Thursday, July 24, 2008

कभी सूरज है बालों पर, कभी शामें हैं चेहरे पर...


सत्येन्द्र प्रताप सिंह



भारत में नव उदारवाद की नीति को लागू हुए करीब 17 साल होने जा रहे हैं। इसे राजनीतिक आंदोलन के रूप में लिया जा सकता है, जो 1970 में आई वैश्विक मंदी के बाद दुनिया के तमाम देशों में लागू किया गया था।

भारत में नव उदारवाद के दूसरे चरण में- क्षेत्र के आधार पर परमाणु ऊर्जा में निजीकरण, रक्षा के क्षेत्र में निजीकरण और बैंकिंग क्षेत्र को खोलने की कवायद चल रही है। नव उदारवाद के दौरान भारत में जीडीपी और विकास दर में बढ़ोतरी भी दर्ज की गई है और यह पहले की तुलना में अधिक रही है। अब केंद्र की मनमोहन सरकार ने विश्वास मत हासिल कर लिया है।

4 साल 2 महीने तक वामपंथियों के समर्थन में बहुत से बंधन लगे और तमाम विधेयक रुके रहे, जिन्हें केंद्र सरकार आर्थिक सुधारों के लिए जरूरी समझती थी। नव उदारवाद के समर्थक रहे वर्तमान प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री एक बार फिर अपने रंग में हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित्तमंत्री पी. चिदंबरम और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया की तिकड़ी एक बार फिर नव उदारवाद के दूसरे चरण को शुरू करने के लिए बेताब हैं।

भारतीय कम्युनिस्ट पाटी की साप्ताहिक पत्रिका पीपुल्स डेमोक्रेसी में कहा गया है कि, 'इसका प्रभाव यह रहा है कि भारत में डॉलर के हिसाब से करीब 40 अरबपति बने हैं वहीं आम लोगों का जीवन स्तर बिगड़ा है। जहां 1973-74 में 56.4 प्रतिशत लोगों को 2200 कैलोरी से कम पौष्टिकता वाला भोजन मिलता था, 1993-94 में यह बढ़कर 58.5 प्रतिशत और 2004-05 में 64.5 प्रतिशत पहुंच गया।' मतलब साफ है। जहां आईटी, दूरसंचार, सेवा क्षेत्र में विकास हुआ वहीं संतुलन में कमी आई और कृषि क्षेत्र में विकास नहीं के बराबर हुआ। गरीबी, भुखमरी और कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या बढ़ गई।

वैसे तो 1991 में केंद्र में सत्तासीन हुई कांग्रेस के वित्तमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकरण की ठोस बुनियाद रखी थी। बाजार को खोले जाने की व्यापक कोशिश उसी समय हुई। उसके बाद आई सरकारें कमोबेश उसी राह पर चलती रहीं, जिस पर मनमोहन सिंह ने चलना सिखाया था। अपनी दूसरी पारी में जब मनमोहन प्रधानमंत्री बने तो नव उदारवाद को रंग देने की सरकार की इच्छा तो नजर आई लेकिन वामपंथियों के बाहरी समर्थन ने उनका हाथ रोक रखा था।

हालांकि इसके पहले भी उदारीकरण की चोरी-छुपे कोशिशें की गई थीं। इंदिरा गांधी ने 1980 में सत्ता संभालने के बाद औद्योगिक लाइसेंसिंग और बड़े उद्योगों पर लगे बंधनों को कम किया। वर्ष 1984 में राजीव गांधी ने औद्योगिक गैर नियमन, विनिमय दरों में छूट और आयात नियंत्रणों को आंशिक रूप से हटाए जाने संबंधी कुछ कदम उठाए। लेकिन ये 1991 में उठाए गए कदमों की तुलना में मामूली ही थे। नव उदारवाद के बाद भारत में दो प्रमुख बदलाव नजर आते हैं। पहला- विकास दर में बढ़ोतरी और दूसरा- वित्तीय घाटे में तेजी से कमी।

सरकार के विश्वास मत हासिल करने के बाद स्वाभाविक है कि अब पुराने पड़े तमाम एजेंडों को लागू करने की कोशिशें फिर से शुरू होंगी। इसमें बैंकिंग विधेयक, पेंशन विधेयक, लेबर रिफार्म विधेयक, बीमा क्षेत्र में विदेशी पूंजी बढ़ाए जाने का मसला सहित तमाम मुद्दे फिर से जिंदा होंगे, जो वामपंथियों के विरोध के चलते ठंडे बस्ते में डाल दिए गए थे। इसके अलावा अमेरिका से परमाणु समझौते के बाद बिजली उत्पादन के लिए भारी भरकम निवेश की जरूरत होगी, उसके लिए भी सरकार की कोशिश होगी कि निजी क्षेत्र आगे आएं। इसके अलावा सैन्य क्षेत्र में भी सरकार निजी क्षेत्र का मुंह देख रही है।

इस सिध्दांत के तहत बुनियादी जरूरतों के क्षेत्र में भी सरकार की हिस्सेदारी कम किए जाने की बात की जाती है- चाहे वह सड़क निर्माण, शिक्षा या पेय जल जैसी जीवन की मूलभूत जरूरतों से संबंधित मामला ही क्यों हो। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि आर्थिक उदारीकरण के बाद भारत और चीन जैसे विकासशील देशों को लाभ हुआ है। यहां के जीवन स्तर में सुधार आया है, लेकिन वैश्विक मंदी को देखते हुए पश्चिमी देशों में यह सवाल उठने लगे हैं कि क्या खुली बाजार व्यवस्था को समेटने की जरूरत है?

मार्गन स्टैनली का मानना है कि वैश्विक मंदी अब अंतिम दौर में है। अगर यह भविष्यवाणी सही साबित होती है तो यह संभावनाएं भी प्रबल हो जाएंगी कि आर्थिक सुधार की गति को तेज करने का असर तेजी से हो और गिरती विकास दर और बढ़ती महंगाई पर काबू पाया जा सके। सरकार भी कुछ वैसा ही रंग बदलते नजर रही है, जैसा पाकिस्तान की शायर शाहिदा हसन कहती हैं-
कभी सूरज है बालों पर, कभी शामें हैं चेहरे पर
सफर करते हुए रंगत बदलती जा रही हूं मैं।

courtesy_ bshindi.com

Wednesday, July 23, 2008

अब सीख भी लीजिए आडवाणी जी


सरकार जीत गई। भले ही खरीद फरोख्त से। आडवाणी जी, आपलोगों की ये गलतफहमी तो दूर ही हो गई होगी कि बेहतर मैनेजर भाजपा ही है। साथ में मनमोहन सिंह ने शायद यह बात भी आप लोगों के लिए ही कही कि वामपंथी, सरकार को बंधुआ मजदूर समझते थे। आप भी सरकार में थे, जनता के बीच गए तो रोते-बिलखते। वही रोना कि गठबंधन सरकार थी, इसलिए समान नागरिक संहिता, धारा ३७० और राम मंदिर छोड़ना पड़ा। मान लेते हैं कि राम मंदिर मुसलमानों से संबंधित मुद्दा था, लेकिन समान नागरिक संहिता और धारा ३७० पर तो सहयोगियों को समझाया बुझाया ही जा सकता था न।
अब क्या होगा? केंद्र की संप्रग ने तो दिखा दिया कि हम बंधुआ नहीं हैं। लेकिन आप तो पिलपिले ही निकले थे, रोने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं तलाश पाए और ५ साल तक सत्ता सुख भोगने में ही लगे रहे। मनमोहन अगर महंगाई नहीं रोक पाए तो जनता के बीच नंगे होंगे, लेकिन ये रोना तो नहीं रोएंगे कि कम्युनिस्टों के चलते नव-उदारवाद का एजेंडा नहीं लागू कर पाए, जिसके चलते दुर्दिन देखने पड़े।

Tuesday, July 22, 2008

बिगड़ेगा कृषि उत्पादों का संतुलन!


सत्येन्द्र प्रताप सिंह



भारत में मानसूनी बारिश से जहां कुछ इलाकों में खुशी का माहौल हैं, वहीं ज्यादातर इलाकों में हालत बेहद निराशाजनक है।

दक्षिण और दक्षिण-पश्चिमी भारत में मानसूनी बारिश कम होने की वजह से गन्ना और कपास के उत्पादन में खासी गिरावट का अनुमान लगाया जा रहा है। इसके साथ ही किसानों का कपास और गन्ने जैसी नकदी फसलों से भी मोहभंग हुआ है और किसान धान की खेती की ओर पलायन कर चुके हैं।

कृषि वैज्ञानिक इस साल 30 लाख टन अधिक धान उत्पादन का अनुमान लगा रहे हैं। मौसम विभाग के आंकड़ों के मुताबिक दक्षिण पश्चिमी भागों- गुजरात के सौराष्ट्र में 24 प्रतिशत कम वर्षा हुई, वहीं कोंकण और गोवा में 22 प्रतिशत, मध्य महाराष्ट्र और विदर्भ के इलाकों में 16 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 41 प्रतिशत, तटीय आंध्रप्रदेश में 36 प्रतिशत कम बारिश हुई है। इन इलाकों में पिछले साल 8 प्रतिशत से लेकर 130 प्रतिशत अधिक बारिश हुई थी।

इसके अलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश में पिछले साल जहां 24 प्रतिशत कम वर्षा हुई थी, वहीं इस साल 79 प्रतिशत अधिक वर्षा हुई है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 71 प्रतिशत ज्यादा वर्षा हुई है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिकों के एक सर्वेक्षण के मुताबिक इस साल 30 लाख टन धान अधिक उत्पादन होने का अनुमान है। पिछले साल धान का कुल उत्पादन 956.80 लाख टन था।

बारिश के इन आकड़ों के आधार पर काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कृषि विज्ञान संस्थान के फार्म इंजिनियरिंग विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. गिरीश चंद्र मिश्र ने बताया, 'पिछले साल जहां 47.1 लाख हेक्टेयर जमीन पर धान की रोपाई हुई थी वहीं इस साल कुल 56 लाख हेक्टेयर पर रोपाई हुई है। यही प्रमुख वजह है जिसके चलते धान का उत्पादन इस साल 30 लाख टन अधिक होने का अनुमान है। इसके अलावा किसान हाइब्रिड बीजों की ओर आकर्षित हो रहे हैं, जिससे उपज में बढ़ोतरी होगी।'

सबसे दुखद पहलू यह है कि सरकार की नीतियों के चलते किसानों ने कपास और गन्ने की ओर से मुंह मोड़ लिया है। कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक 19 प्रतिशत अधिक क्षेत्रफल में धान की रोपाई का सीधा असर कपास उत्पादन पर पडेग़ा। इसके साथ ही सौराष्ट्र में 24 प्रतिशत कम बारिश होने और मराठवाड़ा में 65 प्रतिशत कम बारिश का असर भी कपास उत्पादन पर पड़ेगा। भारत सरकार ने मौसम के हिसाब से देश को कुल 36 डिवीजन में विभाजित किया है। इसमें से 14 सब-डिवीजन में ज्यादा, 8 में सामान्य और 13 में कम वर्षा हुई है।

अगर उत्तर प्रदेश की बात करें तो 62 जिलों में अधिक, 5 में सामान्य और 5 जिलों में कम बारिश हुई है। दिलचस्प है कि मौसम विभाग के पास उत्तर प्रदेश के 15 जिलों की बारिश के आंकड़े ही उपलब्ध नहीं हैं। प्रो. मिश्र ने बताया, 'इस साल वर्षा का वितरण बेहतर रहा है जिसकी वजह से धान की रोपाई में सुविधा हुई। किसानों ने पिछले साल की तुलना में 19 प्रतिशत ज्यादा क्षेत्रफल में रोपाई की। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि पिछले कपास की तुलना में उन्हें धान की खेती से ज्यादा लाभ मिला। लेकिन इसका खामियाजा कपास की खेती से जुड़े उद्योगों को भुगतना पड़ सकता है।'

courtesy: bshindi.com

Monday, July 21, 2008

कम वाजिब नहीं हैं अमर सिंह की कुछ मांगें

सुनील जैन


कई लोगों को ऐसा लगता है कि मंगलवार को संसद में विश्वास मत हासिल करने के बाद सरकार पर अमर सिंह की मांगों को पूरा करने का बोझ नहीं रहेगा। लेकिन यह सच नहीं है।

ऐसा इसलिए है कि अगर समाजवादी पार्टी अपना समर्थन वापस ले लेती है, तो सरकार एक बार फिर मुसीबतों से घिर जाएगी। वह अगले छह महीने तक बनी तो रह सकती है, लेकिन परमाणु करार के मुद्दे पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाएगी, जो वर्तमान संकट की प्रमुख वजह है। दूसरी बात यह है कि अगर अमर सिंह की मांगें अनिल अंबानी के पक्ष में लग रही हैं, तब भी ये कम वाजिब नहीं है।

मुरली देवड़ा और अन्य

इसमें कम ही संदेह है कि पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा और उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी मुकेश अंबानी के कृष्णा गोदावरी (केजी) बेसिन से गैस निकालने के मामले में अनिल अंबानी के बनिस्बत मुकेश का सहयोग कर रहे हैं। दोनों भाइयों के बीच हुए समझौते के मुताबिक कृष्णा गोदावरी से अनिल के 5,600 मेगावाट के दादरी पॉवर प्रोजेक्ट को 2.34 डॉलर प्रति ब्रिटिश थर्मल यूनिट (बीटीयू) के हिसाब से गैस की आपूर्ति की जानी है।

मुकेश ने 2004 में अंतरराष्ट्रीय बोली में शामिल होकर सरकारी कंपनी एनटीपीसी को गैस की आपूर्ति करने का ठेका हासिल किया था, जबकि इसी कीमतों पर मुकेश-अनिल के बीच डील हुई थी। बहरहाल जबसे सरकार केजी बेसिन से राजस्व का हिस्सा पाने लगी, इस डील को देवड़ा के मंत्रालय में मंजूरी के लिए भेज दिया गया। मंत्रालय ने इस समझौते को यह कहकर खारिज कर दिया कि डील में सही ढंग से कीमतें नहीं तय हुई हैं।

मंत्रालय का यह कहना सही नहीं है क्योंकि पहली बात यह कि उसी कीमत पर एनटीपीसी से भी समझौता हुआ था, दूसरे- मंत्रालय का कहना कि मुकेश अगर बढ़ी हुई कीमतों पर सरकार को राजस्व का हिस्सा देते रहते हैं तो वे अनिल को मुफ्त में गैस दे सकते हैं। दुखद पहलू यह है कि पिछले महीने सरकार गैस उपभोग नीति इस उद्देश्य से लाई कि अनिल को कभी गैस न मिले। इस बात का भी ध्यान नहीं रखा गया कि इससे मुकेश से एनटीपीसी के साथ हुआ समझौता भी प्रभावित होगा।

25 जून को अधिकार प्राप्त मंत्रिमंडल समूह ने यह सिफारिश की कि नई जगहों पर होने वाले अनुसंधानों से मिलने वाली गैस का आवंटन किस हिसाब से किया जाए। जहां अन्य परियोजनाओं के लिए एक जैसे नियम बनाए गए, केजी बेसिन के लिए अलग से दिशानिर्देश जारी किए गए। आवंटन की प्राथमिकताएं क्या हैं? पहला- गैस पर आधारित यूरिया संयंत्रों के मामले में मात्रा निर्धारित नहीं की गई।

इसके बाद वर्तमान एलपीजी संयंत्रों के लिए 3 एमएमएससीएमडी आरक्षित किया गया, इसके बाद 18 एमएमएससीएमडी गैस पर आधारित विद्युत संयंत्रों के लिए रखा गया, जो 2008-09 में प्रस्तावित विद्युत संयंत्रों में गैस की कमी को देखते हुए आदर्श स्थिति है (न तो एनटीपीसी न ही दादरी 2008-09 में आएंगे) इसके बाद 5 एमएमएससीएमडी सिटी गैस परियोजनाओं के लिए और शेष को वर्तमान में गैस आधारित विद्युत संयंत्रों को बेचने के लिए आरक्षित किया गया।

अगर यह नियम, दादरी परियोजना को बंद करने के लिए नहीं हैं तो आखिर इस परियोजना के लिए गैस की आपूर्ति किस तरह से होगी? इसके साथ यह भी प्रावधान जोड़ा गया है कि वे प्रयोगकर्ता जो गैस ग्रिड से जुड़े हुए हैं, उन्हीं को गैस की आपूर्ति की जाएगी। दादरी गैस ग्रिड का आवेदन तो पिछले दो साल से देवड़ा के मंत्रालय में धूल फांक रहा है। यह भी आश्चर्य की बात है कि गैस उपभोग नीति के विरोध के बावजूद इसे लागू करने की कोशिश की गई। वहीं गैस आपूर्ति पर समझौते पर हस्ताक्षर तो चार साल पहले ही हो चुके हैं।

रिलायंस रिफाइनरी

अमर सिंह ने रिलायंस इंडस्ट्रीज पर कर लगाए जाने की बात की है। उनका कहना है कि पिछले एक साल में तेल की कीमतें बढ़ी हैं, जिसकी वजह से बेतहाशा फायदा हुआ है। हालांकि यह कमजोर मुद्दा है। पहला- रिलायंस अंतरराष्ट्रीय कीमतों पर तेल की खरीदारी करती है। इसलिए 'अप्रत्याशित' लाभ की बात गले नहीं उतरती। अगर आप 2007-08 की चौथी तिमाही की तुलना 2006-07 की चौथी तिमाही से करें, जिस दौरान ब्रेंट की कीमतें 58 डॉलर से बढ़कर 97 डॉलर प्रति बैरल हो गईं तो कंपनी के पीबीआईटी में केवल 1,015 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी हुई जबकि टर्नओवर बढ़कर 9,424 करोड़ रुपये हुआ।

क्षेत्रवार राजस्व पर गौर करें तो रिफाइनिंग से प्री-टैक्स लाभ केवल 600 करोड़ रुपये रहा। यह भी है कि रिलायंस रिफाइनरी का लाभ वैश्विक रूप से दो से तीन गुना बढ़ा है। अब ऐसे में यह निर्धारित करना कठिन है कि वास्तविक मुनाफा कितना है और कितनी बेतहाशा बढ़ोतरी हुई। रिफाइनरी पर ईओयू को हटाए जाने का मुद्दा भी बहुत जटिल है। इस नियम के लागू रहने पर रिफाइनरीज कुछ और साल तक कर नहीं लगेगा और इससे घरेलू बाजार में गैस की कमी होने की हालात में गैस का आयात करने की भी इजाजत मिलती है।

पिछले साल ईओयू का दर्जा दिए जाने के फैसले का अमर सिंह विरोध कर रहे हैं। बहरहाल सरकार की नीतियों से सरकारी क्षेत्र की रिफाइनरीज को संकट का सामना करना पड़ रहा है और वे बाजार भाव से कम पर बिक्री करने को मजबूर हो रही हैं।

मुफ्त स्पेक्ट्रम

सिंह का यह कहना शायद सही है कि सेल्युलर लाइसेंस धारकों को अतिरिक्त स्पेक्ट्रम मुफ्त में दिया गया, जबकि लाइसेंस के मुताबिक उन्हें 6.2 मेगाहर्ट्ज से ज्यादा स्पेक्ट्रम नहीं मिलना चाहिए। यह विभागीय नोटिसों पर निर्भर करता है, खासकर बेहतर कानूनी मामलों में सही होता, लेकिन सामान्यत: सरकारी नियम, एक दूसरे का विरोध करते हैं और काफी अस्पष्ट हैं।

इस मामले में भी अनिल अंबानी के साथ भेदभाव किया गया और उन्हें स्पेक्ट्रम के लिए लाइसेंस पाने के लिए 1,651 करोड़ रुपये का भुगतान करना पड़ा, जबकि वे इस क्षेत्र में 2001 से हैं जब केवल 40 लाख उपभोक्ता थे। इस उद्योग ने इतने उपभोक्ता तो दो सप्ताह के दौरान हासिल किए हैं। अब भले ही सिंह द्वारा उठाए गए सभी मसले उतने प्रभावी न हों, लेकिन उन्होंने केंद्र सरकार की तानाशाही और दोमुंहेपन के रवैये को उजागर किया है, जिसमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी एक पक्ष हैं।

courtesy: bshindi.com

Friday, July 18, 2008

आईफोन 3जी की दुनिया हुई दीवानी


सत्यव्रत मिश्र
तकनीक की दुनिया में आज की तारीख में बस एक ही चर्चा चल रही है। उस चर्चा का ताल्लुक है एप्पल के नए आईफोन 3जी से। इस फोन की तो आज दुनिया दीवानी है।
लोगों में इस फोन को जल्दी से जल्दी अपनाने की होड़ मची हुई है। दीवानगी हो भी क्यों न? आखिर इसका लंबे समय से इंतजार भी किया जा रहा है। वैसे, होता यह है कि जिस चीज का लंबे वक्त से इंतजार होता है, उसमें अक्सर बड़ी खामियां होती हैं। इस वजह से लोगों का दिल खट्टा होता है। लेकिन आईफोन 3जी ने किसी को निराश नहीं किया है।
इस फोन में एप्पल ने आईफोन की पुरानी दिक्कतें को सुधारने की अच्छी-खासी कोशिश की है। बड़ी बात यह है कि उसकी कोशिश रंग भी लाती नजर आ रही है। साथ ही, इस फोन में कई ऐसे नई फीचर भी हैं, जो आपके होश उड़ाकर रख देंगे। सबसे बड़ी बात यह है कि अब तक आईफोन को युवाओं का फोन समझा जाता था। लेकिन आईफोन 3जी के जरिये कंप्यूटर जगत की दिग्गज कंपनी एप्पल ने अब सेलफोन की दुनिया के दिग्गज कंपनी ब्लैकबेरी को चुनौती दी है। इसलिए तो एप्पल ने भी अपने इस नए फोन में 'पुश' ईमेल की सु्विधा डाल दी है। हालांकि, इसके लिए उसने अपने ट्रेंडी लुक्स और मल्टीमीडिया फीचर्स के साथ कोई भी छेड़छाड़ नहीं की है।

कैसे जुदा है आईफोन 3जी?

अब जब आईफोन 3जी बाजार में आ गया तो लोगों के दिल में यह सवाल उठना तो लाजिमी ही है कि यह पुराने वाले आईफोन से कैसे अलग है? हम बताते हैं। पहली बात तो यह कि नए आईफोन को 3जी तकनीक पर काम करने के लिहाज से बनाया गया है। इसका मतलब इसमें आप तेज रफ्तार इंटरनेट का बड़े मजे से लुत्फ उठा सकते हैं। पुराने आईफोन को इस्तेमाल करने वालों की एक बड़ी शिकायत यह रहती थी कि उनका फोन बहुत धीरे काम करता है। आईफोन 3जी के साथ एप्पल ने उनकी यह शिकायत भी दूर कर दी है। यह फोन पुराने वाले आईफोन के मुकाबले दो गुना ज्यादा तेज काम करता है। साथ ही, इसके लुक्स का भी काफी ध्यान रखा गया है। इसके टच स्क्रीन की लंबाई 3।5 इंच बरकरार रखी गई है, लेकिन पहले की तुलना में नए फोन का टच स्क्रीन ज्यादा चटख है। ऊपर से यह फोन पुराने वाले आईफोन के मुकाबले काफी ज्यादा पतला भी है। इस फोन के जरिये एप्पल ने पहली बार बिजनेस फोन के दीवानों को भी लुभाने की कोशिश की है। इसलिए तो इसमें बिजनेस से जुड़े कई सारे फीचर्स हैं, लेकिन उनमें सबसे खास है पुश ईमेल। जी हां, अब आप 24 घंटे दुनिया से जुड़े रह सकते हैं।जैसे ही कोई ईमेल भेजगा तो वह उसे आप अपने आईफोन 3 जी के जरिये भी पढ़ सकेंगे। अगर आप रास्ता भटक गए हैं, तो आपका फोन आपको राह दिखलाएगा। यह मुमकिन हो पाएगा, फोन के इनबिल्ट जीपीएस और गूगल मैप्स की मदद से। इसकी एक सबसे बड़ी खूबी है, मल्टीटास्किंग। आम फोनों में या तो आप बात कर सकते हैं या फिर डेटा ट्रांसफर। लेकिन आईफोन 3जी में आप बात करने के साथ-साथ डेटा भी ट्रांसफर कर पाएंगे। साथ ही, आप चाहें तो मैप्स का इस्तेमाल भी अपने दोस्तों के साथ बातें करते हुए बड़े मजे के साथ कर सकते हैं। यह सब मुमकिन हो पाया है, इसके नए सॉफ्टवेयर की वजह से। इसमें एप्पल ने इस्तेमाल किया है अपना नया आईफोन 2.0 सॉफ्टवेयर। इसकी वजह ये फोन काफी जबरदस्त बन गया है। ऊपर से, इसमें एक अनोखा फीचर है पैरेंटल कंट्रोल का। इस फीचर्स की वजह से आप अनचाहे वेबसाइटों को ब्लॉक कर सकते हैं। फिर चाहे आपके दोस्त या फिर आपके बच्चे जितनी चाहे कोशिश कर लें, लेकिन वो उन अनचाहे वेबसाइटों को आपके फोन पर सर्फ नहीं कर पाएंगे। इसमें आपको मिलेगा एक अनोखा फीचर, जिसे नाम दिया गया है एप्पस्टोर का। इसके जरिये आप गेम्स, बिजनेस, स्पोटर्स और स्वास्थ्य से जुड़ी हुई कई सेवाओं का इस्तेमाल कर सकते हैं।हालांकि, इसके लिए आपको कुछ पैसे खर्च करने पड़ेंगे। यह फोन 8 और 16 जीबी की मेमोरी के साथ उपलब्ध होगा। इसलिए इसमें आपके पास गाने कम पड़ जाएगें, लेकिन मेमोरी कम नहीं पड़ेगी। साथ ही, इसमें मौजूद आईपॉड की आवाज भी काफी जबरदस्त है। सबसे मजे की बात यह है कि यह फोन पुराने आईफोन के मुकाबले दाम में आधा है, जबकि इसकी खूबियां उससे दोगुनी हैं।

तस्वीर का दूसरा पहलू

इसमें कोई शक नहीं है कि आईफोन का यह नया वर्जन काफी जबरदस्त है। लेकिन यह बात भी सच है कि एप्पल कंपनी ने अपनी गलतियों से पूरी तरह से सीख नहीं ली है। इसलिए तो ऐसी कई खामियां जो पुराने आईफोन में थीं, आपको आईफोन 3जी में भी मिल जाएंगी। मिसाल के तौर पर एफएम रेडियो को ही ले लीजिए। एप्पल ने अपने नए वर्जन में भी एफएम रेडियो की सुविधा नहीं दी है। साथ ही, यह एक लॉक्ड फोन है। मतलब, अगर आप इस फोन को एयरटेल से खरीदते हैं, तो इसमें किसी और सेलफोन कंपनी का सिम काम नहीं कर पाएगा। इसे अनलॉक करने के वास्ते आपको मोटी रकम खर्च करनी पड़ सकती है। वैसे, यह फोन अनलॉक हो भी जाएगा, इसकी भी गारंटी नहीं है। इस फोन को लॉन्च हुए एक हफ्ता बीत चुका है, लेकिन अब केवल ब्राजील की एक टीम ही अनलॉक कर पाई है। ऊपर से, दुनिया के कई हिस्सों से इसमें सिग्नल की दिक्कत आने की शिकायत आ रही है। इससे भी बड़ी बात यह है कि अभी तक अपने मुल्क में 3जी मोबाइल सर्विस का आगमन नहीं हुआ है। इस मुद्दे पर टेलीकॉम कंपनियों और सरकार के बीच ठनी हुई है। बार-बार 3जी लाइसेंस देने की तारीख आगे बढ़ाई जा रही है। ऐसे में आईफोन का यह नया अवतार भारत में कितना कामयाब हो पाएगा, यह देखने की बात है। ऊपर से इसमें कहने को तो दो मेगापिक्सल का कैमरा तो लगा दिया गया है, लेकिन उस कैमरे की क्वालिटी दो मेगापिक्सल के बराबर नहीं है। साथ ही, उसमें फ्लैश नहीं है।ऊपर से, इस कैमरे से आप वीडियो भी रिकॉर्ड नहीं कर पाएंगे। कहने को तो यह एक मल्टीमीडिया फोन है, लेकिन इसमें मेमोरी कार्ड के लिए कोई स्लॉट नहीं है। साथ ही, इसमें आप कोई ईमेल भी सर्च नहीं कर सकते। मतलब आपको किसी ईमेल की तलाश है, तो आपको शुरू से लेकर आखिर तक अपने इनबॉक्स को खंगालना पड़ेगा। लेकिन सबसे बड़ी खामी है, इस फोन का काफी महंगा होना। आप भले ही केवल नौ-दस हजार रुपये चुकाकर इसे घर ला सकते हैं, लेकिन इसके बाद आपको हर महीने इसके लिए मोटी फीस चुकानी पड़ेगी। विदेशों में तो ऐसा ही होता है। पूरी उम्मीद है कि अपने मुल्क में आईफोन 3जी को उतारने वाली कंपनियां, एयरटेल और वोडाफोन भी इसी मॉडल को अपनाएंगी।

दीवानी है दुनिया

एप्पल की इस नए फोन की तो दुनिया दीवानी है। अभी इसे लॉन्च हुए केवल एक हफ्ते हुए हैं, लेकिन अब तक 10 लाख से ज्यादा आईफोन 3जी फोन बिक चुके हैं। विश्लेषकों के मुताबिक यह अपने-आप में एक रिकॉर्ड है। उनका कहना है कि माना हफ्ते भर में एक करोड़ फोन बेच लेती है। लेकिन जरा उसके मॉडल्स की तादाद भी देखिए।नोकिया, मोटोरोला, सैमसंग और एलजी के मॉडलों की तादाद सैकड़ों में है। इसलिए उनकी बिक्री भी ज्यादा है। लेकिन आईफोन तो एप्पल का इकलौता मोबाइल फोन है। इसके अपने हाथों में जल्द से जल्द से थामने के लिए अमेरिका, यूरोप और एशिया में बहुत सारे लोगों ने कई-कई रातें सड़क पर गुजारी। भारत में भी अब लोगों को इसे खरीदने के लिए बस कुछ दिनों का ही इंतजार करना पड़ेगा। वोडाफोन और एयरटेल ने अक्टूबर से इसकी बिक्री शुरू करने का इरादा जताया है।

courtesy: bshindi.com

Thursday, July 17, 2008

बद से बदतर होती देश की आर्थिक हालत और धूमिल पड़ती सुधार की संभावनाएं

सत्येन्द्र प्रताप सिंह


अभी 6 महीने पहले तक भारतीय अर्थव्यवस्था चमक रही थी। अचानक हालात बदल गए। अर्थव्यवस्था मंदी की ओर जा रही है। महंगाई दर 12 प्रतिशत के करीब है।

औद्योगिक मंदी चल रही है। राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है। शेयर बाजार आए दिन निम्नतम स्तर के नए कीर्तिमान बना रहा है। बड़े व्यवसायियों, छोटे कारोबारियों, निवेशकों और उपभोक्ताओं में हताशा है।

ऐसे में राजनीतिक अस्थिरता ने हताशा और बढ़ा दी है। वाम दलों के समर्थन वापस लेने के बाद यह सवाल उठ रहा है कि क्या सुधारों का नया दौर फिर शुरू होगा, जैसा कि 1991 में आए आर्थिक दिवालियेपन के संकट के बाद सुधारों का दौर शुरू किया गया था?

वर्तमान स्थिति

अगर औद्योगिक वृध्दि दर पर गौर करें जो न केवल शेयर बाजार बल्कि रोजगार पर असर डालता है, तो मई 2008 में औद्योगिक वृध्दि दर 3.8 प्रतिशत पर पहुंच गई है, जो मई 2007 में करीब 10 प्रतिशत थी। ऐसा ही कुछ हाल शेयर बाजार का है। 21,000 के आंकड़े छूने के बाद सेंसेक्स 12,000 के आसपास घूम रहा है।

अंतरराष्ट्रीय बाजार में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें पिछले एक साल में दोगुनी से ज्यादा हो चुकी हैं, उर्वरकों का भी वही हाल है, लेकिन घरेलू बाजार में सब्सिडी देकर सरकार उसकी कीमतें करीब स्थिर बनाए हुए है। रुपये का लगातार अवमूल्यन हो रहा है। पेट्रोलियम, उर्वरक बॉन्ड, कर्जमाफी के गैर बजटीय खर्च से बजट घाटा जीडीपी के 10 प्रतिशत पर पहुंचने का अनुमान लगाया जा रहा है।

घाटा करीब उस स्तर पर पहुंच रहा है, जो 1991 में था। ऐसे में अर्थशास्त्री एक बार फिर सुधार के कदम उठाए जाने की जरूरत महसूस कर रहे हैं। प्रमुख अर्थशास्त्री सुबीर गोकर्ण ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखे एक लेख में कहा था कि सरकार को निश्चित रूप से सब्सिडी खत्म करने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।

क्या है लटका

केंद्र में वामपंथियों के विरोध के चलते तमाम विधेयक लटके पड़े हैं, जिन्हें आर्थिक सुधारों के लिए जरूरी समझा जा रहा है। पेंशन फंड रेगुलेटरी ऐंड एथॉरिटी बिल पिछले 3 साल से लंबित है। इस बिल के पास होने के बाद से पेंशन फंड का प्रयोग पूंजी बाजार में किया जा सकता था। इसमें पेंशनर के एक एकाउंट का प्रावधान था, जिसके माध्यम से वह अपनी इच्छा के मुताबिक फंड मैनेजर का चुनाव कर सकता था।

स्टेट बैंक आफ इंडिया अमेंडमेंट बिल जिसमें सरकार की हिस्सेदारी 55 प्रतिशत से घटाकर 51 प्रतिशत किए जाने की बात कही गई है, जिसके लागू होने से विदेशी निवेश को अनुमति मिल जाएगी। इसके साथ ही बैंकिंग रिफार्म बिल 2005 में संसद में पेश किया गया। इसमें निवेशकों को मत देने के अधिकार की बात थी, लेकिन वामपंथियों ने इस प्रावधान का कड़ा विरोध किया।

इंश्योरेंस रिफार्म बिल में विदेशी हिस्सेदारी 26 प्रतिशत से बढ़ाकर 49 प्रतिशत किए जाने का प्रावधान है। फॉरेन एजूकेशन प्रोवाइडर बिल तो वामपंथियों के विरोध के चलते पेश ही नहीं हो सका। इसके अलावा कांग्रेस सरकार सुधार के अगले चरण में टेलीकॉम और इंश्योरेंस में विदेशी हिस्सेदारी बढ़ाने, फारवर्ड कांट्रैक्ट (रेगुलेशन) अमेंडमेंट बिल और सीड बिल भी ला सकती है। इन पर वामपंथियों की नाराजगी है। पिछले साल संसद में असंगठित क्षेत्र सामाजिक सुरक्षा विधेयक पेश किया गया। इसका विरोध वामपंथी ट्रेड यूनियनों सीआईटीयू और एआईटीयूसी ने किया।

मजबूरियां अब भी हैं

अब सबकी निगाहें 22 जुलाई के संसद के सत्र पर टिक गई हैं। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि लंबित विधेयकों को स्वीकृति मिलने के बाद अर्थव्यवस्था की स्थितियां बदलेंगी और सकारात्मक माहौल बनेगा, लेकिन सरकार की प्राथमिकताएं क्या हैं? अभी तो सत्तासीन सरकार की प्राथमिकता एकमात्र यही है कि सरकार को बचाया जाए।

अगर सरकार बच जाती है तो अगली प्राथमिकता निश्चित रूप से मई 2008 में होने वाले कुछ राज्यों और लोक सभा के चुनाव ही होंगे। चुनावी मौसम को देखते हुए सरकार किसी पचड़े में नहीं पड़ना चाहेगी। हालांकि सरकार के संकटमोचक नजर आ रहे समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह का कहना है, 'अभी तक तो हम आर्थिक मामलों में कमोवेश वामपंथियों के रास्ते पर ही चल रहे थे, लेकिन सरकार बचाने के बाद हम विभिन्न मुद्दों पर फिर से विचार करेंगे। हालांकि उन्होंने कहा कि रिटेल सेक्टर का निश्चित रूप से विरोध किया जाएगा।'

अब आर्थिक सुधारों पर विपक्ष और सहयोगी दल कितना सहयोग देते हैं, यह भविष्य के गर्भ में है। एक शायर के शब्दों में इतना ही कहा जा सकता है-
हरेक से सुना नया फसाना हमने,
देखा दुनिया में एक जमाना हमने।
अव्वल ये था कि वाकफियत पे था नाज,
आखिर ये खुला कि कुछ न जाना हमने॥


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Sunday, July 13, 2008

बिहार में भी मजदूरों की बहार


सत्येन्द्र प्रताप सिंह /




कभी दूसरे राज्यों को मजदूर मुहैया कराने वाले बिहार में भी अब मजदूरों की किल्लत हो गई है।
इसकी वजह से मौसमी फसलों में काम करने वाले मजदूरों की मजदूरी में एक साल के दौरान 40-60 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो चुकी है। इससे स्थानीय किसानों को संकट का सामना करना पड़ रहा है।चौंकिए नहीं! यह हकीकत है। अन्य विकल्प मिलने के बाद अब बिहार के अप्रशिक्षित मजदूर भी खेतों में काम नहीं करना चाहते।
बिहार के विभिन्न इलाकों में कई परियोजनाओं के तहत सरकारी काम हो रहे हैं। सरकार ने निर्देश दिए हैं कि मजदूरों को राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत काम दिया जाए। बिहार से सटे पूर्वी उत्तर प्रदेश में तो मजदूरों की चोरी हो रही है। चंदौली जिले के चकिया तहसील स्थित बरौड़ा गांव के रहने वाले प्रवीण सिंह बताते हैं, 'अभी हम लोग नौगढ़ से ट्राली पर मजदूर लेकर आ रहे थे। रास्ते में एक कस्बे में ड्राइवर चाय पीने लगा। उसी दौरान कु छ लोग आए और उन्होंने 10 रुपये अधिक मजदूरी देने को कहा और मजदूरों को साथ ले गए।'
बक्सर जिले के राजपुर गांव में चावल मिल चलाने वाले चंद्र प्रकाश 'मुकुंद' ने बताया, 'पिछले छह महीने से मजदूरों की किल्लत है। पहले प्रतिदिन 50 से 60 रुपये और दोपहर का भोजन दिए जाने पर मजदूर मिल जाते थे, लेकिन अब मजदूरी बढ़कर दोपहर के भोजन के साथ 80 से 100 रुपये प्रतिदिन हो गई है।'
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक प्रो. अरुण जोशी ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया, 'ताजा आंकड़ों के मुताबिक, एक हेक्टेयर (2.5 एकड़) जमीन में धान की फसल तैयार करने में 18-20 हजार रुपये का खर्च आता है। इसमें 55-65 प्रतिशत मजदूरी शामिल होती है। इसके बाद अगर कोई आपदा नहीं आई तो मोटा धान करीब 60 क्विंटल और महीन धान 45-50 क्विंटल तैयार होता है।' ऐसे में जब काम के अन्य अवसर मिल जाएं तो मजदूरी में विभिन्न इलाकों के हिसाब से 30 प्रतिशत से लेकर 70 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हो गई है। इसके अलावा डीजल, खाद और बीज के खर्च में भी 20 प्रतिशत तक का इजाफा हुआ है। प्रो. अरुण जोशी कहते हैं, 'अब हालत यह हो गई है कि कोई खेती नहीं करना चाहता। एक तो गांव में कोई सुविधा नहीं होती। साथ ही कृषि पर आने वाले खर्च में खेत का किराया नहीं शामिल होता, जैसा कि अन्य व्यवसायों में जोड़ा जाता है। पैदावार अधिक होने पर सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलना भी मुश्किल हो जाता है।'
खेत में मजदूरों की कमी को देखते हुए सरकार ने अब तक कोई कदम नहीं उठाया है। स्थानीय किसानों का कहना है कि सरकार को खेती के काम शुरू होने पर सरकारी काम रोक देना चाहिए, क्योंकि वैसे भी बरसात की वजह से उसमें खासी दिक्कत आती है। बिहार के एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने कहा कि इस तरह का संकट बढ़ना स्वाभाविक है। लोगों को काम मिल रहा है, ऐसे में किसान उनसे अपनी शर्तों पर काम नहीं करा सकते।
दिल्ली में तैनात बिहार सरकार के स्थानिक आयुक्त चंद्र किशोर मिश्र ने बताया कि अब यह कोशिश की जा रही है कि ज्यादा से ज्यादा मजदूरों को प्रशिक्षण दिया जाए। तकनीकी संस्थान जैसे औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान (आईटीआई) खोले जा रहे हैं और चल रहे शिक्षण संस्थानों को चाक-चौबंद किया जा रहा है। रिटेल क्षेत्र में प्रशिक्षण के लिए निजी क्षेत्रों से बातचीत चल रही है। सरकार का मानना है कि प्रशिक्षित श्रमिक विकास के क्षेत्र में ज्यादा योगदान करते हैं।

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Thursday, July 3, 2008

महंगाई की मार, किराये में बढ़ोतरी : बिखर रहे सपने


सत्येन्द्र प्रताप सिंह


अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें आज 142 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच गई हैं। बढ़ती कीमतों की मार उड्डयन क्षेत्र पर पड़ रही हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इस उद्योग की रीढ़ टूट रही है।

भारतीय कंपनियां तो बेहाल हैं ही, एयर फ्रांस, कैथे पैसिफिक , सिंगापुर एयरलाइंस, क्वांटाज, एमिरेट्स और यहां तक कि ब्रिटिश एयरवेज भी दिवालिया होने के कगार पर पहुंच रही हैं। ऐसे में सस्ती उड़ानें ख्वाब बनती जा रही हैं।

हवाई ईंधन का प्रभाव

अगर भारत की बात करें तो पिछले छह महीने में हवाई ईंधन (एटीएफ) की कीमतें दोगुनी हो गई हैं। साथ ही भारत में विभिन्न करों के चलते अन्य देशों की तुलना में एटीएफ की कीमतें 60 प्रतिशत ज्यादा हैं। उदाहरण के लिए अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में एटीएफ 100 रुपये है तो घरेलू सेवा प्रदाताओं को इसके 165 रुपये और भारत में ईंधन लेने वाले अंतरराष्ट्रीय सेवा प्रदाताओं को 135 रुपये देने पड़ते हैं। भारतीय विमानन उद्योग में एटीएफ की कुल खपत 20 लाख किलोलीटर है। भारत में अप्रैल तक एक टिकट पर ईंधन सरचार्ज 1650 रुपये था, जो अब 2250 रुपये से 2950 रुपये हो गया है।

घरेलू सेवा प्रदाताओं का कहना है कि अगर अंतरराष्ट्रीय दरों पर ही घरेलू बाजार में एटीएफ मिलने लगे तो इससे उन्हें सालाना 5000 से 5500 करोड़ रुपये का फायदा होगा, जो चालू वित्त वर्ष में हुए 8,000-10000 रुपये के कुल घाटे का करीब आधा है। हालत यह है कि सभी विमानन कंपनियां घाटे में चली गई हैं। जेट एयरवेज को 2007-08 की चौथी तिमाही में 221 करोड़ रुपये का घाटा हुआ, जबकि पिछले साल इसी तिमाही में कं पनी को 88 करोड़ का फायदा हुआ था।

स्पाइस जेट को 2008 में समाप्त वित्त वर्ष में 133.5 करोड़ रुपये का घाटा हुआ है। कंपनी का प्रतिदिन का घाटा 50 से 75 लाख रुपये हो गया है। कंपनी के परिचालन खर्च में 87 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। स्पाइस जेट के कुल खर्च में एटीएफ का योगदान 45 प्रतिशत है।

कंपनियों के बचाव के तरीके

स्पाइस जेट ने जयपुर की उड़ानें रद्द कर दी हैं और अपनी उड़ानों की संख्या 117 से घटाकर 97 कर दी हैं। इसी तरह से किंगफिशर एयरलाइंस ने 17 और डेक्कन एयरलाइंस ने 20 उड़ानें खत्म की हैं। एयर इंडिया ने मुंबई-चेन्नई-मुंबई मार्ग पर उड़ानें कम की हैं और वह अंतरराष्ट्रीय उड़ानों में भी कटौती की योजना बना रही है।

गो एयर के प्रबंध निदेशक जो वाडिया ने कहा है कि हम कंपनी का आकार घटा रहे हैं। उड़ानों की संख्या में कटौती की गई है, कुछ मार्गों पर परिचालन बंद कर दिया गया है। इसके साथ ही जेट एयरवेज, किंगफिशर एयरलाइंस और एयर इंडिया ने ट्रैवल एजेंटों को दिए जाने वाले कमीशन में 5 प्रतिशत की कमी करने की घोषणा की है।

मार गई महंगाई

ऐसा नहीं है कि कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी ही विमानन कंपनियों को मार रही है। बढ़ती महंगाई के चलते हवाई यात्रा करने वाले लोगों की संख्या में भी कमी आई है। एयरपोर्ट अथारिटी आफ इंडिया के आंकड़ों के मुताबिक गोवा, पटना, तिरुवनंतपुरम, श्रीनगर- यहां तक कि जम्मू, उदयपुर और जोधपुर जैसे पर्यटन स्थलों पर जाने वाले यात्रियों की संख्या में कमी आई है। पिछले 4 साल से हवाई यात्रा करने वालों की संख्या में 30-40 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो रही थी, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो यह बढ़ोतरी एक अंक तक सिमट गई है।

बेंगलुरु और हैदराबाद में ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट बने और 35 नान मेट्रो शहरों में एयरपोर्ट के विस्तार और नवीकरण की योजना बन रही थी, अब वह भी धराशायी होती नजर आ रही है। कंपनियों ने विस्तार योजनाएं रोक दी हैं। महंगाई इस कदर बढ़ी है कि दाल-चावल का जुगाड़ करने में ही आम लोगों के पसीने छूट रहे हैं। बढ़ता किराया हवाई उड़ान का आनंद लेने का सपना सजोने वालों को हकीकत से दूर ले जा रहा है। बिजनेस क्लास में यात्रा करने वाले इकनॉमी क्लास में यात्रा करने लगे हैं। गालिब के शब्दों में कहें तो-
निकलना खुल्द से आदम का सुनते आए थे लेकिन,
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले।

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Tuesday, July 1, 2008

रोजगार गारंटी योजना में बलि का बकरा बनते लोग

श्रीलता मेनन

उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के दूधी ब्लाक में राजखेड़ा पंचायत की अध्यक्ष सोनमती देवी इस समय जेल में हैं। उनकी तरह ही देश भर में तमाम निरक्षर महिलाएं अध्यक्ष के रूप में काम कर रही हैं।

दरअसल वे कठपुतली की तरह काम करती हैं और उनके परिवार के पुरुष सदस्य पंचायत का कामकाज देखते हैं। सोनमती देवी को राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में घोटाले का दोषी पाया गया है। इस योजना में नियमों के मुताबिक गांव के गरीबों को 100 दिन के रोजगार की गारंटी दी जाती है।

जब इस साल जनवरी महीने में उनके खिलाफ प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज की गई तो दूधी ब्लॉक के सभी 50 पंचायत अध्यक्ष सोनमती देवी के पीछे खड़े हो गए। उन्होंने इस रोजगार गारंटी योजना को कार्यान्वित करने से इनकार कर दिया। सच कहें तो उन सभी को इस बात का खतरा था कि रोजगार गारंटी योजना लागू करने में मानकों का पालन न करने के लिए सभी को जेल जाना पड़ सकता है।

उनका आरोप था कि उन पर 30 प्रतिशत धनराशि प्रखंड विकास अधिकारी (बीडीओ) और उनके सहायकों को देने के लिए मजबूर किया जाता है, तभी योजना के तहत मिलने वाला धन मिल पाता है। जाहिर है कि ऐसे में धन के गबन का आरोप लग सकता है। ऑडिट भी बीडीओ कार्यालय द्वारा किया जाता है। पंचायत जितना भी भुगतान करती है, उस पर सवाल खड़े किए जा सकते हैं। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि बीडीओ द्वारा भेजे गए इंजीनियर क्या निष्कर्ष निकालते हैं। सोनमती देवी के पति अंबिका प्रसाद का कहना है कि उनकी पत्नी निर्दोष है और उन्होंने अधिकारियों को रिश्वत नहीं दी, इसलिए उन्हें फंसाया गया है।

इसके पीछे सच्चाई जो भी हो, लेकिन एक असहाय महिला अब जेल की सलाखों में है। रोजगार गारंटी योजना को लागू करने में बीडीओ की अहम भूमिका होती है, लेकिन फिर भी वह महिला योजना की भेंट चढ़ गई। वहीं बीडीओ और उसके सहयोगी इस मामले से पूरी तरह अलग रहे और उन पर कोई आरोप तक नहीं लगा। सोनमती देवी की गिरफ्तारी के एक सप्ताह बाद दूधी ब्लाक में एक आदेश आया कि अब मजदूरी के रूप में दिए जाने वाले धन का स्थानांतरण सीधे ग्राम प्रधान के खाते में किया जाए।

हालांकि गिरफ्तारी से इसका कोई संबंध नहीं था, लेकिन इस आदेश से समस्या के एक अंश का ही हल हो पाएगा। मानकों का पालन किए जाने की जांच करने में सरकारी कर्मचारियों की भूमिका अहम है और मजदूरी के भुगतान के मामले की जांच किए जाने के अधिकार को लेकर अभी भी वे मजबूत स्थिति में हैं। इस तरह से अगर देखें तो सोनमती देवी की गिरफ्तारी के बाद भी इस तरह से बलि का बकरा बनाए जाने वाले लोगों की संख्या में कोई कमी नहीं आने वाली है या इसका खात्मा नहीं होने जा रहा है।

जो भ्रष्ट लोगों पर उंगलियां उठाते हैं, वे भी सुरक्षित नहीं हैं। उड़ीसा के कोरापुट जिले के नारायणपटना ब्लाक की भी कहानी कुछ ऐसी ही है। इस ब्लाक के बोरीगिरि पंचायत के अध्यक्ष और आदिवासी नेता नारायण हरेका की पिछले 9 मई को हत्या कर दी गई। वह उड़ीसा आदिवासी मंच के ब्लॉक संयोजक थे। उन्होंने एक सर्वे किया था, जिसमें पाया गया कि रोजगार गारंटी योजना के तहत जारी किए गए रोजगार कार्ड में से 35 प्रतिशत का वितरण नहीं किया गया है।

पिछले साल उन्होंने इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया। इसका परिणाम यह हुआ कि विभिन्न इलाकों में 40 प्रतिशत से लेकर 90 प्रतिशत तक रोजगार कार्ड वितरित किए गए। उड़ीसा आदिवासी मंच के इस नेता ने संवाददाताओं से कहा कि आम लोगों को इस योजना के बारे में पूरी तरह से अंधेरे में रखा जाता है और ठेकेदार, रोजगार कार्ड का दुरुपयोग करके पैसा बनाते हैं। निश्चित रूप से इस विरोध प्रदर्शन से उनके हितों को नुकसान पहुंचा। अभी हाल ही में इस योजना में शहीद होने वालों में कामेश्वर यादव का भी नाम जुड़ गया है।

यादव झारखंड के गिरिडीह जिले के सीपीआई (एमएल) की ब्लॉक समिति के सदस्य थे, जिनकी लाश 7 जून को मिली। कामेश्वर, रोजगार गारंटी योजना में ठेकेदारों और बिचौलियों के भ्रष्ट तौर तरीकों के खिलाफ आवाज उठा रहे थे। साथ ही वह लाभार्थियों को भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों के खिलाफ लामबंद कर रहे थे। कामेश्वर की हत्या के बाद रोजगार गारंटी योजना पर काम कर रहे झारखंड के पलामू जिले के एक और कार्यकर्ता ललित मेहता की हत्या हुई। मेहता पहले सिविल इंजिनियर थे, जो बाद में स्वयंसेवी बन गए।

कांदड़ा के जंगलों में 14 मई को उनकी हत्या कर दी गई। उन्होंने सामाजिक जांच के माध्यम से छतरपुर ब्लॉक में चल रहे रोजगार गारंटी योजना में हुई अनियमितताओं को उजागर किया था। ये कुर्बानियां भ्रष्टाचार को दी गईं या निरक्षरता को? निरक्षर और गरीब लोगों के लिए रोजगार गारंटी योजना लागू की गई, जिनसे उन्हें दो वक्त की रोटी मिल सके। अब ऐसी हालत में इसका खयाल कौन रखेगा कि इस योजना को सही ढंग से लागू किया जा रहा है या नहीं।
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Monday, June 30, 2008

यकीन नहीं होता ये वही बिहार है

बिहार में विकास का पहिया चला तो देश भर में बदलने लगी आबोहवा

सत्येन्द्र प्रताप सिंह

बिहार के भभुआ जिले के संतोष कुमार ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त की। बीए और एमए की पढ़ाई पूरा करने के बाद उन्हें समझ में नहीं आया कि क्या काम करें। दिल्ली आकर सिविल सेवा की तैयारी भी की, लेकिन सफलता नहीं मिली। दिल्ली में भी मन माफिक काम नहीं मिला, तो वे घर वापस लौट गए।

शुक्र है कि अब वे शिक्षा मित्र के रूप में अपने गांव सातो अवंती के ही प्राथमिक विद्यालय में पढ़ा रहे हैं और उनकी रोजी-रोटी का संकट दूर हो गया। प्राथमिक स्कूलों के निर्माण के साथ ही करीब 1 लाख शिक्षकों की नियुक्तियां इस सरकार के कार्यकाल के दौरान हुई हैं। बेरोजगार नौजवान शिक्षा मित्र के रूप में बच्चों को पढ़ा रहे हैं। किसानों को बाजार से जोड़ने की कोशिश के साथ ही वर्ष 2008 को कृषि वर्ष घोषित किया है।

मुख्यमंत्री तीव्र बीज विस्तार कार्यक्रम के तहत कुल 3491.471 लाख रुपये की लागत से योजना कार्यान्वित की जाएगी। बिहार के स्थानिक आयुक्त चंद्र किशोर मिश्र ने कहा कि ऐसा पहली बार हुआ है कि प्रदेश के प्रमुख ने किसानों को बुलाकर बातचीत की और उनकी समस्याओं और जरूरतों को सुनने के बाद कृषि क्षेत्र के विकास के लिए रोडमैप तैयार किया गया है। बिहार मूल के आलोक कुमार दिल्ली में विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर डॉक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण करते हैं।

पटना में डॉक्यूमेंट्री फिल्म के निर्माण के दौरान उन्होंने पाया कि वहां कुछ सकारात्मक बदलाव आए हैं। उन्होंने कहा, 'ऐसा नहीं है कि राज्य में विकास की आंधी आई है और हमें यह उम्मीद भी नहीं करना चाहिए कि रातों रात कोई क्रांतिकारी बदलाव आ जाएगा। लेकिन इतना जरूर है कि गांवों में सड़कें बन रही हैं। हाईवे की स्थिति में सुधार आया है। हां, इतना जरूर है कि नई सरकार के सत्ता में आने के बाद सकारात्मक माहौल बना है और लोगों की उम्मीदें जगी हैं।'

वैशाली जिले के लालगंज इलाके के निवासी शांतनु पटना उच्च न्यायालय में प्रैक्टिस करते हैं। उन्होंने कहा कि कानून व्यवस्था पटरी पर आ रही है। अधिकारी आम लोगों की बात सुनते हैं। उन्होंने कहा कि सबसे ज्यादा बदलाव स्वास्थ्य के क्षेत्र में आया है। गांवों में कांट्रैक्ट पर चिकित्सकों की नियुक्तियां हुईं हैं और वे सही ढंग से इलाज कर रहे हैं। हालांकि उन्हें रोजगार को लेकर निराशा है। उन्होंने कहा, 'सड़कों, स्कूलों के निर्माण में लोगों को काम तो मिल रहा है, लेकिन यह रोजगार का स्थाई समाधान नहीं है।

सरकार को राज्य में छोटे उद्योगों के विकास पर भी ध्यान देने की जरूरत है।' शिक्षा के क्षेत्र के साथ ही स्वास्थ्य क्षेत्र में भी बड़े पैमाने पर नियुक्तियां हुईं हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने नवंबर 2007 में अपनी सरकार के 2 साल के कार्यकाल पूरा होने के अवसर पर दिल्ली में आयोजित प्रेस वार्ता में कहा था, 'रोजगार और बेहतरी के लिए राज्य से बाहर जाने वालों को रोका नहीं जा सकता।

हमारा लक्ष्य है कि उन लोगों को बिहार में ही काम मिल जाए, जो दो जून की रोटी के लिए अपना घर छोड़कर दूसरे राज्यों में मजदूरी करने जाते हैं।' अब इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में हो रहे विकास ने मुख्यमंत्री का साथ दिया है और लोग मजबूरी के चलते बिहार नहीं छोड़ रहे हैं। जनता दरबार के माध्यम से नीतीश रोजगार और गृह और कुटीर उद्योग विकसित करने में आम लोगों को आ रही दिक्कतें भी सुनी जाती हैं।
साभार : bshindi.com

Sunday, June 29, 2008

'याद बहुत आएंगे जब छूट जाएगा साथ'


सत्येन्द्र प्रताप सिंह

नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लेखक विद्याधर सूरजप्रसाद नायपॉल ने अपनी पुस्तक 'एरिया आफ डार्कनेस' में बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में आम आदमी की दयनीय दशा का वर्णन किया है और साथ ही उन्होंने एक अवसर पर बिहार के बारे में कहा कि वहां 'सभ्यता खत्म हो गई है।'
अब बिहार की वह हालत नहीं है। रोजगार के अवसर इस कदर पैदा हुए हैं कि मजदूरों का पलायन रुका है। साथ ही बिहारी मजदूरों पर निर्भर पंजाब जैसे विकसित राज्य में कृषि पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। इसके पीछे खास वजह है कि बिहार के ग्रामीण इलाकों में सड़कों, स्कूलों और अस्पताल जैसी बुनियादी सुविधाओं में चल रहे काम से मजदूरों को स्थानीय स्तर पर काम मिलने लगा है।
बिहार की 90 प्रतिशत आबादी गावों में रहती है। 2004-05 में एनएसएसओ के एक सर्वे के मुताबिक बिहार में 42.1 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करती है, जो करीब वर्तमान जनसंख्या के 80-90 लाख परिवारों के समतुल्य है। बिहार में प्रवासन दर भी सबसे अधिक है। आंकड़ों के मुताबिक प्रति 1000 जनसंख्या पर 39 पुरुष और 17 महिलाएं बिहार छोड़कर दूसरे राज्यों का रुख करते हैं। 2001 में यहां 42.2 लाख परिवार बेघर थे, लेकिन 2008 के ताजा आंकड़ों के मुताबिक 16 लाख आवासों का निर्माण इंदिरा आवास योजना के तहत कराया जा चुका है। बिहार में सत्ता परिवर्तन के बाद बुनियादी सुविधाओं पर शुरू हुए काम से ऐसी स्थितियां पैदा हुईं हैं। केंद्र सरकार की राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (बिहार के लोगों के शब्दों में कहें तो नरेगा) का लाभ लोगों को मिलने लगा है।यह योजना केंद्र सरकार ने पहले 38 जिलों में से 23 जिलों में ही लागू किया था, लेकिन बिहार सरकार ने इसका विस्तार सभी जिलों में कर दिया। सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो नई सड़कों और पुल, नाबार्ड, एमएमजीएसवाई, बीएडीपी, एससीपी और एएसएडी की परियोजनाओं में वित्त वर्ष 2007-08 में कुल 1155.26 करोड़ रुपये का लक्ष्य रखा गया, जिसमें 1034.89 करोड़ रुपये का कुल काम हुआ है।मुख्यमंत्री ग्राम सड़क योजना, जिसमें 500 से 999 की जनसंख्या वाले गावों को सड़क से जोड़ा जाना है, में मार्च 2008 तक कुल 566.12 करोड़ रुपये खर्च करके 1744.11 किलोमीटर सब बेस कार्य, 1235.74 किलोमीटर बेस कार्य 473.38 किलोमीटर कालीकरण कार्य किया जा चुका है। इसके साथ ही वित्त वर्ष 2008-09 में 403.02 करोड़ रुपये का बजटीय लक्ष्य रखा गया है। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत पहले और दूसरे चरण में 31 मार्च 2008 तक कुल 362.52 करोड़ रुपये व्यय करते हुए 749 पथों, जिनकी कुल लंबाई 1723.59 किमी है, का काम पूरा कर लिया गया है। बिहार सरकार के स्थानिक आयुक्त चंद्र किशोर मिश्र कहते हैं, 'बुनियादी सुविधाओं पर चल रहे काम से न केवल रोजगार के नए अवसर सृजित हुए हैं, बल्कि गांवों और खेतों को बाजार से जोड़ा जा रहा है, जिससे किसानों को उनकी मेहनत का उचित मूल्य मिल सके। विकास कार्यों से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से रोजगार के अवसर बढ़े हैं।'
कुल मिलाकर देखा जाए तो बिहार में काम करने के अवसर बढ़े हैं। इसके साथ ही सकारात्मक माहौल बना है। पंजाब के बड़े किसान भले ही मजदूरों की समस्या से जूझ रहे हैं, लेकिन बिहारी मजदूरों और स्थानीय लोगों को अपने गांव घर में काम मिलने से उनके भीतर उम्मीद जगी है, कि पेट के लिए उन्हें दूसरे राज्यों के अवसरवादी लोगों की गालियां नहीं सुननी पडेंग़ी।

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Saturday, June 28, 2008

महंगाई के जिन्न को मारने के लिए सरकार कर रही है हर जतन

सत्येन्द्र प्रताप सिंह



एक साल 6 महीने और 17 दिन में रिजर्व बैंक ने नकद सुरक्षित अनुपात (सीआरआर) में 3.25 प्रतिशत की बढ़ोतरी की है। आंकड़े देखें तो 08 दिसंबर 2006 को सीआरआर 5.50 प्रतिशत था। इसमें बढ़ोतरी शुरू हुई तो थमने का नाम ही नहीं ले रही है। वर्तमान बढ़ोतरी के बाद यह 8.75 प्रतिशत हो जाएगा। इसी तरह से रेपो रेट (अल्पकालिक ऋण दर) में भी बढ़ोतरी हुई है और यह अब 8.50 प्रतिशत पर पहुंच गई है।

भारतीय रिजर्व बैंक यह हथकंडे तब अपनाता है, जब उसे बाजार से पैसा खींचना होता है। सीआरआर में बढ़ोतरी करने से बैंकों को केंद्रीय बैंक के पास ज्यादा प्रतिभूति जमा करनी पड़ती है। इसका परिणाम यह होता है कि बैंकों को अपना कोष बढ़ाने के लिए जनता से पैसा लेना पड़ता है। इसका तरीका सामान्यत: यह होता है कि वे लोगों के जमा पर अधिक ब्याज दर देते हैं।

जब अधिक ब्याज दर देकर बैंक पैसा उठाएंगे तो स्वाभाविक है कि उन्हें कर्ज पर भी अधिक ब्याज लेना पड़ेगा। रेपो रेट वह दर होती है, जिस पर रिजर्व बैंक, अन्य व्यावसायिक बैंकों को कर्ज देता है। स्वाभाविक है कि अगर रिजर्व बैंक से भी अधिक ब्याज दर पर बैंकों को कर्ज मिलेगा, तो वे अन्य लोगों को भी कर्ज देने पर अधिक ब्याज लेंगे।

महंगाई पर प्रभाव

सामान्य सिध्दांत है कि बाजार में पैसा कम रहेगा तो आम आदमी की क्रय शक्ति कम होगी। ऐसे में बाजार में विभिन्न सामान की कमी होने के बावजूद दाम नहीं बढ़ेंगे। सामान्यत: कीमतों में बढ़ोतरी तभी होती है, जब मांग बढ़ जाती है और आपूर्ति कम रहती है। सीआरआर और रेपो दर बढ़ने से बाजार में धन का प्रवाह कम होना स्वाभाविक है।

उद्योगों पर प्रभाव

उद्योग जगत तो कर्ज पर कुछ ज्यादा ही निर्भर रहता है। नई इकाइयां स्थापित करनी हो, क्षमता में विस्तार करना हो या कोई भी नया काम शुरू करना हो, वे बैंकों की ओर ही देखते हैं। विशेषज्ञों का अनुमान है कि वर्तमान बढ़ोतरी के बाद व्यावसायिक बैंक, ब्याज दरों में 0.5 से लेकर 1 प्रतिशत तक बढ़ोतरी करने को मजबूर हो जाएंगे। इसकी मार सीधे सीधे उद्योगों पर पड़ेगी और उनकी विकास योजनाएं खटाई में पड़ सकती हैं।

साथ ही मांग कम होने के कारण बढ़ती प्रतिस्पर्धा और बिक्री बढ़ाने के लिए कंपनियों को अपना माल कम लाभ पर बेचना पड़ेगा। इसके अलावा बाजार में आने वाले उन उत्पादों पर ज्यादा असर पड़ेगा, जिन्हें ग्राहक बैंकों से कर्ज लेकर खरीदते हैं। इसके साथ ही बैंकों के कारोबार पर भी असर होगा। इस असर का अनुमान लगते ही शेयर बाजार में बैंकों के शेयर बुधवार को धराशायी हो गए।

हालांकि कुछ आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि ब्याज दरें बढ़ाने और जनता से बैंकों में पैसे जमा कराने का महंगाई पर ज्यादा असर नहीं पड़ता। एक तो विनिर्माण की लागत बढ़ने से कीमतें बढ़ जाती हैं, दूसरे उदारीकरण की अर्थव्यवस्था में सुविधाओं की आदत डाल चुके लोग बैंक में पैसा जमा करने के बजाय शेयर बाजार या अन्य साधनों से तेजी से पैसा कमाने की इच्छा रखते हैं। वे बैंकों में पैसा जमा करना पसंद नहीं करते।

अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ ए. वी. राजवाडे ने अपने एक लेख में एक बैंक के आंतरिक सर्वेक्षण का हवाला देते हुए लिखा है कि 'बैंक में जमा पैसों का बाजार में चल रही ब्याज दरों से काफी कम वास्ता होता है।' आगे उन्होंने लिखा है, 'मुल्क में महंगाई की दर को एक फीसदी कम करने के लिए करीब एक लाख करोड़ के कुल उत्पादन को कम करना होता है। इस मतलब शायद महंगाई दर में केवल फीसदी की कमी करने के लिए हमें 6000 रुपये प्रति माह की तनख्वाह वाले करीब 50 लाख नौकरियों की कुर्बानी देनी पडेग़ी।'

केंद्र सरकार को चुनावी मौसम साफ नजर आ रहा है। चार साल तो ठीक-ठाक चला लेकिन अंतिम साल में महंगाई के भूत ने दबोच लिया। ऐसे में वह हर जतन करना चाहती है, जिससे महंगाई के दबाव को कम किया जा सके। अकबर इलाहाबादी ने शायद सत्तासीन संप्रग सरकार की ऐसी ही हालत के लिए लिखा था-
खूब उम्मीदें बढ़ीं लेकिन हुईं हिरमाँनसीब,
बदलियां उट्ठीं, मगर बिजली गिराने के लिए।

Thursday, June 19, 2008

झमाझम मानसूनी बारिश से ही खिलते हैं किसानों के मुरझाए चेहरे



सत्येन्द्र प्रताप सिंह / June 18, 2008
झांसी के एक गांव में रहने वाले मेहरबान सिंह की खुशी का ठिकाना नहीं है। उन्हें उम्मीद जागी है कि एक बार फिर फसल लहलहाएगी।
बुंदेलखंड इलाके में 5 साल बाद पिछले सोमवार को पूरे दिन झमाझम बारिश हुई। उन्हें उम्मीद है कि बारिश का सिलसिला कुछ दिन तक जारी रहेगा, और पटरी से उतर चुकी बुंदेलखंड की खेती उन्हें खुशहाल कर देगी।यह खुशी केवल एक आदमी की नहीं है। जब भी पानी नहीं बरसता, न केवल विभिन्न इलाकों में बल्कि वहां रहने वाले किसानों की जिंदगी में सूखा पड़ जाता है।
दुनिया में मानसून के अलावा कोई ऐसी जलवायु नहीं है, जिससे हर साल बहुतायत में लोग प्रभावित होते हैं। भारत उन 20 एशियाई देशों में से एक है, जहां कृषि और उस पर आधारित अर्थव्यवस्था मानसून पर निर्भर है। इसके अलावा चीन, जापान, इंडोनेशिया, उत्तरी और दक्षिणी कोरिया तथा भारत के पड़ोसी देश आते हैं। बहरहाल जापान, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया और ताइवान जैसे देशों ने तो औद्योगिक विकास कर लिया है, लेकिन बाकी देशों की अब भी मानसून पर निर्भरता बनी हुई है। इन देशों में धान का उत्पादन मानसून पर ही निर्भर करता है। हालत यह है कि धान का उत्पादन भिन्न-भिन्न इलाकों में होता है, इसलिए इसका क्षेत्रवार निर्धारण करना भी कठिन है कि किन इलाकों में कितने पानी की जरूरत होती है। भारत ने
स्वतंत्रता के बाद से ही मानसून पर निर्भरता कम करने के लिए कोशिशें शुरू कीं। इसमें अंतरराष्ट्रीय सहयोग भी लिया, जिससे कम समय और लंबे समय के लिए मानसून की भविष्यवाणी की जा सके। लेकिन आज भी यह नहीं कहा जाता है कि मानसून पर निर्भरता कम हुई है। भारत में मानसून का सीधा असर कृषि पर तो पड़ता ही है, सकल घरेलू उत्पाद पर भी सीधा प्रभाव पड़ता है। सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का हिस्सा करीब 20 प्रतिशत है, जो उद्योगों को कच्चा माल भी उपलब्ध कराता है। देश की 60 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है, जो उद्योगों के उत्पादों के लिए बहुत बड़ा उपभोक्ता है। इस तरह से विनिर्मित वस्तुओं का बाजार भी ग्रामीण बाजार से जुड़ा हुआ है। अगर खेती की हालत अच्छी नहीं रहती है, तो स्वाभाविक है कि ग्रामीण इलाकों में मांग कम हो जाती है और परोक्ष रूप से इसका प्रभाव उद्योगों पर पड़ता है।
किसानों ने इस समय देश भर में विकसित हो रहे विशेष आर्थिक क्षेत्रों का जोरदार विरोध करना शुरू कर दिया है। महज चार दिन पहले गोवा में रिलायंस के प्रस्तावित सेज के विरोध में किसानों ने गोवा-मुंबई हाईवे जाम कर दिया। किसानों का कहना है कि सरकार उनकी बात नहीं सुनती। सिंचित क्षेत्र में सेज बनाया जा रहा है, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। किसानों का आरोप है कि उन्हें केवल राजनेताओं से आश्वासन मिलता है, जबकि अंतिम रूप से सरकार उद्योगपतियों की ही बात सुनती है। ऐसा ही कुछ पश्चिम बंगाल के सिंगूर इलाके में हुआ। देश में अभी भी सिंचित कृषि भूमि एक तिहाई ही है। ऐसे में सिंचित भूमि पर सेज का विकास कहां से जायज है?11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-11) के लिए कृषि प्रसार पर बने कार्य समूह का मानना है कि 60 प्रतिशत किसान कृषि के लिए विकसित नई तकनीकों से वाकिफ नहीं हैं। समिति का कहना है कि कृषि के विस्तार के लिए सूचना का प्रसार किसानों तक करना बेहद जरूरी है। उसका कहना है कि कृषि उत्पाद को 2010 तक 247.8 टन और 2020 तक 296.6 टन तक बढ़ाए जाने की जरूरत है जो 2004-05 के आंकड़ों के मुताबिक 206.39 टन है। साथ ही यह भी कहा गया है कि सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर 10 प्रतिशत बरकरार रखने के लिए जरूरी है कि कृषि क्षेत्र की विकास दर वर्तमान के 1.7 प्रतिशत की तुलना में बढ़ाकर 4.1 प्रतिशत करनी होगी।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. पंजाब सिंह की अध्यक्षता में बनी योजना आयोग की समिति की 8 जून 2006 की रिपोर्ट में कहा गया है कि यह असंभव सा लगता है, लेकिन सही है कि दुर्भाग्य से देश में कोई नेशनल एग्रीकल्चल एक्स्टेंशन सिस्टम नहीं बना। रिपोर्ट में इस बात की सिफारिश की गई है कि देश में दूसरे देशों की कृषि योजनाओं की नकल के बजाय अपनी जरूरतों के मुताबिक योजना बनाए जाने की जरूरत है, जिससे क्षेत्रवार कृषि के विकास और उनकी जरूरतों को पूरा किया जा सके। रिपोर्ट में इस तरफ भी ध्यान दिलाया गया है कि जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है, उसी के मुताबिक अनाज की जरूरतें भी बढ़ेंगी। घरेलू मांगों को पूरा करने के लिए 1949-50 से 1089-90 के बीच रहे अनाजों के उत्पाद की वृध्दि दर को बढाकर 3.5 से 4 प्रतिशत करना होगा।
बहरहाल जमीनी हकीकत यह है कि किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं। एक गैर सरकारी संगठन विदर्भ जन आंदोलन समिति के अध्यक्ष किशोर तिवारी ने कहा कि पिछले एक हफ्ते में कर्ज से दबे विदर्भ के छह किसानों ने आत्महत्या कर ली। कृषि के विकास और मानसून पर निर्भरता कम होने के दावों के बीच किसानों पर मानसून की हल्की सी मार भी उन्हें कर्ज के जाल में फंसा देती है। प्रकृति के सामने सभी शोध और आंकड़े कागजी ही साबित होते हैं। किसी शायर ने सच ही कहा है और यह भारत के किसानों पर सटीक बैठता है:
हस्ती अपनी हबाब (बुलबुला) की-सी है,
ये नुमाइश सराब (रेगिस्तान) की- सी है।

courtsy: bshindi.com

Thursday, June 12, 2008

आखिर पेट्रोलियम पदार्थो की बढ़ी कीमतों पर हंगामा है क्यों बरपा




सत्येन्द्र प्रताप सिंह
तेल की ऊंची कीमतों की उपभोक्ता पर दोहरी मार पड़ती है। इनका अन्य जिंसों की कीमतों पर भी असर पड़ता है। हाल ही में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें बढ़ने से राजनीतिक दलों में हलचल मच गई।
मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ही नहीं बल्कि कांग्रेस के सहयोगी दल भी इन कीमतों को बढ़ाए जाने से काफी खफा हैं। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें बढ़ने से जिंसों के दाम बढ़ने तय हैं। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों का राजनीतिक अर्थशास्त्र पर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है। महंगाई का असर हाल के कर्नाटक चुनावों पर भी पड़ा और दक्षिण भारत में पहली बार अपने दम पर कमल खिल गया। केंद्र सरकार को आगामी लोकसभा और विधान सभा चुनावों की चिंता सता रही है, वहीं विपक्ष इस मसले पर कोई भी मौका गंवाना नहीं चाहता है।

रुला चुकी है महंगाई
अगर हम इतिहास में जाएं तो स्वतंत्रता के बाद से ही इसका साफ प्रभाव नजर आने लगा था। हार्वर्ड और मैरीलैंड विश्वविद्यालय के विद्वानों द्वारा हाल में किए गए एक शोध के मुताबिक भारत में सर्वाधिक महंगाई दर 1943 में रही, जो 53।8 प्रतिशत थी। ध्यान रहे कि अंग्रेजों के शासनकाल में उस साल बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा था। 10 जनवरी 1942 से थोक मूल्य सूचकांक के आंकड़े दिए जा रहे हैं। उन दिनों 23 जिंसों को इसमें शामिल किया गया था और इनके दामों का केवल एक नमूना लिया जाता था। वर्तमान में सूचकांक में जिंसों की संख्या बढ़कर 435 हो गई है और दामों के 1918 नमूने लिए जाते हैं जो विभिन्न जगहों से आते हैं। वैसे अगर देखें तो कीमतों में वृध्दि स्वाभाविक नजर आती है और इसका राजनीति, राजनीतिक दलों या प्रधानमंत्री से कोई लेना देना नहीं होता है। भारत के स्वतंत्र होने के बाद से हर दस या पांच साल बाद कीमतों में जोरदार उछाल आता है। उस समय चाहे कांग्रेस सत्ता में रहे, भाजपा रही हो या कम समय के लिए कोई भी सरकार रही हो, इस पर किसी का नियंत्रण नहीं होता। 1956-57 जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में महंगाई दर 13.6 प्रतिशत रही। लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल में 1964-65 में यह 11.5 प्रतिशत थी। इंदिरा गांधी के कार्यकाल में 1974-75 में यह दर सबसे ऊपर 24.9 प्रतिशत पर पहुंच गई। जनता पार्टी सत्ता में आई तो महंगाई ने चौधरी चरण सिंह को भी त्रस्त किया और यह 17.3 प्रतिशत रही। चंद्रशेखर का कार्यकाल तो बहुत कम, महज 7 माह रहा, लेकिन महंगाई दर 10.2 प्रतिशत बनी रही। नरसिंह राव के कार्यकाल 1991-96 के बीच महंगाई दल 8.0 से 13.8 प्रतिशत के बीच बनी रही।

बड़ा चुनावी मुद्दा
भाजपा ने इस समय बढ़ती महंगाई को लेकर मुहिम छेड़ दी है। पेट्रोल की कीमतें बढ़ने के बाद वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने कहा कि पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार की मौत का फरमान है। यह कदम केंद्र में अवसरवादी गठबंधन और संप्रग सरकार के आर्थिक कुप्रबंधन का नतीजा है। याद रहे कि यह वही भाजपा है जिसके शासनकाल में महंगाई दर 7.2 प्रतिशत थी और इसका इस कदर राजनीतिकरण हुआ कि केवल प्याज की कीमतों ने दिल्ली में भाजपा को खून के आंसू रुला दिया था। इस बार कांग्रेस की बारी है।

विभिन्न क्षेत्रों पर असर
पेट्रोलिम पदार्थों की कीमतों के बढ़ने पर आम उपभोग की वस्तुओं और खाद्य पदार्थों पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ेगा। ट्रकों के मालभाड़े में बढ़ोतरी से आवक पर असर होगा। इसके साथ ही मंदी की मार झेल रहे आटोमोबाइल सेक्टर पर भी इसका असर नजर आने लगा है। हालांकि चार पहिया वाहनों की बिक्री पिछले माह की तुलना में घटी है। इसके साथ साथ कंपनियों को चार पहिया वाहनों की कीमतों को घटाने पर भी मजबूर होना पड़ा है। किसानों पर इसकी जोरदार मार पड़ेगी। देश के ज्यादातर हिस्सों में किसान फसलों की सिंचाई के लिए डीजल का इस्तेमाल करते हैं। इससे उनकी खेती का खर्च बढ़ जाएगा। साथ ही मंडियों के निकट के किसानों को भी तैयार फसलों को मंडियों में पहुंचाने के लिए अधिक खर्च वहन करना पड़ेगा। अधिक पैदावार की हालत में भी वे कच्चे माल के खराब होने के डर से औने-पौने दामों पर बेचने को मजबूर होंगे।

प्रधानमंत्री की सफाई
ऐसा पहली बार हुआ है कि पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में बढ़ोतरी के लिए प्रधानमंत्री को सफाई देनी पड़ी। चार जून को प्रधानमंत्री टेलीविजन स्क्रीन पर नजर आए और उन्होंने अपनी मजबूरियां गिनाईं। उन्होंने स्वीकार किया कि सरकार द्वारा डीजल, पेट्रोल और एलपीजी के दाम बढ़ाना अलोकप्रिय कदम है, लेकिन ईंधन की निर्बाध आपूर्ति के लिए यह जरूरी था। साथ ही अमेरिका के साथ परमाणु करार का विरोध कर रहे लोगों पर निशाना साधते हुए उन्होंने कहा कि अमेरिका के साथ परमाणु करार अटका हुआ है। ऐसे में परमाणु ऊर्जा का विकल्प अपनाने के लिए उन्होंने समर्थन मांगा। इसके दूसरे दिन ही प्रधानमंत्री ने विदेशी दौरों और सरकारी खर्चों में कटौती करने के लिए विभागों को पत्र लिखा।

विरोध का दौर
भाजपा ने पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतों में बढ़ोतरी को संप्रग सरकार का आर्थिक आतंकवाद क हा है। साथ ही इसके खिलाफ देशव्यापी प्रदर्शन भी किया गया। कांग्रेस के सहयोगी वाम शासित प्रदेशों पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में मूल्य वृध्दि के खिलाफ प्रदर्शन हुए। हर जगह विरोध का मोर्चा बड़े कम्युनिस्ट नेताओं ने संभाल रखा था। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने केंद्र सरकार से समर्थन वापसी की चेतावनी तक दे डाली।महंगाई उफान पर है। 24 मई को समाप्त सप्ताह में अनाज, कागजों और खाद्य तेल की कीमतों में बढ़ोतरी से महंगाई दर पिछले साढ़े तीन साल के उच्चतम स्तर 8.24 प्रतिशत पर पहुंच गई है। अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि यह अभी 9 प्रतिशत के आंकड़े को पार करेगी।

भले ही महंगाई हर सरकार के कार्यकाल में बढ़ती है, राजनीति का तकाजा है कि सत्तापक्ष बढ़ोतरी के कारणों को गिनाता है और विपक्ष उसका राजनीतिक फायदा उठाने को सोचता है। इसके बीच में खड़ी रहती है मूकदर्शक जनता। किसी शायर ने ठीक ही कहा है:

फुगां कि मुझ गरीब को, ये हुक्म है हयात का। समझ हर एक राज को, मगर फरेब खाए जा।

साभारः बिजनेस स्टैंडर्ड

Monday, June 9, 2008

संभव है पूंजी की सुरक्षा और निश्चित रिटर्न

मनीश कुमार मिश्र


म्युचुअल फंड उद्योग में एक योजना है कैपिटल प्रोटेक्शन ओरियेंटेड स्कीम। जैसा कि नाम से जाहिर है, इसका मकसद पूंजी को सुरक्षित रखना है।
संरचना के लिहाज से देखें तो यह म्युचुअल फंडों की दूसरी फिक्स्ड मैच्योरिटी योजना की जैसी ही है। निवेशकों के लिए संरचना की दृष्टि से समान लेकिनअलग-अलग नाम वाले ये दोनों फंड उलझन भरे हो सकते हैं। यह जानना आवश्यक है कि इन दो फंडों में किस प्रकार की समानताएं और असमानताएं हैं। आइए हम दोनों फंडों की पेशकश का अलग-अलग विश्लेषण करके देखें।

फिक्स्ड मैच्योरिटी प्लान
फिक्स्ड मैच्योरिटी प्लान (एफएमपी) एक नियत कालिक ऋण फंड है जिसके परिपक्वता की एक निश्चित अवधि होती है। इनमें निवेश केवल नए फंड ऑफर के दौरान ही किया जा सकता है। एफएमपी कोष का एक छोटा हिस्सा इक्विटी में भी निवेश कर सकते हैं। इनका लक्ष्य होता है कि वे एक निश्चित रिटर्न दें। निवेश के समय से लेकर परिपक्वता तक इनकी लॉक-इन अवधि होती है। यह बात तो स्पष्ट है कि बाजार से जुडे निवेश की वजह से प्रतिफल की न तो गारंटी दी जा सकती है और न ही निश्चित प्रतिफल की आशा की जा सकती है। इसलिए तय प्रतिफल में कमी या बढ़ोतरी, जो बाजार के उतार-चढ़ावों से होती है, की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।

कैपिटल प्रोटेक्शन ओरियेंटेड स्कीम (सीपीओएस)
कैपिटल प्रोटेक्शन ओरियेंटेड स्कीम (सीपीओएस) नियत कालिक ऋण फंड (डेट फंड)है। इसका मुख्य उद्देश्य निवेश की गई पूंजी को सुरक्षित रखने का है। सबसे बड़ी बात तो यह कि इसमें पूंजी की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं होती है। इसकी पोर्टफोलियो रचना कुछ इस तरह की होती है कि निवेशकों को परिपक्वता के समय कम से कम निवेश की गई राशि वापस जरूर मिल जाए।

सीपीओएस एवं एफएमपी में समानताएं
एफएमपी और सीपीओएस संरचना की दृष्टि से एक-दूसरे के बराबर होते हैं। दोनों ही योजनाएं में यह कोशिश की जाती है कि ऋण (डेट) में निवेश कर स्थिरता बरकरार रखी जाए और इसमें इक्विटी की भी भूमिका हो। आम तौर पर ये फंड कोष का एक बड़ा हिस्सा (लगभग 80 प्रतिशत) डेट योजनाओं (ऋण उपकरणों) में एवं शेष (लगभग 20 प्रतिशत) इक्विटी में निवेश करते हैं।पोर्टफोलियो इस प्रकार बनाया जाता है कि ऋण उपकरणों में निवेश की गई राशि, परिपक्वता के समय शुरूआती निवेश की राशि के लगभग बराबर होती है। उदाहरण के लिए 100 रुपये की राशि में से 80 रुपए कंपनी ऋण योजनाओं में निवेश करती है जो परिपक्वता के समय 100 रुपये के बराबर हो जाती है। इस प्रकार ऋण पोर्टफोलियो में किसी निवेशक द्वारा शुरू-शुरू में लगाए गए पैसे को सुरक्षित रखा जाता है वहीं इक्विटी पोर्टफोलियो (इस मामले में 20 रुपए ) का उपयोग मुनाफा देने के लिए किया जाता है।

एफएमपी और सीपीओएस में भिन्नताएं
एफएमपी एवं सीपीओएस में कुछ भिन्नताएं भी हैं। सीपीओएस पूंजी संरक्षण की तरफ ज्यादा ध्यान देते हैं। इसलिए इस योजना को परिभाषित करने वाली विशेषताएं भी पूंजी संरक्षण के लिए होती हैं।जबकि एफएमपी रिटर्न देने वाले निवेश का विकल्प है और यह पूंजी सुरक्षित रखने की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं देता है। ऐसे फंड का प्राथमिक लक्ष्य होता है ज्यादा रिटर्न देने का प्रयास करना।सेबी के दिशानिर्देशों के मुताबिक सभी परिसंपत्ति प्रबंधन कंपनियों के लिए यह अनिवार्य है कि वे सीपीओएस के प्रस्तावित पोर्टफोलियो की रेटिंग सेबी द्वारा पंजीकृत के्रडिट रेटिंग एजेंसी से करवाएं। इसके अलावा इस रेटिंग की तिमाही समीक्षा की जाती है और परिसंपत्ति प्रबंधन कंपनी यह सुनिश्चित करती है कि पोर्टफोलियो में शामिल ऋण योजनाओं की निवेश रेटिंग सबसे ऊंची यानी एएए या पी 1 + जैसी जरूर हो। एफएमपी शुरूआत में ही सबसे ऊंची रेटिंग वाली ऋण योजनाओं में निवेश करते हैं, हालांकि किन डेट योजनाओं में निवेश किया जाए, इसकी उन्हें इसका चुनाव करने की खुली छूट होती है। सीपीओएस की तरह ही एफएमपी के लिए भी यह आवश्यक है कि वे अपने पोर्टफोलियो की किसी क्रेडिट रेटिंग एजेंसी से रेटिंग कराएं। सीपीओएस तय अवधि के होते हैं। इसमें से निवेशक बीच में ही अपना पैसा नहीं निकाल सकते। इसलिए निवेशकों को सलाह दी जाती है कि सीपीओएस में तभी निवेश करें जब उनके पास फालतू पैसा हो और जिसे वे लंबे समय के लिए लगा सकते हों। दूसरी तरफ एफएमपी के निवेशकों को यह विकल्प होता है कि वे चाहें तो परिपक्वता से पहले ही वे अपना निवेश वापस ले सकते हैं। हालांकि परिपक्वता से पहले योजना से बाहर होने पर निकासी प्रभार लगाया जा सकता है। यह प्रभार फंड हाउस लगाते हैं। निवेशक यह समझकर ज्यादा बेहतर निर्णय कर सकते हैं कि सीपीओएस एवं एफएमपी दोनों अलग-अलग प्रकार के निवेशकों के लिए है। वैसे निवेशक जो पूंजी की सुरक्षा को पूंजी वृद्धि की अपेक्षा ज्यादा तरजीह देते हैं सीपीओएस का चयन कर सकते हैं। दूसरी तरफ वैसे निवेशक जो एक निश्चित आय चाहते हैं, एफएमपी का चुनाव कर सकते हैं। निवेशकों के लिए यह जरूरी है कि वे दोनों ही निवेश विकल्पों को ठीक से जान लें और उसके बाद अपनी जरूरत के अनुसार निवेश करें।