्रियास पापांद्राऊ की पानहेलेनिक सोसलिस्ट मूवमेंट (पासोक) और कारामानलिस की दक्षिणपंथी न्यू डेमोक्रेसी ने वहां की राजनीति पर कब्जा जमा लिया। ग्रीस पर करीब 4 दशक से इन्हीं दलों का शासन है। लेकिन आर्थिक संकट बढ़ने के साथ ही जन अधिकारों से सरोकार रखने वाले दलों गोल्डन डान और सिरिजा ने मतों पर अपना कब्जा बढ़ाना शुरू किया (इन दलों को क्रमशः माओवादी और ट्राटस्कियन भी कहा जाता है)।
पिछले 6 मई को हुए आम चुनाव में ग्रीस में खंडित जनादेश मिला। कोई सरकार न बनने की वजह से पिछले रविवार को फिर चुनाव कराए गए। चुनाव के पहले आशंका जताई गई कि अगर सिरिजा चुनाव जीत जाती है तो आर्थिक सुधारों को खतरा है। भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने चेताया कि ग्रीस संकट की वजह से डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर हुआ है। अगर बेलआउट समर्थक दक्षिणपंथी दल न्यू डेमोक्रेसी की जीत नहीं हुई तो इसका असर भारत पर भी पड़ेगा। इसी तरह प्रतिक्रिया जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल और फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांसुआ ओलैंड ने भी दी थी।
बहरहाल न्यू डेमोक्रेसी की जीत से वैश्विक पूंजीवादी जगत उत्साह से लबरेज है। सभी मिलकर ग्रीस की अर्थव्यवस्था बचाने को तत्पर भी हैं। ग्रीस चाहता है कि उसे बेलआउट पैकेज के बदले लादी जा रही शर्तों में कुछ ढील मिल जाए। तत्काल प्रतिक्रिया देते हुए आईएमएफ की एक प्रवक्ता कोनी लोत्ज ने कहा कि वित्तीय बेल आउट पाने वाले देशों के लिए थोड़े बहुत तालमेल अस्वाभाविक नहीं हैं। उन्होंने कहा, “यह आर्थिक कार्यक्रम स्थायी नहीं हैं।” हालांकि जर्मनी की चांसलर मार्केल ने कोई जोरदार उत्साह नहीं दिखाया है। उन्होंने कहा है, “यह बहुत ही स्पष्ट है कि पिछले समय में सुधार संबंधी किए गए समझौते सही कदम थे और उन्हें आगे भी लागू किया जाना चाहिए।”
इस राहत पैकेज के बदले लादी जा रही शर्तों पर भी गौर करना जरूरी है। इसमें सरकारी नौकरियों में तत्काल 15,000 की कटौती और 2015 तक डेढ़ लाख सरकारी नौकरियां घटाने का लक्ष्य रखा गया है। साथ ही हर कर्मचारी के वेतन में 22 प्रतिशत की कटौती के साथ 2012 तक पेंशन में 30 करोड़ यूरो की कटौती करना है। सरकारी खर्च में कटौती के साथ निजी क्षेत्र को बढ़ावा देना भी शर्त में शामिल किया गया है।
ग्रीस की संसद में कुल 300 सीटें हैं। इस चुनाव में न्यू डेमोक्रेसी को 129 सीटें मिली हैं। पार्टी का दावा है कि वह इस बार सरकार बना लेगी। वहीं पसोक को 33 सीटें मिली हैं। वामपंथी दल सिरिजा को 71 सीटें, गोल्डन डान को 18, केकेई को 12, डेमोक्रेटिक लेफ्ट को 17 व इंडिपेंडेंट ग्रीक को 20 सीटें मिली हैं। ऐसे में पूंजीवाद की चपेट में आया डूबता ग्रीस अभी भी अनिश्चितता के भंवर में है। बेलआउट पैकेज ने अगर उल्टा असर दिखाया, ज्यादा पैसे आने से महंगाई दर बढ़ी और विकास दर नीचे गई तो फिर उसे कर्ज लौटाने के संकट से जूझना होगा। ऐसे में यह कहना बहुत मुश्किल है कि ग्रीस यूरो जोन में बना रह सकेगा या नहीं। साथ ही यह भी कहना मुश्किल है कि अल्पमत की सरकार कितने दिन तक खिंचेगी और दुर्दशाग्रस्त ग्रीक कब तक दक्षिणपंथी दलों पर भरोसा कायम रख सकेंगे।
Tuesday, May 15, 2012
मायावती और शाहखर्ची
आपने ऐसी सूचीबद्घ कंपनियों के बारे में भी सुना होगा, जो दर्जी से समय पर सूट मंगवाने के लिए आईआईएम में शिक्षा प्राप्त महंगे रंगरूट रखते हैं। ऐसे मामलों की भी कमी नहीं हैं, जहां अध्यक्ष के लिए वीजा और पासपोर्ट का इंतजाम करने के लिए ट्रैवल एजेंटों, दूतावासों के कर्मचारियों और पासपोर्ट अधिकारियों पर समय और धन की बेशुमार बरबादी की जाती है। यह लागत भी अंतत: सार्वजनिक शेयरधारकों को ही उठानी पड़ता है। लेकिन, वरिष्ठï कॉरपोरेट नौकरशाहों (आईएएस अधिकारियों के समकक्ष) का कहना है कि केवल वही नहीं, बल्कि दूसरे लोग भी धन की बरबादी करते हैं क्योंकि खामियां तो पूरी व्यवस्था में हैं। यह कहना आसान है और संभवत: सुविधाजनक भी, लेकिन दोनों मामलों में बारीक अंतर है। कई लोग इस राय से सहमत होंगे कि निजी क्षेत्र के होने के नाते सूचीबद्घ कंपनियां वैध तरीके से अधिकारियों पर ज्यादा खर्च कर सकती हैं। फिर भी, सार्वजनिक धन का इस्तेमाल करने का मसला हमेशा प्रशासन से जुड़ा हुआ रहेगा, चाहे बात कॉरपोरेट प्रशासन की हो या फिर राज्य शासन की। यह कहना समान रूप से उचित है कि उच्च और निम्न वर्गों के बीच संघर्ष चलता रहता है। लेकिन, इसके साथ-साथ यह भी उतना ही सही है कि भारत निश्चित रूप से इस मामले में काफी पिछड़ा हुआ है। अधिकारों को लागू करने के मामले में 183 देशों की फेहरिस्त में हम 182वें पायदान पर हैं। यह सूची विश्व बैंक और अंतरराष्टï्रीय वित्त निगम ने संयुक्त रूप से प्रकाशित की है। यदि क्षतिपूर्ति से संबंधि किसी मुकदमे की पहली सुनवाई में 20 वर्षों का लंबा समय लग जाता है तो ऐसे में हैरानी नहीं होनी चाहिए कि किसी सूचीबद्घ कंपनी द्वारा फिल्मी सितारों और राजनीतिक हस्तियों के निजी दौरों के लिए कॉरपोरेट जेट का इंतजाम करने में होने वाले खर्च पर सवाल उठाने में कोई सक्षम नहीं होगा।बहरहाल मूल मसले पर आते हैं। दिलचस्प है कि कॉरपोरेट जगत की एक भव्य पार्टी पर जितना खर्च किया जाता है वह रकम मायावती के घर की साज-सज्जा से संबंधित पूरे बजट के लिए पर्याप्त होगी। वरिष्ठï कॉरपोरेट हस्तियों का जन्मदिन मनाने के लिए ऐसी ही भव्य दावतें दी जाती हैं। वरिष्ठï मीडिया पेशेवर इस तरह की दावतों को बड़ी बेपरवाही से कवर करते हैं, जबकि मायावती की ओर से दी जाने वाली पार्टियों की रिपोर्टिंग बारीकी से की जाती है। इसी तरह मीडिया में कंपनियों के मुख्य कार्याधिकारियों के वेतन-भत्तों और विनम्रता का बखान करते समय एक तरह का संतुलन रखा जाता है, लेकिन मायावती जैसी हस्तियों के मामले में इसकी कमी देखी जाती है। यह मायावती की अनुचित शैली का बचाव करने की कोशिश नहीं है, बल्कि केवल यह याद दिलाने के लिए है कि पत्थर वही फेंक सकता है जिसने पाप न किए हों। लेखक जेएसए, एडवोकेट्स ऐंड सॉलिसिटर्स के पार्टनर हैं और यह उनकी निजी राय है
Monday, May 14, 2012
कंपनियां यूं कराती हैं खबरों का प्रबंधन!
अभी तक सुनते थे कि आदिवासी ही बहुराष्ट्रीय कंपनियोंं की साजिश का शिकार हो रहे हैं, लेकिन किसान भी इनकी जद में हैं। जिस समय बीटी काटन पर बहस चल रही थी, देश के एक अग्रणी अंग्रेजी अखबार ने 2008 में किसानों के बीटी काटन से मालामाल होने की खबर छापी। पूरे पेज की उस खबर को 2011 में उस समय विज्ञापन के रूप में दिया गया, जब बीज विधेयक संसद में पेश नहीं हो सका। जाने माने पत्रकार पी साईनाथ ने इस खबर और विज्ञापन की खबर ली। झूठे आंकड़ों की कहानी लेकर आए और साजिशों का पर्दाफाश किया। पेश है खबर...
पी साईनाथ
करीब साढ़े तीन साल पहले जीन संवर्धित (जेनेटिकली मोडीफॉयड) बीजों के इस्तेमाल पर तगड़ी बहस छिड़ी हुई थी। यह मसला भारत के कोने-कोने में चर्चा में था। ठीक उसी समय एक समाचार ने इस तकनीक की सफलता के चमकदार असर पर खबर पेश की। टाइम्स ऑफ इंडिया ने 31 अक्टूबर 2008 के अंक में लिखा... "यहां पर आत्महत्या की कोई घटना नहीं हुई है। खेती बाड़ी से लोग अमीर हो रहे हैं। कपास के परंपरागत बीजों को छोड़कर बोलगार्ड या बीटी कॉटन अपनाने से पिछले 3-4 साल के दौरान यहां के गांवों (भांबराजा और अंटारागांव) में सामाजिक और आर्थिक क्रांति आई है।" इसमें एक दिलचस्प पहलू और है। यही किस्सा इसी अखबार में अभी 9 महीने पहले शब्दशः एक बार फिर छपा। (28 अगस्त, 2011)। यह भी नहीं ध्यान रखा गया कि हो सकता है कि अब किसान कुछ अलग कहानी बयान कर रहे हों। इस साल मार्च महीने में कृषि पर बनी संसद की स्थायी समिति ने इलाके का दौरा किया। भांबराजा गांव के गुस्साए किसानों की भीड़ में से आई आवाज ने समिति के सदस्यों को चौंका दिया। “हमारे गांव में आत्महत्या की 14 घटनाएं हुई हैं।” “इसमें ज्यादातर आत्महत्याएं बीटी के आने के बाद हुईं।” द हिंदू ने 2003 से 2009 के बीच आत्महत्या की 9 घटनाओं की पुष्टि की। यहां के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने 5 औऱ घटनाएं गिनाईं। यह सभी घटनाएं 2002 के बाद की हैं, जब लोगों ने बीटी कॉटन को अपनाया था. उसके बाद टाइम्स आफ इंडिया ने किसानों के संपन्नता की कहानी लिखी थी। गांव वालों ने हतप्रभ सांसदों से कहा, “महोदय, ढेर सारी जमीनें खाली पड़ी हैं। तमाम लोगों का किसानी से भरोसा उठ गया है।” कुछ लोगों ने तो सोयाबीन की खेती अपना ली है, “कम से कम उसमें नुकसान की संभावना इतनी ज्यादा नहीं रहती”।
म्हाइको-मॉनसेंटो बायोटेक के बीटी कॉटन की खेती के “आदर्श गांव” से सैकड़ों किसान विस्थापित हो चुके हैं, जिसमें ज्यादा जमीन वाले किसान भी शामिल हैं। पिछले साल सितंबर महीने में हमारी पहली यात्रा के दौरान भांबराजा गांव के रामदास भोंड्रे ने भविष्यवाणी की थी, “अभी और ज्यादा लोग गांव छोड़ेंगे, क्योंकि किसानी मर रही है।” मोनसेंटो के बीटी कॉटन का स्तुतिगान 2008 में उस समय पूरे पृष्ठ पर आया था. सरकार अगस्त 2011 में बॉयोटेक रेगुलेटरी अथॉरिटी आफ इंडिया (बीआऱएआई) विधेयक संसद में पेश करने में सफल नहीं हुई थी। विधेयक पेश न किए जा सकने की घटना महत्त्वपूर्ण थी, क्योंकि इससे कृषि बायोटेक उद्योग को भविष्य में मिलने वाला मुनाफा प्रभावित हुआ था। उसके बाद ही इसके लिए गोलबंदी शुरू हो गई। 28 अगस्त 2011 को पूरे पेज की कहानी “ Reaping Gold through Bt Cotton” टाइम्स आफ इंडिया में आई। उसके बाद कंपनी की ओर से अखबारों में विज्ञापन आने लगे। ऐसा ही लगातार 29, 30, 31 अगस्त और 1 व 3 सितंबर को हुआ। बहरहाल यह विधेयक संसद में पेश नहीं हो सका। न तो मॉनसून सत्र में न ही शीतकालीन सत्र में, जबकि दोनों सत्रों में इसे सूची में रखा गया था। अन्य मसलों पर संसद में हंगामा होता रहा। कुछ लोगों ने इसके बदले मुनाफा कमाया, बीटी कॉटन के माध्यम से नहीं तो अखबारी कागज के माध्यम से।
कृषि पर बनी संसद की स्थायी समिति पर इन विज्ञापनों का कोई असर नहीं हुआ। समिति ने पहले भी जीन संवर्धित फसलों को अनुमति दिए जाने के मसले को देखा था। किसानों की आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं की खबरों और विदर्भ के तनाव से परेशान समिति के सदस्यों ने इस इलाके का दौरा करने का मन बनाया। समिति में विभिन्न दलों के सदस्य शामिल थे।
भांबराजा गांव ने निश्चित रूप से इस समिति के अध्यक्ष और दिग्गज सांसद बासुदेव आचार्य का ध्यान खींचा था। आखिर ध्यान आकर्षित भी क्यों न करता, यह गांव तो म्हाइको मॉनसेंटो के करिश्मे से मालामाल हुआ गांव था! अन्य गांव मारेगांव-सोनेबर्डी था। लेकिन सांसदों को तब झटका लगा, जब इसमें से किसी गांव के लोग मालामाल नहीं नजर आए। करिश्मे का आभामंडल टूट चुका था। यहां के लोगों में फैली निराशा और तनाव सरकार की असफलता की कहानी बयां कर रहे थे। यह मसला (और जैसा कि टाइम्स आफ इंडिया अपनी खबरों में दावा भी करता है) एक बार फिर जिंदा हुआ है, क्योंकि 2012 में बीटी कॉटन को 10 साल होने जा रहे हैं। पिछले साल 28 अगस्त को “Reaping Gold through Bt Cotton” नाम से आई कहानी को “ए कंज्यूमर कनेक्ट इनीशिएटिव” के रूप में पेश किया गया। अगर दूसरे शब्दों में कहें तो यह विज्ञापन था। पूरे पेज की इस खबर में पेशेवर पत्रकारों के नाम से खबरें और टाइम्स आफ इंडिया के फोटो थे। सबसे विरोधाभासी यह है कि जो खबर विज्ञापन में बदल चुकी थी, वह शब्दश टाइम्स आफ इंडिया के नागपुर संस्करण में 31 अक्टूबर 2008 को छप चुकी थी। आलोचकों ने इस दोहराव को हास्यास्पद बताया था। 28 अगस्त 2011 को छपी खबर इसी खबर के फिर से छप जाने के दोहराव जैसा लगा। लेकिन इसमें खास अंतर था। 2008 में छपी खबर को विज्ञापन के रूप में नहीं दिखाया गया था। दोनों संस्करणों में छपी खबर में एक समानता भी ध्यान देने योग्य है। उनमें लिखा गया था, “यवतमाल दौरे की व्यवस्था म्हाइको मोनसेंटो बायोटेक ने की थी।” कंपनी ने 2008 में छपे फीचर को पूरे पेज के न्यूज रिपोर्ट के रूप में पेश किया, जिसे टाइम्स आफ इंडिया ने किया था. पिछले सप्ताह म्हाइको मोनसेंटो बायोटेक इंडिया के प्रवक्ता ने द हिंदू से बातचीत में कहा, “2008 का कवरेज मीडिया के दौरे का परिणाम था, जिसे संपादकीय विवेक के साथ लिखा गया था। हमने सिर्फ आने जाने की व्यवस्था की थी।” “2011 में जो रिपोर्ट छपी, वह 2008 की रिपोर्ट ही थी, जिसमें कोई संपादन नहीं किया गया और इसे मार्केटिंग फीचर के रूप में छापा गया।” 2008 में “पूरे पेज की न्यूज रिपोर्ट” नागपुर संस्करण में आई थी। 2011 का “मार्केटिंग फीचर”, िजसे आप स्पेशल रिपोर्ट के हिस्से में क्लिक करके देख सकते हैं, कई संस्कऱणों में दिखा। लेकिन यह नागपुर में नहीं छपा, जिसके चलते निश्चित रूप से विस्मय पैदा होता है। इस तरह से एक पूरा पेज तीन साल के भीतर दो बार दिखा। पहली बार खबर के रूप में और दूसरी बार विज्ञापन के रूप में। पहली बार इसे समाचार पत्र के स्टाफ रिपोर्टर और फोटोग्राफर के माध्यम से पेश किया गया। दूसरी बार विज्ञापन विभाग ने इसे पेश किया। पहली बार इस खबर के लिए यात्रा की व्यवस्था म्हाइको मोनसेंटो ने की। दूसरी बार म्हाइको मोनसेंटो ने इसके लिए विज्ञापन की व्यवस्था की। पहली बार यह हादसे के रूप में सामने आया और दूसरी बार एक तमाशे के रूप में। कंपनी के प्रवक्ता इस मामले में उच्च स्तर के पारदर्शिता का दावा करते हैं। हमने कहा कि यह प्रकाशन 31 अक्टूबर 2008 में छपी खबर का रीप्रिंट है है। लेकिन प्रवक्ता ने ई मेल से भेजे गए अपने जवाब में इस विज्ञापन के समय के बारे में द हिंदू के सवालों पर चुप्पी साध ली। कंपनी ने कहा, “2011 हमने बीटी बीज को लेकर जन जागरूकता अभियान चलाया था, जो सीमित अवधि के लिए था। इसका उद्देश्य था कि लोगों को कृषि के क्षेत्र में बायोटेक्नोलाजी के महत्त्व की जानकारी मिल सके।” द हिंदू ने यह सवाल पूछा था कि जब संसद में बीआरएआई विधेयक पेश होना था, उसी समय यह अभियान क्यों चलाया गया, लेकिन इसका कोई जवाब नहीं मिला। लेकिन मामला इससे भी आगे का है। गांव के लोगों का कहना है कि बीटी के जादू पर लिखी गई टाइम्स आफ इंडिया की खबर में भांबराजा या अंतरगांव की जो फोटो लगी थी, वह उस गांव की थी ही नहीं। गांव के किसान बबनराव गवांडे कहते हैं, “ इस फोटो में लोगों को देखकर यह लगता है कि फोटो भांबराजा की नहीं है। ”
काल्पनिक करिश्मा
टाइम्स आफ इंडिया की खबर में एक चैंपियन शिक्षित किसान नंदू राउत को पात्र बनाया गया है, जो एलआईसी एजेंट भी है। इसकी कमाई बीटी के करिश्मे की वजह से बढ़ी बताई गई है। पिछले साल सितंबर महीने में नंदू राउत ने मुझसे कहा था, “मैंने इसके पहले साल करीब 2 लाख रुपये कमाए थे।” उसने कहा, “इसमें से करीब 1.6 लाख रुपये पॉलिसी की बिक्री से आए थे।” संक्षेप में कहें तो उसने एलआईसी पॉलिसी के माध्यम से खेती से हुई कमाई की तुलना में करीब 4 गुना ज्यादा कमाया। नंदू के पास साढ़े सात एकड़ जमीन है और उसके परिवार में 4 सदस्य हैं।
लेकिन टाइम्स आफ इंडिया की खबर में कहा गया है कीटनाशकों के खर्च बच जाने की वजह से उसे प्रति एकड़ 20,000 रुपये अतिरिक्त कमाई हुई। वह 4 एकड़ में खेती करता है, इस तरह से उसे 80,000 रुपये का अतिरिक्त मुनाफा हुआ। इससे अलग भांबराजा गांव के किसान गुस्से से कहते हैं, “हमें एक किसान दिखा दो, जिसका प्रति एकड़ कुल मुनाफा भी 20,000 रुपये हो।” पूरे गांव में किए गए सर्वे, जिस पर राउत ने भी हस्ताक्षर किए हैं, उनकी कमाई की अलग कहानी कहता है। सर्वे की यह प्रति द हिंदू के पास भी है। भांबराजा और मारेगांव के किसानों को बीटी के करिश्मे से हुए फायदे की कहानी को केंद्रीय कृषि मंत्रालय के आंकड़े भी झुठलाते हैं। 19 दिसंबर 2011 को शरद पवार ने संसद में कहा, “विदर्भ में करीब 1.2 क्विंटल प्रति हेक्टेयर काटन लिंट का उत्पादन होता है।” इतने कम उत्पादन का आंकड़ा चौंकाने वाला है। इस आंकड़े का दोगुना भी कम होगा। किसान अपनी फसल को कच्चे कपास के रूप में बेचते हैं। 100 किलो कच्ची कपास में 35 किलो लिंट निकलती है और 65 किलो कपास बीज होता है। पवार के दिए गए आंकड़े कहते हैं कि 3.5 क्विंटल कच्चे कपास का उत्पादन प्रति हेक्टेयर होता है। पवार का कहना है कि किसानों को अधिकतम 4,200 रुपये प्रति क्विंटल मिल रहे हैं। इस तरह से वह मानते हैं कि किसानों को करीब उतना ही मिल रहा है, जितना कि उनका उत्पादन लागत होता है, जिसकी वजह से ऐसी गंभीर समस्या पैदा हुई है। अगर पवार के आंक़डे सही हैं तो नंदू रावत की कमाई 5,900 रुपये प्रति एकड़ से ज्यादा नहीं हो सकती। अगर इसमें से 1.5 पैकेट बीज के करीब 1,400 रुपये व अन्य उत्पादन लागत निकाल दें तो उसके पास करीब कुछ भी नहीं बचता। जबकि टाइम्स आफ इंडिया के मुताबिक इसकी कमाई 20,000 रुपये प्रति एकड़ से ज्यादा है। कमाई के इस असाधारण दावे के बारे में पूछे जाने पर म्हाइको मोनसेंटो के प्रवक्ता ने कहा, “हम एमएमबी इंडिया के सहकर्मियों के बयानों के साथ हैं, जैसा कि खबर में प्रकाशित किया गया है।” दिलचस्प है कि पूरे पेज की इस खबर में एक पैराग्राफ का एक बयान है, जिसमें 20,000 रुपये प्रति एकड़ से ज्यादा कमाई या किसी अन्य आंकड़े का कोई जिक्र नहीं है। इसमें महज इतना कहा गया है कि बीटी की वजह से कपास की खेती करने वाले उत्पादकों की आमदनी बढ़ी है और बीटी का रकबा भी बढ़ा है। इसमें प्रति एकड़ पैदावार के बारे में नहीं बताया गया है। इसमें दो गांवों में किसी के भी आत्महत्या न करने के बारे में भी कुछ नहीं कहा गया है। इस तरह से कंपनी बड़ी सावधानी से टाइम्स आफ इंडिया के दावों से खुद को अलग करती है, लेकिन इसका इस्तेमाल बड़ी चालाकी से मार्केटिंग फीचर के रूप में करती है। इन दावों के बारे में एमएमबी के प्रवक्ता का कहना है, “यह जानकारी पत्रकारों ने किसानों से सीधे बातचीत और किसानों के व्यक्तिगत अनुभवों से जुटाई है। पत्रकार गांव में गए थे, उन्होंने किसानों से बातचीत करके रिपोर्ट तैयार की औऱ उसमें किसानों के बयान भी दिए।” खबर के बाद विज्ञापन बन चुके एक पेज के दावों के मुताबिक नंदू रावत की बोलगार्ड-2 की प्रति एक़ड़ उत्पादकता 20 क्विंटल होनी चाहिए, जो कृषि मंत्री शरद पवार के बताए 1.4 क्विंटल औसत की तुलना में 14 गुना ज्यादा है.पवार का मानना है कि विदर्भ इलाके में बारिश के पानी पर निर्भरता की वजह से पैदावार कम होती है, क्योंकि कपास की दो से तीन बार सिंचाई की जरूरत होती है। हालांकि वह इस सवाल पर खामोश हो जाते हैं कि महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी व कांग्रेस की सरकार है, ऐसे में एक सूखे इलाके में बीटी काटन को क्यों बढ़ावा दिया जा रहा है। अगर हम टाइम्स आफ इंडिया की मानें तो नंदू नकदी की ढेर पर बैठा है, लेकिन कृषि मंत्री की बात पर यकीन करें तो वह मुश्किल से अपनी जान बचा रहा है। म्हाइको मोनसेंटो बायोटेक के 2011 के ठीक इसी सप्ताह में दिल्ली के एक अखबार में छपे विज्ञापन पर विवाद हुआ था। एक विज्ञापन पर एडवर्टाइजिंग स्टैंडर्ड काउंसिल आफ इंडिया (एएससीआई) के पास शिकायत पहुंची, जिसमें भारतीय किसानों को भारी मुनाफे का दावा किया गया था। एएससीआई ने पाया कि विज्ञापन में किए गए दावे पुष्ट नहीं हैं। एमएमबी के प्रवक्ता ने कहा कि कंपनी ने एएससीआई की ओर से उठाए गए मसलों को संज्ञान में लिया और उसके मुताबिक विज्ञापन में बदलाव किया गया। हम स्थायी समिति के सांसदों के साथ जब मार्च में गांव के दौरे से लौट रहे थे तो एक बार फिर नंदू से मिले। उसने कहा, “आज की तारीख में फिलहाल मैं यही सलाह दूंगा कि यहां बीटी काटन का इस्तेमाल न करें, क्योंकि यह असिंचित इलाका है। अब हालात बहुत खराब हो गए हैं।” उसने सांसदों के साथ बैठक में एक भी सवाल नहीं उठाए और हा कि वह इतनी देर से आए हैं कि कुछ कर नहीं सकते। टाइम्स आफ इंडिया की एक खबर में एक किसान मंगू चव्हाण अपने बयान में कहता है, “हम अब महाजनों के चंगुल से दूर हैं। अब किसी को उनकी जरूरत नहीं होती।” यह अंतरगांव के किसान का बयान है, जहां बीटी काटन के चलते लोगों की अमीरी दिखाई गई है। लेकिन भांबराजा के 365 किसान परिवारों और अंतरगांव के 150 परिवारों पर किए गए अध्ययन के आंकड़े कुछ और ही बयां करते हैं। यह अध्ययन विदर्भ जन आंदोलन समिति ने किए हैं। समिति के प्रमुख किशोर तिवारी कहते हैं, “बैंक खाते रखने वाले ज्यादातर किसान डिफाल्टर हो चुके हैं औऱ 60 प्रतिशत किसान साहूकारों के कर्ज तले दबे हैं।” महाराष्ट्र सरकार ने पूरी कोशिश की कि सांसदों को “आदर्श गांव” भांबराजा और मारेगांव न जाने दिया जाए। बहरहाल, समिति के अध्यक्ष बासुदेव आचार्य और उनके सहयोगी वहां जाने को तत्पर थे। सांसदों के दौरे से प्रोत्साहित गांव वाले खुलकर बोले। महाराष्ट्र में 1995 से 2010 के बीच 50,000 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक यह सबसे खराब स्थिति है। विदर्भ में लंबे समय से इस तरह की मौतें हो रही हैं। अब किसान भी नीतिगत मसलों पर आवाज उठाने लगे हैं, जिसकी वजह से गांवों में तनाव बढ़ा है।किसी भी किसान ने यह नहीं कहा कि आत्महत्या की घटनाओं या संकट की वजह केवल बीटी काटन है। लेकिन गांववाले इसके करिश्मे के तमाम दावों की हवा निकालते हैं। उनकी कुछ प्रतिक्रियाएं तो सांसदों के लिए खबर की तरह आईं, न कि भुगतान की गई खबर या मार्केटिंग फीचर के रूप में।
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